रविवार, 5 जून 2016

Mathura हिंसा: जांच से पहले ही नतीजा निकाल लेने की जल्‍दबाजी किसलिए ?

Mathura की हिंसा के प्रमुख खलनायक और दोनों नायक अब इस दुनिया में नहीं रहे। रामवृक्ष नामक जो सांप दो सालों से जवाहर बाग को अपना बिल बनाकर रह रहा था, उसके भी मारे जाने की पुष्‍टि प्रदेश पुलिस के मुखिया ने स्‍वयं कर दी। अब हमेशा की तरह लकीर पीटने का दौर शुरू हो चुका है। कोई अपने ही अधीनस्‍थों से जांच कराने के नाम पर लकीर पीट रहा है तो कोई सीबीआई जांच कराने की मांग के नाम पर। यहां यह कहना तो बेमानी है कि लाशों पर राजनीति की जा रही है अथवा चुनावों को देखते हुए वोट की राजनीति का प्‍लेटफॉर्म तैयार किया जा रहा है। राजनेता हैं तो राजनीति करेंगे ही। नेता यदि राजनीति नहीं करेंगे तो कौन करेगा। सत्‍ता की खातिर वोट की राजनीति भी जरूरी है और जनता उस राजनीति का शिकार होने के लिए अभिशप्‍त है। फिलहाल इस समस्‍या का कोई हल दूर-दूर तक नजर भी नहीं आ रहा इसलिए इसका जिक्र करने से भी कोई लाभ नहीं होगा।
अभी जो जरूरी है, वह यह कि जो भी और जैसी भी जांच हो, उस जांच की दिशा क्‍या होगी।
अगर जांच की दिशा सिर्फ यह रही कि दोनों पुलिस अधिकारी कैसे और किसकी चूक से मारे गए तो सच कभी सामने नहीं आ पायेगा। सच तभी सामने आएगा जब जांच की दिशा यह रहे कि आखिर किसकी शह से एक अदना से निपट देहाती इंसान शासन, प्रशासन और यहां तक कि उस न्‍याय पालिका को भी चुनौती देता रहा जिसके सामने अधिकांश मामलों में शासन व प्रशासन भी अंतत: नतमस्‍तक होने के लिए बाध्‍य होते हैं।
सबको मालूम है कि दोनों पुलिस अधिकारी कैसे मारे गए, उनको मारने वाले कौन थे इसलिए उसके बारे में जांच करना सिर्फ मामले को हमेशा की तरह लटकाना और लोगों की आंखों में धूल झोंकने से अधिक कुछ नहीं होगा।
नहीं मालमू तो यह कि आखिर एक मामूली सा वृक्ष इतना बड़ा विषवृक्ष कैसे बन गया। कौन उसे खाद दे रहा था और किसने उसे पानी दिया।
इतना अंदाज तो लोगों को लग चुका है कि सत्‍ता के गलियारों से उसे पूरा संरक्षण प्राप्‍त था और उसी संरक्षण के बल पर वह जवाहर बाग में बैठकर अपनी समानांतर सत्‍ता कायम कर पाया किंतु अब जरूरी है कि उस संरक्षणदाता का चेहरा भी बेनकाब हो क्‍योंकि जब तक ऐसे चेहरे बेनकाब नहीं होंगे तब तक कहीं न कहीं कोई न कोई जांबाज अफसर राजनीति की भेंट चढ़ता रहेगा।
जांच इस बात की होनी चाहिए कि किस वजह से मथुरा का पुलिस प्रशासन पूरे दो साल तक हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहा और तमाशबीन बना रहा। ऐसी क्‍या मजबूरी थी कोर्ट की अवमानना तक बात पहुंच जाने के बावजूद जिले में तैनात पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी असहायों की तरह लखनऊ की ओर टकटकी लगाए देखते रहे। वो कौन से अधिकारी थे जो यहां से जवाहर बाग के संबंध में जाने वाली हर चिठ्ठी को डस्‍टबिन के हवाले करते रहे और किसके इशारे पर करते रहे।
280 एकड़ में फैले सरकारी बाग को कब्‍जाने का ख्‍वाब देखने वाले रामवृक्ष यादव और उसके गुर्गों को रसद-पानी कहां से आ रहा था और उसे यह सब मुहैया कराने वाले का मकसद क्‍या था।
आखिर वह भी तो रामवृक्ष से कुछ न कुछ जरूर चाहता होगा। वह कोई व्‍यक्‍ति विशेष था अथवा कोई समूह या पूरी संस्‍था।
अगर कोई अब भी यह कहे कि रामवृक्ष को कहीं से कोई संरक्षण प्राप्‍त नहीं था और वह एक सिरफिरा सनकी इंसानभर था, तो इससे बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं हो सकता। ऐसा कहना सिर्फ और सिर्फ उस सच को छिपाने की कोशिश भर है जिसका पता लग जाने पर उत्‍तर प्रदेश तो क्‍या, देश के अंदर भूचाल आ सकता है।
सच को छिपाने के लिए ही रामवृक्ष की गिरफ्तारी नहीं की गई, सच को छिपाने के लिए ही पहले दिन से जांच बदलनी शुरू हो गई। सच को सामने लाने की मंशा होती तो सत्‍ता पर काबिज लोग इस आशय की थोथी दलील नहीं देते कि सीबीआई जांच में देरी होगी इसलिए प्रदेश सरकार सीबीआई जांच कराने की हिमायती नहीं है और अपने अधिकारियों से ही जांच कराना चाहती है।
एक सच यह भी है कि मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव पूरी घटना के लिए अधिकारियों को बिना जांच के ही जिम्‍मेदार ठहरा देते हैं और कहते हैं कि चूक तो उनसे हुई है, जबकि मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार पूरी तरह मुख्‍यमंत्री के निष्‍कर्ष को खारिज कर देते हैं। वह हर बात का सिलसिलेवार जवाब मीडिया को देते हैं और बताते हैं कि न सिर्फ उनके कार्यकाल में बल्‍कि उनसे पहले भी जितने अधिकारी रहे, सभी ने जवाहर बाग से अतिक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए यथासंभव प्रयास किए।
जिलाधिकारी का यह कथन बहुत कुछ कहता है और मुख्‍यमंत्री का कथन स्‍पष्‍ट करता है कि वह जांच से पहले ही नतीजे पर पहुंचने की जल्‍दबाजी में हैं। अब ऐसा क्‍यों है और क्‍यों वह घटना के दूसरे दिन ही इस निष्‍कर्ष पर जा पहुंचे कि अधिकारियों की चूक ही हिंसा के लिए जिम्‍मेदार है, इसका भी जवाब वही दे सकते हैं।
बहरहाल, कृष्‍ण की नगरी पर दो जांबाज पुलिस अधिकारियों की वीभत्‍स हत्‍या का कलंक तो लग ही गया। यह कलंक शायद ही कभी मिटे, लेकिन यदि इस कलंक से भी सबक सीखना है तो जांच से ज्‍यादा जरूरी है जांच की दिशा तय करना। एकबार यदि जांच सही दिशा में शुरू हो गई तो निश्‍चित ही नतीजा भी अपेक्षा के अनुरूप निकलेगा।
विभिन्‍न राजनीतिक दल, अपनी राजनीति करें। चुनावों के मद्देनजर पूरे घटनाक्रम को वोट की राजनीति में तब्‍दील करने की भी कोशिश करें, आरोप-प्रत्‍यारोप भी जारी रखें लेकिन सिर्फ इतना प्रयास जरूर करें कि पूरा सच सामने आ सके।
आज एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसआई संतोष यादव की शहादत को सलाम करने वाले और उन्‍हें विनम्र श्रंद्धाजलि अर्पित करने वाले भी यदि थोड़ी सी कोशिश जांच की दिशा तय कराने के लिए कर दें। उसके लिए धरना-प्रदर्शन सहित जो कुछ करना हो करें, तो निश्‍चित जानिए कि फिर सत्‍ता के संरक्षण में छिपकर न तो रामवृक्ष जैसा कोई भेड़िया मुकुल व संतोष जैसे शेरों का शिकार कर पायेगा और न सत्‍ता पर काबिज कोई रंगा हुआ सियार किसी भेड़िए अथवा भेड़ियों के झुण्‍ड को बेखौफ संरक्षण दे पायेगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

बड़ा सवाल: कथित सत्‍याग्रहियों को Mathura में ”जवाहर बाग” ही क्‍यों दिया धरने के लिए ?

2 साल पहले Mathura में उद्यान विभाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर कथित सत्‍याग्रहियों द्वारा लगाया गया मजमा 2 पुलिस अधिकारियों सहित 2 दर्जन लोगों को मौत की नींद सुलाने के बाद समाप्‍त तो हो गया, लेकिन यह मजमा अपने पीछे इतने सवाल छोड़ गया है जो वर्षों तक शासन और प्रशासन का पीछा करते रहेंगे।
मीडिया अपने स्‍तर से इन प्रश्‍नों को आज भी उछाल रहा है और शायद आगे भी उछालता रहे, किंतु अब उसमें वो ताकत नहीं रही जो शासन-प्रशासन को प्रश्‍नों का जवाब देने के लिए बाध्‍य कर सके।
दरअसल, पेशेवर मीडिया की हैसियत फिलहाल उस मदारी की तरह हो गई है जो अपनी डुगडुगी बजाकर लोगों की भीड़ तो इकठ्ठी कर सकता है किंतु उसकी झोली में नया कुछ दिखाने को होता नहीं है।
कल भी मथुरा कांड की रिपोटिंग करने आए एनडीटीवी के रिपोर्टर रवीश रंजन, स्‍टूडियो में बैठे रवीश कुमार को बता रहे थे कि कई बार फोन करने के बावजूद जिलाधिकारी मथुरा राजेश कुमार ने उनका फोन नहीं उठाया।
यह स्‍थिति अकेले किसी एक टीवी रिपोर्टर या अखबार से जुड़े व्‍यक्‍ति की नहीं है। यह स्‍थिति है पूरे मीडिया जगत की है।
सच्‍ची बात तो यह है कि अब शासन और प्रशासन में बैठे लोग मीडिया का इस्‍तेमाल केवल अपनी बात कहने के लिए करते हैं, बात सुनने के लिए नहीं।
मीडिया का सरोकार चूंकि सीधे जनता से होता है और वह वही प्रश्‍न उठाता है जिनके बारे में जनता की जिज्ञासा होती है इसलिए शासन-प्रशासन के लोग उनकी बात न सुनके सिर्फ अपनी बात पूरी करने के साथ उठ खड़े होते हैं जबकि कुछ वर्षों पहले तक ऐसा नहीं था।
तब मीडिया के प्रति भी शासन व प्रशासन की जवाबदेही थी और उसके द्वारा उठाए जाने वाले प्रश्‍नों का वो जवाब देता था। अब जवाबदेही किसी की रह ही नहीं गई, या यूं कहें कि जवाबदेही ओढ़कर कोई फंसना नहीं चाहता।
बहरहाल, इस सब के बावजूद यक्ष प्रश्‍न हमेशा खड़े होते रहे हैं और हमेशा खड़े होते रहेंगे।
mathuraजवाहर बाग प्रकरण में भी कई यक्ष प्रश्‍न खड़े हैं। इस प्रकरण की शुरूआत से समीक्षा की जाए तो सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि कथित सत्‍याग्रहियों को धरना देने के लिए ”जवाहर बाग” उपलब्‍ध होने का प्रस्‍ताव तत्‍कालीन जिलाधिकारी ने अपनी ओर से दिया था अथवा ऐसा कोई प्रस्‍ताव कथित सत्‍याग्रही खुद लेकर पहुंचे थे?
यह प्रश्‍न इसलिए महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि उद्यान विभाग के 280 एकड़ क्षेत्र में फैले जवाहर बाग के अंदर धरना-प्रदर्शन करने की इजाजत न तो पहले कभी जिला प्रशासन द्वारा दी गई और न कथित सत्‍याग्रहियों के बाद किसी अन्‍य को इजाजत मिली।
ऐसे में यह सवाल बड़ा हो जाता है कि धरने के लिए आखिर जवाहर बाग ही क्‍यों चुना गया ?
जवाहर बाग न तो मुख्‍य सड़क के किनारे है और न वहां बैठकर जनता से सीधे संवाद किया जा सकता है, फिर धरने के लिए उसका चयन समझ से परे है।
जवाहर बाग को धरने के लिए चयनित करने की तह में यदि जाया जाए तो एक बात जरूर सामने आती है कि जवाहर बाग ही नहीं, मथुरा स्‍थित उद्यान विभाग की सभी जमीनों पर हमेशा ऐसे तत्‍वों की नजर रही है जो शासन-प्रशासन के सहयोग से उन्‍हें कब्‍जाना चाहते हैं।
इस मामले में सबसे बड़ा उदाहरण मथुरा-वृंदावन रोड स्‍थित उद्यान विभाग की करीब 43.15 एकड़ वह जमीन है जिस पर आज ”वात्‍सल्‍य ग्राम” बसा हुआ है। कभी विश्‍व हिन्दू परिषद् की फायरब्रांड नेत्री के रूप में पहचान रखने वाली साध्‍वी ऋतम्‍भरा का ”वात्‍सल्‍य ग्राम”। साध्‍वी ऋतम्‍भरा को उद्यान विभाग की यह बेशकीमती जमीन मात्र 1 रुपया प्रति एकड़ के सालाना पट्टे पर प्रदेश की तत्‍कालीन भाजपा सरकार ने दी थी।
साध्‍वी ऋतम्‍भरा के लिए पहले इस जमीन के पट्टे पर नवंबर 1992 में यूपी के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री कल्‍याण सिंह ने हस्‍ताक्षर किए थे किंतु बाद में मुलायम सिंह सरकार ने यह पट्टा निरस्‍त कर दिया। इसके बाद जब वर्ष 1999 में रामप्रसाद गुप्‍त के नेतृत्‍व वाली भाजपा की सरकार यूपी पर काबिज हुई तो ऋतम्‍भरा के लिए आखिर इस 43.15 एकड़ जमीन का पट्टा कर दिया गया।
तब से साध्‍वी ऋतम्‍भरा का यही स्‍थाई निवास है और यहीं वह अपने धार्मिक व राजनीतिक क्रिया-कलापों को अंजाम देती हैं। समाज सेवा के नाम पर यदि उनके बारे में मथुरा की जनता से पूछा जाए तो शायद ही कोई कुछ बता पायेगा क्‍योंकि आज तक उन्‍होंने समाज के लिए कोई उल्‍लेखनीय काम किया ही नहीं। उद्यान विभाग की करीब 44 एकड़ जमीन अब पूरी तरह साध्‍वी ऋतम्‍भरा की निजी जागीर बन चुकी है और उसमें उनकी बिना इजाजत के कोई एक पल नहीं ठहर सकता।
जिस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्‍सा अपनी पूरी जिंदगी दो कमरों का निजी छोटा सा मकान बनाने के सपने देखते बिता देता हो, उस देश में राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त लोग हजारों मकान बनने लायक जमीन पर इसी तरह कुंडली मारकर बैठे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं पूछा जाता।
इसी तरह बात कांग्रेस के शासन में चाहे हरियाणा, पंजाब, राजस्‍थान और दिल्‍ली के अंदर नेशनल हेरल्‍ड अखबार के नाम पर आवंटित बेशकीमती जमीनों की हो अथवा सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट बाड्रा को व्‍यापार करने के लिए हेरफेर करके दी गई जमीनों की, सबका सार यही निकलता है कि जिसकी लाठी, उसकी भैंस। सत्‍ता का लाभ सत्‍ता पर काबिज लोग तो उठाते ही हैं, सत्‍ता के गलियारों तक पैठ बनाने वाले लोग भी खूब उठाते हैं।
इन हालातों में खुद को स्‍वाधीन भारत सुभाष सेना का स्‍वयंभू नेता बताने वाला और बाबा जयगुरुदेव का अनुयायी रामवृक्ष यादव यदि 280 एकड़ के जवाहर बाग को पूरी तरह कब्‍जाने का सपना देखने लगा था, तो कौन सी बड़ी बात थी।
आखिर उसके गुरू बाबा जयगुरुदेव का किसी ने क्‍या बिगाड़ लिया। न तो बाबा जयगुरुदेव के जीते जी उनके द्वारा कब्‍जाई गई सैकड़ों करोड़ रुपए कीमत की जमीन को कोई कब्‍जामुक्‍त करा पाया, और न उनके मरने बाद किसी की हिम्‍मत है कि कोई उधर आंख उठाकर भी देखे। क्‍या यह सब सत्‍ताधारियों के संरक्षण बिना संभव है। क्‍या सत्‍ताधारी लोगों की इस सब में परोक्ष अथवा अपरोक्ष भागीदारी नहीं है।
रामवृक्ष यादव के पीछे कोई तो ऐसी ताकत थी जिसके बल पर वह जिला प्रशासन की नाक के नीचे सैनिक क्षेत्र में 280 एकड़ की जमीन को कब्‍जाने की जुर्रत कर पाया। कोई तो था जिसके कारण जिला प्रशासन उसके सामने तब भी मिमियाता रहा जब कोर्ट ने अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर दी थी।
कोई तो रहा होगा जो हजारों लोगों के खाने-पीने का इंतजाम कर रहा था और उसके लिए अंदर ही अंदर हथियारों का बंदोबस्‍त भी करा रहा था।
बस, यही वो सवाल हैं जिनके उत्‍तर यदि समय रहते मिल जाएं तो न किसी जांच की आवश्‍यकता रह जाती है और न जांच कमीशन की।
बेहद तल्‍ख लेकिन सच्‍ची बात तो यह है कि जवाहर बाग को अब भी कब्‍जामुक्‍त कराने में न हाईकोर्ट के आदेश-निर्देश किसी काम आए और न जिला प्रशासन काम आया। जवाहर बाग यदि अतिक्रमणकारियों के कब्‍जे से मुक्‍त हुआ है तो सिर्फ और सिर्फ एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष यादव की शहादत से।
यदि जवाहर बाग को कब्‍जामुक्‍त कराने के लिए इन दोनों पुलिस अफसरों ने अपनी जान नहीं गंवाई होती तो निश्‍चित जानिए कि आज भी रामवृक्ष यादव अपने गुर्गों के साथ जवाहर बाग पर काबिज होता और पुलिस प्रशासन किसी नए बहाने के साथ बाहर खड़ा होकर डंडे फटकार रहा होता।
मुकुल द्विवेदी और संतोष यादव की शहादत ने जवाहर बाग को तो कब्‍जामुक्‍त करा ही दिया, साथ ही उन लोगों के अरमानों पर भी पानी फेर दिया जो इस बेशकीमती जमीन को हड़पने की पूरी प्‍लानिंग कर चुके थे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

कथित सत्‍याग्रहियों को 99 साल के पट्टे पर जवाहर बाग देने की तैयारी कर चुकी थी Akhilesh Government

-एडवोकेट विजयपाल तोमर के प्रयासों ने नहीं पूरी होने दी Akhilesh Government की मंशा
-प्रदेश सरकार का संरक्षण ही बना हुआ था प्रशासन के ढीले रवैये की वजह
-विजयपाल तोमर ने अवमानना की कार्यवाही न की होती तो अब भी खाली न होता जवाहर बाग
मथुरा। 280 एकड़ में फैले उद्यान विभाग के जिस ”जवाहर बाग” से अवैध कब्‍जा हटवाते हुए कल दो जांबाज पुलिस अफसर शहीद हो गए और दर्जनों पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हुए हैं, उसे कथित सत्‍याग्रहियों को 99 साल के पट्टे पर देने की प्रदेश सरकार ने पूरी तैयारी कर ली थी।
इस बात का दावा बार एसोसिएशन मथुरा के पूर्व अध्‍यक्ष और इस पूरे मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट तक ले जाने वाले एडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर ने किया है।
एडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर का कहना है कि यदि वह समय रहते जवाहर बाग पर अवैध कब्‍जे के मामले को हाईकोर्ट में नहीं ले जाते तो प्रदेश सरकार इस बेशकीमती सरकारी जमीन का पट्टा मात्र 1 रुपया सालाना प्रति एकड़ के हिसाब से कथित सत्‍याग्रहियों के नाम कर चुकी होती।
dmएडवोकेट विजयपाल तोमर को इस आशय की जानकारी सारा मामला हाईकोर्ट में ले जाने के तत्‍काल बाद ही हो गई थी और इसीलिए हाईकोर्ट ने उस पर कड़ा संज्ञान लेते हुए शासन प्रशासन को जवाहर बाग खाली कराने के आदेश दिए।
एडवोकेट विजयपाल तोमर के अनुसार मथुरा का जिला प्रशासन पूरी तरह प्रदेश सरकार के दबाव में था और इसीलिए वह चाहते हुए तथा कोर्ट के सख्‍त आदेश होने के बावजूद कथित सत्‍याग्रहियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही नहीं कर पा रहा था जबकि प्रशासन के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का मामला भी शुरू हो चुका था।
विजयपाल तोमर का कहना है कि कल भी जवाहर बाग को कथित सत्‍याग्रहियों के कब्‍जे से मुक्‍त कराने में अहम भूमिका पुलिस व आरएएफ के उन जवानों ने निभाई है, जो अभी-अभी ट्रेनिंग पूरी करके आए हैं और जिन्‍होंने अपने अफसरों को कथित सत्‍याग्रहियों की एकतरफा फायरिंग में घायल होते व दम तोड़ते देखा था अन्‍यथा पुलिस प्रशासन तो कल भी जवाहर बाग को शायद ही कब्‍जामुक्‍त करा पाता।
हालांकि इस सबके बावजूद एडवोकेट विजयपाल तोमर मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार तथा एसएसपी राकेश सिंह को इस बात के लिए धन्‍यवाद देते हैं कि शासन स्‍तर से भारी दबाव में होने पर भी दोनों अधिकारियों ने जवाहर बाग को खाली कराने के लिए हरसंभव प्रयास किया। यह बात अलग है कि शासन के दबाव में वह कब्‍जाधारियों के खिलाफ उतनी सख्‍त कार्यवाही नहीं कर सके, जितनी सख्‍ती की दरकार थी।
एडवोकेट विजयपाल तोमर का कहना है कि यदि पूर्व में ही कब्‍जाधारियों के ऊपर आवश्‍यक बल प्रयोग किया गया होता तो न उन्‍हें इतना असलाह जमा करने का अवसर मिलता और न वो पुलिस प्रशासन पर एकतरफा हमलावर होने की हिम्‍मत जुटा पाते।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जवाहर बाग को खाली करवाने में एडवोकेट विजयपाल तोमर ने बड़ी भूमिका निभाई क्‍योंकि वह जवाहर बाग पर कब्‍जा होने के कुछ समय बाद ही इस मामले को इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ले गए। उनकी याचिका पर हाईकोर्ट ने 20 मई 2015 को ही सरकारी बाग खाली कराने के आदेश शासन-प्रशासन को दे दिए थे किंतु शासन के दबाव में प्रशासन यथासंभव नरमी बरतता रहा।
हारकर विजयपाल तोमर ने जब शासन-प्रशासन के खिलाफ 22 जनवरी 2016 को न्‍यायालय की अवमानना का केस शुरू किया, तब शासन प्रशासन सक्रिय हुआ लेकिन उसके बाद भी 4 महीने पर्याप्‍त फोर्स का इंतजाम न होने के बहाने गुजार दिए जिससे कब्‍जाधारियों को अपनी ताकत बढ़ाने तथा अवैध असलाह जमा करने का पूरा मौका मिला।
policeएडवोकेट विजयपाल तोमर की बात में इसलिए भी दम लगता है कि कब्‍जा करने वाले कथित सत्‍याग्रहियों का संबंध बाबा जयगुरुदेव में आस्‍था रखने वाले एक गुट से ही बताया जाता है। हालांकि जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग इस बात का खंडन करते हैं।
उल्‍लेखनीय है कि जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्‍था की मथुरा में बेहिसाब चल व अचल संपत्‍ति है। जयगुरूदेव के जीवित रहते तथा अब उसके बाद भी जिन जमीनों पर आज जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्‍था काबिज है, उनमें से अधिकांश जमीन विवादित हैं और उनके मामले विभिन्‍न न्‍यायालयों में लंबित हैं। इन जमीनों में सर्वाधिक जमीन ओद्यौगिक एरिया की है जिसे कभी उद्योग विभाग ने विभिन्‍न उद्यमियों के नाम एलॉट किया था।
जवाहर बाग पर कब्‍जा करने वाले कथित सत्‍याग्रहियों की प्रमुख मांग में यह भी शामिल था कि जिला प्रशासन उन्‍हें बाबा जयगुरुदेव का मृत्‍यु प्रमाणपत्र उपलब्‍ध कराए। कथित सत्‍याग्रहियों का कहना था कि बाबा जयगुरूदेव की मौत हुई ही नहीं है और जिस व्‍यक्‍ति को उनके नाम पर मृत दर्शाया गया था, वह कोई और था। बाबा जयगुरूदेव को उनके कथित अनुयायियों ने उनकी सारी संपत्‍ति हड़पने के लिए कहीं गायब कर दिया है।
कथित सत्‍याग्रहियों की इस मांग से यह तो साबित होता है कि किसी न किसी स्‍तर पर बाबा जयगुरुदेव तथा उनकी धर्म प्रचारक संस्‍था से कथित सत्‍याग्रहियों का कोई न कोई संबंध जरूर था अन्‍यथा उन्‍हें बाबा जयगुरुदेव की मौत से लेना-देना क्‍यों होता।
इस सबके अतिरिक्‍त सरकारी जमीन कब्‍जाने की उनकी कोशिश भी जयगुरूदेव व उनके अनुयायियों की मंशा से मेल खाती है।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि जवाहर बाग को 2 साल से कब्‍जाए बैठे कथित सत्‍याग्रहियों के पास हर दिन हजारों लोगों के लिए रसद का इंतजाम कहां से हो रहा था। कौन कर रहा था यह इंतजाम ?
इस सवाल का जवाब आज 2 साल बाद भी जिला प्रशासन के पास क्‍यों नहीं है। यही वो सवाल है जिससे एडवोकेट विजयपाल तोमर के इस दावे की पुष्‍टि होती है कि कथित सत्‍याग्रहियों को प्रदेश सरकार का संरक्षण प्राप्‍त था और प्रदेश सरकार जवाहर बाग को उन्‍हें 99 साल के पट्टे पर देने की पूरी तैयारी कर चुकी थी।
यूं भी कथित सत्‍याग्रहियों का नेता कभी बाबा जयगुरुदेव के काफी निकट रहा था, इस बात की पुष्‍टि तो हो चुकी है लिहाजा आज जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग भले ही कथित सत्‍याग्रहियों से अपना कोई संबंध न होने की बात कहें लेकिन उनकी बात पूरी तरह सच नहीं है।
कथित सत्‍याग्रहियों की कार्यशैली से साफ जाहिर था कि वह उसी तरह जवाहर बाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर काबिज होना चाहते थे जिस तरह बाबा जयगुरुदेव के रहते उनके अनुयायियों ने वर्षों पूर्व मथुरा के इंडस्‍ट्री एरिया तथा नेशनल हाईवे नंबर- 2 के इर्द-गिर्द की सैकड़ों एकड़ जमीन कब्‍जा ली थी और जिस पर आज तक मुकद्दमे चल रहे हैं।
स्‍वयं बाबा जयगुरुदेव का भी आपराधिक इतिहास था।
मूल रूप से इटावा जनपद के बकेवर थाना क्षेत्र अंतर्गत गांव खितौरा निवासी बाबा जयगुरुदेव के पिता का नाम रामसिंह था। बाबा पर उनके गृह जनपद ही नहीं, लखनऊ में भी आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हुए और उनमें सजा हुई। मुकद्दमा अपराध संख्‍या 226 धारा 379 थाना कोतवाली इटावा के तहत बाबा को 13 अक्‍टूबर सन् 1939 में छ: माह के कारावास की सजा हुई। इसके बाद लखनऊ के थाना वजीरगंज में अपराध संख्‍या 318 धारा 381 के तहत 25 नवम्‍बर सन् 1939 को डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।
यह बात दीगर है कि बाबा जयगुरुदेव ने जब से आध्‍यात्‍मिक दुनिया में खुद को स्‍थापित किया, तब से कभी कानून के लंबे हाथ भी उनके गिरेबां तक नहीं पहुंच सके।
इस दौरान एक सभा में खुद को नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस बताने पर बाबा का भारी अपमान हुआ और आपातकाल में उन्‍हें जेल की हवा भी खानी पड़ी लेकिन उसके बाद वोट बैंक की राजनीति के चलते इंदिरा गांधी तक बाबा के दर पर आने को मजबूर हुईं।
गौरतलब है कि बाबा जयगुरुदेव और उनकी धर्मप्रचारक संस्‍था से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता और मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव का नाम जुड़ता रहा है। शिवपाल यादव समय-समय पर बाबा के पास आते भी रहते थे। कहा जाता है कि बाबा के उत्‍तराधिकारी के तौर पर उनके ड्राइवर पंकज को काबिज कराने में भी शिवपाल यादव की अहम भूमिका रही है। वही पंकज जो आज पंकज बाबा के नाम से बाबा के उत्‍तराधिकारी बने बैठे हैं।
प्रदेश की सत्‍ता पर काबिज समाजवादी कुनबे की बाबा जयगुरुदेव से निकटता का एक बड़ा कारण बाबा जयगुरुदेव का सजातीय होना भी रहा है।
उधर जिस ग्रुप से कथित सत्‍याग्रहियों का संबंध बताया जा रहा है, उस ग्रुप के तार उस उमाकांत तिवारी से भी जाकर जुड़ते हैं जो कभी बाबा जयगुरुदेव का दाहिना हाथ हुआ करता था और जिसकी मर्जी के बिना बाबा जयगुरुदेव एक कदम आगे नहीं बढ़ते थे।
जिस दौरान बाबा जयगुरूदेव और उनकी संस्‍था का उमाकांत तिवारी सर्वेसर्वा हुआ करता था, उन दिनों भी शिवपाल यादव का मथुरा स्‍थित जयगुरुदेव आश्रम में आना-जाना था इसलिए ऐसा संभव नहीं है कि शिवपाल यादव तथा समाजवादी कुनबा उमाकांत तिवारी से अपरिचित हो।
बताया जाता है कि जवाहर बाग 99 साल के पट्टे पर दूसरे गुट को दिलाने के पीछे भी समाजवादी कुनबे की यही मंशा थी कि एक ओर इससे जहां दोनों गुटों के बीच का विवाद हमेशा के लिए खत्‍म हो जायेगा, वहीं दूसरी ओर दूसरा गुट भी इस तरह समाजवादी पार्टी के कब्‍जे में होगा। पूर्व में भी समाजवादी पार्टी द्वारा दोनों गुटों के बीच इसीलिए समझौते के प्रयास किए गए बताए।
दरअसल, जवाहर बाग की 280 एकड़ जमीन कलक्‍ट्रेट क्षेत्र में आगरा रोड पर है और इसलिए बेशकीमती है। पूरी जमीन फलदार वृक्षों से अटी पड़ी है और इससे सालाना करोड़ों रुपए की आमदनी होती रही है। यह जमीन सेना की छावनी के क्षेत्र से भी जुड़ी है और पूरा प्रशासनिक अमला इसी के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। यहां तक कि जिले की जुडीशियरी भी यहीं रहती है।
अब जरा विचार कीजिए कि ऐसे क्षेत्र में कैसे तो अवैध कब्‍जा हो गया और कैसे कथित सत्‍याग्रहियों ने इतनी ताकत इकठ्ठी कर ली कि पुलिस-प्रशासन पर बेखौफ हमलावर हो सकें।
जाहिर है कि यह सब किसी सामर्थ्‍यवान का संरक्षण पाए बिना संभव नहीं है।
कल एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष कुमार सिंह की शहादत के बाद सक्रिय हुए पुलिस प्रशासन ने जितनी तादाद में जवाहर बाग से अवैध असलाह बरामद किया है, वह न तो एक-दो दिन में एकत्र होना संभव है और ना ही किसी के संरक्षण बिना संभव है। पुलिस प्रशासन की ठीक नाक के नीचे इतनी बड़ी संख्‍या में अवैध हथियारों का जखीरा इकठ्ठा कर लेना, इस बात का ठोस सबूत है कि कथित सत्‍याग्रहियों को उच्‍च स्‍तर से संरक्षण प्राप्‍त था।
जहां तक सवाल कल के घटनाक्रम का है तो आज उत्‍तर प्रदेश के डीजीपी जाविद अहमद ने प्रेस कांफ्रेस में मथुरा हिंसा के तहत कुल 24 लोगों के मारे जाने की पुष्‍टि की है।
उधर अपुष्‍ट खबरों तथा अफवाहों का बाजार गर्म है। कोई कह रहा है सैकड़ों की संख्‍या में सत्‍याग्रही भी मारे गए हैं और उनकी लाशें गायब कर दी गई हैं। कोई कह रहा है कि जिन पुलिसकर्मियों को सत्‍याग्रही उठा ले गए थे, उनका अब तक पता नहीं है।
इसी प्रकार कथित सत्‍याग्रहियों के नेता रामवृक्ष यादव की भी कोई खबर जिला प्रशासन नहीं दे रहा इसलिए उसे लेकर भी अफवाहों का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उसे कल ही पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। अपने अफसरों की शहादत से आक्रोशित पुलिसजनों ने उसके ऊपर कारतूसों की पूरी मैगजीन खाली कर दी थी। एक अफवाह यह भी है कि हाईवे स्‍थित नीरा राडिया के नयति हॉस्‍पीटल में भी लाशों का ऐसा ढेर देखा गया है जिसकी शिनाख्‍त करने वाला कोई नहीं है।
सच्‍चाई क्‍या है और कभी वह सामने आयेगी भी या नहीं, इस बारे में तो कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है लेकिन एक बात जरूर कही जा सकती है कि पुलिस-प्रशासन पिछले चार महीनों से जिस मंथर गति के साथ कार्यवाही कर रहा था, उसके पीछे कोई न कोई शक्‍ति जरूर थी। चार महीने की कोशिशों के बाद भी कथित सत्‍याग्रहियों को खदेड़ने के लिए शासन स्‍तर से पर्याप्‍त सुरक्षाबल उपलब्‍ध न कराना, किसी न किसी सोची-समझी रणनीति की ओर इशारा करता है।
मथुरा की जनता और सत्‍याग्रहियों के खिलाफ पिछले काफी समय से आवाज बुलंद करने वाले विभिन्‍न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों का भी मानना है कि यदि सारा मामला मथुरा की पुलिस व प्रशासन के जिम्‍मे छोड़ दिया जाता और वह बिना दबाव के अपने स्‍तर से कार्यवाही करते तो न 2 जांबाज पुलिस अफसरों को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते और न इतना रक्‍तपात हुआ होता।
पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच से भी छनकर आ रही खबरें इस बात की पुष्‍टि करती हैं कि 2017 में प्रस्‍तावित प्रदेश के विधानसभा चुनाव तथा उनके मद्देनजर वोट की राजनीति को देखते हुए शासन स्‍तर से जिला प्रशासन को इस आशय की स्‍पष्‍ट हिदायत दी गई थी कि कथित सत्‍याग्रहियों के खिलाफ किसी प्रकार की सख्‍ती न बरती जाए।
प्रदेश सरकार को डर था कि जवाहर बाग को खाली कराने के लिए बरती गई सख्‍ती 2017 के चुनावों में वोट की राजनीति को प्रभावित कर सकती है और उसका लाभ विपक्षी दल उठा सकते हैं।
पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच की इन खबरों में इसलिए भी सत्‍यता मालूम होती है क्‍योंकि एक चारदीवारी के अंदर सिमटे बैठे मात्र तीन-चार हजार कथित सत्‍याग्रहियों के सामने जिस तरह मथुरा का जिला प्रशासन असहाय व लाचार नजर आ रहा था, वह किसी की भी समझ से परे था। ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी अपनी कुर्सी व मथुरा में अपनी तैनाती बचाने के लिए ही कवायद कर रहे थे, न कि 280 एकड़ में फैले सरकारी जवाहर बाग को खाली कराने की कोशिश में लगे थे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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