रविवार, 5 जून 2016

बड़ा सवाल: कथित सत्‍याग्रहियों को Mathura में ”जवाहर बाग” ही क्‍यों दिया धरने के लिए ?

2 साल पहले Mathura में उद्यान विभाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर कथित सत्‍याग्रहियों द्वारा लगाया गया मजमा 2 पुलिस अधिकारियों सहित 2 दर्जन लोगों को मौत की नींद सुलाने के बाद समाप्‍त तो हो गया, लेकिन यह मजमा अपने पीछे इतने सवाल छोड़ गया है जो वर्षों तक शासन और प्रशासन का पीछा करते रहेंगे।
मीडिया अपने स्‍तर से इन प्रश्‍नों को आज भी उछाल रहा है और शायद आगे भी उछालता रहे, किंतु अब उसमें वो ताकत नहीं रही जो शासन-प्रशासन को प्रश्‍नों का जवाब देने के लिए बाध्‍य कर सके।
दरअसल, पेशेवर मीडिया की हैसियत फिलहाल उस मदारी की तरह हो गई है जो अपनी डुगडुगी बजाकर लोगों की भीड़ तो इकठ्ठी कर सकता है किंतु उसकी झोली में नया कुछ दिखाने को होता नहीं है।
कल भी मथुरा कांड की रिपोटिंग करने आए एनडीटीवी के रिपोर्टर रवीश रंजन, स्‍टूडियो में बैठे रवीश कुमार को बता रहे थे कि कई बार फोन करने के बावजूद जिलाधिकारी मथुरा राजेश कुमार ने उनका फोन नहीं उठाया।
यह स्‍थिति अकेले किसी एक टीवी रिपोर्टर या अखबार से जुड़े व्‍यक्‍ति की नहीं है। यह स्‍थिति है पूरे मीडिया जगत की है।
सच्‍ची बात तो यह है कि अब शासन और प्रशासन में बैठे लोग मीडिया का इस्‍तेमाल केवल अपनी बात कहने के लिए करते हैं, बात सुनने के लिए नहीं।
मीडिया का सरोकार चूंकि सीधे जनता से होता है और वह वही प्रश्‍न उठाता है जिनके बारे में जनता की जिज्ञासा होती है इसलिए शासन-प्रशासन के लोग उनकी बात न सुनके सिर्फ अपनी बात पूरी करने के साथ उठ खड़े होते हैं जबकि कुछ वर्षों पहले तक ऐसा नहीं था।
तब मीडिया के प्रति भी शासन व प्रशासन की जवाबदेही थी और उसके द्वारा उठाए जाने वाले प्रश्‍नों का वो जवाब देता था। अब जवाबदेही किसी की रह ही नहीं गई, या यूं कहें कि जवाबदेही ओढ़कर कोई फंसना नहीं चाहता।
बहरहाल, इस सब के बावजूद यक्ष प्रश्‍न हमेशा खड़े होते रहे हैं और हमेशा खड़े होते रहेंगे।
mathuraजवाहर बाग प्रकरण में भी कई यक्ष प्रश्‍न खड़े हैं। इस प्रकरण की शुरूआत से समीक्षा की जाए तो सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि कथित सत्‍याग्रहियों को धरना देने के लिए ”जवाहर बाग” उपलब्‍ध होने का प्रस्‍ताव तत्‍कालीन जिलाधिकारी ने अपनी ओर से दिया था अथवा ऐसा कोई प्रस्‍ताव कथित सत्‍याग्रही खुद लेकर पहुंचे थे?
यह प्रश्‍न इसलिए महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि उद्यान विभाग के 280 एकड़ क्षेत्र में फैले जवाहर बाग के अंदर धरना-प्रदर्शन करने की इजाजत न तो पहले कभी जिला प्रशासन द्वारा दी गई और न कथित सत्‍याग्रहियों के बाद किसी अन्‍य को इजाजत मिली।
ऐसे में यह सवाल बड़ा हो जाता है कि धरने के लिए आखिर जवाहर बाग ही क्‍यों चुना गया ?
जवाहर बाग न तो मुख्‍य सड़क के किनारे है और न वहां बैठकर जनता से सीधे संवाद किया जा सकता है, फिर धरने के लिए उसका चयन समझ से परे है।
जवाहर बाग को धरने के लिए चयनित करने की तह में यदि जाया जाए तो एक बात जरूर सामने आती है कि जवाहर बाग ही नहीं, मथुरा स्‍थित उद्यान विभाग की सभी जमीनों पर हमेशा ऐसे तत्‍वों की नजर रही है जो शासन-प्रशासन के सहयोग से उन्‍हें कब्‍जाना चाहते हैं।
इस मामले में सबसे बड़ा उदाहरण मथुरा-वृंदावन रोड स्‍थित उद्यान विभाग की करीब 43.15 एकड़ वह जमीन है जिस पर आज ”वात्‍सल्‍य ग्राम” बसा हुआ है। कभी विश्‍व हिन्दू परिषद् की फायरब्रांड नेत्री के रूप में पहचान रखने वाली साध्‍वी ऋतम्‍भरा का ”वात्‍सल्‍य ग्राम”। साध्‍वी ऋतम्‍भरा को उद्यान विभाग की यह बेशकीमती जमीन मात्र 1 रुपया प्रति एकड़ के सालाना पट्टे पर प्रदेश की तत्‍कालीन भाजपा सरकार ने दी थी।
साध्‍वी ऋतम्‍भरा के लिए पहले इस जमीन के पट्टे पर नवंबर 1992 में यूपी के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री कल्‍याण सिंह ने हस्‍ताक्षर किए थे किंतु बाद में मुलायम सिंह सरकार ने यह पट्टा निरस्‍त कर दिया। इसके बाद जब वर्ष 1999 में रामप्रसाद गुप्‍त के नेतृत्‍व वाली भाजपा की सरकार यूपी पर काबिज हुई तो ऋतम्‍भरा के लिए आखिर इस 43.15 एकड़ जमीन का पट्टा कर दिया गया।
तब से साध्‍वी ऋतम्‍भरा का यही स्‍थाई निवास है और यहीं वह अपने धार्मिक व राजनीतिक क्रिया-कलापों को अंजाम देती हैं। समाज सेवा के नाम पर यदि उनके बारे में मथुरा की जनता से पूछा जाए तो शायद ही कोई कुछ बता पायेगा क्‍योंकि आज तक उन्‍होंने समाज के लिए कोई उल्‍लेखनीय काम किया ही नहीं। उद्यान विभाग की करीब 44 एकड़ जमीन अब पूरी तरह साध्‍वी ऋतम्‍भरा की निजी जागीर बन चुकी है और उसमें उनकी बिना इजाजत के कोई एक पल नहीं ठहर सकता।
जिस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्‍सा अपनी पूरी जिंदगी दो कमरों का निजी छोटा सा मकान बनाने के सपने देखते बिता देता हो, उस देश में राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त लोग हजारों मकान बनने लायक जमीन पर इसी तरह कुंडली मारकर बैठे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं पूछा जाता।
इसी तरह बात कांग्रेस के शासन में चाहे हरियाणा, पंजाब, राजस्‍थान और दिल्‍ली के अंदर नेशनल हेरल्‍ड अखबार के नाम पर आवंटित बेशकीमती जमीनों की हो अथवा सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट बाड्रा को व्‍यापार करने के लिए हेरफेर करके दी गई जमीनों की, सबका सार यही निकलता है कि जिसकी लाठी, उसकी भैंस। सत्‍ता का लाभ सत्‍ता पर काबिज लोग तो उठाते ही हैं, सत्‍ता के गलियारों तक पैठ बनाने वाले लोग भी खूब उठाते हैं।
इन हालातों में खुद को स्‍वाधीन भारत सुभाष सेना का स्‍वयंभू नेता बताने वाला और बाबा जयगुरुदेव का अनुयायी रामवृक्ष यादव यदि 280 एकड़ के जवाहर बाग को पूरी तरह कब्‍जाने का सपना देखने लगा था, तो कौन सी बड़ी बात थी।
आखिर उसके गुरू बाबा जयगुरुदेव का किसी ने क्‍या बिगाड़ लिया। न तो बाबा जयगुरुदेव के जीते जी उनके द्वारा कब्‍जाई गई सैकड़ों करोड़ रुपए कीमत की जमीन को कोई कब्‍जामुक्‍त करा पाया, और न उनके मरने बाद किसी की हिम्‍मत है कि कोई उधर आंख उठाकर भी देखे। क्‍या यह सब सत्‍ताधारियों के संरक्षण बिना संभव है। क्‍या सत्‍ताधारी लोगों की इस सब में परोक्ष अथवा अपरोक्ष भागीदारी नहीं है।
रामवृक्ष यादव के पीछे कोई तो ऐसी ताकत थी जिसके बल पर वह जिला प्रशासन की नाक के नीचे सैनिक क्षेत्र में 280 एकड़ की जमीन को कब्‍जाने की जुर्रत कर पाया। कोई तो था जिसके कारण जिला प्रशासन उसके सामने तब भी मिमियाता रहा जब कोर्ट ने अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर दी थी।
कोई तो रहा होगा जो हजारों लोगों के खाने-पीने का इंतजाम कर रहा था और उसके लिए अंदर ही अंदर हथियारों का बंदोबस्‍त भी करा रहा था।
बस, यही वो सवाल हैं जिनके उत्‍तर यदि समय रहते मिल जाएं तो न किसी जांच की आवश्‍यकता रह जाती है और न जांच कमीशन की।
बेहद तल्‍ख लेकिन सच्‍ची बात तो यह है कि जवाहर बाग को अब भी कब्‍जामुक्‍त कराने में न हाईकोर्ट के आदेश-निर्देश किसी काम आए और न जिला प्रशासन काम आया। जवाहर बाग यदि अतिक्रमणकारियों के कब्‍जे से मुक्‍त हुआ है तो सिर्फ और सिर्फ एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष यादव की शहादत से।
यदि जवाहर बाग को कब्‍जामुक्‍त कराने के लिए इन दोनों पुलिस अफसरों ने अपनी जान नहीं गंवाई होती तो निश्‍चित जानिए कि आज भी रामवृक्ष यादव अपने गुर्गों के साथ जवाहर बाग पर काबिज होता और पुलिस प्रशासन किसी नए बहाने के साथ बाहर खड़ा होकर डंडे फटकार रहा होता।
मुकुल द्विवेदी और संतोष यादव की शहादत ने जवाहर बाग को तो कब्‍जामुक्‍त करा ही दिया, साथ ही उन लोगों के अरमानों पर भी पानी फेर दिया जो इस बेशकीमती जमीन को हड़पने की पूरी प्‍लानिंग कर चुके थे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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