शुक्रवार, 8 मई 2020

बहुत कुछ कहता है ‘कोरोना वॉरियर्स’ पत्रकार पंकज कुलश्रेष्‍ठ का ‘बलिदान’, श्रद्धांजलि देकर काम न चलाएं


Says a lot 'Corona Warriors' journalist Pankaj Kulshreshtha's 'sacrifice'

लगभग ढाई दशक से दैनिक जागरण में सेवारत और फिलहाल उप समाचार संपादक के तौर पर कार्यरत पत्रकार पंकज कुलश्रेष्‍ठ का कल देर शाम निधन हो गया। दैनिक जागरण के आगरा संस्‍करण में चौथे पन्‍ने पर छपे दो कॉलम वाले छोटे से समाचार के मुताबिक उनके कोरोना संक्रमित होने की पुष्‍टि 4 मई को हुई।
पंकज कुलश्रेष्‍ठ ‘मथुरा’ में भी करीब 8 साल दैनिक जागरण के ‘ब्‍यूरो चीफ’ रहे लिहाजा कृष्‍ण नगरी के लिए उनका नाम भली प्रकार जाना पहचाना था। यही कारण रहा कि दैनिक जागरण के मथुरा संस्‍करण में भले ही उनके निधन की खबर अगले दिन यानि ‘आज भी नहीं छपी’ और एक अन्‍य प्रमुख अखबार ने छापी भी तो कोरोना से मरने वालों की संख्‍या के साथ, बिना किसी परिचय के ढाई लाइन लिखकर। इस तरह दो प्रमुख अखबारों ने अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली और तीसरे ने इतना भी जरूरी नहीं समझा, किंतु मथुरा में विभिन्‍न माध्‍यमों से कल ही उनके निधन की सूचना सोशल मीडिया पर तैरने लगी थी।
यूं तो किसी भी पत्रकार का असमय जाना पत्रकार जगत को कभी नहीं चौंकाता क्‍योंकि पत्रकारिता का पेशा ही ऐसा है किंतु पंकज की मृत्‍यु जिन परिस्‍थितियों में हुई है, वो न सिर्फ ‘पत्रकारिता’ बल्‍कि बड़े-बड़े मीडिया संस्‍थानों और शासन-प्रशासन सहित पत्रकारों के उन तथाकथित संगठनों पर भी सवाल खड़े करती है जिनके पदाधिकारी विशुद्ध राजनेताओं की तरह आचरण करते हुए पत्रकारों के हितों की हिमायत का ढकोसला करते हैं।
आज भी बहुत कम लोग इस कड़वे सच से वाकिफ होंगे कि पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्‍तंभ सिर्फ ‘कहा जाता है’, क्‍योंकि उसे ऐसे कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्‍त नहीं हैं जैसे बाकी तीनों स्‍तंभों न्‍यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका को प्राप्‍त हैं।
देश ने पत्रकारों को पिछले 70 वर्षों से लोकतंत्र के ‘चौथे स्‍तंभ’ का ‘तथाकथित सम्‍मान’ एक झुनझुने की तरह थमा रखा है जिसे बजा-बजाकर वह यदा-कदा खुश हो लेते हैं। मजे की बात ये है कि वह झुनझुना भी ‘पत्रकारों’ के हाथ में न होकर मीडिया संस्‍थानों के हाथ में है जो किसी नजरिए से पत्रकार नहीं कहे जा सकते। वो ठीक उसी प्रकार विशुद्ध व्‍यापारी व उद्योगपति हैं जिस प्रकार कोई दूसरा व्‍यापारी अथवा उद्योगपति होता है और जिसके लिए उसके कारिंदे ‘कामगार’ होते हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो दिवतिया आयोग, शिंदे आयोग, पालेकर आयोग, बछावत आयोग, मणिसाना आयोग और उसके बाद मजीठिया वेतन आयोग तक की सिफारिशें यूं जाया नहीं होतीं और तमाम बातों का स्‍वत: संज्ञान लेने वाला सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी तमाशबीन बना न बैठा होता।
क्‍या कहती हैं इन आयोगों की सिफारिशें और सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2014 को अखबारों एवं समाचार एजेंसियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू करने का आदेश दिया और कहा कि वे अपने कर्मचारियों को संशोधित पे स्केल के हिसाब से भुगतान करें।
न्यायालय के आदेश के अनुसार यह वेतन आयोग 11 नवंबर 2011 से लागू होना था, जब इसे सरकार ने पेश किया था और 11 नवंबर 2011 से मार्च 2014 के बीच बकाया वेतन भी पत्रकारों को एक साल के अंदर चार बराबर किस्तों में दिया जाना था।
आयोग की सिफारिशों के अनुसार अप्रैल 2014 से नया वेतन लागू होना चाहिए था। तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई तथा जस्टिस एसके सिंह की बेंच ने इस आयोग की सिफारिशों को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं।
बेंच ने आयोग की सिफारिशों को वैध ठहराया और कहा कि सिफारिशें उचित विचार-विमर्श पर आधारित हैं इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इसमें हस्तक्षेप करने का कोई वैध आधार नहीं है।
बहरहाल, तमाम अखबारों के प्रबंधन मजीठिया आयोग के विधान, काम के तरीके, प्रक्रियाओं और सिफारिशों से नाखुश थे। इनका मानना था कि अगर इन सिफारिशों को पूरी तरह माना गया तो वेतन में एकदम से 80 से 100 फीसदी तक इजाफा करना पड़ सकता है और जिस कारण छोटे और कमजोर समूहों व कंपनियों पर तालाबंदी का अंदेशा बढ़ा सकता है। दलील यह भी थी कि अन्य उद्योगों की तुलना में प्रिंट मीडिया में गैर-पत्रकार कर्मचारियों को वैसे भी ज्यादा वेतन दिया जा रहा है। अगर सिफारिशें लागू की गईं तो वेतन में अंतर का यह दायरा और बढ़ जाएगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इनमें से किसी दलील को तवज्जो नहीं दी। साथ ही कहा कि यह केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है कि वह सिफारिशों को मंजूर करे या खारिज़ कर दे। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार ने कुछ सिफारिशें मंजूर नहीं कीं तो यह पूरी रिपोर्ट को खारिज़ करने का आधार नहीं है। इसके बाद मीडिया संस्‍थानों की रिव्यू पिटीशन भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दी।
मीडिया हाउसेस की चालबाजी से धूल फांक रहे आदेश-निर्देश
न्यायपालिका के इतने सख्त आदेश-निर्देशों के बावजूद मीडिया संस्थान इसे लागू नहीं कर रहे। 6 साल से ये आदेश-निर्देश धूल फांक रहे हैं क्‍योंकि सिफारिशें लागू न करने के इनके पास अनेक हथकंडे जो हैं।
मसलन उनके खिलाफ कोर्ट में जाने वाले पत्रकारों का शोषण, कंपनी को छोटी यूनिटों में बांटना, कम आय दिखाना, कर्मचारियों से कांट्रैक्ट साइन करवाना कि उन्हें आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए। हालांकि मीडिया संस्‍थानों द्वारा किए जा रहे इस शोषण की पीछे एक ही बड़ा कारण है, और वो कारण है पत्रकारों में एकजुटता कमी।
मीडिया संस्‍थानों के मालिक यहां फंसा रहे पेंच
दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, हिन्‍दुस्‍तान व अन्य बड़े अखबारों के प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से एक फॉर्म पर इस आशय के साइन ले लिए कि उन्हें मजीठिया आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए। वे कंपनी प्रदत्त वेतन एवं सुविधाओं से संतुष्ट हैं। कंपनी उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है। समय से उन्हें प्रमोशन मिलता है, अच्छा इंक्रीमेंट लगता है, बच्चे अगर हैं तो उनकी पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य-चिकित्सा, उनकी बेहतरी का पूरा ख्याल कंपनी रखती है।
कौन नहीं जानता कि मीडिया संस्‍थानों के सारे हथकंडे पूरी तरह झूठ पर आधारित हैं।
मीडिया संस्‍थानों के झूठ का सबसे बड़ा उदाहरण है पंकज कुलश्रेष्‍ठ का उनके संस्‍थान दैनिक जागरण में पद। 25 वर्षों से एक ही संस्‍थान में सेवारत पंकज कुलश्रेष्‍ठ अब भी उप समाचार संपादक थे जिसकी हैसियत कोई भी मीडियाकर्मी अच्‍छी तरह समझता है।
चूंकि इसी से जुड़ी हैं वेतन, इंक्रीमेंट, स्वास्थ्य, चिकित्सा, बच्‍चों की पढ़ाई लिखाई आदि की सुविधाएं, इसलिए समझा जा सकता है कि पंकज कुलश्रेष्‍ठ ढाई दशक बाद भी संस्‍थान में क्‍या हैसियत रखते थे।
आज भी बड़े-बड़े अखबारों में ‘उप-संपादक’ का भी मासिक वेतनमान इतना नहीं है जिसमें वह अपने परिवार का ठीक तरह भरण-पोषण कर सके। जिलों में ब्‍यूरो चीफ के पदों को सुशोभित करने वाले पत्रकारों का भी वेतन सम्‍मानजनक नहीं होता।
और यदि बात करें जिले के स्‍टाफ और तहसील आदि में कार्यरत पत्रकारों की तो उनका ‘मानदेय’ बताने तक में शर्म आती है। उनके लिए वेतन तो कल्‍पना से परे की बात है।
यही नहीं, आज के दौर में जहां चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को भी वेतन के साथ आवश्‍यक भत्‍ते और अवकाश प्राप्‍ति के उपरांत पेंशन मिलना तय है वहां किसी पत्रकार के लिए कोई ऐसा प्रावधान नहीं है।
सरकारी कर्मचारी की मृत्‍यु के बाद भी उसके परिवार को पेंशन का एक भाग मिलता है परंतु पत्रकारों के परिवार उनकी मौत के बाद भगवान भरोसे जिंदा रहने की जद्दोजहद में लगे रहने पर मजबूर हैं।
माना कि राजनीति के गलियारों में जिस तरह लुटियंस जोन है, उसी प्रकार मीडिया में भी एक क्रीमी लेयर है और उस लेयर का एक-एक पत्रकार नेताओं की भांति ही सैकड़ों करोड़ रुपए का मालिक बना बैठा है परंतु वो उंगलियों पर गिने जाने लायक हैं। बाकी तो सारा धान बाईस पसेरी बिकता है।
प्रिंट हो या इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया, सब अपने मुलाजिमों का खून चूसने में पीछे नहीं रहते। हाथ में लगे ‘LOGO’ को किसी के भी मुंह में ठूंस देने का रुतबा हासिल करने वाले बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल्‍स के स्‍ट्रिंगर की दयनीय दशा किसी से नहीं छिपी।
हजारों करोड़ रुपए की पूंजी वाले उनके संस्‍थान उन्‍हें कई बार आंशिक मानदेय देने की बजाय LOGO पकड़ाने के बदले उनसे उलटी वसूली कर लेते हैं। फिर वो उसकी भरपाई के लिए क्‍या कुछ नहीं करते।
शोषण-शोषण और खालिस शोषण का जितना घिनौना खेल मीडिया हाउस पत्रकारों के साथ खेलते हैं, उतना शायद ही किसी दूसरे क्षेत्र में खेला जाता होगा।
पत्रकारों के साथ दशकों से खेले जा रहे इस खेल से नेतानगरी भली प्रकार परिचित है और इसीलिए उसकी नजर में कोई पत्रकार ‘कोरोना वॉरियर्स’ भी नहीं है। अपनी जान देकर भी नहीं।
कोरोना वॉरियर्स की श्रेणी में पत्रकारों को शामिल कर लिया गया तो संभवत: शासन-प्रशासन की दुविधा बढ़ जाएगी। उन्‍हें दूसरे कोरोना वॉरियर्स की तरह मान-सम्‍मान एवं कानूनी अधिकारों के साथ मुआवजा भी देना पड़ सकता है।
आगरा मंडल ही नहीं, शायद समूचे उत्तर प्रदेश में कोरोना से जान गंवाने वाले पंकज कुलश्रेष्‍ठ शायद पहले पत्रकार होंगे लेकिन कोरोना संक्रमित पत्रकारों की संख्‍या अच्‍छी-खासी हो सकती है।
न करे भगवान कि कल किसी और को अपना कर्तव्‍य निभाते-निभाते जान से हाथ धोने पड़ जाएं, तो भी क्‍या पत्रकार इसी गति को प्राप्‍त होते रहेंगे।
पंकज कुलश्रेष्‍ठ का बलिदान ऐसे कई सवाल पीछे छोड़ गया है। यदि समय रहते इनके जवाब नहीं मांगे गए तो पत्रकारों की मौत सिर्फ एक आंकड़ा बनकर रह जाएगी क्‍योंकि उसकी गिनती कोरोना वॉरियर्स में नहीं, कोरोना संक्रमित लाशों के साथ होगी।
पत्रकारों की दशा और दिशा पर किसी अनाम शायर द्वारा लिखा गया यह शेर इस दौर में बड़ा सार्थक प्रतीत होता है कि-
‘बड़ा महीन है ये अखबार का मुलाजिम भी, खुद में खबर है मगर दूसरों की छापता है’
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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