(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़। जुल्म की छांव में दम लेने पर मजबूर हैं हम।।
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें। अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम ।।
जिस्म पर कैद है जज्ब़ात पे ज़ंजीरें हैं। फ़िक्र महबूस है गुफ़तार पे ताज़ीरें हैं।।
लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं। इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं।।
प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर फ़ैज अहमद फ़ैज ने सन् 1951 के दौरान ये लाइनें तब लिखीं थीं जब उन्हें लियाकत अली खां की सरकार का तख्ता पलट करने की साजिश के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था।
फ़ैज साहब की दर्द में डूबी पर उम्मीद से भरीं ये लाइनें आज इसलिए याद आ रही हैं क्योंकि भारत लोकतंत्र का एक और चुनावी उत्सव मनाने जा रहा है। चुनावों के मद्देनजर समूची राजनीतिक जमात यह साबित करने पर आमादा है कि देश तथा देशवासियों का भाग्य सिर्फ और सिर्फ उनके हाथों में सुरक्षित है।
एक हफ्ता भी नहीं बीता जब दिल्ली में अल्पसंख्यकों के लिए आयोजित कार्यक्रम के दौरान एक मुस्लिम युवक को सुरक्षाकर्मी इसलिए मुंह बंद करके उठा ले गए क्योंकि कुछ मुद्दों को लेकर वह सीधा प्रधानमंत्री से मुखातिब हुआ था।
इस कार्यक्रम में न सिर्फ प्रधानमंत्री, बल्कि सोनिया गांधी एवं फारुक अब्दुल्ला भी मंचासीन थे।
एक हफ्ता भी नहीं बीता जब राहुल गांधी ने एक टीवी चैनल को दिए अपने पहले इंटरव्यू में सिख दंगों पर माफी मांगने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह उस समय बहुत छोटे थे। वह भूल गए कि अघोषित ही सही, पर वह प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार हैं। भूल गए कि वह उसी कांग्रेसी विरासत के फिलहाल एकमात्र वारिस हैं जिसके कुछ नेताओं की 84 के सिख नरसंहार में संलिप्तता को उन्होंने स्वीकार किया।
आश्चर्यनजक रूप से वह यह तक भूल गए कि यदि कांग्रेस की महान विरासत के वह वारिस हैं और मौके-बेमौके अपने परिवार के बलिदान को कैश करने में लगे रहते हैं तो फिर उनके पापों का बोझ ढोने से इंकार कैसे कर सकते हैं।
इधर चुनावी दौर में भाजपा भी यह साबित करने पर तुली है कि देश व देशवासियों के लिए एकमात्र विकल्प है। यह वही भाजपा है जिसने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में खुद को कांग्रेसी संस्कृति का वाहक बनकर अपनी मौलिकता खो दी थी और उसी के परिणाम स्वरूप दोबारा सत्ता का शिखर छूने को तरस गई।
शायद यही कारण है कि आज 'मोदी ही भाजपा और भाजपा ही मोदी' का नारा फ़िज़ा में गूंज रहा है क्योंकि बाकी भाजपाइयों पर आसानी से भरोसा कर पाना मुश्किल है, यह बात भाजपा भली प्रकार जान व समझ रही है।
सवाल यह नहीं है कि सत्ता किसके हाथों में जाए और कौन उसके सोपान पर प्रतिष्ठापित हो, सवाल यह है कि क्या इसी व्यवस्था का नाम लोकतंत्र है और क्या सामंतवाद की परिभाषा इससे इतर है?
जहां अपने ही देश के किसी नेता से कोई इसलिए सवाल नहीं पूछ सकता क्योंकि वह प्रधानमंत्री के पद पर काबिज है और इसलिए उसे मुंह बंद करके बाहर ले जाया जाता है कि वह 'सो कॉल्ड' 'प्रोटोकॉल' को फॉलो नहीं कर रहा?
कल ही की बात है जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि आखिर यह विशिष्टजन शब्द आया कहां से, किसने इसे ईजाद किया। संविधान तो ऐसे किसी शब्द का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देता।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से दो हफ्तों में इस वीवीआईपी कल्चर पर जवाब मांगा है लेकिन क्या सरकार इसका जवाब देगी?
जिस प्रश्न का जवाब सन् 1947 के बाद से लगातार देश की जनता मांग रही है और किसी सरकार ने जवाब नहीं दिया तो दिन गिन रही वर्तमान सरकार से ऐसी उम्मीद करना बेमानी है।
बहरहाल, देश की जनता पर चुनावी खुमार चढ़ने लगा है और राजनीतिक दल उसके रंग में पूरी तरह रंग चुके हैं।
62 साल पहले फ़ैज साहब जेल की सलाखों के पीछे से कहते हैं-
अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में। हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है।।
अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम। आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है।।
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार। चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़।।
बेशक, उनके अपने मुल्क पाकिस्तान पर फ़ैज साहब की उम्मीद खरी नहीं उतरती और पाकिस्तान की अवाम आज भी 1951 के हालातों में जीने पर मजबूर है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि फ़ैज साहब की उम्मीद मर चुकी है।
फ़ैज साहब इस दुनिया से भले ही 29 साल पहले कूच कर गए लेकिन उनकी उम्मीदें पाकिस्तान की अवाम के दिलों में अब भी ज़िंदा हैं क्योंकि उम्मीदें मरा नहीं करतीं।
भारत के तथाकथित भाग्य विधाताओं को भी समझना होगा कि लोकतंत्र के छद्म स्वरूप और फिरंगियों की कार्बन कापियों से आमजन बुरी तरह उकता चुका है। वह समझ चुका है कि अब सत्ता बदलने से कुछ नहीं होने वाला। अब जरूरत है व्यवस्था बदलने की।
उस व्यवस्था को बदलने की जो स्वतंत्रता की आड़ में 'एज इट इज' एक्सेप्ट कर ली गई और जिसके कारण 'गुलामी' यथास्थिति को प्राप्त है। जिसके कारण कोई अपने ही चुने हुए नुमाइंदों से सवाल पूछने की हिमाकत नहीं कर सकता और जिसके कारण देश की सर्वोच्च अदालत को सरकार से यह पूछना पड़ता है कि आखिर यह वीवीआईपी कल्चर है क्या, कहां से आया है यह जबकि संविधान में तो इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
अपने मान-अपमान को प्रोटोकॉल के बहाने संसद से जोड़ने वाले और संसद के अंदर बैठकर हर रोज संसद की गरिमा को तार-तार करने वालों को अब यह समझना होगा कि ''ज़िंदगी किसी मुफ़लिस की क़बा नहीं है जिसमें हर वक्त दर्द के पैबंद लगाकर धोखा दिया जाना संभव हो।
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़......
चंद रोज बाद होने वाले चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन यह तय है कि इस बार का चुनाव भविष्य को रेखांकित जरूर करेगा। केवल आमजन के भविष्य को नहीं, उन खास लोगों के भविष्य को भी जो सत्ता को अपनी बपौती मान बैठे हैं और जिनके लिए आमजन उनके इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियों से अधिक कुछ नहीं रहा।
फ़ैज साहब के शब्द न तो सलाखों में कैद रहने को बाध्य हैं और ना सामंतवादी सोच के गुलाम बने रहने को अभिशप्त। वह सीमा के उस पार से भी बिना पासपोर्ट तथा वीजा के अपना सफर तय कर लेते हैं और सीमा के इस पार अपना वजूद कायम रखते हैं।
इसलिए इंतजार कीजिए, कहानी अभी खत्म नहीं हुई।
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़। जुल्म की छांव में दम लेने पर मजबूर हैं हम।।
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें। अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम ।।
जिस्म पर कैद है जज्ब़ात पे ज़ंजीरें हैं। फ़िक्र महबूस है गुफ़तार पे ताज़ीरें हैं।।
लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं। इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं।।
प्रसिद्ध पाकिस्तानी शायर फ़ैज अहमद फ़ैज ने सन् 1951 के दौरान ये लाइनें तब लिखीं थीं जब उन्हें लियाकत अली खां की सरकार का तख्ता पलट करने की साजिश के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था।
फ़ैज साहब की दर्द में डूबी पर उम्मीद से भरीं ये लाइनें आज इसलिए याद आ रही हैं क्योंकि भारत लोकतंत्र का एक और चुनावी उत्सव मनाने जा रहा है। चुनावों के मद्देनजर समूची राजनीतिक जमात यह साबित करने पर आमादा है कि देश तथा देशवासियों का भाग्य सिर्फ और सिर्फ उनके हाथों में सुरक्षित है।
एक हफ्ता भी नहीं बीता जब दिल्ली में अल्पसंख्यकों के लिए आयोजित कार्यक्रम के दौरान एक मुस्लिम युवक को सुरक्षाकर्मी इसलिए मुंह बंद करके उठा ले गए क्योंकि कुछ मुद्दों को लेकर वह सीधा प्रधानमंत्री से मुखातिब हुआ था।
इस कार्यक्रम में न सिर्फ प्रधानमंत्री, बल्कि सोनिया गांधी एवं फारुक अब्दुल्ला भी मंचासीन थे।
एक हफ्ता भी नहीं बीता जब राहुल गांधी ने एक टीवी चैनल को दिए अपने पहले इंटरव्यू में सिख दंगों पर माफी मांगने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह उस समय बहुत छोटे थे। वह भूल गए कि अघोषित ही सही, पर वह प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार हैं। भूल गए कि वह उसी कांग्रेसी विरासत के फिलहाल एकमात्र वारिस हैं जिसके कुछ नेताओं की 84 के सिख नरसंहार में संलिप्तता को उन्होंने स्वीकार किया।
आश्चर्यनजक रूप से वह यह तक भूल गए कि यदि कांग्रेस की महान विरासत के वह वारिस हैं और मौके-बेमौके अपने परिवार के बलिदान को कैश करने में लगे रहते हैं तो फिर उनके पापों का बोझ ढोने से इंकार कैसे कर सकते हैं।
इधर चुनावी दौर में भाजपा भी यह साबित करने पर तुली है कि देश व देशवासियों के लिए एकमात्र विकल्प है। यह वही भाजपा है जिसने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में खुद को कांग्रेसी संस्कृति का वाहक बनकर अपनी मौलिकता खो दी थी और उसी के परिणाम स्वरूप दोबारा सत्ता का शिखर छूने को तरस गई।
शायद यही कारण है कि आज 'मोदी ही भाजपा और भाजपा ही मोदी' का नारा फ़िज़ा में गूंज रहा है क्योंकि बाकी भाजपाइयों पर आसानी से भरोसा कर पाना मुश्किल है, यह बात भाजपा भली प्रकार जान व समझ रही है।
सवाल यह नहीं है कि सत्ता किसके हाथों में जाए और कौन उसके सोपान पर प्रतिष्ठापित हो, सवाल यह है कि क्या इसी व्यवस्था का नाम लोकतंत्र है और क्या सामंतवाद की परिभाषा इससे इतर है?
जहां अपने ही देश के किसी नेता से कोई इसलिए सवाल नहीं पूछ सकता क्योंकि वह प्रधानमंत्री के पद पर काबिज है और इसलिए उसे मुंह बंद करके बाहर ले जाया जाता है कि वह 'सो कॉल्ड' 'प्रोटोकॉल' को फॉलो नहीं कर रहा?
कल ही की बात है जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि आखिर यह विशिष्टजन शब्द आया कहां से, किसने इसे ईजाद किया। संविधान तो ऐसे किसी शब्द का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देता।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से दो हफ्तों में इस वीवीआईपी कल्चर पर जवाब मांगा है लेकिन क्या सरकार इसका जवाब देगी?
जिस प्रश्न का जवाब सन् 1947 के बाद से लगातार देश की जनता मांग रही है और किसी सरकार ने जवाब नहीं दिया तो दिन गिन रही वर्तमान सरकार से ऐसी उम्मीद करना बेमानी है।
बहरहाल, देश की जनता पर चुनावी खुमार चढ़ने लगा है और राजनीतिक दल उसके रंग में पूरी तरह रंग चुके हैं।
62 साल पहले फ़ैज साहब जेल की सलाखों के पीछे से कहते हैं-
अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में। हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है।।
अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम। आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है।।
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार। चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़।।
बेशक, उनके अपने मुल्क पाकिस्तान पर फ़ैज साहब की उम्मीद खरी नहीं उतरती और पाकिस्तान की अवाम आज भी 1951 के हालातों में जीने पर मजबूर है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि फ़ैज साहब की उम्मीद मर चुकी है।
फ़ैज साहब इस दुनिया से भले ही 29 साल पहले कूच कर गए लेकिन उनकी उम्मीदें पाकिस्तान की अवाम के दिलों में अब भी ज़िंदा हैं क्योंकि उम्मीदें मरा नहीं करतीं।
भारत के तथाकथित भाग्य विधाताओं को भी समझना होगा कि लोकतंत्र के छद्म स्वरूप और फिरंगियों की कार्बन कापियों से आमजन बुरी तरह उकता चुका है। वह समझ चुका है कि अब सत्ता बदलने से कुछ नहीं होने वाला। अब जरूरत है व्यवस्था बदलने की।
उस व्यवस्था को बदलने की जो स्वतंत्रता की आड़ में 'एज इट इज' एक्सेप्ट कर ली गई और जिसके कारण 'गुलामी' यथास्थिति को प्राप्त है। जिसके कारण कोई अपने ही चुने हुए नुमाइंदों से सवाल पूछने की हिमाकत नहीं कर सकता और जिसके कारण देश की सर्वोच्च अदालत को सरकार से यह पूछना पड़ता है कि आखिर यह वीवीआईपी कल्चर है क्या, कहां से आया है यह जबकि संविधान में तो इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
अपने मान-अपमान को प्रोटोकॉल के बहाने संसद से जोड़ने वाले और संसद के अंदर बैठकर हर रोज संसद की गरिमा को तार-तार करने वालों को अब यह समझना होगा कि ''ज़िंदगी किसी मुफ़लिस की क़बा नहीं है जिसमें हर वक्त दर्द के पैबंद लगाकर धोखा दिया जाना संभव हो।
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़......
चंद रोज बाद होने वाले चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन यह तय है कि इस बार का चुनाव भविष्य को रेखांकित जरूर करेगा। केवल आमजन के भविष्य को नहीं, उन खास लोगों के भविष्य को भी जो सत्ता को अपनी बपौती मान बैठे हैं और जिनके लिए आमजन उनके इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियों से अधिक कुछ नहीं रहा।
फ़ैज साहब के शब्द न तो सलाखों में कैद रहने को बाध्य हैं और ना सामंतवादी सोच के गुलाम बने रहने को अभिशप्त। वह सीमा के उस पार से भी बिना पासपोर्ट तथा वीजा के अपना सफर तय कर लेते हैं और सीमा के इस पार अपना वजूद कायम रखते हैं।
इसलिए इंतजार कीजिए, कहानी अभी खत्म नहीं हुई।