(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
रोज महाभारत कथा, रोज मृत्यु संगीत ।
काल भैरवी नाचती, समय सुनाता गीत ।।
छिद्र बड़े जल भर रहा, तट सुदूर ठहराव ।
दिशाहीन नाविक व्यथित, अब-तब डूबी नाव ।।
यह जहरीली बावड़ी, इसमें पलते नाग ।
खेला करते थे यहां, हिल-मिल पुरखे फाग ।।
समीकरण सिकुड़े पड़े, कदम-कदम पर घात ।
हर छतरी में छेद है, बेमौसम बरसात ।।
रोज अघोषित युद्ध है, बजता कभी न शंख ।
सुबह-शाम लथपथ मिलीं, कुछ लाशें कुछ पंख ।।
रक्त पी रहा युगों से लाल किला है लाल ।
स्वतंत्रता की ओढ़नी, ओढ़े देश विशाल ।।
पता
नहीं ''भारतेन्दु मिश्र'' के इन दोहों को ''सार्थक'' करने का ''समय''
इंतजार कर रहा था या फिर भारतेन्दु मिश्र ने ही हवा के रुख को भांपकर इनकी
रचना समय से पहले कर डाली।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि राजनीति के इस भयंकर संक्रमण काल पर उनके ये दोहे पूरी तरह सटीक बैठ रहे हैं।