रविवार, 9 जून 2013

Who Will Save This Country ?

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
रोज महाभारत कथा, रोज मृत्‍यु संगीत ।
काल भैरवी नाचती, समय सुनाता गीत ।।
छिद्र बड़े जल भर रहा, तट सुदूर ठहराव ।
दिशाहीन नाविक व्‍यथित, अब-तब डूबी नाव ।।

यह जहरीली बावड़ी, इसमें पलते नाग ।
खेला करते थे यहां, हिल-मिल पुरखे फाग ।।

समीकरण सिकुड़े पड़े, कदम-कदम पर घात ।
हर छतरी में छेद है, बेमौसम बरसात ।।
रोज अघोषित युद्ध है, बजता कभी न शंख ।
सुबह-शाम लथपथ मिलीं, कुछ लाशें कुछ पंख ।।
रक्‍त पी रहा युगों से लाल किला है लाल ।
स्‍वतंत्रता की ओढ़नी, ओढ़े देश विशाल ।।

पता नहीं ''भारतेन्‍दु मिश्र'' के इन दोहों को ''सार्थक'' करने का ''समय'' इंतजार कर रहा था या फिर भारतेन्‍दु मिश्र ने ही हवा के रुख को भांपकर इनकी रचना समय से पहले कर डाली।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि राजनीति के इस भयंकर संक्रमण काल पर उनके ये दोहे पूरी तरह सटीक बैठ रहे हैं।
कांग्रेस के नेतृत्‍व वाली यूपीए सरकार में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार की बात हो या नेतृत्‍व को लेकर जबर्दस्‍त फजीहत का शिकार बनी हुई एनडीए का मामला हो, राजनेताओं के लिए बहुत ज्‍यादा मायने नहीं रखता। लेकिन जनता के लिए इसके मायने अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण हैं।
राजनेताओं के लिए यह मात्र ''सत्‍ता के शिखर'' का वह खेल है जिस पर एक पक्ष काबिज रहने के लिए लालायित है तो दूसरा उसे उससे छीन लेने के लिए जबकि आमजन के लिए यह खेल नहीं, उसके देश से षड्यंत्र पूर्वक किया जा रहा वह खिलवाड़ है जिसका परिणाम अत्‍यंत भयावह नजर आता है।
कहने को विश्‍वभर में लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था के तहत संचालित होने वाला यह सबसे बड़ा देश है, लेकिन क्‍या वास्‍तव में यहां स्‍वस्‍थ लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम है ?
एक ओर आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूबी कांग्रेस अथवा उसके नेतृत्‍व वाली ''यूपीए'' और दूसरी ओर आंतरिक कलह से ग्रस्‍त भाजपा या उसके नेतृत्‍व वाला एनडीए।
दलगत राजनीति से सरोकार न रखने वाली आम जनता, संगठित गिरोहों का रूप ले चुके इन दोनों ही दलों से आजिज आ चुकी है क्‍योंकि उसने दोनों को खूब देखा भी है और परखा भी है। बावजूद इसके क्‍या उसके पास कोई विकल्‍प है ?
क्‍या जनता को अधिकार है कि स्‍पष्‍ट बहुमत न मिल पाने की स्‍थिति में वह इन्‍हें सत्‍ता पर काबिज होने से रोक सके ?
कई-कई दलों से मिलकर बनी यूपीए और एनडीए में से किसी को 2014 के लोकसभा चुनावों में यदि स्‍पष्‍ट जनादेश नहीं मिलता तो क्‍या यह सरकार नहीं बनायेंगे। आज पक्ष और विपक्ष का खेल खेलने वाले तब सत्‍ता की खातिर एक-दूसरे के समर्थन में खड़े नहीं होंगे।
एनडीए की सरकार बनती दिखाई देगी तो यूपीए के घटक उसके साथ हो लेंगे और यूपीए के काबिज रहने की संभावना बनी तो ममता की जगह नीतीश तथा डीएमके की जगह एडीएमके जैसे दल साथ हो जाएंगे। जनता के हाथ में रह जायेगा ''वोट'' के तौर पर मिला ऐसा भोंथरा हथियार जो चुनावों के अलावा कभी काम नहीं आता और चुनावों में भी जिसका रिमोट किसी न किसी राजनीतिक दल के हाथ में रहता है।
विचार कीजिए कि क्‍या वास्‍तव में इसे ही लोकतंत्र कहते हैं ?
क्‍या लोकतंत्र ऐसी व्‍यवस्‍था का नाम है जिसमें 'लोक' के पास कोई विकल्‍प ही न हो और भ्रष्‍ट व दिशाहीन नेतृत्‍व के चलते 'तंत्र' पूरी तरह अनियंत्रित हो जाता हो।
अगर इसे ही ''डेमोक्रेसी'' कहते हैं तो फिर ''हिप्‍पोक्रेसी'' किसे कहते हैं?
सच तो यह है कि राजनीतिक दलों की आड़ में चंद गिरोहबंद तत्‍वों का समूह देश की जनता को हिप्‍पोक्रेसी के जरिए डेमोक्रेसी की आड़ लेकर अपने इशारों पर चला रहा है और बारी-बारी से सत्‍ता का यथासंभव दुरुपयोग करता चला आ रहा है।
यह बात केवल केन्‍द्र की सत्‍ता के लिए ही लागू नहीं होती। राज्‍यों की भी सत्‍ता ऐसे ही समूहों द्वारा संचालित हैं लिहाजा समूचा देश अघोषित रूप से इनका गुलाम बना हुआ है। जब देश ही स्‍वतंत्र नहीं होगा तो देशवासियों की स्‍वतंत्रता का जिक्र करना बेमानी है।
इस व्‍यवस्‍था के ही दुष्‍परिणाम है कि तथाकथित लोकतंत्र की ब्‍यूरोक्रेसी और जुडीशियरी भी लगभग निरंकुश हो चुकी है। जिसके मन में जो आता है, वह करता है।
विधायिका कहती है कि न्‍यायपालिका अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रही है तो न्‍यायपालिका कहती है कि विधायिका द्वारा संवैधानिक संस्‍थाओं को पंगु बनाने का कुचक्र चलाया जा रहा है। विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका के थोथे अहम् तथा उससे उपजी अराजकता का पूरा लाभ वह पत्रकारिता उठा रही है जिसे अब 'मीडिया' का नाम दे दिया गया है।
यूं 'मीडिया' को विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका की तरह किसी किस्‍म के कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्‍त नहीं हैं लेकिन उसे इस तथाकथित लोकतंत्र के चौथे खंभे की उपमा प्राप्‍त है और वह इस उपमा का अपनी क्षमता अनुसार ''दुरुपयोग'' कर रहा है।
2014 के लोकसभा चुनावों की अनौपचारिक दुंदुभी बज चुकी है। तरकश से तीर छोड़े जाने लगे हैं। उत्‍सव प्रेमी भारत की जनता को भी चुनाव रूपी महा उत्‍सव का बेसब्री से इंतजार है लेकिन इस बार उसके मन में निराशा का भाव भी है। 
वह जानती है कि एकबार फिर उसे उन्‍हीं दलों में से किसी एक का शासन स्‍वीकार करना होगा जो देश को निराशा की गहरी दलदल में ले जाने का काम करेंगे।
यूपीए या एनडीए, या फिर कोई तीसरा अथवा चौथा मोर्चा। होगा इन्‍हीं में से कोई एक समूह क्‍योंकि वर्तमान व्‍यवस्‍था ने ऐसा कोई विकल्‍प ही नहीं छोड़ा जो देश को हिप्‍पोक्रेसी के चंगुल से बाहर निकालकर सही अर्थों में डेमोक्रेसी का अहसास करा सके।
तो क्‍या दुनिया के सर्वाधिक पुराने देशों में शुमार इस देश की जनता के पास कोई विकल्‍प ऐसा बचा ही नहीं है जिससे वह राजनीतिक दलों के रूप में सत्‍ता पर काबिज गिरोहों के चंगुल से मुक्‍ति पा सके ?
फिलहाल इस प्रश्‍न का उत्‍तर भविष्‍य के गर्भ में है और भविष्‍य की रचना प्रकृति द्वारा घोर अंधकार के उन क्षणों में ही की जाती है जब सब सो रहे होते हैं।
नियति के इस अनोखे खेल से बखूबी परिचित होते हुए भी राजनीति के खिलाड़ी अपनी आंखें कुछ उसी अंदाज में मूंदे हुए हैं जिस अंदाज में बिल्‍ली को सामने खड़ा देख कबूतर अपनी आंखें मूंद लेता है।
पता नहीं उनका यह उपक्रम साहस का प्रतीक है या फिर भय से उपजे ऐसे क्षणिक दुस्‍साहस का, जो अपने अंत का अनुभव हो जाने पर अचानक पैदा हो जाता है।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं कि 2014 के लोकसभा चुनाव एक ऐसी नींव अवश्‍य रखेंगे जो भारत और भारतवासियों के भविष्‍य का निर्धारण करेगी। जो तय करेगी कि इस देश में डेमोक्रेसी की आड़ लेकर हिप्‍पोक्रेसी से चलाये जा रहे शासन की अभी कितनी उम्र और शेष है और कितनी शेष हैं देश के ''हिप्‍पोक्रेट्स'' की उम्र।


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