रविवार, 12 नवंबर 2017

निकाय चुनाव या पांच साला गिद्धभोज की तैयारी?

यूं तो गिद्ध शिकारी पक्षियों के अंतर्गत आने वाले ”मुर्दाखोर” पक्षियों के “कुल” का पक्षी है किंतु इस पक्षी में सात और आश्‍चर्यजनक गुण पाए जाते हैं, और इत्तिफाक से उसके सातों गुण हमारे नेताओं में भी मिलते हैं।
इस तुलनात्‍मक अध्‍ययन से पहले यह जान लें कि गिद्धों में पाए जाने वाले सात आश्‍चर्यजनक गुण आखिर हैं कौन-कौन से:
1- गिद्ध सबसे ऊंची उड़ान भरने वाला पक्षी है. ये ऊंचाई एवरेस्ट (29,029 फीट) से काफ़ी अधिक है और इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी से ज़्यादातर दूसरे पक्षी मर जाते हैं।
2- जंगली जानवरों और इंसानी शवों को खाने वालों में गिद्ध का नंबर सबसे ऊपर आता है। दूसरे सभी जीव मिलकर कुल मृत पशुओं का सड़ा माँस और कंकाल मात्र 36 प्रतिशत ही खा पाते हैं जबकि गिद्ध अकेले बाकी 64 प्रतिशत को उदरस्‍थ कर जाते हैं।
3- गिद्ध अपने भोजन के लिए काफ़ी अधिक दूरी तय कर सकते हैं। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी रूपेल्स वेंचर ने हाल में एक गिद्ध को तंजानिया स्थित अपने घोंसले से केन्या के रास्ते सूडान और ईथोपिया तक उड़ान भरते हुए कैमरे में क़ैद किया।
4- गिद्ध अपने पैरों पर पेशाब करते हैं और उनकी ये आदत आपको भले ही अच्छी न लगे, लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उनकी इस आदत से उन्हें बीमारियों से बचने में मदद मिलती है।
5- गिद्ध एक सीध में करीब 1000 किलोमीटर तक की दूरी तय करने के लिए बिजली के विशाल खंभों का अनुसरण करते हैं।
6- ये सही है कि गिद्धों को सड़ा हुआ मांस और मृत पशुओं को खाने के लिए जाना जाता है, लेकिन गिद्ध केवल सड़ा हुआ मांस नहीं खाते। जैसा कि इनके नाम से ही ज़ाहिर होता है पाम नट वल्चर (गिद्ध) कई तरह के अखरोट, अंजीर, मछली और कभी-कभी दूसरे पक्षियों को भी खाते है. कंकालों के मुक़ाबले इसे कीड़े और ताजा मांस पसंद है।
7- गिद्ध दुनिया का एक मात्र ऐसा जीव है जो अपने भोजन में 70 से 90 प्रतिशत तक हड्डियों को शामिल कर सकता है और उनके पेट का अम्ल उन चीजों से भी पोषक तत्व ले सकता है, जिसे दूसरे जानवर छोड़ देते हैं।
गिद्धों के पेट का अम्ल इतना शक्तिशाली होता है कि वो हैजे और एंथ्रेक्स के जीवाणुओं को भी नष्ट कर सकता है जबकि दूसरी कई प्रजातियां इन जीवाणुओं के प्रहार से मर सकती हैं।
अब इत्तिफाक देखिए कि नेताओं की भी उड़ान असीमित होती है. शिकार के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश का नेता, तमिलनाडु जाकर चुनाव लड़ सकता है और महाराष्‍ट्र का नेता पंजाब में आकर ताल ठोक सकता है। बस जरूरत है तो इस बात की कि उसे वहां उसकी पसंद का शिकार यानि वोटर पर्याप्‍त मात्रा में मिल सके। ऑक्‍सीजन की कमी से गिद्ध नहीं मरता, और कोई नेता भी कभी आपने ऑक्‍सीजन की कमी से मरते हुए नहीं सुना होगा।
गिद्ध अकेले सड़े हुए मांस और कंकालों का 64 प्रतिशत हिस्‍सा खा जाते हैं, तो नेता भी देश का 64 प्रतिशत धन हड़प कर जाते हैं। नेताओं पर होने वाले देश के खर्च का हिसाब यदि सही-सही निकाला जाए तो निश्‍चित जानिए कि यह इतना ही बैठेगा। बाकी 36 प्रतिशत में देशभर के विकास कार्य सिमटे रहते हैं।
जहां तक बात है हाजमे की, तो नेताओं का हाजमा गिद्धों से अधिक न सही किंतु उनसे कम दुरुस्‍त नहीं होता। बल्‍कि कुछ मायनों में तो ज्‍यादा ही दुरुस्‍त पाया जाता है। जैसे कि गिद्ध केवल अपना पेट भरने तक ही खाते हैं लेकिन नेतागण खाने से कई गुना अधिक बचाकर भी रखते हैं ताकि उनकी भावी पीढ़ी का इंतजाम हो सके।
गिद्ध अपने पैरों पर पेशाब करके बीमारियों से बच निकलते हैं अर्थात उनके खुद के पास अपनी समस्‍याओं के समाधान का चमत्‍कारिक उपाय होता है, इसी प्रकार नेताओं के पास अपनी हर समस्‍या का अचूक इलाज होता है। कभी मीडिया के सिर तो कभी विरोधी दलों पर हड़िया फोड़कर नेता खुद को पाकसाफ घोषित कर देते हैं।
गिद्ध कई तरह के अखरोट, अंजीर, मछली और कभी-कभी दूसरे पक्षियों को भी खाते है. कहने का मतलब यह है कि सड़ा हुआ मांस और कंकाल उसकी पहली पसंद नहीं है। नेताओं की भी पहली पसंद ”सुस्‍वादु भ्रष्‍टाचार” है।
ऐसा भ्रष्‍टाचार जिसके लिए उन्‍हें बहुत कवायद न करनी पड़े। जोखिम उठाकर भ्रष्‍टाचार तो वह तब करते हैं जब पेट भरने लायक आसान भ्रष्‍टाचार उन्‍हें उपलब्‍ध नहीं होता।
फिलहाल, आसान भ्रष्‍टाचार के लिए हमारे नेतागण नगर निकाय चुनावों में हाथ आजमा रहे हैं। यही वह गिद्ध दृष्‍टि है जो जानती है कि एकबार किसी तरह जीत हासिल हो जाए, फिर पूरे पांच साल इतना खाने को मिलेगा कि पीढ़ियां तर जाएंगी।
यही कारण है कि लिखा-पढ़ी में धेले की आमदनी न होने के बावजूद लाखों रुपए खर्च करके वह घर-घर दस्‍तक दे रहे हैं।
आज अगर पूछा जाए तो उनसे बड़ा विकास पुरुष सारी दुनिया में कोई दूसरा चिराग लेकर ढूंढने से नहीं मिलेगा, किंतु जीतने के बाद विकास सिर्फ उनके घर तक सिमट कर रह जाएगा।
सच पूछा जाए तो वह बात भी अपने विकास की ही करते हैं, लेकिन जनता समझती है कि वह क्षेत्र के विकास की बात कर रहे हैं।
नेतागण ”आत्‍मा सुखी तो परमात्‍मा सुखी” जैसी कहावत में पूरा यकीन रखते हैं इसलिए वह पहले स्‍वयं को सुखी बनाने के उपाय करते हैं। इसके बाद किसी और की सोचते हैं। अब यदि इतने में पांच साल बीत जाएं तो इसमें नेताओं का क्‍या दोष ?
चुनाव लड़ने पर लाखों रुपए खर्च इसलिए नहीं किए जाते कि घर फूंककर तमाशा देखते रहें। उस खर्च की चक्रवर्ती ब्‍याज सहित भरपाई भी करनी होती है जिससे अगला चुनाव तिजोरी पर बोझ डाले बिना लड़ा जा सके।
जनता को सर्वाधिक बुद्धिमान और भाग्‍य विधाता घोषित करके पुदीने के पेड़ पर चढ़ा देने भर से यदि 64 प्रतिशत के गिद्धभोज में शामिल हुआ जा सकता है तो इसमें जाता क्‍या है।
इधर चुनाव संपन्‍न हुए नहीं कि उधर गिद्धभोज की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। हर जिले में अलग-अलग मदों से गिद्धभोज के आयोजन होंगे किंतु मकसद सब जगह एक ही होगा।
बमुश्‍किल महीनेभर की मेहनत और फिर पांच साल तक हर तरह का बेरोकटोक गिद्धभोज। जिसके हिस्‍से में जो आ जाए। हाजमा इतना दुरुस्‍त है कि बोटी तो बोटी, हड्डियों को भी हजम करने में कोई दिक्‍कत नहीं आती।
सच पूछा जाए तो नेताओं में गिद्धों से भी ज्‍यादा गुण होते हैं। उनमें गीध दृष्‍टि के साथ-साथ बगुला की तरह ध्‍यानस्‍थ होने का अतिरिक्‍त गुण और होता है। वह पूरी एकाग्रता से शिकार का अंत तक इंतजार करते हैं।
संभवत: इसीलिए वोटर रूपी शिकार उनसे बच नहीं पता। कभी लोकसभा चुनाव हैं तो कभी विधानसभा। कभी नगर निकाय के चुनाव हैं तो कभी नगर पंचायत के। कभी जिला पंचायत है तो कभी प्रधानी के। हर समय कुछ न कुछ है। किसी में सीधे जनता को शिकार बनाया जाता है और किसी में उसके नाम पर शिकार किया जाता है।
गिद्ध की तरह गली-गली और मोहल्‍ले-मोहल्‍ले नेतागण बैठे हैं अपनी-अपनी पार्टियों की टोपी लगाए किसी ऐसे ऊंचे दरख्‍त की साख पर जहां से ”मृतप्राय: मतदाता” और उनकी मेहनत की कमाई को हजम किया जा सके।
इंतजार रहता है तो बस एक अदद चुनाव का, ताकि उसकी आड़ लेकर समाजसेवा का ढिंढोरा पीटा जा सके और उसके बाद ”आत्‍मा सुखी तो परमात्‍मा सुखी” जैसी कहावत पर पूरी तरह अमल किया जा सके।
फिलहाल निकाय चुनाव सामने हैं। साढ़े तीन साल बीत गए, बस डेढ़ बाकी हैं कि लोकसभा चुनावों की दुंदुभी बज उठेगी। गीधराज टोपी लगाए अब भी तैयार हैं और तब भी तैयार मिलेंगे। कहां तक बचोगे, वोट तो देना ही है।
गिद्धों का कोई विकल्‍प हो नहीं सकता। और किसी भी किस्‍म का गिद्ध हो, उसकी दृष्‍टि आपके मांस पर होगी ही।
तो जश्‍न मनाइए इस विकल्‍पहीनता का, और एकबार फिर वोट डालने जाइए 26 नवंबर को ताकि कल की नगरपालिका या आज के नगर निगम में गिद्धों के सामूहिक भोज को इस जुमले के साथ पूरे तटस्‍थभाव से निहारा जा सके कि ”कोऊ नृप होए, हमें का हानि”।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

निकाय चुनाव और समाजसेवियों की फौज

हमारे यहां लोगों में समाजसेवा का जज्‍बा इस कदर कूट-कूट कर भरा है कि वह घर फूंक कर भी तमाशा देखने को बेताब रहते हैं। बस जरूरत होती है तो एक अदद चुनाव की।
चुनाव की आहट सुनाई दी कि मोहल्‍ले के हर तीसरे-चौथे आदमी के अंदर से समाजसेवा छलक कर टपकने लगती है।
अभी बहुत दिन नहीं बीते कि विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदेशभर के समाजसेवियों ने अपने-अपने जिलों से लखनऊ तक की सड़क एक-एक इंच नाप ली थी।
समाजसेवा के इस जूनून में कुछ को सफलता मिली और कुछ को नहीं मिली, किंतु हिम्‍मत किसी ने नहीं हारी।
जो जीत गए वो आज सिकंदर बने बैठे हैं और हारने वाले समाजसेवा का टोकरा सिर पर उठाए एकबार फिर तैयार हैं।
इस मर्तबा विधानसभा के न सही, नगर निकाय के चुनाव तो हैं लिहाजा समाजसेवा का कुलाचें भरना स्‍वाभाविक है।
सच पूछें तो नगर निकाय के चुनावों में सेवा का मर्म वही जानता है जो उसके छद्म रूप में छिपी मेवा से वाकिफ हो।
निर्वाचन आयोग भी इन समाजसेवियों की भावनाओं का कितना ध्‍यान रखता है कि इस बार उसने निकाय चुनावों में प्रत्‍याशियों के लिए खर्च की सीमा पहले के मुकाबले दोगुनी कर दी है। वो भी तब जबकि इस खर्चे की भरपाई का कोई प्रत्‍यक्ष स्‍त्रोत नहीं होता।
पद नाम भले ही ऊपर-नीचे हो जाता हो किंतु कमाई के नाम पर मेयर और पार्षद उसी तरह समान हैं जिस तरह समाज में स्‍त्रियों को बराबर का दर्जा प्राप्‍त है। न मेयर को धेला मिलता है और न पार्षद को। बुढ़ापे की लाठी रुपी पेंशन भी नहीं है बेचारे माननीयों के लिए लेकिन क्‍या मजाल कि इससे किसी प्रत्‍याशी की समाजसेवा का जज्‍बा रत्तीभर कम हो जाता हो।
सुना है कि एक-एक पार्टी के पास समाजसेवा के हजार-हजार आवेदन आए पड़े हैं। आर्थिक रूप से कमजोर आवेदकों ने तो कर्ज का इंतजाम भी कर लिया है जिससे इधर पार्टी समाजसेवा के लिए अधिकृत करे और उधर वो गुलाबी व हरे नोटों के बंडल लेकर समाजसेवा को कूद पड़ें।
समाजसेवा में हाथ का मैल कहीं आड़े न आए इसलिए उन लोगों ने भी बैंक एकाउंट का ब्‍यौरा लेना शुरू कर दिया है जो कल तक आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों पर धरना-प्रदर्शन करने को आमादा थे।
समाजसेवा को लालायित लोगों के विचार इस मामले में कभी नहीं टकराते। बैनर कोई हो, झंडा किसी का भी टंगा हो, हैं तो सभी के नुमाइंदे समाजसेवी। समाजसेवी और समाजसेवियों के बीच कैसा भेद। बस कैसे भी एकबार मौका मिल जाए। बहती गंगा में हाथ धोना किसे सुकून नहीं देता।
सरकार भी कितनी समझदार है। मतदान की तारीखों के साथ यमुना में गिर रहे नाले-नालियों को रोकने के लिए 3 हजार 500 करोड़ की रकम भी घोषित कर दी ताकि मेयर और पार्षद तथा चेयरमैन तथा सदस्‍यों के बीच किसी प्रकार का कन्‍फ्यूजन न रहे। लक्ष्‍य सामने हो तो समाजसेवा करने का आनंद ही कुछ और है। समाजसेवा की यमुना कभी दूषित नहीं होती। जनता के विचार दूषित हो सकते हैं किंतु समाजसेवियों की भावना हमेशा पवित्र रहती है।
वेतन-भत्ता नहीं है नगर निकाय की सेवा में तो न सही। पेंशन या फंड नहीं मिलता तो कोई बात नहीं। सेवा तो नाम ही है मेवा का। सेवा करेंगे तो मेवा भी मिलेगी। मेवा का इंतजाम ”ऊपर वाला” करता रहता है। यूं भी यमुना मैया सबकी सुनती है। चोंच के साथ चुग्‍गे का इंतजाम हो जाता है। मेयर की चोंच को मेयर के लायक और पार्षद की चोंच को पार्षद के लायक। ईश्‍वर हाथी से लेकर चींटीं तक के पेट की व्‍यवस्‍था करता है। किसी को भूखा नहीं रखता।
समाजसेवी लोग ईश्‍वर में पूरी आस्‍था रखते हैं इसलिए चुनाव की खातिर सबकुछ दांव पर लगाने से गुरेज नहीं करते। वो जानते हैं कि व्‍यवस्‍था कभी इतनी निर्मम नहीं हो सकती कि सेवा की मेवा देने में कोताही बरते।
यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 3500 करोड़ की घोषणा तो कुछ नहीं, तीर्थस्‍थल के नाम पर बहुत कुछ मिलना बाकी है।
जय यमुना मैया की, जय कृष्‍ण कन्‍हैया की।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

उधार के सिंदूर से सुहाग सहेजने को मजबूर है भारतीय जनता पार्टी

मथुरा। कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली मथुरा और क्रीड़ा स्‍थली वृंदावन को मिलाकर पहली बार नगर निगम बनी मथुरा में भारतीय जनता पार्टी उधार के सिंदूर से सुहाग सहेजने को मजबूर है।
दरअसल, भाजपा के सामने यह स्‍थिति मथुरा-वृंदावन का ”मेयर” पद अनुसूचित जाति के लिए ”आरक्षित” हो जाने के कारण पैदा हुई है क्‍योंकि मथुरा-वृंदावन में भाजपा के पास अनुसूचित जाति का कोई ऐसा उम्‍मीदवार नहीं है जो पूरी तरह भाजपा को समर्पित रहा हो या पार्टी का वफादार सिपाही माना जा सके।
मथुरा में भाजपा के पास उसी प्रकार मेयर पद के लिए अनुसूचित जाति के अपने किसी प्रत्‍याशी का अभाव है जिस प्रकार लोकसभा चुनाव के लिए स्‍थानीय प्रत्‍याशी का अभाव था लिहाजा तब काफी दिमागी कसरत के बाद स्‍वप्‍न सुंदरी का खिताब प्राप्‍त सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी को लाया गया।
विधानसभा चुनावों में भी मथुरा-वृंदावन सीट के लिए श्रीकांत शर्मा को दिल्‍ली से लाना पड़ा, हालांकि श्रीकांत शर्मा कस्‍बा गोवर्धन (मथुरा) के ही मूल निवासी हैं किंतु वह करीब दो दशक पहले मथुरा को छोड़ चुके थे इसलिए उन्‍हें बाहरी प्रत्‍याशी माना गया।
निकाय चुनावों में पहली बार मेयर पद (आरक्षित) के लिए चुनाव लड़ रही मथुरा नगरी के अंदर भाजपा के पास जो संभावित प्रत्‍याशी दिखाई दे रहे हैं उनमें पूर्व विधायक श्‍याम सिंह अहेरिया, पूर्व विधायक अजय पोइया और बल्‍देव क्षेत्र से भाजपा के विधायक पूरन प्रकाश के पुत्र पंकज प्रकाश प्रमुख हैं।
श्‍याम सिंह अहेरिया सबसे पहले भाजपा की ही टिकट पर गोवर्धन (आरक्षित) सीट से विधायक चुने गए किंतु बाद के चुनावों में जब भाजपा ने उनका टिकट काट दिया तो वह अपने पुत्र सहित ”समाजवादी” हो लिए। उनके पुत्र को समाजवादी पार्टी ने सत्ता में रहते दर्जाप्राप्‍त राज्‍यमंत्री के पद से भी नवाजा था।
समाजवादी पार्टी के सत्ता से बेदखल होने पर वह फिर भाजपाई हो गए किंतु अब उन्‍हें पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता अथवा वफादार सिपाही नहीं माना जा सकता।
इसी प्रकार एडवोकेट अजय कुमार पोइया का राजनीतिक सफर भी भाजपा की टिकट पर गोवर्धन सुरक्षित सीट से निर्वाचित होने के साथ शुरू हुआ। इससे पहले अजय कुमार पोइया मथुरा में ही वकालत की प्रेक्‍टिस करते थे।
बाद के चुनावों में पार्टी से उपेक्षित अनुभव करने के कारण अजय कुमार पोइया ने भी भाजपा का दामन छोड़ दिया और बहुजन समाज पार्टी की गोद में जा बैठे। बहुजन समाज पार्टी में रहते हुए कोई उपलब्‍धि हासिल न होने पर अजय कुमार पोइया एकबार फिर भाजपा की शरण में लौट आए।
गत विधानसभा चुनावों में बल्‍देव सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की उम्‍मीद पाले बैठे अजय कुमार पोइया को तब तगड़ा झटका लगा जब पार्टी ने उनकी बजाय राष्‍ट्रीय लोकदल से भाजपा में आए सिटिंग विधायक पूरन प्रकाश को बल्‍देव से चुनाव लड़ाने का फैसला किया।
पार्टी से मिले इस झटके पर अजय पोइया ने पूरन प्रकाश के खिलाफ अपने पुत्र को चुनाव लड़ने के लिए खड़ा कर दिया, और दलील यह दी कि वह तो पार्टी के अनुशासित सिपाही हैं किंतु पुत्र द्वारा चुनाव लड़ना उसका अपना निर्णय था।
यानि अजय पोइया एकबार फिर पार्टी के प्रति बड़ी चालाकी के साथ बेवफाई पर उतर आए ताकि संभव हो तो सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे की कहावत को चरितार्थ कर सकें।
यह बात अलग है कि अजय पोइया के पुत्र, पूरन प्रकाश का कुछ नहीं बिगाड़ सके और पूरन प्रकाश लगातार दूसरी बार बल्‍देव सुरक्षित सीट से निर्वाचित होने में सफल रहे।
जहां तक सवाल पूरन प्रकाश के पुत्र पंकज प्रकाश का है तो बेशक उन्‍होंने 2010 के जिला पंचायत चुनावों में सर्वाधिक मतों से चुनाव जीतकर एक रिकॉर्ड कायम किया किंतु बुनियादी रूप से उनके विधायक पिता या दादा का कभी भाजपा की नीतियों में विश्‍वास देखने को नहीं मिला। पंकज प्रकाश के दादा मास्‍टर कन्‍हैया लाल भी विधायक रहे थे लेकिन भाजपा से कभी उनका कोई वास्‍ता नहीं रहा।
इन तीन प्रमुख दावेदारों के अलावा जो अन्‍य दो दावेदार हैं उनमें से एक मुकेश आर्यबंधु के पूरे परिवार की निष्‍ठा हमेशा कांग्रेस से जुड़ी रही है और उनके बड़े भाई ब्रजमोहन बाल्‍मीकि ने कांग्रेस की टिकट पर गोवर्धन सुरक्षित सीट से ही चुनाव भी लड़ा था।
दूसरे दावेदार ब्रजेश खरे ही एकमात्र ऐसे दावेदार हैं जो पूर्व में भाजपा सभासद रह चुके हैं और एक लंबे समय से भाजपा के प्रति समर्पित हैं किंतु ब्रजेश खरे की दो पूर्व विधायकों तथा एक विधायक पुत्र के सामने कितनी दाल गल पाएगी, यह देखने वाली बात होगी।
भाजपा की सबसे बड़ी समस्‍या ही यह है कि विश्‍व विख्‍यात धार्मिक नगरी मथुरा राजनीतिक रूप से उसके लिए चाहे कितनी ही महत्‍वपूर्ण क्‍यों न हो किंतु यहां उसके पास कद्दावर नेताओं का काफी समय से अभाव रहा है।
2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को रालोद के युवराज जयंत चौधरी को समर्थन देना पड़ा क्‍योंकि तब भी भाजपा के पास कोई दमदार उम्‍मीदवार नहीं था।
यह स्‍थिति तो तब है जबकि मथुरा से दो बार भाजपा की टिकट पर डॉ. सच्‍चिदानंद हरि साक्षी लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे और तीन बार वर्तमान जिलाध्‍यक्ष चौधरी तेजवीर सिंह सांसद चुने गए।
उधार के सिंदूर या बेवफाओं में से किसी को मेयर पद पर चुनाव लड़वाना भाजपा को इसलिए मुसीबत में डाल सकता है क्‍योंकि निवर्तमान पालिका अध्‍यक्ष मनीषा गुप्‍ता भी जनआंकाक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं। साथ ही उनके ऊपर पौने दो करोड़ रुपए के भ्रष्‍टाचार का आरोप भी एनजीटी में लंबित है।
मनीषा गुप्‍ता के कार्यकाल में यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए किए जाने वाले उपायों से पैसे का तो खूब बंदरबांट हुआ किंतु यमुना हर दिन पहले से अधिक प्रदूषित होती गई।
जाहिर है कि मनीषा गुप्‍ता के कार्यकाल की छाया भी इन नगर निकाय चुनावों में किसी न किसी स्‍तर पर देखने को जरूर मिलेगी क्‍योंकि यमुना प्रदूषण का मुद्दा फिर गर्माने लगा है। संत समाज भी यमुना प्रदूषण के मामले में न सिर्फ मथुरा-वृंदावन की नगर पालिकाओं से नाराज है बल्‍कि केन्‍द्र सरकार के आश्‍वासनों की घुट्टी से भी आजिज आ चुका है और उसने मार्च 2018 से इसके लिए आंदोलन करने का ऐलान कर दिया है।
वैसे भी देखा जाए तो फिलहाल मथुरा-वृंदावन नगर निगम के मेयर पद हेतु जिन दो पूर्व विधायकों के नाम सामने आ रहे हैं उनकी वफादारी के अलावा कार्यक्षमता पर भी पहले से सवालिया निशान लगे हैं। उनकी उम्र भी उनकी कार्यक्षमता को लेकर चुगली करती प्रतीत होती है जबकि नगर निगम बन जाने के बाद जनआकांक्षाएं काफी प्रबल हैं।
बल्‍देव क्षेत्र के विधायक पूरन प्रकाश के पुत्र पंकज प्रकाश ही एकमात्र ऐसे संभावित उम्‍मीदवार हो सकते हैं जो युवा होने के साथ-साथ अच्‍छे-खासे शिक्षित भी हैं लेकिन उनकी उम्‍मीदवारी में भाजपा की नीतियां आड़े आती हैं।
इस सबके बावजूद यदि भाजपा इन्‍हीं चर्चित लोगों में से किसी एक को मथुरा में मेयर पद के लिए खड़ा करती है तो यही माना जाएगा कि वह या तो उधार के सिंदूर से सुहाग सहेजने को मजबूर है या फिर बेवफाओं से वफादारी की उम्‍मीद पालकर मथुरा-वृंदावन की जनता को उसी दलदल में धकेलने जा रही है जिससे निकलने का जनता को वर्षों से इंतजार है।
रहा सवाल अन्‍य राजनीतिक दलों का तो समाजवादी पार्टी मथुरा में कभी किसी स्‍तर पर अपना जनाधार खड़ा नहीं कर सकी और बहुजन समाज पार्टी फिलहाल भाजपा के मुकाबले में दिखाई नहीं देती। कांग्रेस के पास भी अच्‍छे उम्‍मीदवारों का भारी अकाल है और राष्‍ट्रीय लोकदल की स्‍थिति उस बूढ़े सांड़ की तरह है जो खुरों से मिट्टी खोदकर रास्‍ते की धूल तो उड़ा सकता है किंतु किसी से मुकाबला करने की सामर्थ्‍य पूरी तरह खो चुका है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

कहीं आप भी तो नहीं हैं किसी “वैध” कॉलोनी के “अवैध” मकान मालिक ?

कहीं आप भी तो किसी ”वैध” कॉलोनी के ”अवैध” मकान मालिक नहीं हैं ?

हो सकता है कि यह प्रश्‍न आपको कुछ अजीब लग रहा हो, या आप सोचने लगे हों कि यदि कॉलोनी ”वैध” है तो मकान ”अवैध” कैसे हो सकता है ?

यदि आप यह सोच रहे हैं तो जान लीजिए कि ऐसा हो सकता है। साथ ही यह भी हो सकता है कि बिल्‍डर को लाखों रुपए देकर जिस मकान को आप अपना समझ रहे हैं वह कल किसी कोर्ट के आदेश पर ध्‍वस्‍त कर दिया जाए और आपकी जिंदगी भर की जमा पूंजी सहित वो पैसा भी डूब जाए जिसे आपने इस कथित वैध मकान को खरीदने के लिए बैंक या फिर साहूकार से कर्ज ले रखा हो।
ऐसी स्‍थिति में मकान तो आपका रहेगा नहीं, ऊपर से आप जिंदगीभर उस कर्ज के बोझ तले दबे रहेंगे जिसे लेकर आपने अपने लिए एक अदद आशियाने का सपना संजोया था।
वैसे तो रियल एस्‍टेट कंपनियों ने यह खेल पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर खेला है किंतु बात करें विश्‍व विख्‍यात धार्मिक जिले मथुरा की तो यहां भी ऐसे बिल्‍डर्स की कोई कमी नहीं है जिन्‍होंने अपने प्रोजेक्‍ट के किसी एक हिस्‍से का नक्‍शा पास कराकर उसमें सैकड़ों अवैध मकान, बंगले और फ्लैट बनाकर बेच दिए हैं।
नेशनल हाई-वे नंबर दो पर बने मल्‍टीस्‍टोरी प्रोजेक्‍ट्स में नियम-कानून की किस कदर धज्जियां उड़ाई गई हैं, इन्‍हें मौके पर जाकर ही समझा जा सकता है। यहां न तो नियम के मुताबिक पार्किंग की जगह छोड़ी गई है और न पार्क बनाए हैं। आग लगने की स्‍थिति में फायर ब्रिगेड की एक गाड़ी इनके अंदर मूव नहीं कर सकती जबकि सैकड़ों फ्लैट खड़े कर दिए गए हैं। भूकंप जैसी किसी प्राकृतिक आपदा के लिए यहां सिर छिपाने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है, और न किसी इमारत में भूकंपरोधी कोई इंतजाम किए गए हैं। हजारों जिंदगियां भगवान भरोसे रह रही हैं क्‍योंकि डेवलपमेंट अथॉरिटी चुप्‍पी साधे बैठी है।
रियल एस्‍टेट कंपनियों के इस खेल में तमाम वो सरकारी विभाग भी शामिल हैं जिनमें ऊपर से नीचे तक भ्रष्‍टाचार व्‍याप्‍त है और वो बैंकें भी लिप्‍त हैं जो बिल्‍डर्स से ऑब्‍लाइज होकर उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तत्‍पर रहती हैं।
दरअसल, रियल एस्‍टेट कंपनियों और बिल्‍डर्स का यह खेल वहीं से शुरू हो जाता है जहां से किसी प्रोजेक्‍ट का नक्‍शा पास कराने की प्रक्रिया शुरू होती है। कोई भी रियल एस्‍टेट कंपनी या बिल्‍डर कभी अपने पूरे प्रोजेक्‍ट का नक्‍शा एकसाथ पास नहीं कराता क्‍योंकि पूरे प्रोजेक्‍ट का एकसाथ नक्‍शा पास कराने के लिए उसे प्रोजेक्‍ट का एकमुश्‍त डेवलपमेंट चार्ज भी जमा कराना होता है। प्रोजेक्‍ट के किसी छोटे से हिस्‍से का नक्‍शा पास कराकर वह उसका प्रचार-प्रसार शुरू कर देता है और उसके नाम पर पैसा इकठ्ठा करने लगता है।
इस प्रक्रिया में नगर पालिका, नगर पंचायत, जिला पंचायत तथा अग्‍निशमन विभाग आदि भी रियल एस्‍टेट कंपनियों तथा बिल्‍डर्स को नियम विरुद्ध एनओसी देकर मदद करते हैं।
विकास प्राधिकरण से एकबार नक्‍शा पास हो जाने पर यह मान लिया जाता है कि सबकुछ जायज है लिहाजा रियल एस्‍टेट कंपनियों और बिल्‍डर्स को मनमानी करने की पूरी छूट मिल जाती है।
बताया जाता है कि मथुरा जनपद में नेशनल हाई-वे नंबर दो से लेकर वृंदावन, और गोवर्धन तक ऐसे प्रोजेक्‍ट्स की भरमार है जिनमें विकास प्राधिकरण से एप्रूव्‍ड नक्‍शे के अलावा सैकड़ों मकान फर्जी तरीके से बनाकर खड़े कर दिए गए।
किसी प्रोजेक्‍ट में चार टावर का अप्रूवल लेकर छ: टावर खड़े कर दिए गए तो किसी में अवैध व्‍यापारिक कॉम्‍पलेक्‍स बना दिए गए। किसी प्रोजेक्‍ट में ”प्रस्‍तावित” नक्‍शे के आधार पर ही पूरा निर्माण करा दिया गया तो किसी में मॉरगेज प्‍लॉट पर भी मकान खड़े कर दिए गए।
भ्रष्‍टाचार की नींव पर खड़े किए गए इन मकान और दुकानों का आलम यह है कि कहीं-कहीं तो ग्राम समाज की जमीन इसके लिए इस्‍तेमाल कर ली गई है और कहीं नहर, नाले व बंबों को पाटकर फ्लैट खड़े कर दिए गए हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि वैध कॉलोनियों में बने ऐसे अवैध मकानों में आज अनेक लोग रह रहे हैं और दुकानों में कारोबार शुरू हो गया है लेकिन इन रहने वालों तथा कारोबार करने वालों को पता तक नहीं कि उनके ऊपर हर पल एक नंगी तलवार लटक रही है।
जहां तक सवाल विकास प्राधिकरण का है तो उसके अधिकारी और कर्मचारी पूरी मलाई मारकर अब तमाशबीन बने हुए हैं क्‍योंकि 01 मई 2017 से ”रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट” अर्थात RERA लागू होने के बाद से उनके लिए भी काले को सफेद करना इतना आसान नहीं रह गया।
यह बात अलग है कि विकास प्राधिकरण, बिल्‍डर्स के अधिकांश काले कारनामों की ओर से अब भी आंखें फेरे बैठा है और कार्यवाही के लिए ऐसी अथॉरिटी के आदेश-निर्देश का इंतजार कर रहा है जिसके बाद वह आराम से यह कह सके कि अब हमारे हाथ में कुछ रहा ही नहीं।
रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट के अनुसार अब किसी भी रियल एस्‍टेट कंपनी या बिल्‍डर को प्रोजेक्‍ट के गेट पर प्रोजेक्‍ट का पूरा ”ले-आउट” संबंधित अथॉरिटी से पास नक्‍शे सहित लगाना अनिवार्य है, जिससे खरीदार को पता लग सके कि उसके प्रोजेक्‍ट में कितनी तथा कौन-कौन सी इकाइयां पास हैं और उनका निर्माण कितने समय में पूरा हो जाएगा।
चूंकि यह नियम निर्माणाधीन प्रोजेक्‍ट सहित सभी पुराने प्रोजेक्‍ट्स पर भी लागू किया गया है इसलिए पूरे हो चुके प्रोजेक्‍ट भी इस दायरे में आते हैं, लेकिन अब तक किसी ऐसे प्रोजेक्‍ट पर बाहर नक्‍शा चस्‍पा नहीं किया गया और ना ही डेवलपमेंट अथॉरिटी ने किसी प्रोजेक्‍ट पर इसे लेकर कोई कार्यवाही की है।
इसी प्रकार रियल एस्‍टेट के हर कारोबारी, ग्रुप या कंपनी को RERA के तहत अपना रजिस्‍ट्रेशन कराना अनिवार्य है और उस रजिस्‍ट्रेशन की जानकारी के साथ प्रोजेक्‍ट की वेबसाइट पर पैसे का पूरा ब्‍यौरा भी दिया जाना जरूरी है किंतु यहां तो कई नामचीन बिल्‍डर्स ने अब तक न RERA में रजिस्‍ट्रेशन कराया है और ना ही उनकी कोई वेबसाइट है। इन हालातों में उनसे ब्‍यौरा उपलब्‍ध कराने की उम्‍मीद भी कैसे की जा सकती है।
इस पूरे घपले-घोटाले का एक महत्‍वपूर्ण पहलू किसी प्रॉपर्टी की रजिस्‍ट्री कराने में छिपा है क्‍योंकि रजिस्‍ट्री कार्यालय को सिर्फ और सिर्फ मतलब है तो रैवेन्‍यू वसूलने से, बाकी कौन कितना काला-पीला करता है, इससे उसे कोई वास्‍ता नहीं।
उसका सारा फोकस रजिस्‍ट्री के लिए जरूरी स्‍टांप लगवाने तथा उसमें हेर-फेर के लिए सुविधा शुल्‍क वसूलने तक सीमित है, बाकी जिम्‍मेदारी क्रेता तथा विक्रेता की है क्‍योंकि जब भी फंसते हैं तो वही फंसते हैं। रजिस्‍ट्री विभाग अपना पल्‍लू झाड़कर खड़ा हो जाता है।
यही कारण है कि रियल एस्‍टेट के कारोबारी पहले भी खरीदारों को बड़े इत्‍मीनान से लूटते रहे और आज भी लूट रहे हैं क्‍योंकि RERA लागू होने के बावजूद डेवलपमेंट अथॉरिटी ने नए कानून पर अमल करना शुरू नहीं किया है।
अथॉरिटी से शायद ही किसी नामचीन बिल्‍डर को अब तक RERA के तहत रजिस्‍ट्रेशन न कराने, वेबसाइट न बनवाने, नक्‍शा प्रदर्शित न करने तथा खरीदारों से प्राप्‍त रकम का ब्‍यौरा न देने पर नोटिस जारी किया गया हो।
डेवलपमेंट अथॉरिटी की इस ढील का कुछ बिल्‍डर तो भरपूर फायदा उठा रहे हैं और अब भी ऐसी इकाइयों को बेच रहे हैं जिनके नक्‍शे तक पास नहीं कराए गए।
ठीक इसी प्रकार अधिकांश पॉश कॉलोनियों में बिना नक्‍शा पास कराए दो से चार मंजिल तक का निर्माण कार्य अपनी मनमर्जी से करा लिया गया है लेकिन न कोई रोकने वाला है और न टोकने वाला। इस स्‍थिति में सरकार को तो राजस्‍व की बड़ी हानि हो ही रही है, साथ ही कॉलोनियों की वैधता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
विकास प्राधिकरण की भ्रष्‍ट तथा लचर कार्यप्रणाली का ही परिणाम है कि रियल एस्‍टेट के बहुत से करोबारी आम जनता का अरबों रुपया अब भी दबाकर बैठे हैं और उनके नीचे फंसे लोग किसी तरह अपनी जान छुड़ाने के प्रयास में हैं।
कोई कोर्ट कचहरी के चक्‍कर लगा रहा है तो कोई पुलिस से उम्‍मीद पाले बैठा है किंतु समस्‍या यह है कि बिना ठोस लिखा-पढ़ी के उनके लिए बिल्‍डर्स से निपटना आसान नहीं है।
हाल ही में नोएडा विकास प्राधिकरण ने कई नामचीन रियल एस्‍टेट कंपनी के सैकड़ों फ्लैट्स को अवैध घोषित कर दिया है। ये वो फ्लैट्स हैं जिनका पूरा पैसा बिल्‍डर्स की जेब में पहुंच चुका है। शासन-प्रशासन तक इन बिल्‍डर्स के सामने असहाय है क्‍योंकि वह अपने हाथ खड़े करने को तैयार बैठे हैं। कोर्ट में भी उन्‍होंने अपनी आर्थिक बदहाली का रोना रोकर राहत पाने की कोशिश की थी, हालांकि कोर्ट ने उनके घड़ियालू आंसुओं पर तवज्‍जो नहीं दी।
नोएडा डेवलेपमेंट अथॉरिटी इन नामचीन बिल्‍डर्स से कैसे निपटेगी और कैसे उन हजारों लोगों को राहत पहुंचाएगी जो इनके नीचे अपनी तमाम पूंजी फंसा बैठे हैं, यह प्रश्‍न तब गौण हो जाता है जब पता लगता है कि यहां सवाल सिर्फ दिल्‍ली से सटे नोएडा का नहीं है, सवाल मथुरा जैसे छोटे किंतु विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक शहरों का भी है जहां न केवल स्‍थानीय लोग ऐसे बिल्‍डर्स का शिकार बन रहे हैं बल्‍कि बाहरी लोग भी इनके शिकंजे में फंसे हुए हैं। उन्‍हें नहीं पता कि जिस प्रोजेक्‍ट को वैध समझकर उन्‍होंने मुंहमांगे दामों पर मकान या फ्लैट खरीदा है, उस प्रोजेक्‍ट के अंदर ही अवैध निर्माण कराकर उन्‍हें लूटा गया है।
इससे भी अधिक आश्‍चर्य तब होता है जब पता लगता है कि स्‍थानीय डेवलपमेंट अथॉरिटी की मिलीभगत तथा उसकी भ्रष्‍ट कार्यप्रणाली के चलते लूट का यह सिलसिला अब भी जारी है और ”रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट” अर्थात RERA जैसा सख्‍त कानून भी फिलहाल तो ताक पर रखा हुआ है।
बताया जाता है कि हाल ही मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की कमान संभालने वाली महिला आईएएस अधिकारी को विभाग की कार्यप्रणाली सुधारने के लिए खासे पापड़ बेलने पड़ रहे हैं किंतु विभागीय कर्मचारी हैं कि सुधरने का नाम नहीं ले रहे क्‍योंकि उन्‍हें पहले से चली आ रही अतिरिक्‍त कमाई पर आंच आना मंजूर नहीं। फिर चाहे बिल्‍डर किसी को लूटें या लुटे हुओं को ठेंगा दिखाकर खुलेआम रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट को चुनौती दें।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 16 सितंबर 2017

सैकड़ों करोड़ की देनदारी मारकर भागने की तैयारी में है ”मथुरा का एक बड़ा बिल्‍डर”

सैकड़ों करोड़ की देनदारी मारकर मथुरा का एक बड़ा बिल्‍डर बाहर भागने की तैयारी कर रहा है।
बिल्‍डर से जुड़े सूत्रों की मानें तो इस पर करीब दो सौ करोड़ की देनदारी है लेकिन यह उसे अब हड़पना चाहता है।
बताया जाता है कि पिछले काफी समय से देनदार इस बिल्‍डर से अपना पैसा निकालने को दबाव बना रहे हैं किंतु वह उन्‍हें अब तक मीठी गोली देकर टहलाता रहा है।
जमीनी कारोबार से जुड़े लोगों का कहना है कि पिछले कुछ महीनों के अंदर इस बिल्‍डर ने अपनी कई संपत्तियों को बेचा है लेकिन देनदारों को फूटी कौड़ी नहीं चुकाई, जिससे उसकी नीयत में खोट का पता लगता है।
देनदारों ने हालांकि कई बार बिल्‍डर के आवास तथा विभिन्‍न कार्यालयों एवं व्‍यावसायिक प्रतिष्‍ठानों पर पहुंचकर भी हंगामा किया है किंतु वह उन्‍हें सिर्फ ब्‍याज देने की बात करता रहा है।
देनदारों का कहना है कि अब उन्‍हें बिल्‍डर पर भरोसा नहीं रहा लिहाजा वह ब्‍याज नहीं, अपना मूलधन निकालना चाहते हैं क्‍योंकि वैसे भी उन्‍होंने उसे बहुत कम ब्‍याज दर पर पैसा दे रखा है।
करोड़ों रुपए इस बिल्‍डर के नीचे फंसाए बैठे एक व्‍यक्‍ति ने बताया कि जब भी वह तथा उसके जैसे दूसरे लेनदार बिल्‍डर से अपना पैसा मांगते हैं तो वह रियल एस्‍टेट कारोबारियों की एसोसिएशन से जुड़े एक पदाधिकारी के साथ बैठकर पंचायत करने की बात करता है जबकि देनदारों का कहना है कि उन्‍होंने एसोसिएशन के पदाधिकारी को नहीं, पैसा उसे दिया है लिहाजा वह किसी दूसरे के बीच बैठकर पंचायत क्‍यों करें।
लेनदारों के मुताबिक इस बिल्‍डर का मुख्‍य उद्देश्‍य औने-पौने दामों पर शहर से दूर खरीदी गई अपनी जमीन तथा उस पर बनाए गए फ्लैट्स को मनमानी कीमत पर देनदारों को जबरन बेचना है जिससे उसके कई हित पूरे होते हैं।
लेनदारों ने स्‍पष्‍ट किया कि मूलधन मांगने पर बिल्‍डर या तो फिलहाल ब्‍याज लेकर काम चलाने की बात कहता है या फिर प्‍लॉट अथवा फ्लैट की रजिस्‍ट्री करा लेने को बाध्‍य करता है।
गौरतलब है कि मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी से सर्वाधिक प्रभावित यदि कोई कारोबार हुआ तो वह है रियल एस्‍टेट का कारोबार, क्‍योंकि रियल एस्‍टेट के कारोबार में बड़े पैमाने पर कालेधन का इस्‍तेमाल होता था।
एक ओर नोटबंदी और दूसरी ओर रियल एस्टेट रेगुलेशन एक्ट ”रेरा” बन जाने के कारण रियल एस्‍टेट कारोबारियों की कमर टूट गई। ऐसे में जिनकी नीयत खोटी नहीं थी, वह तमाम दिक्‍कतों के बावजूद अपना कारोबार खड़ा रखने में सफल रहे किंतु खोटी नीयत वालों ने बिना लिखा-पढ़ी के बाजार से लिया हुआ पैसा हड़पने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया।
उन्‍होंने एक तीर से कई निशाने साधने की कहावत चरितार्थ करते हुए देनदारों से कहा कि या तो ब्‍याज लेकर काम चलाएं अथवा मुंहमांगी कीमत पर प्‍लॉट और फ्लैट्स लेकर अपने घर बैठें।
कुछ वर्षों पहले तक बहुत मामूली हैसियत वाले इस बिल्‍डर की नीयत में खोट आने का मुख्‍य कारण इसकी आपराधिक पृष्‍ठभूमि बताई जाती है।
बताया जाता है कि कभी छोटे-मोटे काम करके जीविका चलाने और फिर कुछ समय तक ठेकेदारी करने वाले इस बिल्‍डर पर बस लूट जैसे संगीन आरोप भी लगे हैं किंतु पिछले कुछ वर्षों से इसने खुद को शहर के नामचीन बिल्‍डर्स की जमात में शामिल कर लिया था और इसलिए लोग इसके अतीत से अपरिचित होते गए।
इसी बात का लाभ उठाकर इस बिल्‍डर ने कभी अपने किसी स्‍क्रैप व्‍यवसायी मित्र को चूना लगाया तो कभी किसी पूर्व विधायक को। कभी टोंटी के किसी कारोबारी को तो कभी किसी लिखिया को।
बिल्‍डर के नजदीकी सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि एक प्रसिद्ध धार्मिक संस्‍था ने भी करोड़ों रुपए का कर्ज बहुत मामूली ब्‍याज दर पर इस बिल्‍डर को दिया हुआ है किंतु इन दिनों वह धार्मिक संस्‍था खुद अवैध कब्‍जों के आरोप झेल रही है इसलिए वह कुछ कहने की स्‍थिति में नहीं है।
इस धार्मिक संस्‍था पर सरकार ने इतना शिकंजा कसा हुआ है कि वह दूसरे झंझटों में फंसने से बच रही है लेकिन निकट भविष्‍य में वह भी बिल्‍डर से अपना पैसा निकालने की कोशिश जरूर करेगी।
प्रदेश सरकार में एक कबीना मंत्री और उनके खास सिपहसालार को अपना संरक्षक बताने वाले इस बिल्‍डर की नीयत में खोट का अंदाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसने अपने सगे भाइयों तक को नहीं बख्‍शा और उनका भी मोटा पैसा अपने नीचे हमेशा दबाकर रखा।
बाजार में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए इस बिल्‍डर ने अपनी राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा को भी परवान चढ़ाने की भरपूर कोशिश की किंतु उसमें वह सफल नहीं हुआ क्‍योंकि इसके राजनैतिक आका इसकी महत्‍वाकांक्षा कभी पूरी नहीं होने देना चाहते थे। हालांकि उन्‍होंने इस पर अपना वरदहस्‍थ हमेशा बनाए रखा।
बाजार से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इस बिल्‍डर पर पड़ोसी जनपद हाथरस व अलीगढ़ के लोगों का तो काफी पैसा है ही किंतु मथुरा के लोगों का भी कम पैसा नहीं है। ये लोग अब हर हाल में अपना पैसा इसके नीचे से निकालने की कोशिश कर रहे हैं।
ऐसी भी खबरें देनदारों को मिल रही हैं कि पूर्व में यह बिल्‍डर कई लोगों का पैसा हड़प चुका है। इनमें से कृष्‍णा नगर शंकर विहार निवासी एक व्‍यक्‍ति को तो शहर छोड़कर जाने पर मजबूर होना पड़ा क्‍योंकि इसके नीचे पैसा फंस जाने के कारण वह खुद बड़ा कर्जदार हो गया था। रातों-रात अपना सबकुछ छोड़कर वह ऐसा गया कि आजतक उसका कोई सुराग नहीं है।
जो भी हो, इधर देनदार अब इस बिल्‍डर पर जितना दबाव बना रहे हैं उधर बिल्‍डर इन देनदारों को चूना लगाकर मथुरा से बाहर भाग जाने की तैयारी में बताया जाता है।
सूत्र बताते हैं कि बीमारी का इलाज कराने के बहाने यहां से निकलने की योजना बना रहा यह बिल्‍डर देश से ही बाहर जाने की तैयारी कर रहा है ताकि फिर किसी के हाथ न आ सके।
यही कारण है कि पिछले कई महीनों से यह अपने स्‍वामित्‍व वाली संपत्तियों को बेचने में लगा है और कई संपत्तियां बेच भी चुका है।
बिल्‍डर जानता है कि यदि देनदारों ने एकजुट होकर पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाना शुरू कर दिया और एकबार कानूनी प्रक्रिया शुरू हो गई तो फिर उसका भाग निकलना आसान नहीं होगा।
देनदार भी इस सच्‍चाई को समझ रहे हैं और कुछ देनदारों ने अपने स्‍तर से पुलिस प्रशासन की मदद लेने के लिए हाथपैर मारना शुरू भी किया है लेकिन फिलहाल उन्‍हें सफलता मिली नहीं है।
अब देखना यह है कि बिल्‍डर अपने मकसद में सफल होता है या देनदार समय रहते उस पर कानूनी शिकंजा कसवा पाते हैं।
कहीं ऐसा न हो कि यह मामला कल्‍पतरू ग्रुप के मालिक राणा की तरह उलझ कर रह जाए और देनदार आत्‍महत्‍या करने पर मजबूर हों क्‍योंकि प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी के एक मंत्री से राजनीतिक संरक्षण तो इसे भी प्राप्‍त है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

दिग्‍गी जैसे राजनीतिक शत्रुओं के रहते मोदी को किसी मित्र की दरकार कहां

आचार्य विष्‍णुगुप्‍त ”चाणक्‍य” ने कहा है कि कामयाब होने के लिए जहां अच्‍छे मित्रों की आवश्‍यकता होती है वहीं ज्‍यादा कामयाब होने के लिए प्रबल शत्रुओं की आवश्‍यकता होती है।
याद करें 2002 के गुजरात दंगे, जिनके बाद नरेन्‍द्र मोदी एक ओर जहां विपक्षी पार्टियों के निशाने पर आ गए थे वहीं दूसरी ओर भाजपा के भी कुछ नेताओं को खटकने लगे थे।
कहते हैं कि तत्‍कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तब नरेन्‍द्र मोदी को राजधर्म निभाने की सीख दी थी और वो उन्‍हें गुजरात के मुख्‍यमंत्री पद से हटाना चाहते थे किंतु आडवाणी ने मोदी का पक्ष लिया।
अटल और आडवाणी की बात छोड़ दें तो तब से लेकर 2014 के लोकसभा चुनावों तक नरेन्‍द्र मोदी का गुजरात दंगों ने पीछा नहीं छोड़ा। न्‍यायालय में कोई आरोप सिद्ध न होने के बावजूद मोदी को उनके प्रबल शत्रु हमेशा कठघरे में खड़ा करते रहे और मोदी यथासंभव अपनी सफाई पेश करते रहे। मीडिया ने भी उन्‍हें आरोपी बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बहरहाल…गुजरात की राजनीति करते-करते नरेन्‍द्र दामोदर दास मोदी कैसे अचानक पूरे देश की राजनीति पर छा गए, यह तो पता नहीं किंतु इतना जरूर पता है कि उन्‍हें इस मुकाम तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका उनके शत्रुओं की ही है।
वैसे तो नरेन्‍द्र मोदी के शत्रुओं की कमी न पार्टी के अंदर कभी रही और न बाहर, लेकिन जब से उन्‍होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला है तब से शत्रुओं की संख्‍या में भारी इजाफा देखने को मिल रहा है।
आश्‍चर्य की बात यह है कि शत्रुओं की संख्‍या के अनुपात में ही न सिर्फ नरेन्‍द्र मोदी बल्‍कि भाजपा भी तरक्‍की के पायदान चढ़ती जा रही है।
कभी सोनिया गांधी ने मोदी को ”मौत का सौदागर” बताया तो कभी उनके पुत्र राहुल गांधी ने उन पर ”खून की दलाली” करने का इल्‍जाम लगाया। सोनिया और राहुल सहित विपक्ष ने मोदी को जितना ज्‍यादा निशाने पर लिया, मोदी का कद उतना ही बढ़ता गया।
बुधवार से अब कांग्रेसी नेता दिग्‍विजय सिंह द्वारा प्रधानमंत्री के पद पर काबिज नरेन्‍द्र मोदी के बारे में गालियों की हद तक जाकर अमर्यादित भाषा का इस्‍तेमाल किया जाना चर्चा का विषय बना हुआ है।
कांग्रेसियों का इस विषय में तर्क है कि नरेन्‍द्र मोदी अपने टि्वटर अकाउंट पर एसे तमाम लोगों को फॉलो करते हैं जो दिन-रात विपक्ष के लिए अपशब्‍द इस्‍तेमाल करते देखे जा सकते हैं।
कांग्रेसियों का तर्क आसानी से किसी शिक्षित व्‍यक्‍ति के गले नहीं उतर सकता।
क्‍या किसी को इसलिए अभद्र भाषा इस्‍तेमाल करने, गालियां बकने, अपशब्‍दों का प्रयोग करने अथवा अशिष्‍टता करने का अधिकार प्राप्‍त हो जाता है कि दूसरे बहुत से लोग ऐसा करते हैं।
यदि असभ्‍य और अशिष्‍ट लोग ही कांग्रेसी नेताओं के आदर्श हैं तो फिर कुछ भी कहना निरर्थक होगा अन्‍यथा कांग्रेस को दूसरों का उदाहरण न देकर कांग्रेस की संस्‍कृति पर गौर करना चाहिए।
कांग्रेसियों को सोचना चाहिए कि वह किस पार्टी से जुड़े हैं, उस पार्टी का राजनीतिक इतिहास क्‍या है, उसके नेताओं का कद कैसा रहा है, देश में उनकी पहचान क्‍या है?
न कि इस आशय के खोखले तर्क देने चाहिए कि नरेन्‍द्र मोदी के टि्वटर अकाउंट की फॉलोइंग में गाली देने वाले भी शामिल हैं।
नरेन्‍द्र मोदी यदि आज कुछ गलत कर रहे हैं तो तय जानिए कि इसका खामियाजा उन्‍हें भुगतना होगा, किंतु फिलहाल तो वक्‍त यह विचार करने का है कि कांग्रेस ने ऐसा क्‍या किया जिससे वो अपने वजूद को भी कायम रखने की लड़ाई लड़ रही है।
आज स्‍थिति यह है कि कांग्रेस के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष जैसे पद को सुशोभित करने वाली सोनिया गांधी से लेकर उनके पुत्र और कांग्रेस के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी तक तथा दिग्‍विजय सिंह जैसे वरिष्‍ठ कांग्रेसी नेता से लेकर मणिशंकर अय्यर व पी. चिदम्‍बरम तक कहीं कोई अंतर नजर नहीं आता।
सड़क छाप लोगों की भाषा में और देश का भाग्‍य विधाता बनने को आतुर लोगों की भाषा में कहीं तो कोई भेद दिखाई देना चाहिए।
दिग्‍विजय सिंह ने जहां प्रधानमंत्री के प्रति अपशब्‍दों का प्रयोग करके यह साबित किया है कि क्‍वालिफिकेशन से एजुकेशन का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता, वहीं अब दिग्‍विजय सिंह का समर्थन करने वाले यह प्रमाणित कर रहे हैं कि राजनीति कितनी सड़क छाप हो गई है।
इसे यूं भी कह सकते हैं कि राजनीति में किसी तरह ऊंचाइयां छू लेने वाले लोग जरूरी नहीं कि सड़क छाप न हों।
दिग्‍विजय सिंह ने तो अपने निम्‍नस्‍तरीय कृत्‍य से उस कुलीन कुल को भी कलंकित किया है जिसमें वो पैदा हुए थे और जिसके कारण आज तक लोग उन्‍हें ”दिग्‍गी राजा” कहते हैं।
नि: संदेह भारतीय जनता पार्टी में भी ऐसे तत्‍व हैं जो आये दिन अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं और भाषा तथा आचरण की मर्यादा एवं पद की गरिमा का भी ध्‍यान नहीं रखते, किंतु इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे लोगों को उनसे असभ्‍य आचरण का अधिकार प्राप्‍त हो जाता हो।
प्रधानमंत्री कोई व्‍यक्‍ति नहीं, एक पद है। एक ऐसा पद जिससे देश की मान-मर्यादा बंधी है। उस पद पर हमारे देश में कोई सत्‍ता छीनकर नहीं बैठ जाता, देश की जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करके उसे उस पद पर प्रतिष्‍ठापित करती है।
जाहिर है कि यदि कोई उस पद पर बैठे व्‍यक्‍ति के लिए गालियों का प्रयोग कर रहा है तो इसका सीधा मतलब है कि वह देश की जनता के साथ-साथ देश का भी अपमान कर रहा है। राजनीति को लज्‍जित कर रहा है।
दिग्‍विजय सिंह भी एक लंबे समय तक मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री रहे हैं। राजनीति में अवसान, कोई अनहोनी बात नहीं। राजनीति तो सदा से ही अप्रत्‍याशित नतीजों का खेल रही है। शून्‍य से शिखर तक पहुंचने की अनेक कहानियों से राजनीति का इतिहास भरा पड़ा है। कांग्रेस यदि आज हाशिए पर है तो कभी भाजपा भी हाशिए पर रही है।
प्रतिद्वंदियों के प्रति घृणा की हद तक दुर्भावना रखने वाले राजनीतिज्ञ राजनीति को तो कलंकित करते ही हैं, चाणक्‍य के उस कथन को भी साबित करते हैं कि ज्‍यादा कामयाब होने के लिए प्रबल शत्रुओं की आवश्‍यकता होती है।
और शत्रु यदि दिग्‍विजय सिंह जैसा हो तो निश्‍चित जानिए कि तरक्‍की के लिए किसी मित्र की आवश्‍यकता रह नहीं जाती।
कांग्रेस चाहे तो अब भी समझ सकती है कि आज यदि नरेन्‍द्र मोदी उसे और समूचे विपक्ष को अपराजेय नजर आ रहे हैं तो उसके पीछे मोदी का कोई तिलिस्‍म कम, कांग्रेस और कांग्रेसियों सहित विपक्ष के प्रबल शत्रुओं का बड़ा योगदान है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

यूपी: राज्य वित्त आयोग से मिली धनराशि में बड़ा घोटाला सामने आया

कानपुर। ग्रामीण विकास के लिए राज्य वित्त आयोग से मिली धनराशि में बड़ा घोटाला सामने आया है। घाटमपुर, पतारा, चौबेपुर, शिवराजपुर, बिधनू और भीतरगांव ब्लाक के 200 से अधिक गांवों में 64,65,01, 967 रुपये घोटाले की भेंट चढ़ गए। यह खुलासा सहकारी समितियां एवं पंचायतें विभाग के ऑडिटर्स ने किया। ऑडिट के दौरान प्रधान और पंचायत सचिव कोई हिसाब नहीं दे सके। मांगने के बाद भी उन्होंने बिल, बाउचर और कैशमेमो नहीं दिया। अब डीपीआरओ को रिपोर्ट भेजी गई है और उनसे 60 दिन में जवाब उपलब्ध कराने को कहा गया है।
गांवों के विकास को आने वाले धन में खूब बंदरबांट होती है। वजह, जिला पंचायत राज अधिकारी, खंड विकास अधिकारी व अन्य अफसरों की अनदेखी है। इसका फायदा उठाते हुए प्रधान, ग्राम पंचायत अधिकारी एवं ग्राम्य विकास अधिकारी (सचिव) घोटाले कर रहे हैं। ऑडिटर्स ने अलग-अलग वित्तीय वर्ष में हुए कार्यों का ऑडिट किया। पत्रावलियों में तो खूब विकास हुआ लेकिन विकास कार्य के लिए ईंट व अन्य सामग्री कहां से खरीदी गई इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। ऑडिटरों ने बैंकों से प्रधानों के खाते का विवरण लिया तो पता चला कि किसने कब और कितनी धनराशि खर्च की।
ज्येष्ठ लेखा परीक्षा अधिकारी सुनील कुमार ने भीतरगांव ब्लाक के धमना बुजुर्ग, सूलपुर, हसपुर, भीतरगांव, गूंजा, बैजूपुर, बरीगांव, बेहटा गंभीरपुर समेत 56 गांवों का ऑडिट किया है। वहीं, सहायक लेखा परीक्षा अधिकारी प्रमोद कुमार ने पतारा ब्लाक के छाजा, हथेई, भदेवना, बम्बुराहा, सहलुरती, गिरसी समेत 24 गांवों का ऑडिट किया। इसी तरह घाटमपुर, चौबेपुर, शिवराजपुर, बिधनू आदि ब्लाकों के 200 से अधिक गांवों में हुए कार्यों का ऑडिट किया गया। पतारा में वित्तीय वर्ष 2004-05 से 2013-14 के बीच हुए कार्यों का ऑडिट हुआ। इसी तरह अन्य गांवों में भी अलग-अलग वित्तीय वर्ष के कार्यों का ऑडिट किया गया।
क्या कहते हैं अधिकारी
”अगर अनियमितता है तो जो भी दोषी हैं उन पर कार्यवाही होगी। डीपीआरओ से रिपोर्ट मंगाकर देखेंगे।
– अरुण कुमार, सीडीओ
”ऑडिट में गबन पकड़ा गया है। डीपीआरओ को रिपोर्ट भेजी गई है। 64 करोड़ रुपये से अधिक का गबन है।
– शिवपाल हंस, प्रभारी सहायक लेखा परीक्षा अधिकारी

धर्म के धंधे में मीडिया भी है पूरी तरह सहभागी

धर्म के धंधे में नेताओं के साथ-साथ मीडिया भी पूरी तरह सहभागी था, सहभागी है और आगे भी पता नहीं कब तक सहभागी रहेगा क्‍योंकि मीडिया ने अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत अब भी महसूस नहीं की है। हालांकि हरियाणा के बवाल में मीडिया डेरा समर्थकों के निशाने पर रहा लेकिन लगता नहीं कि उससे मीडिया ने कोई सबक सीखा हो।
डेरा सच्‍चा सौदा प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह इंसा को दो साध्‍वियों के साथ दुराचार के मामले में 20 साल की सजा हो गई। दुराचार के ही मामले में आसाराम बापू सलाखों के पीछे है। हरियाणा का ही एक अन्‍य कथित संत रामपाल भी जेल में बंद है। नित्‍यानंद तथा भीमानंद जैसे दुष्‍कर्मियों के केस फिलहाल अदालतों में लंबित हैं।
दुराचार के आरोपी रहे कृपालु महाराज अब इस दुनिया में नहीं हैं। देश ही नहीं, देश के बाहर तक महिला यौन उत्‍पीड़न के आरोपी रहे कृपालु महाराज की त्रिनिदाद एण्‍ड टोबेगो में गिरफ्तारी भी हुई थी।
कृपालु महाराज के शिष्‍य प्रकाशानंद को यौन उत्‍पीड़न के केसों में दोषी ठहराए जाने के बाद अमरीकी पुलिस आज तक तलाश रही है।
”कृपालु महाराज” का यह शिष्‍य दरअसल दो युवा लड़कियों का यौन उत्‍पीड़न करने के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद अमरीकी अदालत को चकमा देकर भाग खड़ा हुआ। प्रकाशानंद को टेक्सास की हेज काउन्टी ज्यूरी द्वारा 14 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई थी।
इस्लामिक उपदेशक जाकिर नाइक धर्म की आड़ में किस तरह लोगों को आतंकवाद के लिए प्रेरित करता था और किस तरह उसने धर्म को धंधा बनाकर बेहिसाब संपत्ति अर्जित कर ली, इसका भी खुलासा हो चुका है और अब वह कानून की गिरफ्त में है।
इस्‍लामिक रिसर्च फांउडेशन की आड़ में वह क्‍या रिसर्च कर रहा था, इसकी पोल तब खुली जब बांग्‍लादेश में पकड़े गए आतंकियों ने बताया कि वह जाकिर नाइक के उपदेशों से प्रेरित थे।
ईसाई धर्म में भी अंधश्रद्धा और पाखंड की भरमार है। विभिन्‍न ईसाई धर्मगुरुओं पर उनके क्रिया-कलापों को लेकर उंगलियां उठती रही हैं। भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाने वाली नन मदर टेरेसा भी पूरी तरह निर्विवाद नहीं रहीं।
स्‍वर्ण मंदिर पर हुए ऑपरेशन ब्‍ल्यू स्‍टार में मारा गया आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाला भी खुद को ताजिंदगी बतौर सिख धर्मगुरू पेश करता रहा। मंदिर को वह अपना अड्डा भी सिख धर्म की आड़ लेकर बना पाया।
दिव्‍य पाठ और अपने बीज मंत्रों से लोगों की असाध्‍य बीमारियों को ठीक करने तथा जीवन के हर क्षेत्र में असफल रहने वाले लोगों को सफलता दिलाने का दावा करने वाला ”कुमार स्‍वामी” भी भले ही अभी कानून की पकड़ से दूर हो लेकिन गतिविधियां उसकी भी पूरी तरह संदिग्‍ध हैं।
बाबा जयगुरुदेव भी धर्मगुरुओं की ऐसी ही फेहरिस्‍त का हिस्‍सा था जिसने अपने अंधभक्‍तों को सतयुग आने का सपना दिखाकर अरबों की संपत्‍ति इकठ्ठी की। यह बात अलग है कि न सिर्फ बाबा जयगुरुदेव की संदिग्‍ध मौत हुई बल्‍कि उसके अनुयाई आज उसकी विरासत के लिए एक-दूसरे की जान के दुश्‍मन बने हुए हैं।
बाबा जयगुरुदेव द्वारा हड़पी गई सरकारी और गैर सरकारी जमीन से बाबा के अनुयायियों को बेदखल करने के लिए अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कड़े आदेश जारी किए हैं।
280 एकड़ में फैले सरकारी उद्यान विभाग को हड़पने की कोशिश में जयगुरुदेव के ही कथित शिष्‍य रामवृक्ष यादव ने किस तरह यहां खूनी खेल खेला और किस तरह दो पुलिस अधिकारियों की निर्मम हत्‍या कर दी, यह सर्वविदित है।
ये पुलिस अधिकारी भी कोर्ट के आदेश पर उद्यान विभाग से रामवृक्ष और उसके गुर्गों को बेदखल करने पहुंचे थे।
ऐसे सभी मामलों में इस बात की पुष्‍टि कदम-कदम पर हुई कि इनके सरगनाओं को राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त था और राजनीतिक संरक्षण के चलते प्रशासन इनके सामने हाथ बांधे खड़ा रहा। वोट बैंक की राजनीति ने नेताओं को इनके सामने नतमस्‍तक रखने पर मजबूर किया।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राजनीति के संरक्षण से धर्म को धंधा बनाने वालों का एक लंबा इतिहास है और हर दौर में धर्म के धंधेबाज सक्रिय रहे हैं। इनके तौर-तरीके अलग-अलग हो सकते हैं किंतु मकसद सबका अधिक से अधिक दौलत एवं शौहरत बटोरना रहा।
लेकिन ऐसे सभी मामलों में एक सवाल हमेशा अनुत्तरित रह जाता है, और वह सवाल यह है कि धर्म के धंधेबाजों की हवस को परवान चढ़ाने में क्‍या मीडिया की कोई भूमिका नहीं है ?
क्‍या मीडिया उतना ही निष्‍पक्ष है जितना कि वह खुद को तब दिखाने की कोशिश करता है जब किसी कथित धार्मिक गुरू का काला चिठ्ठा सार्वजनिक होता है अथवा वो कानून के शिकंजे में फंसकर सलाखों के पीछे जाता है ?
सच तो यह है कि मीडिया सिर्फ सुर्खियां बटोरता है, अन्‍यथा वह धर्म के हर धंधेबाज को बुलंदियों तक पहुंचाने में पूरा सहयोग करता रहा है और अब भी कर रहा है।
इस दौर के मीडिया पर पूरी तरह बिकाऊ होने का ठप्पा आमजन यूं ही नहीं लगाने लगा। उसके पीछे ठोस वजह है।
किसी भी किस्‍म के मीडिया को देख लें। विज्ञापन के जरिए पैसा उगाहने की खातिर मीडिया जगत हर स्‍तर तक गिरने को बेताब रहता है। एक ओर वह सबकुछ जानते व समझते हुए भी विभिन्‍न उत्‍पादों के फर्जी दावों वाले विज्ञापन प्रकाशित व प्रसारित करता है तो वहीं दूसरी ओर धर्म को ”धंधे की तरह” ग्‍लैमराइज करके परोसने से भी कोई परहेज नहीं करता। मीडिया भली-भांति जानता है कि अंडरगारमेंट्स से लेकर परफ्यूम तक और तेल व साबुन से लेकर मिर्च-मसालों तक के विज्ञापनों में उनके दावों का सच्‍चाई से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है परंतु वह फिर भी दिन-रात उनका प्रसारण कर रहा है क्‍योंकि उसे विज्ञापनों के भ्रमजाल से नहीं, अपनी कमाई से मतलब है। यही कारण है कि जिस किसी उत्‍पाद को जब कभी परखा गया है, तब उसके बारे में किया गया हर दावा फर्जी साबित हुआ है।
रियल एस्‍टेट के कारोबार में आज बड़ी-बड़ी नामचीन कंपनियों का सामने आ रहा फर्जीवाड़ा क्‍या मीडिया की सहभागिता के बिना हो गया। मीडिया ने बिना किसी छानबीन के उनके विज्ञापन प्रकाशित व प्रसारित नहीं किए होते तो निश्‍चित ही इतनी बड़ी संख्‍या में लोग रियल एस्‍टेट कंपनियों के फ्रॉड का शिकार नहीं बनते। आज जिन बातों को लेकर कोर्ट उनके खिलाफ आदेश-निर्देश दे रहा है, यदि उनकी असलियत विज्ञापन निकालने से पहले पता कर ली होती तो अनेक लोग धोखाधड़ी का शिकार होने से बच सकते थे।
बात चाहे तंत्र-मंत्र के माध्‍यम से किसी महिला का प्‍यार दिलाने के दावेदार सड़क छाप बाबा बंगाली के विज्ञापन की हो अथवा मसाज पॉर्लर से हजारों रुपए रोज की कमाई कराने वाले विज्ञापन की, मोबाइल टावर लगवाने जैसी धोखाधड़ी के लिए विज्ञापन कराने की हो या फिर रंगीन मिजाज लोगों के लिए अश्‍लील बातें कराने के प्रचार-प्रसार की, मीडिया को किसी से गुरेज नहीं है। उसे गुरेज है तो इस बात से कि उसका धंधा न छिन जाए। बाकी तो पैसा देकर कोई कुछ भी प्रकाशित व प्रसारित कराने के लिए स्‍वतंत्र है।
कुमार स्‍वामी के शत-प्रतिशत झूठे दावों को लाखों रुपए लेकर जैकेट पेज विज्ञावन के रूप में प्रकाशित करने का काम भी मीडिया करता है और निर्मल बाबा द्वारा समौसे व चटनी से कैसी भी समस्‍या का समाधान कराने जैसे सोकॉल्‍ड सत्संगों को टीवी पर मीडिया ही दिखाता है।
आसाराम बापू की सारी सच्‍चाई सामने आ जाने के बावजूद उसके प्रवचनों को विज्ञापन बनाकर अब भी मीडिया लाखों रुपए की कमाई कर रहा है और विभिन्‍न तरीकों से तंत्र-मंत्र की दुकानें भी टीवी पर मीडिया ही चलवा रहा है।
शायद ही ऐसा कोई ‘फ्रॉड’ हो जिसमें विज्ञापन के माध्‍यम से मीडिया सहभागी न रहता हो लेकिन जब बात आती है उसे जिम्‍मेदार ठहराने की तो कहीं किसी कॉर्नर में एक छोटा सा डिस्‍क्‍लेमर देकर वह अपनी जिम्‍मेदारी पूरी कर लेता है।
पंचकूला की विशेष सीबीआई कोर्ट से गुरमीत राम-रहीम के खिलाफ आए निर्णय को मीडिया भले ही आज सुर्खियां बना रहा है और बोर करने की हद तक दिन-रात परोस रहा है किंतु कल यदि उसके कथित चमत्‍कारों का विज्ञापन मिलने लगेगा तो यही मीडिया उसे दिखाने में कोई परहेज, कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं करेगा। कहीं किसी कोने में ”विज्ञापन” लिखकर वह डेरा सच्‍चा सौदा से लाखों रुपए कमाता रहेगा और अपनी दुकान उसी तरह पूरी बेशर्मी के साथ चलाऐगा जैसे कि कल तक राम-रहीम या आसाराम चलाता था। जिस तरह कृपालु की संस्‍था आज भी चला रही है और जिस तरह कुमार स्‍वामी भी अब तक चला रहा है।
सच पूछें तो कोई फर्क नहीं है ऐसे धर्म गुरुओं, व्‍यापारियों, कारोबारियों, नेताओं या मीडिया घरानों में। सबकी दुकानें एक-दूसरे के सहयोग से चलती हैं और शायद आगे भी चलती रहेंगी। कभी किसी कोर्ट का आदेश ज्‍वार-भाटा की तरह मीडिया की टीआरपी बढ़ाने के काम जरूर आ जाता है लेकिन जैसे ही उसका गुबार ठंडा होता है सब अपने-अपने धंधे में लग जाते हैं।
चार दिन ठहर जाइए, गुरमीत राम-रहीम की खबरें भी सिकुड़ कर सिर्फ सिंगल कॉलम और टिकर व फुटर पर चलने वाली पट्टियों तक सीमित रह जाएंगी।
ये बात अलग है कि निर्मल बाबा के समौसे, आसाराम के प्रवचन, कृपालु की कथाएं तथा राधे मां का ग्‍लैमरस धर्म, विज्ञापन के रूप में हमेशा मीडिया का हिस्‍सा बना रहेगा क्‍योंकि यहां भी सवाल धंधे का जो है। फिर धंधा चाहे धर्म का हो या अधर्म का, धंधा तो धंधा है। कीचड़ में पूरी तरह लिप्‍त रहकर कमल खिलाने की कला सिर्फ राजनीतिक पार्टियां ही नहीं जानतीं, मीडिया भी जानता है, और वह उसी कला का बखूबी इस्‍तेमाल कर रहा है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

हेमा मालिनी से टूटा भाजपा का भ्रम: 2019 के लिए नए उम्‍मीदवार की तलाश शुरू

श्रीकृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली मथुरा से 2019 के लोकसभा चुनावों में हेमा मालिनी के स्‍थान पर भाजपा किसी अन्‍य को उम्‍मीदवार बनाने का मन बना चुकी है। यह जानकारी भाजपा के ही उच्‍च पदस्‍थ सूत्रों ने दी है।
इन सूत्रों का कहना है कि भाजपा का हेमा मालिनी को लेकर भ्रम टूट चुका है। पार्टी को इस बात का भरोसा नहीं रहा कि मथुरा से हेमा मालिनी दोबारा अपनी जीत सुनिश्‍चित करने में सक्षम हैं।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक गत दिवस प्रधानमंत्री ने लोकसभा सांसदों के साथ बैठक में जो चेतावनी दी थी, उसके केन्‍द्र में उत्तर प्रदेश के सांसद तो थे ही, हेमा मालिनी जैसे जनप्रतिनिधि भी थे जिनकी निष्‍क्रियता से क्षेत्रीय जनता के साथ-साथ खुद पीएम एवं पार्टी अध्‍यक्ष अमित शाह भी संतुष्‍ट नहीं हैं।
उल्‍लेखनीय है कि प्रधानमंत्री ने स्‍पष्‍ट तौर पर कहा था कि बार-बार ”व्‍हिप” जारी करने के बावजूद कुछ सांसदों का सदन में उपस्‍थित न होना यह दर्शाता है कि वह पार्टी तथा अपनी जिम्‍मेदारी के प्रति गंभीर नहीं हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने इस आशय की स्‍पष्‍ट चेतावनी भी दी कि 2019 के चुनाव में वह ऐसे हर सांसद का लेखा-जोखा देखकर ही उन्‍हें उम्‍मीदवार बनाएंगे। यदि वह पार्टी तथा क्षेत्रीय जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरते दिखाई नहीं देते तो उनका पत्ता कटना तय समझा जाए।
गौरतलब है कि हेमा मालिनी की भी गिनती भाजपा के उन सांसदों में होती है जिनकी सदन में अनुपस्‍थिति पर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। इसके अलावा अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा में भी वह अपनी सुविधा के अनुसार उपस्‍थित होती हैं, न कि जनता की जरूरत के हिसाब से।
मथुरा की जनता का कहना है कि सांसद महोदया अपने क्षेत्र की जगह छोटे पर्दे पर जरूर दिन में कई-कई बार दिखाई दे जाती हैं। कभी एक खास कंपनी का वाटर प्‍यूरीफायर (RO) बेचते हुए तो कभी उसी कंपनी के वेजिटेबल एंड फ्रूट प्‍यूरीफायर की वकालत करते हुए। पतंजिल के बिस्‍किट बेचते भी उन्‍हें टीवी पर देखा जा सकता है लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र में वह कब आती हैं और कब चली जाती हैं, इसकी जानकारी उनके निजी सचिव के अतिरिक्‍त किसी को नहीं होती।
कहने को प्रधानमंत्री के आह्वान पर भगवान श्रीकृष्‍ण की आल्‍हादिनी शक्‍ति राधारानी का गांव ”रावल” उन्‍होंने विकास कार्य कराने के लिए गोद लिया था लेकिन उसका कितना विकास हुआ है, उसकी जानकारी वहां जाकर तथा गांववासियों से पता करके की जा सकती है। यह बात अलग है कि अब उन्‍होंने फिर जनपद का एक अन्‍य गांव पैठा भी गोद लिया है।
इसके अलावा अखबारों में प्रकाशित समाचारों से यह भी जानकारी मिलती रही है कि उन्‍होंने मथुरा के ”जंक्‍शन” रेलवे स्‍टेशन पर अपनी सांसद निधि से कुछ कुर्सियां लगवाई हैं।
उस रेलवे स्‍टेशन पर जिसे रेल विभाग वर्षों पहले देश के मॉडल रेलवे स्‍टेशन बनाने का चुनाव कर चुका है और जहां कई वर्षों से कार्य प्रगति पर है। हालांकि यह प्रगति कितनी हुई है और रेल विभाग मथुरा जंक्‍शन को कब तक मॉडल स्‍टेशन के रूप में पेश कर पाएगा, इन प्रश्‍नों के उत्तर मिलना बाकी हैं।
खुद हेमा मालिनी के अनुसार उनके आराध्‍य भगवान श्रीकृष्‍ण हैं और इसलिए कृष्‍ण की क्रीड़ा स्‍थली वृंदावन में व्‍याप्‍त गंदगी उन्‍हें परेशान करती है। वह जब कभी वृंदावन जाती हैं तो वहां फैले गंदगी के साम्राज्‍य को देखकर व्‍यथित भी होती हैं। सांसद महोदया अपनी व्‍यथा तो व्‍यक्‍त करती हैं परंतु साफ-सफाई के लिए शायद ही कुछ करती हों। वृंदावनवासी और वहां बाहर से हजारों की तादाद में हर दिन आने वाले श्रृद्धालु कहते हैं कि जितना ध्‍यान हेमा जी व्‍यथा व्‍यक्‍त करने पर देती हैं, उतना भी यदि सफाई कराने पर दिया होता तो तीन वर्ष के उनके कार्यकाल में वृंदावन की सूरत कुछ जरूर बदल जाती।
हेमा मालिनी की इस व्‍यथा-कथा पर क्षेत्रीय नागरिक यह कहने से नहीं चूकते कि यदि सांसद महोदया प्रधानमंत्री के ”स्‍वच्‍छ भारत” अभियान की ही लाज रख लेतीं तो उन्‍हें व्‍यथित नहीं होना पड़ता।
बॉलीवुड से ड्रीम गर्ल का खिताब प्राप्‍त हेमा मालिनी के पति धर्मेन्‍द्र भी एक बार भाजपा की ही टिकट पर राजस्‍थान के बीकानेर से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे।
बताया जाता है कि ”ही मेन” कहलाने वाले अभिनेता धर्मेन्‍द्र ने भी चुनाव जीतने के बाद कभी बीकानेर की ओर मुड़कर देखना मुनासिब नहीं समझा लिहाजा राजनीति ने उन्‍हें सन्‍यास दे दिया।
हेमा मालिनी इससे पहले उच्‍च सदन राज्‍यसभा की सदस्‍य भी रह चुकी हैं लेकिन लोकसभा में संभवत: यह उनका पहला अनुभव है।
उनका अनुभव जैसा भी हो किंतु मथुरा की जनता का बाहरी प्रत्‍याशियों को लेकर अनुभव कभी अच्‍छा नहीं रहा। जिसमें अब हेमा मालिनी का नाम भी जुड़ गया है।
हरियाणा से आकर मथुरा में लोकसभा का चुनाव जीतने वाले मनीराम बागड़ी हों या फिर महामंडलेश्‍वर जैसी भारी-भरकम उपाधि प्राप्‍त डॉ. सच्‍चिदानंद हरि साक्षी जी महाराज, सभी ने मथुरा की जनता को निराश किया।
साक्षी जी महाराज को तो मथुरा की जनता ने दो बार लोकसभा भेजा किंतु उन्‍होंने दोनों बार साबित किया कि वह गेरुआ भले ही पहनते हों परंतु अवसरवादी उतने ही हैं, जितना कोई दूसरा खांटी राजनेता हो सकता है।
2009 के लोकसभा चुनावों में मथुरा की जनता ने एकबार फिर बाहरी प्रत्‍याशी पर भरोसा करके राष्‍ट्रीय लोकदल के युवराज तथा जाट नेता चौधरी अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी को भारी मतों से विजयी बनाकर लोकसभा सदस्‍य बनवाया किंतु जयंत चौधरी अपने किसी वायदे पर खरे नहीं उतरे। उन्‍होंने साबित कर दिया कि बाहरी प्रत्‍याशी पर भरोसा करके मथुरावासियों ने जो भूल की है, उसका खामियाजा भुगतना होगा।
इस सबके बाद भी नरेन्‍द्र मोदी के कहने पर 2014 के चुनावों में कृष्‍ण की नगरी के वाशिंदों ने हेमा मालिनी के सिर जीत का सेहरा बंधवाया परंतु हेमा मालिनी उनके लिए अपने खिताब ”ड्रीम गर्ल” से अधिक कुछ साबित नहीं हुईं।
बात चाहे पूरे देश को हिलाकर रख देने वाले मथुरा के जवाहरबाग कांड की रही हो अथवा योगी सरकार के पदार्पण करते ही मयंक चेन पर हुई दो सर्राफों की हत्‍या तथा करोड़ों रुपए लूटकर ले जाने जैसी वारदात की, स्‍थानीय सांसद हेमा मालिनी दोनों वक्‍त अपने मूल कार्य में व्‍यस्‍त रहीं। उन्‍हें पीड़ितों के परिवार से तत्‍काल मिलने का समय नहीं मिला। जवाहर बाग कांड में एसपी सिटी तथा एसओ की हत्‍या हो जाने के बाद भी वह तब मथुरा आईं जब पार्टी हाईकमान ने उन्‍हें इसके लिए बाध्‍य किया।
पार्टी सूत्र तो यह भी बताते हैं कि हेमा मालिनी के अपनी ही पार्टी के स्‍थानीय पदाधिकारियों से भी संबंध अच्‍छे नहीं हैं। पिछले दिनों एक पदाधिकारी का उनके निजी सचिव से भी अच्‍छा-खासा झगड़ा हो गया था क्‍योंकि उनके निजी सचिव खुद को असंवैधानिक तौर पर सांसद प्रतिनिधि कहते हैं।
पार्टी के स्‍थानीय पदाधिकारी साफ-साफ बताते हैं कि एकबार को शहरी क्षेत्र से निर्वाचित पार्टी के विधायक और प्रदेश के ऊर्जा मंत्री सहित सरकार के प्रवक्‍ता का पदभार संभालने वाले श्रीकांत शर्मा से मुलाकात संभव है किंतु मात्र सांसद होते हुए हेमा मालिनी से मिलना आसान नहीं है।
पार्टीजन यह भी कहते हैं कि बेशक महिला तथा प्रसिद्ध अभिनेत्री होने के नाते हेमा मालिनी के साथ कुछ खास कारण जुड़े हैं किंतु कोई ”पद” मेल अथवा फी-मेल नहीं होता। जनता तथा पार्टी के कार्यकर्ता दोनों के लिए उनकी उपलब्‍धता उतनी ही जरूरी है जितनी किसी भी जनप्रतिनिधि की होनी चाहिए क्‍योंकि इनकी अपनी समस्‍याएं होती हैं और उन समस्‍याओं के समाधान के लिए ही उन्‍हें चुना जाता है।
यूं हेमा मालिनी ने शहर के मध्‍य कोई अपना ऑफिस बनाया हुआ है और उनके निजी सचिव कहते हैं कि वहां आने वाले लोगों की समस्‍याओं को भी पूरी गंभीरता से सुनकर उनका निराकरण कराया जाता है लेकिन जनता उनके इस दावे से सहमत नहीं है।
इधर, यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के मामले में भी हेमा मालिनी कहीं सक्रिय दिखाई नहीं देतीं जबकि यह मामला मथुरा ही नहीं समूचे ब्रज क्षेत्र की आस्‍था से जुड़ा है और इसके लिए कुछ लोग अपने स्‍तर पर हरसंभव प्रयास कर रहे हैं।
यमुना प्रदूषण के मामले में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय तथा नेशनल ग्रीन ट्रिब्‍यूनल ने काफी आदेश-निर्देश स्‍थानीय प्रशासन को दे रखे हैं किंतु उन पर अमल कभी नहीं हुआ। स्‍थानीय सांसद होने के नाते हेमा मालिनी ने कभी इन आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने में कोई रुचि ली हो अथवा जिला प्रशासन से जवाब तलब किया हो, इसका कोई उदाहरण सामने नहीं आया।
जाहिर है कि यह सारी बातें न केवल पार्टी हाईकमान तक बल्‍कि पीएमओ तक भी पहुंच रही हैं और भाजपा किसी भी सूरत में 2019 के लिए कोई जोखिम उठाना नहीं चाहती। पार्टी तो 2024 तक की प्‍लानिंग करके चल रही है ताकि नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व में वह उस नए भारत का निर्माण कर सके जिसकी परिकल्‍पना कर रखी है और जिसका जिक्र पीएम भी अपनी प्रत्‍येक सार्वजनिक सभा में करते हैं।
पार्टी के राष्‍ट्र स्‍तरीय सूत्र और यहां तक कि आरएसएस के सूत्र भी कहते हैं कि तीन साल से अधिक के कार्यकाल में हेमा मालिनी ने ऐसा कोई उल्‍लेखनीय कार्य नहीं किया जिसके लिए उन पर 2019 में दांव लगाया जा सके।
हेमा मालिनी को पार्टी एवं संघ की मंशा का अहसास न हुआ हो, ऐसा हो नहीं सकता किंतु लगता है उनके लिए जनहित व पार्टीहित से कहीं अधिक निजी व्‍यावसायिक हित ऊपर हैं इसलिए उनके पास मनोरंजन जगत से जुड़ी गतिविधियां सोशल साइट्स पर शेयर करने का वक्‍त तो होता है परंतु जनसमस्‍याएं शेयर करने का समय नहीं होता।
हो सकता है कि उनके लिए राजनीति भी मनोरंजन का एक ऐसा माध्‍यम हो जिससे जितनी भी संभव हो सके दौलत और शौहरत तो हासिल की जाए लेकिन गंभीरता से लेना जरूरी नहीं क्‍योंकि विशिष्‍टता ”आम” बन जाने में नहीं, ”खास” बने रहने में है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

अतुल्‍य भारत: ”ईश्‍वर” और ”आजादी” दोनों के लिए जहां आज भी दरकार है सबूतों की!

इस साल श्रीकृष्‍ण का जन्‍म दिवस और स्‍वतंत्रता दिवस दोनों एक ही दिन मनाए जा रहे हैं। एक धार्मिक पर्व है तो दूसरा राष्‍ट्रीय पर्व। एक ने अपने सखा अर्जुन को महाभारत जैसे भीषण युद्ध से पहले धर्म का वास्‍तविक अर्थ बताया तो दूसरे ने ये अहसास कराया कि आजादी कितनी बहुमूल्‍य है और गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहना कितना कष्‍टप्रद होता है।
यूं देखा जाए तो दोनों घटनाओं के बीच कोई साम्‍य नहीं है। न समय के अनुसार और न ही विषय के अनुसार।
श्रीकृष्‍ण का जन्‍म कालगणना के अनुसार द्वापर युग में आज से करीब 5, 235 वर्ष पूर्व हुआ था जबकि देश इस बार आजादी की 70वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है।
इस हिसाब से देखा जाए जो श्रीकृष्‍ण के जन्‍म और देश की आजादी के बीच 5, 165 वर्षों का फासला है, किंतु आश्‍चर्यजनक रूप से दोनों घटनाओं में कई समानताएं ऐसी हैं जो चौंकाती तो हैं ही, सोचने पर भी मजबूर करती हैं।
बहुत से लोग संभवत: इस सत्‍य से वाकिफ हों कि श्रीकृष्‍ण को उन्‍हीं के कालखंड में ईश्‍वर का अवतार या परमात्‍मा न मानने वालों की भी अच्‍छी-खासी संख्‍या थी। कोई उन्‍हें मात्र एक ग्‍वाला बताता था तो कोई छलिया। किसी के लिए वह अटपटी हरकतों से लोगों को आकर्षित करने वाले सामान्‍य इंसान थे तो किसी के लिए माखनचोर।
भगवान विष्‍णु के आठवें अवतार श्रीकृष्‍ण को शायद इसीलिए कभी अपने मुंह में समूचे ब्रह्माण्‍ड का दर्शन कराना पड़ा और कभी अपना विराट रूप दिखाकर बताना पड़ा कि वह ”अवतारी पुरुष” हैं, सामान्‍य नहीं।
आज 5, 235 वर्ष बाद भी श्रीकृष्‍ण को ईश्‍वर का अवतार न मानने वालों की कोई कमी नहीं है। वह उन्‍हें पूर्ण पुरुष का दर्जा दे सकते हैं, महाभारत जैसे भीषण युद्ध का नायक मान सकते हैं, उनका 16 कलाओं में निपुण होना स्‍वीकार कर सकते हैं, बहुआयामी व्‍यक्‍तित्‍व का धनी एक आश्‍चर्यजनक इंसान मान सकते हैं परंतु ईश्‍वर मानने को तैयार नहीं होते।
हालांकि इसके लिए स्‍वयं श्रीकृष्‍ण भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं क्‍योंकि उन्‍होंने श्रीमद्भागवत् गीता में यह तो कहा है कि-
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥” परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है, तब तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूं, अर्थात् जन्म लेता हूं । सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए मैं विभिन्न युगों (कालों) मैं अवतरित होता हूं, किंतु यह कहीं नहीं कहा कि उनके लिए ”धर्म की हानि” का मानदंड क्‍या होगा। अधर्म के बढ़ने का आंकलन कैसे किया जाएगा। सज्‍जनों की रक्षा करने का समय कब आएगा और दुष्‍टों का विनाश करने की उचित घड़ी कौन सी होगी।
वर्तमान संदर्भों को देखें तो ऐसा लगता है जैसे धर्म-अधर्म को परिभाषित करने का समय आ चुका है। सज्‍जनों की रक्षा और दुष्‍टों के दमन की सख्‍त जरूरत है परंतु गीता में कहा गया श्‍लोक दूर-दूर तक सार्थक होता नजर नहीं आ रहा।
कहा जाता है कि धार्मिक आस्‍था हर सवाल से परे होती है और धर्म अपनी मौजूदगी को स्‍वत: सिद्ध करता रहता है, फिर भी कुछ लोग धर्म पर सवाल खड़े करने तथा उसे तर्क की कसौटी पर कसने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ठीक इसी प्रकार देश को 70 साल पहले मिली आजादी पर भी सवालिया निशान लगाने वालों की कमी नहीं है। उनका नजरिया कहता है कि 15 अगस्‍त 1947 की रात को अंग्रेजी शासन से मिली आजादी, आधी अधूरी आजादी थी क्‍योंकि उसके बाद उन्‍हीं की कार्यप्रणाली को अपनाने वालों के हाथ में सत्ता आई। आजादी के 70 सालों बाद भी आमजनता के प्रति शासक और प्रशासकों के व्‍यवहार में बहुत ज्‍यादा अंतर नहीं आया है।
सत्ता के सोपान पर प्रतिष्‍ठापित होने वाले लोग अब भी आमजन को ”रियाया” से अधिक नहीं समझते और उसके भाग्‍य विधाता बने हुए हैं। कहने के लिए लोकतंत्र है और संविधान ने हर नागरिक को बराबर का अधिकार दे रखा है परंतु हकीकत में ऐसा है नहीं। संविधान एक ऐसी किताब मात्र बनकर रह गया है जिसकी व्‍याख्‍या सत्ता पक्ष अपने मनमाफिक करता है जबकि ”विपक्ष” अपने तरीके से करता रहता है।
”तंत्र” अब ”लोक” के लिए न रहकर ऐसे तत्‍वों के लिए रह गया है जो उसका बेहतर से बेहतर दुरुपयोग करने में माहिर हैं।
ये वो तत्‍व हैं जो संविधान से प्राप्‍त ”अभिव्‍यक्‍ति की आजादी” का अर्थ कानून के दायरे से भी बाहर जाकर निकालना चाहते हैं। वो देशद्रोह की हद तक जाकर आजादी मांगने से नहीं चूकते क्‍योंकि उनके लिए अभिव्‍यक्‍ति की आजादी का तात्‍पर्य ऐसी निरंकुशता है जिसके लिए कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिए।
ऐसे तत्‍व चाहते हैं कि वह तो कुख्‍यात बदमाशों से लेकर सड़क छाप गुण्‍डों और यहां तक कि आतंकवादियों के लिए भी मानवाधिकार की वकालत करें किंतु सीमाओं पर खड़े उन जवानों के मानवाधिकारों का जिक्र तक न करें जो हर वक्‍त अपनी जान जोखिम में डालकर कठिन ड्यूटी को अंजाम देते रहते हैं।
वह प्रधानमंत्री को भी खुलेआम ”गालियां” देकर अभिव्‍यक्‍ति की आजादी पर खतरा मंडराने की बात करते हैं और खुद के लिए देश में आजादी की जगह, देश से ऐसी आजादी चाहते हैं जिसके तहत समूची कानून-व्‍यवस्‍था को ताक पर रखकर गद्दारों, देशद्रोहियों एवं आतंकवादियों की खुलेआम सहायता कर सकें। उनके लिए असली आजादी तभी आएगी जब वो अपने असभ्‍य आचरण का सार्वजनिक प्रदर्शन करने को स्‍वतंत्र हों और आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के बलिदान को दरकिनार कर निर्दोषों का खून बहाने वालों का साथ दे सकें।
उनके लिए देश सही मायनों में तब स्‍वतंत्र होगा जब वो बिना किसी रोक-टोक के नक्‍सलियों के लिए काम कर सकें, उनके हित में लड़ सकें। अफजल गुरू, याकूब मेमन तथा पाकिस्‍तानी आतंकी अजमल कसाब जैसों को मिली सजा पर मातम मना सकें।
इन सबके इतर आजादी पर सवालिया निशान लगाने वालों में वो लोग भी शामिल हैं जिनकी मानें तो देश का अल्‍पसंख्‍यक समुदाय डरा हुआ है। इन लोगों के लिए अल्‍पसंख्‍यक की परिभाषा भी सिर्फ मुस्‍लिम वर्ग तक सीमित है। सिख, ईसाई, पारसी, जैन आदि इनके लिए दोयम दर्जे के अल्‍पसंख्‍यक हैं।
दरअसल डर मुस्‍लिमों में नहीं, उनके मन में है क्‍योंकि देश पर एक दक्षिणपंथी विचारधारा वाली सरकार काबिज हो गई है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाला यह वर्ग अपने मन में व्‍याप्‍त भय के कारण लोकतांत्रिक तरीके से स्‍पष्‍ट बहुमत के साथ चुनी गई सरकार को उसका अपना कार्यकाल भी इसलिए पूरा करते नहीं देखना चाहता क्‍योंकि वह तुष्‍टीकरण की राजनीति में विश्‍वास नहीं रखती। वह ”सबका साथ, सबका विकास” की बात तो करती है लेकिन उनके सामने शीर्षासन नहीं कर रही जिनको मूर्ख बनाकर स्‍वतंत्र भारत में अधिकांश समय सत्तासुख भोगा जाता रहा।
सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए काम करने का दावा करने वाली सरकार के पीएम की बातों को ”आरक्षित आजादी” मांगने वाला यह वर्ग जुमलेबाजी बताने में रत्तीभर शर्म महसूस नहीं करता और ”पैसे पेड़ों पर तो नहीं उगते” जैसा जुमला बोलने वाले के कसीदे पढ़ता है।
आजादी का महत्‍व यह वर्ग इसलिए नहीं समझता क्‍योंकि यहां ईशनिंदा करने के बावजूद फांसी के फंदे पर लटकाने का कोई कानून नहीं है अन्‍यथा यीशु को मानने वाले देशों व इस्‍लाम को मानने वाले मुल्‍कों में जाकर देखें तो पता लगे कि ईश्‍वर के अस्‍तित्‍व पर उंगली उठाने का नतीजा क्‍या होता है, और आजादी किसे कहते हैं।
यह तो ऐसी मान्‍यताओं वाला देश है जहां जहरीले बिच्‍छू के काट जाने के बाद भी कहा जाता है कि यदि बिच्‍छू अपना विष वमन करने की प्रवृत्ति नहीं त्‍याग सकता तो इंसान अपनी इंसानियत क्‍यों त्‍याग दे।
शिशुपाल से पूरी सौ गालियां धैर्य के साथ सुनने के बाद ही श्रीकृष्‍ण ने उसकी गर्दन काटने के लिए सुदर्शन चक्र का इस्‍तेमाल किया क्‍योंकि वह प्रतिज्ञाबद्ध थे। श्रीकृष्‍ण ने कभी अपने ईश्‍वर होने की अनुभूति तब तक नहीं कराई, जब तक वैसा कराना जरूरी नहीं हो गया, बावजूद इसके कृष्‍ण कभी छलिया कहलाए तो कभी रणछोर। कभी ग्‍वाला बने रहे तो कभी माखनचोर।
आज 70 वर्षों बाद भी आजादी का महत्‍व न समझने वाले तथा आजादी को सत्‍ता से जोड़कर देखने वालों को भी इसका अंदाज तब लगेगा जब वो अपने मुंह से निकाले गए हर जहरीले शब्‍द की मारक क्षमता समझेंगे, और समझेंगे कि बिना आजादी के वो यदि ऐसे शब्‍दों का प्रयोग करते तो पूरी जिंदगी सलाखों के पीछे गुजारनी पड़ सकती थी।
इसे इत्‍तिफाक मान सकते हैं कि हजारों साल पहले श्रीकृष्‍ण को ईश्‍वरीय अवतार न मानने वालों की भी कमी नहीं थी और आज मात्र 70 सालों बाद भी देश को आजाद मानने पर प्रश्‍न खड़ा करने वालों की भी कोई कमी नहीं है।
जो भी हो, ”वसुधैव कुटुम्बकम” में भरोसा रखने वाला भारत केवल 70 सालों की आजादी के बाद इस मुकाम पर जरूर आ खड़ा हुआ है जहां अमेरिका जैसा मुल्‍क यह कहने पर मजबूर है कि उत्तर कोरिया द्वारा पैदा की गई समस्‍या के समाधान में भारत एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।
दलगत राजनीति का शिकार और विशेष मानसिकता का पोषक एक खास वर्ग भले ही इस आशय का ढिंढोरा पीटे कि उसे अब भी किसी ”कथित आजादी” की दरकार है लेकिन हकीकत यही है कि आज पूरे विश्‍व में तिरंगे का सम्‍मान बढ़ रहा है और श्रीकृष्‍ण को ईश्‍वर मानकर पूजने वालों में उन फिरंगियों की तादाद अच्‍छी खासी है जिन्‍होंने सैकड़ों साल इस देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़े रखा था।
श्रीकृष्‍ण के मुंह से बोले गए शब्‍दों की माला ”श्रीमद्भागवत गीता” पर भी आज विश्‍व के अनेक देशों में रिसर्च हो रही है और सवा सौ करोड़ की आबादी के बावजूद बिना किसी खून-खराबे के सत्ताओं की अदला-बदली होने पर भी दुनिया अचंभित है।
विश्‍व के सबसे बड़े देश का सफल लोकतंत्र यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि महाभारत के मैदान में जो कुछ बोला गया, वह कोई ईश्‍वरीय अवतार ही बोल सकता है और आजाद भारत में ही कोई मामूली सा इंसान तक न सिर्फ सरकार, बल्‍कि प्रधानमंत्री के लिए भी खुलेआम अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल कर सकता है।
हैप्‍पी श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी, हैप्‍पी स्‍वतंत्रता दिवस। जय हिंद, जय भारत…वंदे मातरम्।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मथुरा में मौजूद बेनामी संपत्तियों पर पड़ी अब मोदी और योगी सरकार की नजर, एक मंत्री भी निशाने पर

विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक नगरियों में शुमार कृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली मथुरा में जिस प्रकार जगह-जगह विभिन्‍न धर्मध्‍वजाएं फहराती दिखाई देती हैं, उसी प्रकार यहां कदम-कदम पर बेनामी संपत्तियों की भी भरमार है।
नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व वाली एनडीए की सरकार तथा योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व वाली यूपी की भाजपा सरकार से बेनामी संपत्तियों को लेकर मिल रहे कठोर संकेतों पर यदि भरोसा करें और मानें तो निकट भविष्‍य में बेनामी संपत्तियां सरकार की अगली टारगेट बनने जा रही हैं, तो तय जानिए कि उत्तर प्रदेश के अंदर मथुरा निश्‍चित ही पहला स्‍थान प्राप्‍त करेगा।
बताया जाता है कि समय-समय पर राजनीतिक पार्टियां बदलने में माहिर तथा विभिन्‍न मंत्री पदों को सुशोभित करते रहे एक नेताजी भी अरबों रुपए की बेनामी संपत्ति के मालिक हैं। इनकी बेनामी संपत्ति सर्वाधिक उसी व्‍यक्‍ति के नाम है जो कभी फोर्थक्‍लास सरकारी मुलाजिम था और हमेशा उनका खास मुंहलगा बना रहा।
गौरतलब है कि हाल ही में भाजपा के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश शासन को इस आशय के संकेत दिए है कि पार्टी बहुत जल्‍द कुछ मंत्रियों के साथ आरएसएस के कार्यकर्ताओं को अटैच करने वाली है।
दरअसल, अमित शाह को जानकारी मिली है कि कुछ मंत्रियों ने यूपी में शासन के इस अल्‍पकाल के अंदर ही बड़ी कमाई कर ली है। इसमें जहां कुछ दूसरे दलों से आए आदतन भ्रष्‍ट नेता हैं वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो पहली बार मिले मौके का पूरा लाभ ईमानदार सरकार की आड़ लेकर उठा लेना चाहते हैं।
एक दूसरे दल के नेताजी का काफी पैसा मथुरा बेस्‍ड उत्तर भारत की नामचीन रियल एस्‍टेट कंपनी में लगा है और इस पैसे की देखभाल के लिए उन्‍होंने बाकायदा अपने एक खासमखास को कंपनी में डायरेक्‍टर का पद दिलवा रखा है।
केन्‍द्र में कांग्रेस की सरकार रहते एक प्रदेश स्‍तरीय कांग्रेसी नेता ने भी इस धार्मिक नगरी का विकास कराने की आड़ में जमकर अपना और अपने परिवार का विकास किया।
इन नेताजी की बेनामी संपत्तियों को जिस दिन सरकार खंगालने बैठ गई, उस दिन लोगों की आंखें फटी की फटी रह जाएंगी।
पॉश कालोनियों में कई-कई आलीशान मकानों के साथ-साथ इनका पैसा दूसरे धंधों में भी लगा है।
सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार धर्म की इस नगरी में ऐसे अधर्मियों की संख्‍या सैकड़ों नहीं, हजारों में है जो कुछ समय पहले तक रोटी-रोटी को मोहताज थे किंतु आज वह करोड़ों की बजाय अरबों में खेल रहे हैं।
ऐसे तत्‍वों में एक ओर जहां रजिस्‍ट्री ऑफिस के मामूली से कर्मचारी शामिल हैं वहीं दूसरी ओर ऐसे लोग भी हैं जो यहीं सरकारी विभाग में बतौर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी तैनात रह चुके हैं। सरकारी विभाग के ऐसे ही एक कर्मचारी की गिनती तो अब शहर के प्रसिद्ध बिल्‍डर्स एवं ठेकेदारों में की जाती है।
रियल एस्‍टेट के एक ऐसे ही बड़े कारोबारी को कुछ वर्षों पहले तक मथुरा के लोगों ने मामूली मजदूरी करते देखा है। उनके भाई भी कंधे पर टीवी उठाए-उठाए घर-घर पूरी रात फिल्‍मों के वीडियो दिखाने का काम करते थे लेकिन आज यह ”भाई लोग” बेनामी संपत्तियों के बेताज बादशाह हैं।
मथुरा में तैनात रहे पुलिस के उच्‍च अधिकारियों से लेकर उपाधीक्षक तक और दरोगा से लेकर सिपाही तक ऐसे-ऐसे हैं, जिनकी यहां करोड़ों की बेनामी संपत्ति है।
पुलिस के कई अधिकारियों की बेनामी संपत्‍तियों का संरक्षण आज भी उनके नुमाइंदे ही कर रहे हैं क्‍योंकि कागजों में वही उसके मालिक हैं।
एक दशक से अधिक मथुरा में विभिन्‍न थानों के प्रभारी पद पर रहे दरोगा की संपत्ति चौंकाने वाली है। उसके दो मकान उसके गृह जनपद में हैं जबकि करोड़ों रुपए मूल्‍य के दो मकान मथुरा में हैं। गोवर्धन के सर्वाधिक कीमती क्षेत्र में हजार वर्ग गज का प्‍लॉट है और एक प्‍लॉट नोएडा में है।
इसी प्रकार मथुरा में तैनात कई पुलिस के दरोगा और यहां तक कि सिपाहियों को भी 10 से 15 लाख रुपए मूल्‍य वाली लग्‍जरी गाड़ियां इस्‍तेमाल करते कभी भी देखा जा सकता है।
बात चाहे विकास प्राधिकरण के अधिकारी और कर्मचारियों की करें अथवा सार्वजनिक लोक निर्माण विभाग या सहायक संभागीय परिवहन विभाग की, धर्म की इस नगरी में इन विभागों के अधिकारी एवं कर्मचारियों ने जमकर लूट मचाई है। विकास प्राधिकरण में कार्यरत रहे एक कर्मचारी के तो अपने ही विभाग द्वारा विकसित एक ही कॉलोनी में आठ मकान बताए जाते हैं। एक अन्‍य पूर्व कर्मचारी की गिनती आज शहर के बड़े ठेकेदारों में होती है।
बताया जाता है कि विकास प्राधिकरण में यहां तैनात रहे कुछ अधिकारी एवं कर्मचारियों ने तो स्‍थानीय पत्रकारों को ही अपना हमराज बना रखा है। इन पत्रकारों के नाम न सिर्फ उन्‍होंने अपनी संपत्तियों ले रखी हैं बल्‍कि उनके माध्‍यम से रियल एस्‍टेट में अच्‍छा-खासा निवेश भी किया हुआ है। बेनामी संपत्ति बनाने में कई अधिकारियों की मथुरा के कारोबारियों से भी सांठगांठ सामने आई है।
पता लगा है कि अक्‍सर न्‍यायिक, पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों के इर्द-गिर्द मंडराते देखे जाने वाले इन कारोबारियों का मुख्‍य उद्देश्‍य ही उनकी भ्रष्‍टाचार से कमाई गई रकम का मुकम्‍मल बंदोबस्‍त करना है। समाजसेवियों का टैग लगाकर घूमने वाले ऐसे कारोबारी ऊपरी तौर पर तो उनके ”फैमिली फ्रेंड” बने रहते हैं किंतु असलियत में वह उनकी ब्‍लैक मनी के राजदार हैं।
बिजली विभाग के अधिकारी तथा कर्मचारियों की भी मथुरा में अकूत बेनामी संपत्‍ति बताई जाती है। मथुरा में लंबे समय तक तैनात रहे बिजली विभाग के एक क्‍लर्क और सब रजिस्‍ट्रार ऑफिस मथुरा के एक क्‍लर्क की अचल संपत्ति का आलम यह है कि शहर का कोई इलाका, कोई पॉश कॉलोनी ऐसी नहीं है जहां इनकी कीमती संपत्तियों न हों।
पिछले दिनों तो इस चक्‍कर में एक बिजली अधिकारी ने अपने यहां हुई करोड़ों रुपए मूल्‍य की चोरी का ब्‍यौरा तक पुलिस को उपलब्‍ध नहीं कराया जबकि पुलिस बार-बार उनसे चोरी गए सामान का ब्‍यौरा मांगती रही।
कहा जाता है कि अधर्म के लिए धर्म से बड़ी कोई आड़ नहीं होती। मथुरा जनपद के विभिन्‍न धार्मिक स्‍थलों में निर्मित आलीशान कॉलोनियों, मठ एवं मंदिरों और यहां तक कि हाल ही में बड़ी तेजी से खड़ी होने वाली मस्‍जिदों का सच खंगाला जाए तो पता लगेगा कि सरकार की सोच से कहीं ज्‍यादा बेनामी संपत्ति वहां मौजूद है। इनके संचालकों की सच्‍चाई पता करने के लिए उनके बही-खाते ही काफी हैं क्‍योंकि आज भी वह बहुत कुछ बोल सकते हैं, बता सकते हैं।
मथुरा जनपद में यहां-वहां फैली संपत्ति के लिए हत्‍या, लूट और डकैती के साथ-साथ लड़ाई झगड़े तक हुए हैं और होते रहते हैं किंतु पूरा सच कभी सामने नहीं आता क्‍योंकि इनमें से अधिकांश संपत्तियां बेनामी हैं।
कुछ महीनों पहले वृंदावन के एक बाबा और वहीं के एक कारोबारी के बीच करोड़ों के लेनदेन का झगड़ा सामने आया था। इस झगड़े में एक प्रदेश स्‍तरीय बाहरी नेता के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुई थी किंतु छद्म लेनदेन और बेनामी संपत्ति होने के कारण दोनों पक्ष ने सुलह करके विवाद निपटाना ज्‍यादा उचित समझा अन्‍यथा सच्‍चाई सामने आने पर कई चेहरों के बेनकाब होने का डर था।
बेनामी संपत्तियों के बेताज बादशाहों की फेहरिस्‍त में कुछ स्‍थानीय चिकित्‍सकों का नाम भी काफी ऊपर है। इन चिकित्‍सकों ने मथुरा ही नहीं, मथुरा से बाहर भी अच्‍छी-खासी बेनामी संपत्तियां बना रखी हैं लेकिन आजतक कानून की गिरफ्त में नहीं आए हैं।
सरकारी सूत्र बताते हैं कि केंद्र तथा प्रदेश की सरकारों ने इनका पूरा कच्‍चा चिठ्ठा तैयार कर लिया है और जिस दिन सरकारी एजेंसियों ने मथुरा को खंगालना शुरू किया, उस दिन इन सफेदपोशों को सींखचों के अंदर जाने से कोई रोक नहीं पाएगा।
शासन स्‍तर से प्राप्‍त जानकारियों के मुताबिक सात मोक्षदायिनी नगरियों में स्‍थान प्राप्‍त कृष्‍ण की इस पावन जन्‍मस्‍थली के विकास पर जिस तरह मोदी एवं योगी की सरकारें अपना पूरा ध्‍यान केंद्रित किए हुए हैं और अगले लोकसभा चुनावों तक उन्‍हें अमल में लाना चाहती हैं, उसी प्रकार वह यह भी चाहती हैं कि धर्म की आड़ लेकर अब तक यहां एकत्र की जाती रही बेनामी संपत्ति एवं काली कमाई भी सार्वजनिक हो जिससे भविष्‍य में कोई ऐसी संपत्ति बनाने से पहले एक-दो बार नहीं, कई-कई बार विचार करने पर मजबूर हो जाए।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

खुली चुनौती: कानून-व्‍यवस्‍था की बात तो दूर, ट्रैफिक व्‍यवस्‍था ही सुधार दें सरकार

योगी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यदि कोई है तो वह है कानून-व्‍यवस्‍था को पटरी पर लाना। उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकारें भी कानून-व्‍यवस्‍था के मामले में असफल रही हैं। बताया जाता है कि योगी सरकार बदहाल कानून-व्‍यवस्‍था को पटरी पर लाने के लिए उत्तर प्रदेश कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम ऐक्ट यानि यूपीकोका (UPCOCA) लाने पर विचार कर रही है परंतु उस ट्रैफिक व्‍यवस्‍था का क्‍या, जो न सिर्फ अनेक बड़ी दुर्घटनाओं का कारण बनी हुई है बल्‍कि अकाल मौतों के आंकड़ों में वर्ष-दर-वर्ष भारी वृद्धि की वजह भी बन रही है।
राजधानी लखनऊ सहित प्रदेश का शायद ही कोई जिला, तहसील या कस्‍बा ऐसा होगा जो पूर्णत: चरमरा चुकी यातायात व्‍यवस्‍था का शिकार न हो। कोई राष्‍ट्रीय राजमार्ग, राजमार्ग अथवा संपर्क मार्ग यातायात की अव्‍यवस्‍था से अछूता नहीं होगा। देश में जितनी अकाल मौतें अन्‍य दूसरे कारणों से नहीं होतीं, उतनी सिर्फ सड़क दुर्घटनाओं के कारण हर दिन होती हैं किंतु इस दिशा में कोई ठोस कदम उठता दिखाई नहीं देता।
जिस सड़क पर भी निकल जाएं, उसी पर आपको ओवरलोडेड ट्रक, ट्रैक्‍टर-ट्रॉली, निजी बसें, ऑटो रिक्‍शा, जुगाड़, सामान ढोने वाले पैदल रिक्‍शे तथा अन्‍य थ्री व्‍हीलर्स आदि दिखाई दे जाएंगे। अधिकांश मोटरसाइकिल चालक तो कम से कम तीन सवारियों के साथ चलना अपना जन्‍मसिद्ध अधिकार मान बैठे हैं। थोड़ी देर किसी सड़क पर नजर दौड़ा लें तो चार और यहां तक कि पांच-पांच सवारियों से लदी मोटरसाइिकलें भी खूब देखी जा सकती हैं। इन सवारियों में औरतें और अबोध बच्‍चे भी शामिल होते हैं। ऐसा लगता है जैसे आत्‍महत्‍या करके मुआवजा लेने का यह कोई नया तरीका ईजाद किया गया हो।
अधिकतम तीन सवारियों के लिए निर्धारित ऑटो रिक्‍शा में छ:-सात सवारियां उनके लगेज सहित भरकर चलना, बैट्री चालित रिक्‍शों में पांच-छ: सवारियां लादना, ट्रैक्‍टर-ट्रॉली को ट्रॉली की ऊंचाई से डेढ़ गुना अधिक तक ईंटें भरकर दौड़ाना, बुग्‍गी में इतना अधिक भूसा भरकर ले जाना कि न दाएं-बाएं कुछ दिखाई दे और न पीछे वाले को कुछ नजर आए, यह सब इतनी सामान्‍य बातें हैं कि जिन पर कोई उंगली भी उठाना जरूरी नहीं समझता।
भूसे की बुग्‍गी का जिक्र भले ही कर लें, यहां तो लोहे की सरियाएं भी ट्रक में इस कदर भरी जाती हैं कि ट्रक का पिछला हिस्‍सा कब किसकी मौत का सामान बन जाए, कहना मुश्‍किल है।
बात चाहे ग्रेटर नोएडा से आगरा तक के लिए बने यमुना एक्‍सप्रेस-वे की हो या फिर आगरा से लखनऊ तक के लिए बनाए गए एक्‍सप्रेस-वे की, दोनों ही सड़कों पर स्‍पीड नियंत्रित करने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है लिहाजा यमुना एक्‍सप्रेस-वे तो हर दिन कई-कई मौतों का कारण बनता है जबकि आगरा-लखनऊ एक्‍सप्रेस-वे भी विधिवत् शुरू हुए बिना ही कई जिंदगियां ले चुका है। हालांकि इस सबके लिए दोष सड़क का नहीं, उन वाहन चालकों का ही है जो लचर यातायात व्‍यवस्‍था के चलते अपनी और अपने साथ बैठी जिंदगियों को असमय काल के गाल तक पहुंचाने का बंदोबस्‍त करते हैं।
कहने के लिए सिविल पुलिस में बाकायदा यातायात पुलिस का एक विभाग होता है और संभागीय परिवहन विभाग (आरटीओ) भी इसी के लिए बना है किंतु दोनों अपने दायित्‍व की पूर्ति मात्र सुविधा शुल्‍क लेकर करते रहते हैं। दोनों ही विभागों का आलम यह है कि जितना वेतन उनके कुल कर्मचारियों को सरकार से भत्ते आदि मिलाकर भी नहीं मिलता, उतना तो हर माह उन्‍हें यातायात की इस अव्‍यवस्‍था से प्राप्‍त हो जाता है।
उदाहरण के लिए यदि उत्तर प्रदेश के विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद मथुरा को ही लें तो यहां हजारों की संख्‍या में शहर के अंदर और बाहर ऑटो रिक्‍शा, बैट्री रिक्‍शा, थ्री व्‍हीलर्स, निजी डग्‍गेमार बसें, अवैध ट्रैक्‍टर ट्रॉलियां, जुगाड़, भैंसा बुग्‍गियां, बैल गाड़ियां, स्‍कूली बसें, माल ढोने वाले पैदल रिक्‍शे आदि सड़कों पर दिन-रात दौड़ते रहते हैं।
ये सभी वाहन संबंधित विभागों को ठेकेदारों के माध्‍यम से महीनेदारी पहुंचाते हैं और इसलिए इन पर यातायात का कोई नियम या कानून लागू नहीं होता। मथुरा जनपद के बीच से गुजरने वाले करीब-करीब 90 किलोमीटर लंबे राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर दो पर जगह-जगह ईंट,बजरी, गिट्टी व मिट्टी से ओवरलोडेड ट्रैक्‍टर-ट्रॉलियां, ट्रक, जुगाड़ तथा बुग्‍गियां आदि अन्‍य वाहनों का वर्चस्‍व साफ देखा जा सकता है। इनकी अवैध मंडियां खुलेआम पूरी व्‍यवस्‍था को धता बताते हुए लोगों को मौत के मुंह में भेजने का इंतजाम करती हैं किंतु किसी की क्‍या मजाल कि कोई इनसे कुछ कह सके।
तीन की जगह सात-सात सवारियां तक बैठाकर चलने वाले ऑटो रिक्‍शा चालक शहर के सभी प्रमुख तिराहों-चौराहों की आधी से अधिक सड़क इसलिए घेरे रहते हैं क्‍योंकि पुलिस उनसे महीनेदारी के साथ-साथ बेगार भी लेती है। अपने खास मेहमानों को घुमाने में तो इनका इस्‍तेमाल करती ही है, लावारिस लाशों को पोस्‍टमार्टम गृह तक पहुंचाने का काम भी इन्‍हीं से कराती है। गर्मियों में चौकी पर कहीं से पानी ढोकर लाना हो अथवा जाड़ों में अलाव जलाने के लिए लकड़ी मंगवानी हो, सारा काम ऑटो रिक्‍शों से कराया जाता है। लाखों रुपए महीने की अतिरिक्‍त आमदनी का जरिया और ऊपर से बेगार करने वाले ऑटो रिक्‍शा इसलिए हर तिराहे-चौराहे की सड़क को अपनी निजी जागीर समझते हैं और इस बारे में कुछ भी कहने वाले को अपना निजी दुश्‍मन।
पुलिस और ऑटो रिक्‍शा चालकों के मध्‍य बिचौलिए का काम करने वाले ठेकेदारों की मानें तो वर्तमान हालातों में ऑटो रिक्‍शा चालक पूरी तरह निरंकुश हैं और इनको रोकने या टोकने की हिमाकत करने वाला बड़ी मुसीबत में पड़ सकता है।
मथुरा के गोवर्धन चौराहे पर ऑटो रिक्‍शा चालकों से पैसा वसूल करने वाला ठेकेदार साफ शब्‍दों में बेझिझक बताता है कि यहां 80 प्रतिशत ऑटो चालक एक समुदाय विशेष से ताल्‍लुक रखते हैं और आस-पास की बस्‍तियों में रहते हैं। पुलिस के लिए दुधारु गाय बने हुए इन ऑटो चालकों से यदि कोई चार पहिया वाहन चालक भी यदि सड़क किनारे खड़े होने की कह दे तो यह मिलकर उससे अभद्रता करने लगते हैं। टोकने वाला अगर प्रतिउत्तर देने की गलती कर बैठे तो उसकी मजामत करने से भी ये लोग नहीं चूकते क्‍योंकि पुलिस इनके हाथों पूरी तरह बिकी हुई है और हर हाल में वह इन्‍हीं का पक्ष लेती है।
दूसरी ओर रोडवेज बस के चालक भी किसी मायने में ऑटो रिक्‍शा चालकों से कम नहीं हैं। बीच सड़क पर जहां चाहे बस रोक कर सवारियों को चढ़ाना तथा उतारना इनका शौक मान सकते हैं क्‍योंकि सरकारी सेवा में होने के कारण सामान्‍यत: पुलिस इनसे कुछ नहीं कहती।
विशेष अवसरों पर बस के अंदर सवारियां ठूंस-ठूंस कर भरने और बस की छत पर भी सवारियां बैठाने से इन्‍हें कोई परहेज नहीं होता क्‍योंकि निर्धारित सीटों के बाद हर सवारी इनकी अतिरिक्‍त आमदनी का जरिया बनती है।
यातायात व्‍यवस्‍था की बदहाली में अपनी भूमिका निभाने से विकास प्राधिकरण भी कतई पीछे नहीं रहता। वहां बैठे अधिकारियों से सुविधा शुल्‍क देकर कोई भी व्‍यक्‍ति पार्किंग की सुविधा उपलब्‍ध कराए बिना अपनी दुकान, मकान, मैरिज होम, होटल, गैस्‍ट हाउस अथवा नर्सिंग होम का नक्‍शा पास करा सकता है। यहां तक कि मॉल भी खड़ा कर सकता है। फिर चाहे सड़क जाम हो या सड़क दुर्घटना, उससे उन्‍हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्‍योंकि कोई कुछ पूछने वाला नहीं है।
व्‍यवस्‍था खुद इतनी अव्‍यवस्‍था का शिकार है कि पहले उसे ही व्‍यवस्‍था की दरकार है। संभवत: इसीलिए उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का संकल्‍प लेकर सत्ता संभालने वाले भगवाधारी योगी आदित्‍यनाथ भी कई बार व्‍यवस्‍था के सामने बेबस नजर आते हैं। सत्ता संभालने के बाद पहले उन्‍होंने पिछली सरकारों द्वारा तैनात अधिकारियों पर भरोसा करके देखा, फिर उच्‍च अधिकारियों का तबादला किया, उसके बाद पूर्ववर्ती सरकारों के कदमों का अनुसरण करते हुए अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह फैंटकर भी देखा लेकिन नतीजा अब तक शून्‍य बना हुआ है। ब्‍यूरोक्रेसी किसी भी तरह योगी जी के नियंत्रण में नहीं आ रही।
सत्ता नहीं, व्‍यवस्‍था परिवर्तन की हुंकार भरने वाले भगवाधारी मुख्‍यमंत्री को फिलहाल तो ब्‍यूराक्रेसी ने नाकों चने चबवा दिए हैं। ब्‍यूरोक्रेसी की ढिठाई पर योगी जी अब नाराजगी भी जाहिर करने लगे हैं और सजा देने का ऐलान भी कर रहे हैं लेकिन अभी ब्‍यूरोक्रेसी सारे हथकंडों से बेअसर है।
ऊपर के स्‍तर पर लेन-देन की भले ही कोई शिकायत सामने न आई हो किंतु जिला और तहसील स्‍तर पर किसी भी क्षेत्र में भ्रष्‍टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा। खाकी को न मंत्रियों का कोई खौफ है और न मुख्‍यमंत्री का। जिले के प्रभारी अधिकारी आमजन की तो क्‍या सत्ताधारी दल के पदाधिकारियों की भी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। उनकी शिकायतों पर लखनऊ से भी संज्ञान नहीं लिया जाता। पार्टी के बहुत से पदाधिकारी यह स्‍वीकार करने में कोई संकोच नहीं करते कि प्रदेश की राजधानी ऊंचा सुनती है लिहाजा जिले के अधिकारी जायज बात भी नहीं सुनते। उनका कहना है कि भाजपा के लिए 14 वर्षों बाद सत्‍ता का वनवास भले ही खत्‍म हो गया हो किंतु हम अब भी दर-दर भटकने पर मजबूर हैं। हमारी सुनने वाला कोई नहीं।
यातायात व्‍यवस्‍था की बदहाली और उससे जुड़े भारी भ्रष्‍टाचार के बावत भी सत्ताधारी पार्टी के पदाधिकारी आक्रोश व्‍यक्‍त करते हुए बताते हैं कि हर अधिकारी चार्ज लेते वक्‍त तो व्‍यवस्‍था सुधारने का पुरजोर दावा करता है किंतु चंद दिनों बाद वह अपने कैंप कार्यालय तक सिमट कर रह जाता है।
आश्‍चर्य की बात यह है कि अधिकारियों की यह कार्यप्रणाली किसी एक जनपद में नहीं, प्रत्‍येक जनपद में देखी जा रही है परंतु इससे निपटने का कोई तरीका सरकार के पास नजर नहीं आ रहा।
योगी जी के नेतृत्‍व वाली भाजपा की सरकार को प्रदेश में सत्ता संभाले पांच महीने पूरे होने जा रहे हैं किंतु कानून-व्‍यवस्‍था के एक महत्‍वपूर्ण अंग यातायात की व्‍यवस्‍था भी अभी जस की तस है। पूरी कानून-व्‍यवस्‍था का तो कहना ही क्‍या।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि संपूर्ण व्‍यवस्‍था को परिवर्तित करने का दावा करने वाली योगी सरकार मात्र यातायात व्‍यवस्‍था को ही कब तक सुधार पाएगी?
सड़क सुरक्षा सप्‍ताह तो पहले भी मनाए जाते रहे हैं और अब भी मनाए जाते रहेंगे किंतु क्‍या वाकई सड़कें सुरक्षित होंगी।
क्‍या सड़कों पर उनकी लंबाई के हिसाब से फैले भ्रष्‍टाचार पर अंकुश लगेगा, पुलिस एवं आरटीओ की मिलीभगत से मनमानी करने वाले व्‍यावसायिक वाहन चालक क्‍या नियंत्रित होकर यातायात नियमों का पालन करने पर बाध्‍य होंगे? और यदि यह सब होगा तो कब तक ? इस काम के लिए भी पांच महीने कम हैं तो क्‍या पांच साल काफी होंगे ?
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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