शनिवार, 16 सितंबर 2017

अतुल्‍य भारत: ”ईश्‍वर” और ”आजादी” दोनों के लिए जहां आज भी दरकार है सबूतों की!

इस साल श्रीकृष्‍ण का जन्‍म दिवस और स्‍वतंत्रता दिवस दोनों एक ही दिन मनाए जा रहे हैं। एक धार्मिक पर्व है तो दूसरा राष्‍ट्रीय पर्व। एक ने अपने सखा अर्जुन को महाभारत जैसे भीषण युद्ध से पहले धर्म का वास्‍तविक अर्थ बताया तो दूसरे ने ये अहसास कराया कि आजादी कितनी बहुमूल्‍य है और गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहना कितना कष्‍टप्रद होता है।
यूं देखा जाए तो दोनों घटनाओं के बीच कोई साम्‍य नहीं है। न समय के अनुसार और न ही विषय के अनुसार।
श्रीकृष्‍ण का जन्‍म कालगणना के अनुसार द्वापर युग में आज से करीब 5, 235 वर्ष पूर्व हुआ था जबकि देश इस बार आजादी की 70वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है।
इस हिसाब से देखा जाए जो श्रीकृष्‍ण के जन्‍म और देश की आजादी के बीच 5, 165 वर्षों का फासला है, किंतु आश्‍चर्यजनक रूप से दोनों घटनाओं में कई समानताएं ऐसी हैं जो चौंकाती तो हैं ही, सोचने पर भी मजबूर करती हैं।
बहुत से लोग संभवत: इस सत्‍य से वाकिफ हों कि श्रीकृष्‍ण को उन्‍हीं के कालखंड में ईश्‍वर का अवतार या परमात्‍मा न मानने वालों की भी अच्‍छी-खासी संख्‍या थी। कोई उन्‍हें मात्र एक ग्‍वाला बताता था तो कोई छलिया। किसी के लिए वह अटपटी हरकतों से लोगों को आकर्षित करने वाले सामान्‍य इंसान थे तो किसी के लिए माखनचोर।
भगवान विष्‍णु के आठवें अवतार श्रीकृष्‍ण को शायद इसीलिए कभी अपने मुंह में समूचे ब्रह्माण्‍ड का दर्शन कराना पड़ा और कभी अपना विराट रूप दिखाकर बताना पड़ा कि वह ”अवतारी पुरुष” हैं, सामान्‍य नहीं।
आज 5, 235 वर्ष बाद भी श्रीकृष्‍ण को ईश्‍वर का अवतार न मानने वालों की कोई कमी नहीं है। वह उन्‍हें पूर्ण पुरुष का दर्जा दे सकते हैं, महाभारत जैसे भीषण युद्ध का नायक मान सकते हैं, उनका 16 कलाओं में निपुण होना स्‍वीकार कर सकते हैं, बहुआयामी व्‍यक्‍तित्‍व का धनी एक आश्‍चर्यजनक इंसान मान सकते हैं परंतु ईश्‍वर मानने को तैयार नहीं होते।
हालांकि इसके लिए स्‍वयं श्रीकृष्‍ण भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं क्‍योंकि उन्‍होंने श्रीमद्भागवत् गीता में यह तो कहा है कि-
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥” परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है, तब तब मैं स्वयं की सृष्टि करता हूं, अर्थात् जन्म लेता हूं । सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए मैं विभिन्न युगों (कालों) मैं अवतरित होता हूं, किंतु यह कहीं नहीं कहा कि उनके लिए ”धर्म की हानि” का मानदंड क्‍या होगा। अधर्म के बढ़ने का आंकलन कैसे किया जाएगा। सज्‍जनों की रक्षा करने का समय कब आएगा और दुष्‍टों का विनाश करने की उचित घड़ी कौन सी होगी।
वर्तमान संदर्भों को देखें तो ऐसा लगता है जैसे धर्म-अधर्म को परिभाषित करने का समय आ चुका है। सज्‍जनों की रक्षा और दुष्‍टों के दमन की सख्‍त जरूरत है परंतु गीता में कहा गया श्‍लोक दूर-दूर तक सार्थक होता नजर नहीं आ रहा।
कहा जाता है कि धार्मिक आस्‍था हर सवाल से परे होती है और धर्म अपनी मौजूदगी को स्‍वत: सिद्ध करता रहता है, फिर भी कुछ लोग धर्म पर सवाल खड़े करने तथा उसे तर्क की कसौटी पर कसने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ठीक इसी प्रकार देश को 70 साल पहले मिली आजादी पर भी सवालिया निशान लगाने वालों की कमी नहीं है। उनका नजरिया कहता है कि 15 अगस्‍त 1947 की रात को अंग्रेजी शासन से मिली आजादी, आधी अधूरी आजादी थी क्‍योंकि उसके बाद उन्‍हीं की कार्यप्रणाली को अपनाने वालों के हाथ में सत्ता आई। आजादी के 70 सालों बाद भी आमजनता के प्रति शासक और प्रशासकों के व्‍यवहार में बहुत ज्‍यादा अंतर नहीं आया है।
सत्ता के सोपान पर प्रतिष्‍ठापित होने वाले लोग अब भी आमजन को ”रियाया” से अधिक नहीं समझते और उसके भाग्‍य विधाता बने हुए हैं। कहने के लिए लोकतंत्र है और संविधान ने हर नागरिक को बराबर का अधिकार दे रखा है परंतु हकीकत में ऐसा है नहीं। संविधान एक ऐसी किताब मात्र बनकर रह गया है जिसकी व्‍याख्‍या सत्ता पक्ष अपने मनमाफिक करता है जबकि ”विपक्ष” अपने तरीके से करता रहता है।
”तंत्र” अब ”लोक” के लिए न रहकर ऐसे तत्‍वों के लिए रह गया है जो उसका बेहतर से बेहतर दुरुपयोग करने में माहिर हैं।
ये वो तत्‍व हैं जो संविधान से प्राप्‍त ”अभिव्‍यक्‍ति की आजादी” का अर्थ कानून के दायरे से भी बाहर जाकर निकालना चाहते हैं। वो देशद्रोह की हद तक जाकर आजादी मांगने से नहीं चूकते क्‍योंकि उनके लिए अभिव्‍यक्‍ति की आजादी का तात्‍पर्य ऐसी निरंकुशता है जिसके लिए कोई मर्यादा नहीं होनी चाहिए।
ऐसे तत्‍व चाहते हैं कि वह तो कुख्‍यात बदमाशों से लेकर सड़क छाप गुण्‍डों और यहां तक कि आतंकवादियों के लिए भी मानवाधिकार की वकालत करें किंतु सीमाओं पर खड़े उन जवानों के मानवाधिकारों का जिक्र तक न करें जो हर वक्‍त अपनी जान जोखिम में डालकर कठिन ड्यूटी को अंजाम देते रहते हैं।
वह प्रधानमंत्री को भी खुलेआम ”गालियां” देकर अभिव्‍यक्‍ति की आजादी पर खतरा मंडराने की बात करते हैं और खुद के लिए देश में आजादी की जगह, देश से ऐसी आजादी चाहते हैं जिसके तहत समूची कानून-व्‍यवस्‍था को ताक पर रखकर गद्दारों, देशद्रोहियों एवं आतंकवादियों की खुलेआम सहायता कर सकें। उनके लिए असली आजादी तभी आएगी जब वो अपने असभ्‍य आचरण का सार्वजनिक प्रदर्शन करने को स्‍वतंत्र हों और आजादी की लड़ाई लड़ने वालों के बलिदान को दरकिनार कर निर्दोषों का खून बहाने वालों का साथ दे सकें।
उनके लिए देश सही मायनों में तब स्‍वतंत्र होगा जब वो बिना किसी रोक-टोक के नक्‍सलियों के लिए काम कर सकें, उनके हित में लड़ सकें। अफजल गुरू, याकूब मेमन तथा पाकिस्‍तानी आतंकी अजमल कसाब जैसों को मिली सजा पर मातम मना सकें।
इन सबके इतर आजादी पर सवालिया निशान लगाने वालों में वो लोग भी शामिल हैं जिनकी मानें तो देश का अल्‍पसंख्‍यक समुदाय डरा हुआ है। इन लोगों के लिए अल्‍पसंख्‍यक की परिभाषा भी सिर्फ मुस्‍लिम वर्ग तक सीमित है। सिख, ईसाई, पारसी, जैन आदि इनके लिए दोयम दर्जे के अल्‍पसंख्‍यक हैं।
दरअसल डर मुस्‍लिमों में नहीं, उनके मन में है क्‍योंकि देश पर एक दक्षिणपंथी विचारधारा वाली सरकार काबिज हो गई है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाला यह वर्ग अपने मन में व्‍याप्‍त भय के कारण लोकतांत्रिक तरीके से स्‍पष्‍ट बहुमत के साथ चुनी गई सरकार को उसका अपना कार्यकाल भी इसलिए पूरा करते नहीं देखना चाहता क्‍योंकि वह तुष्‍टीकरण की राजनीति में विश्‍वास नहीं रखती। वह ”सबका साथ, सबका विकास” की बात तो करती है लेकिन उनके सामने शीर्षासन नहीं कर रही जिनको मूर्ख बनाकर स्‍वतंत्र भारत में अधिकांश समय सत्तासुख भोगा जाता रहा।
सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए काम करने का दावा करने वाली सरकार के पीएम की बातों को ”आरक्षित आजादी” मांगने वाला यह वर्ग जुमलेबाजी बताने में रत्तीभर शर्म महसूस नहीं करता और ”पैसे पेड़ों पर तो नहीं उगते” जैसा जुमला बोलने वाले के कसीदे पढ़ता है।
आजादी का महत्‍व यह वर्ग इसलिए नहीं समझता क्‍योंकि यहां ईशनिंदा करने के बावजूद फांसी के फंदे पर लटकाने का कोई कानून नहीं है अन्‍यथा यीशु को मानने वाले देशों व इस्‍लाम को मानने वाले मुल्‍कों में जाकर देखें तो पता लगे कि ईश्‍वर के अस्‍तित्‍व पर उंगली उठाने का नतीजा क्‍या होता है, और आजादी किसे कहते हैं।
यह तो ऐसी मान्‍यताओं वाला देश है जहां जहरीले बिच्‍छू के काट जाने के बाद भी कहा जाता है कि यदि बिच्‍छू अपना विष वमन करने की प्रवृत्ति नहीं त्‍याग सकता तो इंसान अपनी इंसानियत क्‍यों त्‍याग दे।
शिशुपाल से पूरी सौ गालियां धैर्य के साथ सुनने के बाद ही श्रीकृष्‍ण ने उसकी गर्दन काटने के लिए सुदर्शन चक्र का इस्‍तेमाल किया क्‍योंकि वह प्रतिज्ञाबद्ध थे। श्रीकृष्‍ण ने कभी अपने ईश्‍वर होने की अनुभूति तब तक नहीं कराई, जब तक वैसा कराना जरूरी नहीं हो गया, बावजूद इसके कृष्‍ण कभी छलिया कहलाए तो कभी रणछोर। कभी ग्‍वाला बने रहे तो कभी माखनचोर।
आज 70 वर्षों बाद भी आजादी का महत्‍व न समझने वाले तथा आजादी को सत्‍ता से जोड़कर देखने वालों को भी इसका अंदाज तब लगेगा जब वो अपने मुंह से निकाले गए हर जहरीले शब्‍द की मारक क्षमता समझेंगे, और समझेंगे कि बिना आजादी के वो यदि ऐसे शब्‍दों का प्रयोग करते तो पूरी जिंदगी सलाखों के पीछे गुजारनी पड़ सकती थी।
इसे इत्‍तिफाक मान सकते हैं कि हजारों साल पहले श्रीकृष्‍ण को ईश्‍वरीय अवतार न मानने वालों की भी कमी नहीं थी और आज मात्र 70 सालों बाद भी देश को आजाद मानने पर प्रश्‍न खड़ा करने वालों की भी कोई कमी नहीं है।
जो भी हो, ”वसुधैव कुटुम्बकम” में भरोसा रखने वाला भारत केवल 70 सालों की आजादी के बाद इस मुकाम पर जरूर आ खड़ा हुआ है जहां अमेरिका जैसा मुल्‍क यह कहने पर मजबूर है कि उत्तर कोरिया द्वारा पैदा की गई समस्‍या के समाधान में भारत एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।
दलगत राजनीति का शिकार और विशेष मानसिकता का पोषक एक खास वर्ग भले ही इस आशय का ढिंढोरा पीटे कि उसे अब भी किसी ”कथित आजादी” की दरकार है लेकिन हकीकत यही है कि आज पूरे विश्‍व में तिरंगे का सम्‍मान बढ़ रहा है और श्रीकृष्‍ण को ईश्‍वर मानकर पूजने वालों में उन फिरंगियों की तादाद अच्‍छी खासी है जिन्‍होंने सैकड़ों साल इस देश को गुलामी की जंजीरों से जकड़े रखा था।
श्रीकृष्‍ण के मुंह से बोले गए शब्‍दों की माला ”श्रीमद्भागवत गीता” पर भी आज विश्‍व के अनेक देशों में रिसर्च हो रही है और सवा सौ करोड़ की आबादी के बावजूद बिना किसी खून-खराबे के सत्ताओं की अदला-बदली होने पर भी दुनिया अचंभित है।
विश्‍व के सबसे बड़े देश का सफल लोकतंत्र यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि महाभारत के मैदान में जो कुछ बोला गया, वह कोई ईश्‍वरीय अवतार ही बोल सकता है और आजाद भारत में ही कोई मामूली सा इंसान तक न सिर्फ सरकार, बल्‍कि प्रधानमंत्री के लिए भी खुलेआम अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल कर सकता है।
हैप्‍पी श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी, हैप्‍पी स्‍वतंत्रता दिवस। जय हिंद, जय भारत…वंदे मातरम्।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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