शनिवार, 16 सितंबर 2017

खुली चुनौती: कानून-व्‍यवस्‍था की बात तो दूर, ट्रैफिक व्‍यवस्‍था ही सुधार दें सरकार

योगी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यदि कोई है तो वह है कानून-व्‍यवस्‍था को पटरी पर लाना। उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकारें भी कानून-व्‍यवस्‍था के मामले में असफल रही हैं। बताया जाता है कि योगी सरकार बदहाल कानून-व्‍यवस्‍था को पटरी पर लाने के लिए उत्तर प्रदेश कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम ऐक्ट यानि यूपीकोका (UPCOCA) लाने पर विचार कर रही है परंतु उस ट्रैफिक व्‍यवस्‍था का क्‍या, जो न सिर्फ अनेक बड़ी दुर्घटनाओं का कारण बनी हुई है बल्‍कि अकाल मौतों के आंकड़ों में वर्ष-दर-वर्ष भारी वृद्धि की वजह भी बन रही है।
राजधानी लखनऊ सहित प्रदेश का शायद ही कोई जिला, तहसील या कस्‍बा ऐसा होगा जो पूर्णत: चरमरा चुकी यातायात व्‍यवस्‍था का शिकार न हो। कोई राष्‍ट्रीय राजमार्ग, राजमार्ग अथवा संपर्क मार्ग यातायात की अव्‍यवस्‍था से अछूता नहीं होगा। देश में जितनी अकाल मौतें अन्‍य दूसरे कारणों से नहीं होतीं, उतनी सिर्फ सड़क दुर्घटनाओं के कारण हर दिन होती हैं किंतु इस दिशा में कोई ठोस कदम उठता दिखाई नहीं देता।
जिस सड़क पर भी निकल जाएं, उसी पर आपको ओवरलोडेड ट्रक, ट्रैक्‍टर-ट्रॉली, निजी बसें, ऑटो रिक्‍शा, जुगाड़, सामान ढोने वाले पैदल रिक्‍शे तथा अन्‍य थ्री व्‍हीलर्स आदि दिखाई दे जाएंगे। अधिकांश मोटरसाइकिल चालक तो कम से कम तीन सवारियों के साथ चलना अपना जन्‍मसिद्ध अधिकार मान बैठे हैं। थोड़ी देर किसी सड़क पर नजर दौड़ा लें तो चार और यहां तक कि पांच-पांच सवारियों से लदी मोटरसाइिकलें भी खूब देखी जा सकती हैं। इन सवारियों में औरतें और अबोध बच्‍चे भी शामिल होते हैं। ऐसा लगता है जैसे आत्‍महत्‍या करके मुआवजा लेने का यह कोई नया तरीका ईजाद किया गया हो।
अधिकतम तीन सवारियों के लिए निर्धारित ऑटो रिक्‍शा में छ:-सात सवारियां उनके लगेज सहित भरकर चलना, बैट्री चालित रिक्‍शों में पांच-छ: सवारियां लादना, ट्रैक्‍टर-ट्रॉली को ट्रॉली की ऊंचाई से डेढ़ गुना अधिक तक ईंटें भरकर दौड़ाना, बुग्‍गी में इतना अधिक भूसा भरकर ले जाना कि न दाएं-बाएं कुछ दिखाई दे और न पीछे वाले को कुछ नजर आए, यह सब इतनी सामान्‍य बातें हैं कि जिन पर कोई उंगली भी उठाना जरूरी नहीं समझता।
भूसे की बुग्‍गी का जिक्र भले ही कर लें, यहां तो लोहे की सरियाएं भी ट्रक में इस कदर भरी जाती हैं कि ट्रक का पिछला हिस्‍सा कब किसकी मौत का सामान बन जाए, कहना मुश्‍किल है।
बात चाहे ग्रेटर नोएडा से आगरा तक के लिए बने यमुना एक्‍सप्रेस-वे की हो या फिर आगरा से लखनऊ तक के लिए बनाए गए एक्‍सप्रेस-वे की, दोनों ही सड़कों पर स्‍पीड नियंत्रित करने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है लिहाजा यमुना एक्‍सप्रेस-वे तो हर दिन कई-कई मौतों का कारण बनता है जबकि आगरा-लखनऊ एक्‍सप्रेस-वे भी विधिवत् शुरू हुए बिना ही कई जिंदगियां ले चुका है। हालांकि इस सबके लिए दोष सड़क का नहीं, उन वाहन चालकों का ही है जो लचर यातायात व्‍यवस्‍था के चलते अपनी और अपने साथ बैठी जिंदगियों को असमय काल के गाल तक पहुंचाने का बंदोबस्‍त करते हैं।
कहने के लिए सिविल पुलिस में बाकायदा यातायात पुलिस का एक विभाग होता है और संभागीय परिवहन विभाग (आरटीओ) भी इसी के लिए बना है किंतु दोनों अपने दायित्‍व की पूर्ति मात्र सुविधा शुल्‍क लेकर करते रहते हैं। दोनों ही विभागों का आलम यह है कि जितना वेतन उनके कुल कर्मचारियों को सरकार से भत्ते आदि मिलाकर भी नहीं मिलता, उतना तो हर माह उन्‍हें यातायात की इस अव्‍यवस्‍था से प्राप्‍त हो जाता है।
उदाहरण के लिए यदि उत्तर प्रदेश के विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद मथुरा को ही लें तो यहां हजारों की संख्‍या में शहर के अंदर और बाहर ऑटो रिक्‍शा, बैट्री रिक्‍शा, थ्री व्‍हीलर्स, निजी डग्‍गेमार बसें, अवैध ट्रैक्‍टर ट्रॉलियां, जुगाड़, भैंसा बुग्‍गियां, बैल गाड़ियां, स्‍कूली बसें, माल ढोने वाले पैदल रिक्‍शे आदि सड़कों पर दिन-रात दौड़ते रहते हैं।
ये सभी वाहन संबंधित विभागों को ठेकेदारों के माध्‍यम से महीनेदारी पहुंचाते हैं और इसलिए इन पर यातायात का कोई नियम या कानून लागू नहीं होता। मथुरा जनपद के बीच से गुजरने वाले करीब-करीब 90 किलोमीटर लंबे राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर दो पर जगह-जगह ईंट,बजरी, गिट्टी व मिट्टी से ओवरलोडेड ट्रैक्‍टर-ट्रॉलियां, ट्रक, जुगाड़ तथा बुग्‍गियां आदि अन्‍य वाहनों का वर्चस्‍व साफ देखा जा सकता है। इनकी अवैध मंडियां खुलेआम पूरी व्‍यवस्‍था को धता बताते हुए लोगों को मौत के मुंह में भेजने का इंतजाम करती हैं किंतु किसी की क्‍या मजाल कि कोई इनसे कुछ कह सके।
तीन की जगह सात-सात सवारियां तक बैठाकर चलने वाले ऑटो रिक्‍शा चालक शहर के सभी प्रमुख तिराहों-चौराहों की आधी से अधिक सड़क इसलिए घेरे रहते हैं क्‍योंकि पुलिस उनसे महीनेदारी के साथ-साथ बेगार भी लेती है। अपने खास मेहमानों को घुमाने में तो इनका इस्‍तेमाल करती ही है, लावारिस लाशों को पोस्‍टमार्टम गृह तक पहुंचाने का काम भी इन्‍हीं से कराती है। गर्मियों में चौकी पर कहीं से पानी ढोकर लाना हो अथवा जाड़ों में अलाव जलाने के लिए लकड़ी मंगवानी हो, सारा काम ऑटो रिक्‍शों से कराया जाता है। लाखों रुपए महीने की अतिरिक्‍त आमदनी का जरिया और ऊपर से बेगार करने वाले ऑटो रिक्‍शा इसलिए हर तिराहे-चौराहे की सड़क को अपनी निजी जागीर समझते हैं और इस बारे में कुछ भी कहने वाले को अपना निजी दुश्‍मन।
पुलिस और ऑटो रिक्‍शा चालकों के मध्‍य बिचौलिए का काम करने वाले ठेकेदारों की मानें तो वर्तमान हालातों में ऑटो रिक्‍शा चालक पूरी तरह निरंकुश हैं और इनको रोकने या टोकने की हिमाकत करने वाला बड़ी मुसीबत में पड़ सकता है।
मथुरा के गोवर्धन चौराहे पर ऑटो रिक्‍शा चालकों से पैसा वसूल करने वाला ठेकेदार साफ शब्‍दों में बेझिझक बताता है कि यहां 80 प्रतिशत ऑटो चालक एक समुदाय विशेष से ताल्‍लुक रखते हैं और आस-पास की बस्‍तियों में रहते हैं। पुलिस के लिए दुधारु गाय बने हुए इन ऑटो चालकों से यदि कोई चार पहिया वाहन चालक भी यदि सड़क किनारे खड़े होने की कह दे तो यह मिलकर उससे अभद्रता करने लगते हैं। टोकने वाला अगर प्रतिउत्तर देने की गलती कर बैठे तो उसकी मजामत करने से भी ये लोग नहीं चूकते क्‍योंकि पुलिस इनके हाथों पूरी तरह बिकी हुई है और हर हाल में वह इन्‍हीं का पक्ष लेती है।
दूसरी ओर रोडवेज बस के चालक भी किसी मायने में ऑटो रिक्‍शा चालकों से कम नहीं हैं। बीच सड़क पर जहां चाहे बस रोक कर सवारियों को चढ़ाना तथा उतारना इनका शौक मान सकते हैं क्‍योंकि सरकारी सेवा में होने के कारण सामान्‍यत: पुलिस इनसे कुछ नहीं कहती।
विशेष अवसरों पर बस के अंदर सवारियां ठूंस-ठूंस कर भरने और बस की छत पर भी सवारियां बैठाने से इन्‍हें कोई परहेज नहीं होता क्‍योंकि निर्धारित सीटों के बाद हर सवारी इनकी अतिरिक्‍त आमदनी का जरिया बनती है।
यातायात व्‍यवस्‍था की बदहाली में अपनी भूमिका निभाने से विकास प्राधिकरण भी कतई पीछे नहीं रहता। वहां बैठे अधिकारियों से सुविधा शुल्‍क देकर कोई भी व्‍यक्‍ति पार्किंग की सुविधा उपलब्‍ध कराए बिना अपनी दुकान, मकान, मैरिज होम, होटल, गैस्‍ट हाउस अथवा नर्सिंग होम का नक्‍शा पास करा सकता है। यहां तक कि मॉल भी खड़ा कर सकता है। फिर चाहे सड़क जाम हो या सड़क दुर्घटना, उससे उन्‍हें कोई फर्क नहीं पड़ता क्‍योंकि कोई कुछ पूछने वाला नहीं है।
व्‍यवस्‍था खुद इतनी अव्‍यवस्‍था का शिकार है कि पहले उसे ही व्‍यवस्‍था की दरकार है। संभवत: इसीलिए उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का संकल्‍प लेकर सत्ता संभालने वाले भगवाधारी योगी आदित्‍यनाथ भी कई बार व्‍यवस्‍था के सामने बेबस नजर आते हैं। सत्ता संभालने के बाद पहले उन्‍होंने पिछली सरकारों द्वारा तैनात अधिकारियों पर भरोसा करके देखा, फिर उच्‍च अधिकारियों का तबादला किया, उसके बाद पूर्ववर्ती सरकारों के कदमों का अनुसरण करते हुए अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह फैंटकर भी देखा लेकिन नतीजा अब तक शून्‍य बना हुआ है। ब्‍यूरोक्रेसी किसी भी तरह योगी जी के नियंत्रण में नहीं आ रही।
सत्ता नहीं, व्‍यवस्‍था परिवर्तन की हुंकार भरने वाले भगवाधारी मुख्‍यमंत्री को फिलहाल तो ब्‍यूराक्रेसी ने नाकों चने चबवा दिए हैं। ब्‍यूरोक्रेसी की ढिठाई पर योगी जी अब नाराजगी भी जाहिर करने लगे हैं और सजा देने का ऐलान भी कर रहे हैं लेकिन अभी ब्‍यूरोक्रेसी सारे हथकंडों से बेअसर है।
ऊपर के स्‍तर पर लेन-देन की भले ही कोई शिकायत सामने न आई हो किंतु जिला और तहसील स्‍तर पर किसी भी क्षेत्र में भ्रष्‍टाचार कम होने का नाम नहीं ले रहा। खाकी को न मंत्रियों का कोई खौफ है और न मुख्‍यमंत्री का। जिले के प्रभारी अधिकारी आमजन की तो क्‍या सत्ताधारी दल के पदाधिकारियों की भी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। उनकी शिकायतों पर लखनऊ से भी संज्ञान नहीं लिया जाता। पार्टी के बहुत से पदाधिकारी यह स्‍वीकार करने में कोई संकोच नहीं करते कि प्रदेश की राजधानी ऊंचा सुनती है लिहाजा जिले के अधिकारी जायज बात भी नहीं सुनते। उनका कहना है कि भाजपा के लिए 14 वर्षों बाद सत्‍ता का वनवास भले ही खत्‍म हो गया हो किंतु हम अब भी दर-दर भटकने पर मजबूर हैं। हमारी सुनने वाला कोई नहीं।
यातायात व्‍यवस्‍था की बदहाली और उससे जुड़े भारी भ्रष्‍टाचार के बावत भी सत्ताधारी पार्टी के पदाधिकारी आक्रोश व्‍यक्‍त करते हुए बताते हैं कि हर अधिकारी चार्ज लेते वक्‍त तो व्‍यवस्‍था सुधारने का पुरजोर दावा करता है किंतु चंद दिनों बाद वह अपने कैंप कार्यालय तक सिमट कर रह जाता है।
आश्‍चर्य की बात यह है कि अधिकारियों की यह कार्यप्रणाली किसी एक जनपद में नहीं, प्रत्‍येक जनपद में देखी जा रही है परंतु इससे निपटने का कोई तरीका सरकार के पास नजर नहीं आ रहा।
योगी जी के नेतृत्‍व वाली भाजपा की सरकार को प्रदेश में सत्ता संभाले पांच महीने पूरे होने जा रहे हैं किंतु कानून-व्‍यवस्‍था के एक महत्‍वपूर्ण अंग यातायात की व्‍यवस्‍था भी अभी जस की तस है। पूरी कानून-व्‍यवस्‍था का तो कहना ही क्‍या।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि संपूर्ण व्‍यवस्‍था को परिवर्तित करने का दावा करने वाली योगी सरकार मात्र यातायात व्‍यवस्‍था को ही कब तक सुधार पाएगी?
सड़क सुरक्षा सप्‍ताह तो पहले भी मनाए जाते रहे हैं और अब भी मनाए जाते रहेंगे किंतु क्‍या वाकई सड़कें सुरक्षित होंगी।
क्‍या सड़कों पर उनकी लंबाई के हिसाब से फैले भ्रष्‍टाचार पर अंकुश लगेगा, पुलिस एवं आरटीओ की मिलीभगत से मनमानी करने वाले व्‍यावसायिक वाहन चालक क्‍या नियंत्रित होकर यातायात नियमों का पालन करने पर बाध्‍य होंगे? और यदि यह सब होगा तो कब तक ? इस काम के लिए भी पांच महीने कम हैं तो क्‍या पांच साल काफी होंगे ?
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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