मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

कोबरा ने 1984 पर स्‍टिंग करके अब कांग्रेस को मारा डंक

नई दिल्ली। 
1984 के सिख विरोधी दंगों के बारे में एक सनसनीखेज खुलासा सामने आया है। कोबरापोस्ट द्वारा किए गए इस स्टिंग ऑपरेशन में इस बात का खुलासा किया गया है कि कैसे पुलिस ने कांग्रेस सरकार के सामने खुद को सही साबित करने के लिए दंगाइयों के खिलाफ कार्यवाही करने से मना कर दिया था, और खास बात यह कि आंशिक तौर पर पुलिस फोर्स खुद भी सांप्रदायिक हो गई थी।
दंगे के समय वहां तैनात रहे छह एसएचओ ने कोबरापोस्ट के एक अंडरकवर रिपोर्टर द्वारा लिए गए सीरीज इंटरव्यू में पुलिस द्वारा कार्यवाही न करने की बात स्वीकार की है। हालांकि, दो सीनियर ऑफिसर्स एसी. पी. गौतम कौल और तब के पुलिस कमिश्नर एस. सी. टंडन के इंटरव्यू में इस तरह बयान सामने नहीं आए हैं। जहां टंडन सारे सवालों को टाल गए, वहीं गौतम कौल ने एक घटना का जिक्र किया है कि वह गुरुद्वारा रकाबगंज के पास दंगे की खबरों की जांच के लिए गए तो उन्हें वहां से भागना पड़ा, क्योंकि वह उग्र भीड़ के सामने अकेले पड़ गए थे।
अगर ये इंटरव्‍यू सही हैं तो इससे पता चलता है कि कैसे पुलिस फोर्स न सिर्फ कार्यवाही करने में विफल रही बल्कि सिखों को 'सबक' सिखाने के लिए सरकार के साथ सांठ-गांठ भी की। यह अल्पसंख्यकों के खिलाफ राज्य प्रायोजित हिंसा का सबसे खराब उदाहरण है।
जिन एसएचओ के इंटरव्यू लिए गए उनमें कल्याणपुर के शूरवीर सिंह त्यागी, दिल्ली कैंटोंमेंट के रोहतास सिंह, कृष्णा नगर के एस. एन. भाष्कर, श्रीनिवासपुर के ओ. पी. यादव तथा मेहरौली के जयपाल सिंह और तब पटेल नगर में तैनात एसएचओ अमरीक सिंह भुल्लर शामिल हैं। जयपाल सिंह ने जांच कमीशन के पास एक ऐफिडेबिट जमा कराई है जिसमें उन्होंने स्थानीय नेताओं पर न सिर्फ दंगे में शामिल होने बल्कि भीड़ को भड़काने का भी आरोप लगाया है।
इस इंटरव्यू में सामने आए सनसनीखेज खुलासों में से एक यह है कि पुलिस को यह संदेश प्रसारित किए गए कि पुलिस उन दंगाइयों के खिलाफ कोई कार्यवाही न करे जो 'इंदिरा गांधी जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे और कुछ मामलों में पीड़ितों की लाशों को दंगों की जगह से दूर फेंक दिया जाए जिससे मरने वालों की आधिकारिक संख्या कम दिखाई जा सके।
इन पुलिस वालों के अनुसार पुलिस कंट्रोल रूम में आगजनी और दंगों की खबरों की भरमार के बावजूद महज दो फीसदी संदेश ही रेकॉर्ड किए गए। बाद में सीनियर पुलिस अधिकारियों पर कार्यवाही न करने के आरोपों से बचने के लिए पुलिस लॉगबुक में परिवर्तन कर दिया गया।
सीनियर अधिकारियों ने दंगाइयों पर गोली चलाने का आदेश नहीं दिया। यहां तक कि फायर ब्रिगेड ने भी आगजनी प्रभावित क्षेत्रों में जाने से मना कर दिया। पुलिस ने दंगा प्रभावितों को एफआईआर दर्ज करने की अनुमति नहीं दी और जो एफआईआर दर्ज हुए भी उनमें भी हत्या और आगजनी की अलग-अलग घटनाओं को एक ही एफआईर में दर्ज कर लिया गया।
कम से कम तीन एसएचओ ने टंडन की कुप्रबंधन के लिए आलोचना की है। त्यागी ने जोर देकर कहा, 'जानबूझकर या अनजाने में, वह (टंडन) सरकार के प्रभाव में थे। शुरुआत में उन्होंने स्थिति को ठीक ढंग से नहीं संभाला और पहले दो दिनों में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई।' यादव ने भी टंडन पर फोर्स को नेतृत्व न प्रदान करने का आरोप लगाया।
दंगों की जांच के लिए गठित रंगनाथ मिश्रा समिति और कपूर-कुसुम मित्तल समिति दोनों ने ही टंडन को कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। जब कोबरा पोस्ट के रिपोर्टर ने टंडन की इस बारे में प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने यह कहते हुए कुछ भी कहने से मना कर दिया कि चुनाव के सीजन में उनके द्वारा कुछ भी कहने से विवाद खड़ा हो सकता है।
भाष्कर ने अपने सीनियर अधिकारियों को भेजे गए उस मेसेज को अपने पास रखा है जिसे उन्होंने अनदेखा कर दिया था। भुल्लर ने एडिशनल सीपी हुकुम चंद जाटव पर प्रेस द्वारा दी गई आगजनी और हत्या की सूचना के बाद भी कार्यवाही करने से मना कर देने का आरोप लगाया है। भुल्लर के मुताबिक जाटव तब करोल बाग के कंट्रोल रूम में थे जब एक रिपोर्टर ने उन्हें घटना की सूचना दी लेकिन जाटव ने कहा कि वह कंट्रोल रूम में ही थे और ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। भुल्लर का दावा है, 'वह (जाटव) सब कुछ जानते थे लेकिन वहां से मूव ही नहीं किया।'
एक और पुलिस अधिकारी रोहतास सिंह ने कहा कि डीसीपी चंद्र प्रकाश ने उन्हें दंगाइयों की भीड़ पर गोली चलाने की अनुमति नहीं दी थी। सिंह के मुताबिक, 'उन्होंने मुझसे कहा और लिखित में दिया कि इंदिरा गांधी की हत्या एक बड़ी घटना है। अब क्यों तुम (गोली चलाकर) एक और बड़ी घटना करना चाहते हो?
सिंह जोर देकर कहते हैं कि वह अपने आरोपों को और मजबूती से साबित कर पाते अगर वायरलेस मेसेजेज को ठीक ढंग से रेकॉर्ड किया गया होता। सिंह कहते हैं, 'अगर वे मेसेजेज रेकॉर्ड किए गए होते तो मैं कई बातें साबित कर सकता था लेकिन 2 फीसदी मेसेजेज भी कंट्रोल रूम के लॉग बुक में रेकॉर्ड नहीं किए गए।' उन्होंने आरोप लगाया कि चंद्र प्रकाश ने उन मेसेजेज को भी बदल दिया जिनसे वह फंस सकते थे। सिंह यह भी स्वीकार करते हैं कि फोर्स सांप्रदायिक हो गई थी। उन्होंने कहा, 'मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हमारे पुलिस के जवान सांप्रदायिक सोच के हो गए थे।'
इंटरव्यू से पता चलता है कि कैसे पुलिस ने तीन दिन बाद सेना के हस्ताक्षेप से दंगों पर नियंत्रण के बाद लोगों को इंसाफ दिलाने की बजाय अपनी गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश की। पहले तो उन्होंने केस दर्ज नहीं किए और जब किए भी तो असमान मामलों को एक साथ एक एफआईआर के तहत दर्ज कर लिया।
भुल्लर के मुताबिक, 'पुलिस ने केस दर्ज नहीं किए, इसके बजाय उन्होंने केस को दबाने की कोशिश की। वे जानते थे कि उनके इलाकों में जबर्दस्त दंगे हो रहे हैं इसलिए उन्होंने इसे कमतर दिखान की कोशिश की और इसलिए अपनी नौकरियां बचाने के लिए लाशों को सुल्तानपुरी में फेंक दिया गया।'
-एजेंसी

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

वॉल स्ट्रीट तक पहुंचने के लिए वाड्रा को दी भाजपा ने बधाई

नई दिल्ली। 
सोनिया गांधी के दामाद और प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा पर बीजेपी का हमला आज भी जारी है. आज बीजेपी नेताओं अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद ने वाड्रा के कारोबार को वाड्रा मॉडल का नाम दे दिया. आपको बता दें कि शुक्रवार को जारी एक रिपोर्ट में द वॉल स्ट्रीट ने खुलासा किया था कि दसवीं पास कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद और प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा के पास 2012 में सवा तीन सौ करोड़ की जमीन जायदाद थी.
अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में लिखा है- राबर्ट वाड्रा को बधाई हो. द वॉल स्ट्रीट जनरल तक पहुंच गए. बिजनेस एनालिस्ट को वाड्रा बिजनेस मॉडल पर रिसर्च पेपर तैयार करना चाहिए. बिना पूंजी लगाए बिजनेस शुरू किया. राजनीतिक पूंजी से लोन और एडवांस आए. लोन से बाजार मूल्य से कम दाम में प्रापर्टी खरीदी.
ब्लॉग में आगे यूपीए सरकार पर निशाना साधते हुए जेटली ने लिखा है- सरकार के संरक्षण में बहुत सारे लोग ऐसे सौदे करना चाहेंगे. इससे गंभीर सवाल खड़े होंगे. इसलिए तो द वॉल स्ट्रीट ने ये किया.
अमेरिकी अखबार द वॉल स्ट्रीट जनरल की रिपोर्ट में ने अनुमान लगाया गया है कि साल 2012 तक रॉबर्ट वाड्रा ने 72 करोड़ रुपये की जमीन बेच कर मुनाफा कमाया था और अब भी करीब 253 करोड़ रुपये की जमीन के रॉबर्ट वाड्रा मालिक हैं. आपको बता दें कि ये सारे आंकड़े 2012 तक के हैं, उसके बाद से रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों के दस्तावेज सरकारी वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैं.
साल 1997 में रॉबर्ट वाड्रा की शादी प्रियंका गांधी से हुई थी. साल 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए ने सत्ता संभाली थी. उस वक्त तक रॉबर्ट वाड्रा एक छोटा से एक्सपोर्ट का बिजनेस चलाते थे. पर साल 2007 में रॉबर्ट वाड्रा ने रियल एस्टेट के बिजनेस में कदम रखा. करीब एक लाख की पूंजी के साथ शुरू हुआ बिजनेस सात साल में करोड़ों में पहुंच गया है तरक्की की ये कहानी कांग्रेस शासित राज्यों में लिखी गई.
द वॉल स्ट्रीट जनरल ने जिन सौदों का जिक्र किया है उसमें शामिल हैं-
साल 2008- स्काई लाइट ने गुड़गांव में साढ़े तीन एकड़ जमीन खरीदी करीब 7.5 करोड़ में खरीदी और ढाई महीने में लैंड यूज बदल कर डीएलएफ को ये जमीन 58 करोड़ में बेच दी. अखबार ने इस सौदे को लेकर अशोक खेमका के तबादले और दूसरी अनियमितताओं का जिक्र भी किया है.
साल 2008-09- स्काई लाइट हॉस्पिटेलिटी ने 31 करोड़ में दिल्ली में डीएलएफ के एक होटल में 50 फीसदी की हिस्सेदारी खरीदी थी जबकि साल 2012 में इसकी कीमत हो गई 198 करोड़.
साल 2010- जनवरी 2010 में वाड्रा ने 94 एकड़ जमीन 42 लाख में खरीदी. कुछ ही वक्त बाद केंद्र सरकार की तरफ से सोलर पार्क में निवेश करने पर टैक्स रियायत देने का ऐलान किया गया. एक साल में राजस्थान सरकार ने भी ऐसी ही रियायत दी. नतीजा हुआ जमीनें करीब दस गुना महंगी हो गईं.
साल 2009-12- राजस्थान में वाड्रा की कंपनियों ने तीन साल में 2000 एकड़ जमीन खरीदी. जिसमें करीब एक तिहाई 700 एकड़ जमीन बेच कर करीब 16 करोड़ कमा लिए. जो जमीन पर खर्च करने का तीन गुना था. कांग्रेस इस मामले में रॉबर्ट वाड्रा का बचाव करती आ रही थी अब कांग्रेस का कहना है कि अगर कुछ गलत लगता है तो जांच होनी चाहिए.
द वॉल स्ट्रीट रिपोर्टर ने रॉबर्ट के प्रवक्ता से इस बारे में बात की तो उनके प्रवक्ता ने कहा कि ये वाड्रा को बदनाम करने की साजिश है. वाड्रा के प्रवक्ता ने कहा कि राजनीतिक कारणों से बदनाम करने की साजिश चल रही है. वाड्रा के पास जमीन खरीदने और बेचने का अधिकार है. उन्होंने किसी से अनुचित लाभ नहीं लिया. रॉबर्ट वाड्रा ने जो भी किया वो कानून के मुताबिक किया. इससे ज्यादा कुछ नहीं कहना है.
-एजेंसी

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

बाप रे बाप: ये वकील हैं या..हर पेशी की फीस 25 लाख रुपए

सरकार के कोल ब्लॉक्स डीऐलोकेशन के कदम को चुनौती देने के लिए कैप्टिव कोल कंपनियों ने एक पेशी के लिए 25 लाख रुपये तक लेने वाले नामी-गिरामी वकीलों को हायर किया है। जुलाई में कई अदालतों में इस मामले की सुनवाई शुरू होगी। तब मुकुल रोहतगी और के. के. वेणुगोपाल जैसे सीनियर वकील इन कंपनियों की पैरवी करते हुए दिखेंगे।
इंडस्ट्री के लोगों का कहना है कि जहां कई सीनियर वकील एक पेशी के लिए 20 लाख रुपये की फीस ले रहे हैं, वहीं उनके साथ जाने वाले वकील भी एक पेशी के लिए 4 से 5 लाख रुपये ले रहे हैं। इनमें से एक कंपनी के प्रवक्ता ने कहा, 'एक पेशी के लिए नॉर्मल फीस 5-7 लाख रुपये होती है लेकिन आउट स्टेशन सुनवाई में खर्च डबल हो जाता है। तब कंपनी को वकीलों और उनके स्टाफ के रहने का भी इंतजाम करना पड़ता है। सभी कंपनियों ने कम से कम दो वकील हायर किए हैं। वहीं कुछ कंपनियों ने दो सीनियर वकील के साथ दो जूनियर वकील अप्वाइंट किए हैं।'
ऊपर की अदालतों में रोहतगी, नीरज किशन कौलव, दुष्यंत दवे, अरविंद निगम और ए. एस. चंडियोक जैसे सीनियर वकील कोल ब्लॉक्स मामले को हैंडल कर रहे हैं। कंपनियों ने करण लूथरा, ऋषि अग्रवाल, महेश अग्रवाल और गौरव जुनेजा जैसे वकीलों को भी हायर किया है। इसके बारे में दिल्ली हाईकोर्ट के एक वकील ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया, 'सीनियर वकील जाने-माने होते हैं और उसी हिसाब से वे फीस भी लेते हैं।
मिसाल के लिए जब रोहतगी, कौल और चंडियोक जैसे वकील पेश हुए तो कोर्ट ने केंद्र सरकार के बैंक गारंटी भुनाने और कोल ब्लॉक डीऐलोकेशन पर स्टे लगा दिया।' सरकार की ओर से 218 कैप्टिव कोल ब्लॉक्स दिए गए हैं। इनमें से प्राइवेट कंपनियों को दिए गए 56 और सरकारी कंपनियों को दिए गए 22 ब्लॉक्स कैंसल किए जा चुके हैं।
करीब-करीब सभी प्राइवेट कंपनियों ने कोल ब्लॉक डीऐलोकेशन और बैंक गारंटी भुनाने को चैलेंज किया है। ये मुकदमे झारखंड, जबलपुर, छत्तीसगढ़, ओडिशा और दिल्ली में चल रहे हैं। वकील ने बताया कि कंपनियां हाईकोर्ट का भी खर्च उठा रही हैं जबकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार हो रहा है। क्या केंद्र सरकार को कैप्टिव कोल ब्लॉक एलोकेट करने का अधिकार है, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना है।
कोर्ट ने कोल माइन ऐलोकेशन मामले में सभी पक्षों की दलील सुन ली है। इसमें 7 राज्यों और माइनिंग कंपनियों की एसोसिएशंस ने भी अपना पक्ष रखा है। इसके बाद अदालत ने मामले में फैसला सुरक्षित रखा है।

स्पॉट फिक्सिंग रिपोर्ट में 12 क्रिकेटर्स और श्रीनिवासन भी

सुप्रीम कोर्ट ने आज खुलासा किया है कि आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग मामले की जांच करने वाली जस्टिस मुद्गल समिति की रिपोर्ट में एन. श्रीनिवासन और 12 प्रतिष्ठित खिलाडियों के नाम हैं। कोर्ट ने कहा कि इन सभी के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए हैं। बीसीसीआई आरोपों की सीबीआई या एसआईटी से जांच कराने के लिए तैयार नहीं है। उसका कहना है कि इससे प्रतिष्ठित क्रिकेटर्स की छवि धूमिल हो जाएगी। साथ ही क्रिकेट बोर्ड की स्वायत्ता कमजोर हो जाएगी। श्रीनिवासन और चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी ने जस्टिस मुद्गल समिति की रिपोर्ट के इन निष्कर्षों को चुनौती दी थी कि दोनों ने गुरूनाथ मयप्पन की चेन्नई सुपर किंग्स में भूमिका को लेकर झूठ बोला था।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि सीलबंद रिपोर्ट में जो आरोप लगाए गए हैं, उनकी गहनता से जांच होनी चाहिए। आरोपों की प्रकृति गंभीर किस्म की है। कोर्ट ने कहा जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक श्रीनिवासन को बीसीसीआई से दूर रहना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, आरोपों को जानने के बाद हम अपनी आंखें बंद नहीं कर सकते।" "हम किसी की छवि खराब नहीं करना चाहते, लेकिन हमें क्रिकेट के भविष्‍य की चिंता है।" कोर्ट ने बीसीसीआई और श्रीनिवासन से पूछा कि आरोपों पर जांच किस तरह की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने आईपीएल के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर सुदरन रमन को राहत देते हुए पद पर बने रहने की अनुमति दी है। बीसीसीआई के अंतरिम अध्यक्ष सुनील गावस्कर ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखकर कहा था कि वह सुंदरन रमन को सीओओ पद से हटाने या बने रहने के संबंध में फैसला नहीं ले सकते।
बीसीसीआई के अध्यक्ष पद से हटाए गए श्रीनिवासन ने सुप्रीम कोर्ट से फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा था। श्रीनिवासन ने कोर्ट से अनुरोध किया था कि उन्हें इस साल सितंबर तक अध्यक्ष पद पर काम करते रहने की इजाजत दी जाए। इस मामले में श्रीनिवासन ने दलील दी कि बिहार क्रिकेट एसोसिएशन की ओर से सीनियर वकील ने उनके खिलाफ अनुचित और अप्रमाणित आरोप लगाए हैं।
-एजेंसी

फर्जी ब्रेथ टेस्ट रिपोर्ट बनवाकर उड़ान

डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन ने गांधी परिवार के सदस्यों को लेकर उड़ान भरने वाली कंपनी को पायलटों की फर्जी ब्रेथ टेस्ट रिपोर्ट बनाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किया है। डीजीसीए ने पाया कि उड़ान भरने से पहले होने वाले पायलट्स के ब्रेथ ऐनलाइजर (BA) टेस्ट की रिपोर्ट फर्जी भरी जा रही थी। जिन लोगों को SPG सुरक्षा मिली होती है, उन्हें लेकर उड़ान भरने से पहले हर बार यह टेस्ट कराना जरूरी होता है। इस टेस्ट के जरिए पता चलता है कि कहीं पायलट ने शराब तो नहीं पी है। इस तरह से देखा जाए तो गांधी परिवार के सदस्यों की जान खतरे में हो सकती थी।
ताजा वाकया सोमवार 14 अप्रैल का है, जब राहुल गांधी ने जीएमआर के लग्जरी फैल्कन 2000-Lx में दिल्ली से भुवनेश्वर के लिए उड़ान भरी थी। लापरवाही बरतने पर रेग्युलेटर ने 3 महीने के लिए जीएमआर एविएशन के 11 पायलट्स के फ्लाइंग लाइसेंस सस्पेंड कर दिए हैं और 6 कैबिन क्रू मेंबर्स को बर्खास्त कर दिया है। जिन पायलट्स ने अक्सर सोनिया और राहुल गांधी को लेकर उड़ान भरी थी, उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए पूछा गया है कि उनके लाइसेंस क्यों न 5 साल के लिए सस्पेंड कर दिए जाएं।
डीजीसीए ने कंपनी के डॉक्टर के खिलाफ भी एफआईआर करवाई है। डॉक्टर पर आरोप है कि उन्होंने BA टेस्ट्स के फर्जी रेकॉर्ड बनाए जबकि टेस्ट की मशीन ही खराब थी। एक सीनियर डीजीसीए ऑफिसर ने बताया, 'हम दिल्ली मेडिकल काउंसिल को उनका लाइसेंस रद्द करने के लिए लिख रहे हैं।' कर्मशल फ्लाइट्स के लिए कभी-कभार उड़ान से पहले BA टेस्ट कराया जाता है लेकिन जिन लोगों को SPG सुरक्षा मिली होती है, उन्हें लेकर उड़ने से पहले पायलट्स को हर बार टेस्ट करवाना पड़ता है।
अधिकारी ने बताया, 'हमने जीएमआर एविएशन के मार्च 12 से अप्रैल 14 तक के फ्लाइंग रेकॉर्ड्स की जांच की तो पाया कि उड़ान भरने से पहले किए गए मेडिकल जांच में BA टेस्ट फर्जी थे। इस दौरान BA टेस्ट करने वाले मशीन खराब थी।'
डीजीसीए ने यह भी पाया कि कांग्रेस नेता कमल नाथ की कंपनी स्पैन एविएशन और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के परिवार की कंपनी ऑरबिट एविएशन भी लगातार प्री-फ्लाइट BA टेस्ट नहीं करवा रही है। उनके डॉक्टर भी 3 महीनों के लिए सस्पेंड कर दिए गए हैं।
-एजेंसी

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

जीजाजी से अदानी के रिश्‍ते जाहिर, बैकफुट पर आई कांग्रेस

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा एक बार फिरचर्चा में हैं। ऐसी तस्वीरें सामने आई हैं, जिनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा अडाणी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडाणी के साथ नजर आ रहे हैं। ये तस्वीरें तब की हैं, जब रॉबर्ट वाड्रा अडाणी ग्रुप के एयरक्राफ्ट पर सवार होकर अडानी के प्रॉजेक्ट देखने गुजरात के कच्छ गए थे। गौरतलब है कि पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बीजेपी के पीएम कैंडिडेट नरेंद्र मोदी को अडाणी ग्रुप से रिश्तों को लेकर निशाने पर लिया था।
इस तस्वीर के सामने आने के बाद कांग्रेस बैकफुट पर आती दिख रही है। रॉबर्ट वाड्रा और गौतम अडाणी की यह तस्वीर साल 2009 की है। उस वक्त वाड्रा तब गुजरात के मूंदड़ा में अडाणी पोर्ट और अडाणी पावर प्लांट को देखने आए थे। वाड्रा और गौतम अडाणी एकसाथ अडाणी के प्राइवेट एयरक्राफ्ट में ही वहां पहुंचे थे। इससे पहले कांग्रेस भी कई मौकों पर नरेंद्र मोदी पर आरोप लगा चुकी है कि वह अडाणी ग्रुप के प्लेन से यात्रा करते हैं।
पिछले दिनों उदयपुर में हुई रैली में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को घेरते हुए कहा था, 'बीजेपी में आडवाणी बाहर और अदाणी अंदर।' राहुल गांधी ने मोदी और अडाणी ग्रुप की करीबियों का जिक्र करते हुए कहा था कि एक शख्स को गुजरात सरकार ने करोड़ों एकड़ जमीन मुफ्त में दे दी। अब जो तस्वीरें सामने आई है, उसमें रॉबर्ड वाड्रा और गौतम अडाणी एक साथ दिख रहे हैं। एक तस्वीर में दोनों बैठकर कुछ बात कर रहे हैं और दूसरी तस्वीर में वॉक करते दिख रहे हैं।
सबसे पहले अरविंद केजरीवाल ने साल 2012 में नरेंद्र मोदी और अडाणी ग्रुप के रिश्ते पर सवाल उठाए थे। उसके बाद से मोदी को घेरने के लिए वह लगातार इस मुद्दे को उठाते रहे हैं लेकिन पिछले दिनों कांग्रेस ने भी इस बात को लेकर मोदी पर निशाना साधना शुरू किया था मगर इस तस्वीर के सामने आने के बाद वह बैकफुट पर आती नजर आ रही है।
-एजेंसी

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

चुनावी सीजन में नेताओं का 'कुत्‍ता प्रेम'!

खुदा कसम, चुनावों के इस सीजन में कुत्‍ते भी नेताओं से बहुत परेशान हैं। कुत्‍तों की परेशानी मुझे भी कुछ वाजिब सी लगती है। बेशक वह मजबूर हैं लेकिन नेताओं को कोई हक नहीं बनता कि वह जब चाहें और जहां चाहें, उनकी तुलना अपने सहोदरों से करने लगें। आम इंसानों से की होती तो बात कुछ हजम भी होती क्‍योंकि लोकतंत्र में आम इंसान की दुर्गत गली के कुत्‍ते समान ही है परंतु यहां तो तुलना नेताओं से की जा रही है, और वो भी एक नेता दूसरे नेता की तुलना में कुत्‍तों का दुरुपयोग कर रहा है। कहीं किसी संदर्भ में एक नेता ने कह दिया कि कार के पहिए से कुचलकर अगर कोई पिल्‍ला भी मर जाए तो दुख होता है, फिर इंसान की मौत का दुख तो बनता है ना।
नेता का यह संदर्भ दूसरी पार्टी के नेता को इतना नागवार गुजरा कि उसने संदर्भ देने वाले नेताजी को ही गुस्‍से में कुत्‍ते के पिल्‍ले का बड़ा भाई कह डाला। इतना भी नहीं सोचा कि उन्‍हें यह पदवी देने से पहले वह खुद को पिल्‍ला मानकर चल रहे हैं।
संदर्भ देने वाले नेताजी ने जिस संदर्भ में भी पिल्‍ले का इस्‍तेमाल किया हो परंतु गुस्‍से में मतिभ्रष्‍ट दूसरी पार्टी के नेता ने तो पूरी कौम को खुद ही पिल्‍ला घोषित कर दिया।
बहरहाल, कूकुर के इस दुरुपयोग पर कुत्‍तों ने एक सभा का आयोजन किया और सर्वसम्‍मति से नेताओं द्वारा अपनी तुलना कुत्‍तों से किए जाने के खिलाफ घोर आपत्‍ति जाहिर की।
कुत्‍तों का कहना था कि हर जाति व नस्‍ल का कुत्‍ता अंतत: पूरी तरह कुत्‍तत्‍व को प्राप्‍त होता है जबकि नेता का अंत तक पता नहीं होता कि वह किस करवट बैठेगा। मसलन, हर किस्‍म के कुत्‍ते में स्‍वामिभक्‍ति, वफादारी तथा चाक चौबंद चौकीदारी जैसे गुण पाये जाते हैं। कुत्‍ता चाहे गली का आवारा हो या कीमती पट्टे से सुसज्‍जित किसी मेम के मुंह को चाटने वाला पालतू हो, दोनों के गुण-धर्म समान होते हैं लेकिन पूर्ण कुत्‍तत्‍व को प्राप्‍त एक भी नेता किसी पार्टी में नहीं पाया जाता। वह आज किसी एक की भक्‍ति में लीन होता है तो कल किसी दूसरे की भक्‍ति में। वह तो अपने भगवान हर चुनाव में बदल डालता है लिहाजा बेवफा नेताओं की तुलना किसी भी दृष्‍टि में वफादारी की मिसाल कुत्‍तों से किया जाना उचित नहीं है।
एक सीनियर सिटीजन कुत्‍ते ने अफसोस ज़ाहिर करते हुए कहा कि नेता तो उन आम इंसानों का भी सगा नहीं होता जो उसे दौलत, शौहरत और इज्‍ज़त हासिल कराते हैं। उसे इस लायक बनाते हैं कि वह अपनी सात पीढ़ियों के लिए ऐश-मौज का इंतजाम कर सके।
वह बोला, आप और हम देख रहे हैं कि आज चुनाव है तो नेता लोग आम आदमी के आगे-पीछे घूम रहे हैं, दर-दर की खाक छान रहे हैं लेकिन जैसे ही चुनाव खत्‍म होगा, यह उसे 'मेंगो पीपल' घोषित कर देते हैं।
आखिर में यह सीनियर सिटीजन कुत्‍ता कहने लगा कि हम तो आखिर कुत्‍ते हैं, नेताओं का कुछ भी बिगाड़ पाना हमारे बस में नहीं क्‍योंकि हमें कौन सा मताधिकार हासिल है। ये हमारी तुलना जैसे चाहें, वैसे करें परंतु दुख व अफसोस तो इंसानों के लिए होता है। तरस आता है उनके बुद्धि और विवेक पर। कुत्‍ता पालतू हो या गली का आवारा, यदि वो अपने को रोटी का टुकड़ा डालने वाले पर गलती से भी भोंक दे तो उस पर इंसान डंडा लेकर पिल पड़ता है। उसे खदेड़ देता है कहीं दूर और कहता है कि यह साला कैसा कुत्‍ता है जो अपने पालने-पोसने वाले पर ही भोंकता  है लेकिन उन नेताओं का कोई इंतजाम नहीं करता जिसे अपना वोट देकर आम से खास बनाता है। विशिष्‍ट बनवाता है, वीवीआईपी का तमगा दिलवाता है, लाल बत्‍ती की गाड़ी में बैठने लायक हैसियत दिलवाता है।
हम तो मजबूर हैं लेकिन आम इंसान के पास वोट की ताकत है। फिर वह बेवफा व खुदगर्ज नेताओं को कुत्‍तों की तरह क्‍यों नहीं खदेड़ देता, क्‍यों नहीं इन्‍हें समझाता कि कुत्‍तों से अपनी तुलना करने वालो, सच तो यह है कि तुम कुत्‍ते कहलाने लायक भी नहीं हो। कुत्‍तों से अपनी तुलना करके एक्‍चुअली तुम संपूर्ण कुत्‍तों और उनके कुत्‍तत्‍व की बेइज्‍ज़ती कर रहे हो। कुत्‍ता तो अनेक गुणों से विभूषित जीव है और इसीलिए उसे भगवान दत्‍तात्रेय ने अपने गुरूओं में शुमार किया था।
महाभारत काल से लेकर आज तक कुत्‍ता हर युग में वफादार था और आगे भी वफादार रहेगा। वह चाहे जिस नस्‍ल का हो, हर नस्‍ल में पूर्ण कुत्‍तत्‍व को ही प्राप्‍त होता है। किसी नस्‍ल में उसकी स्‍वामिभक्‍ति या वफादारी जैसे गुण प्रभावित नहीं होते लेकिन नेता तो पार्टी के साथ सब कुछ बदल लेता है। उसकी निष्‍ठा, भक्‍ति, वफादारी आदि सब-कुछ पार्टी के साथ तब्‍दील होती रहती है। शर्म करो....कुछ तो शर्म करो...शर्म करो...के नारे लगाकर आखिर उस सीनियर सिटीजन कुत्‍ते ने अपना वक्‍तव्‍य पूरा किया कि अब इससे अधिक बोला तो पता नहीं मेरे ही भाई-बंधु कहीं मुझे नेता की पदवी न दे दें और ऐसी अपमान जनक पदवी मुझे अपनों से प्राप्‍त हो, यह गवारा नहीं।
ऐसा होने पर मुझे आत्‍मग्‍लानि के कारण आत्‍महत्‍या करने को विवश होना पड़ सकता है।
अंत में ईश्‍वर से केवल इतनी ही प्रार्थना करुंगा कि हे ईश्‍वर! यदि पुनर्जन्‍म होता है तो प्‍लीज.....किसी भी योनि में जन्‍म दे देना लेकिन नेता मत बनाना। नेता बना दिया तो हमारी आत्‍मा जीते जी मर जायेगी। आमीन...आमीन...आमीन!
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

गे केस: खुली कोर्ट में सुनवाई को SC तैयार

उच्चतम न्यायालय समलैंगिकता को आपराधिक कृत्य करार देने वाले अपने फैसले के खिलाफ समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से दायर सुधारात्मक याचिकाओं पर खुली अदालत में सुनवाई के लिए राजी हो गया है। प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि वे दस्तावेजों का निरीक्षण करेंगे और याचिका पर गौर करेंगे। इस पीठ के समक्ष यह मामला विभिन्न पक्षों की ओर से वरिष्ठ वकीलों ने उठाया था।
सुधारात्मक याचिका अदालत में किसी मामले से जुड़ी चिंताओं पर दोबारा विचार का अंतिम न्यायिक रास्ता है और सामान्यत: इस पर न्यायाधीश बिना किसी पक्ष को बहस की अनुमति दिए अपने कक्ष में सुनवाई करते हैं। याचिकाकर्ताओं में नाज़ फाउंडेशन नामक गैर सरकारी संगठन भी शामिल है, जो लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) समुदाय की ओर से कानूनी लड़ाई लड़ रहा है।
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि पिछले साल 11 दिसंबर को दिए गए फैसले में गलती है और वह पुराने कानून पर आधारित है। वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक देसाई ने पीठ को बताया, ‘‘फैसले को 27 मार्च 2012 को सुरक्षित रख लिया गया था लेकिन फैसला लगभग 21 महीने बाद सुनाया गया।
इस दौरान कानून में संशोधन समेत बहुत से बदलाव हुए और फैसला देते समय पीठ ने इनपर ध्यान नहीं दिया।’’ हरीश साल्वे, मुकुल रोहतगी, आनंद ग्रोवर जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं के साथ अन्य वकीलों ने भी देसाई का समर्थन किया और एक खुली अदालत में सुनवाई की अपील की।
-एजेंसी

ये क्‍या...आठ सीटों पर भाजपा के दो-दो प्रत्‍याशी!


यूं तो राजनेता किसी संभावित प्रश्‍न का जवाब देना उचित नहीं समझते लेकिन संभावनाएं उनसे उत्‍तर की दरकार रखती हैं लिहाजा यदि वो संतुष्‍ट नहीं करते तो खुद-ब-खुद उत्‍तर तलाश लेती हैं।
राजनीति के इस संक्रमण काल में चूंकि राजनीतिक दलों की बाजीगरी के लिए असीमित संभावनाएं भरी पड़ी हैं और संविधान उनकी इन संभावित बाजीगरी के आगे लगभग नतमस्‍तक है लिहाजा आमजन इस बाजीगरी का आंकलन अपने स्‍तर से करने लगता है।
16 वीं लोकसभा के लिए 10 अप्रैल से शुरू हो रहे चुनावों में किसके सिर जीत का सेहरा बंधने वाला है और किसके हाथों की लकीरें उसे सत्‍ता के शीर्ष पर काबिज कराती हैं, यह तो 16 मई के बाद ही पता लग पायेगा अलबत्‍ता एक बात जो पता लग चुकी है, वह यह है कि सत्‍ता की चाहत के इस खेल में यदि जादुई अंकों की जरूरत पड़ी तो राष्‍ट्रीय लोकदल जैसे छोटे दलों की लॉटरी निकल पड़ेगी।
कहने को राष्‍ट्रीय लोकदल आज की तारीख तक यूपीए का हिस्‍सा है और कांग्रेस के सहयोग से उसके युवराज जयंत चौधरी कृष्‍ण की नगरी में दोबारा चुनाव लड़ रहे हैं परंतु नतीजे आने पर वह यूपीए का भाग रहेंगे या नहीं, इसकी गारंटी वह स्‍वयं नहीं दे सकते।
सब जानते हैं कि जिस तरह आज वह कांग्रेस की वैसाखी के सहारे चुनाव मैदान में हैं, उसी तरह पिछला चुनाव उन्‍होंने भाजपा के कांधों का सहारा लेकर लड़ा था। रालोद के युवराज तो अपना पहला लोकसभा चुनाव जीत गए परंतु भाजपा के नेतृत्‍व वाला एनडीए संख्‍याबल से हार गया।
जाहिर है कि एनडीए की सत्‍ता बनती न देख रालोद ने तुरंत कांग्रेस के नेतृत्‍व वाले यूपीए में घुसपैठ की जुगत भिड़ानी शुरू कर दी किंतु उस समय यूपीए ने सत्‍ता पर काबिज होने लायक सीटों की जुगाड़ कर ली थी।
समय के साथ केन्‍द्र के कांग्रेस नेतृत्‍व पर भ्रष्‍टाचार तथा महंगाई न रोक पाने के आरोप जब लगने लगे और यूपीए के घटक दल कांग्रेस को आंखें दिखाने लगे तो कांग्रेस ने खतरे को भांपकर समय रहते अपना गणित फिट करना जरूरी समझा। कांग्रेस के इस गणित को फिट करने में रालोद से बेहतर और कौन हो सकता था नतीजतन उसके मुखिया चौधरी अजीत सिंह को केन्‍द्र में मंत्रीपद से नवाज़ कर दोनों ने अपनी-अपनी जरूरतें पूरी कर लीं।
अब मथुरा की जनता के जेहन में यह सवाल पैदा होना लाजिमी है कि इस बार अगर जयंत चौधरी फिर जीत जाते हैं लेकिन केन्‍द्र में यूपीए की सरकार बनने के आसार दिखाई नहीं देते तो भी क्‍या रालोद यूपीए का हिस्‍सा बना रहेगा?
यही वो संभावित प्रश्‍न है जिसका उत्‍तर देने को कोई तैयार नहीं, लेकिन उत्‍तर तो चाहिए क्‍योंकि उत्‍तर न मिलने पर तमाम प्रतिप्रश्‍न खड़े हो जाते हैं।
ज़रा सोचिए कि यदि केन्‍द्र में यूपीए की सरकार बनने की संभावना नहीं रहती और भाजपा के नेतृत्‍व वाली एनडीए को भी स्‍पष्‍ट बहुमत नहीं मिलता (जिसकी कि संभावनाएं काफी हैं) तो भी क्‍या रालोद, यूपीए का हिस्‍सा बना रहेगा?
रालोद के मुखिया चौधरी अजीत सिंह का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो साफ पता लगता है कि वह ऐसी स्‍थिति में एनडीए का हिस्‍सा बनते कतई देर नहीं लगायेंगे। इसके लिए सौदेबाजी में नफा-नुकसान का बेहतर आंकलन करना उन्‍हें आता है और निश्‍चित ही वह अपने लिए फायदे का सौदा करेंगे।
तो क्‍या यह मान लिया जाए कि मथुरा ही क्‍यों, पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश की जिन आठ सीटों पर रालोद, कांग्रेस के सहयोग से चुनाव लड़ रही है... वहां परोक्ष तौर पर भाजपा के ही दो-दो प्रत्‍याशी चुनाव मैदान में हैं।  एक उसके अपने सिंबल पर और दूसरा रालोद के रूप में। क्‍योंकि फिर चाहे भाजपा का प्रत्‍याशी जीते या रालोद का, अंतत: जरूरत पड़ने पर वह गिरेगा तो भाजपा की ही झोली में।
रालोद के लिए ऐसा करना इसलिए और आसान हो जाता है क्‍योंकि उसका दायरा बहुत छोटा है तथा जब चाहे व जहां चाहे पलटी मारने में उसके सामने कोई समस्‍या खड़ी नहीं होती।
अगर ऐसी परिस्‍थितयां बनती हैं तो बेशक भाजपा भी इसके लिए कम जिम्‍मेदार नहीं होगी परंतु उसकी चिंता करता कौन है। सत्‍ता पर काबिज होने को लालयित जो भाजपा आज सब कुछ ग्राह्य बना चुकी है, उसे जरूरत के समय रालोद से परहेज क्‍यों होने लगा। फिर पिछले ही चुनावों में रालोद उसका साथी भी रहा है। दोनों दल एक-दूसरे की फितरतों से भली प्रकार वाकिफ हैं।
रहा सवाल उस जनता का जो आज एक को रालोद-कांग्रेस का संयुक्‍त उम्‍मीदवार मानकर मतदान करेगी और उन पार्टी कार्यकर्ताओं का जो अपने आलाकमान के आदेश-निर्देशों का सिर झुकाकर पालन करेंगे, तो उनकी फ़िक्र है किसे।
यहां तो फ़िक्र सिर्फ कुर्सी की है, वह चाहे जिन हथकंडों से मिलती हो।
तो दोस्‍तो! तैयार रहिए नतीजों के बाद राजनीतिक दलों की असली और बड़ी बाजीगरी देखने के लिए। आप मतदान चाहे जिसके पक्ष में करें लेकिन आपका जनप्रतिनिधि उसी दल का होगा, जिसकी सरकार बनेगी।
मथुरा सहित रालोद के हिस्‍से वाली  पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश की आठ सीटों के बावत आप यूं भी समझ सकते हैं कि यहां हर सीट पर भाजपा के दो-दो प्रत्‍याशी चुनाव मैदान में हैं।
तय समझिए कि सरकार बनने के बाद आपके पास दोहराने को केवल यही रह जायेगा कि 'कोऊ नृप होए, हमें का हानि'।
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