गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

अब 'अम्‍मा' के आश्रम पर भी पड़ा यौन शोषण का साया

तिरूअनंतपुरम। 
आध्यात्मिक नेता माता अमृतानंदमायी विवादों में हैं। अम्मा की एक करीबी ने अपनी पुस्तक में आश्रम में होने वाले यौन शोषण की पूरी कहानी बताई है। हाल ही में प्रकाशित "होली हेल,अ मेमोयर ऑफ फेथ,डिवोशन एंड प्योर मैडनेस" पुस्तक में जी.ट्रेडवेल उर्फ गायत्री ने बताया है कि किस तरह आश्रम में उसका यौन शोषण हुआ था।
गायत्री के मुताबिक आश्रम में रहने वाले वरिष्ठ लोगों के शारीरिक संबंध थे। आश्रम के प्रतिनिधि सुदीप कुमार ने इस बात की पुष्टि की है कि गायत्री दो दशक तक मां अमृतानंदमायी के साथ जुड़ी हुई थी। 1999 में उन्होंने आश्रम छोड़ दिया था। हालांकि कुमार ने पुस्तक के जरिए लगाए गए आरोपों को निराधार बताया है।
बकौल कुमार, आरोप हैरान करने वाले और सामान्य तर्क को चुनौती देने वाले हैं। ऑस्ट्रेलिया मूल की ट्रेडवेल उर्फ गायित्री ने 19 साल की उम्र में मां अमृतानंदमयी के पर्सनल अटेंडेंट के रूप में आश्रम ज्वाइन किया था। आश्रम में रहने के दौरान गायित्री ने देखा के केरल के एक फिशिंग गांव की रहने वाली महिला बहुत बड़ी आध्यात्मिक नेता बन गई। जिनके दुनिया भर में अनुयायी हैं। उनका ट्रस्ट स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में संस्थानों का नेटवर्क चलाता है।
गायित्री का कहना है कि अम्मा की पर्सनल अटेंडेंट के रूप में काम करते हुए वह ईश्वर को जानना चाहती थी। उसने सोचा था कि वह अपने लक्ष्य को हासिल कर सकती है। बकौल गायत्री शुरूआत के दिनों में उसे नहीं भुलाए जाने आध्यात्मिक अनुभव हुए। गायित्री का आरोप है कि अम्मा की मासूमियत और पवित्रता का दिखावा करने के लिए विश्वस्त लोगों की ऎसी टीम थी जो उनका गंदा काम करती थी। इसमें वह भी शामिल थी।
गायत्री के मुताबिक आश्रम में रहने वाले एक व्यक्ति ने उसका यौन शोषण किया था। बार बार यौन शोषण होने से उसका विश्वास खत्म हो गया। अपनी जीवनी में गायित्री ने आश्रम के सदस्यों के बीच होने वाले कथित स्वछंद संभोग के बारे में बताया है। गायित्री का कहना है कि जब आश्रम के कुछ लोग अम्मा के परिवार की संपत्ति को लेकर कुछ बोलते तो उनका विश्वस्त प्रतिनिधि बालू कहता कि संपत्ति अम्मा के पिता के मछली पालन बिजनेस से जुड़ी है।
गायित्री की पुस्तक अमेजन डॉट कॉम पर उपलब्ध है। जब पुस्तक पर आधारित रिपोर्ट सोशल मीडिया पर वायरल हो गई तो सीपीएम के सांसद और पार्टी के दैनिक देशाभिमानी के रेजिडेंट एडिटर(कोçच्च)पी.राजीव ने मामले की रिपोर्ट पर मुख्य धारा के मीडिया की विमुखता की आलोचना की। राजीव ने कहा कि वे दिन चले गए जब लोगों को अंधेरे में रखा जाता था। 

दरअसल, कहानी तो अब शुरू हो रही है

( लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
2014 के लिए दुंदुभि बज चुकी है, शंखनाद होने को है। राजनीति के बयानवीरों ने शब्‍दों के इतने तीक्ष्‍ण विषवाण छोड़ना शुरू कर दिया है जिन्‍हें सुनकर लगता है कि वह सारी जंग अपने मुंह से ही जीत लेंगे। एक-दूसरे को मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले खुद किसी मर्यादा में रहने को तैयार नहीं हैं। वह कब मर्यादा लांघ जाते हैं, इसका शायद उन्‍हें अहसास तक नहीं होता।
नेताओं ने 'राजनीति' से 'नीति' को कब काटकर अलग कर दिया और कब चुनावी प्रक्रिया को केवल 'राज' पाने का हथियार बना डाला, इसका अंदाज आमजन को लगा ही नहीं। वह तो इस भुलावे में रहा कि 'राजनीति' का नीति व नैतिकता से अब भी कोई वास्‍ता जरूर होगा।
बहरहाल, सवा अरब की आबादी वाले इस मुल्‍क की जनता को हमेशा की तरह यह उम्‍मीद है कि 2014 में कुछ नया होगा। कुछ ऐसा होगा जो आशा की किरण जगायेगा और देश की दशा सुधारने में सहायक होगा।
दरअसल, आम आदमी पार्टी के अचानक हुए उदय ने 2014 के लोकसभा चुनावों को खास बना दिया है। बेशक वह अभी अपने शैशवकाल में है और इसलिए उसके भविष्‍य पर टिप्‍पणी करना बेमानी है परंतु एक काम उसने जो किया है वह यह कि गंदगी से पटे पड़े राजनीति के तालाब में जैसे कंकड़ फेंक दिया हो। गंदगी के बीच बचे हुए थोड़े-बहुत पानी में इस कंकड़ से तरंगें उठने लगीं हैं। आमजन के मन में भी कहीं उम्‍मीद की कोई किरण पैदा हुई है कि हो न हो, बदलाव की शुरूआत यहीं से हो जाए। संभव है आज जो चिंगारी पैदा हुई है, कल वही शोला बनकर भारत के आम नागरिक को स्‍वतंत्रता का सच्‍चा अहसास करा पाए।
इस बीच तेलंगाना को लेकर जिस तरह लोकसभा और राज्‍यसभा में माननीयों ने अपने आचरण का प्रदर्शन किया, उससे एक बात पूरी तरह साफ हो गई कि जनता उनके बावत चाहे जो सोचती रहे लेकिन वह किसी तरह सुधरने को तैयार नहीं हैं। तब भी नहीं, जब आमजन यह मानने लगा हो कि माननीय का तमगा प्राप्‍त यह वर्ग ही हकीकत में देश के माथे पर कलंक बन चुका है और इसका इलाज करना अब जरूरी हो गया है।
इधर सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही राजीव गांधी की हत्‍या के दोषियों की फांसी को उम्रकैद की सजा में तब्‍दील किया, वैसे ही तमिलनाडु की मुख्‍यमंत्री जे. जयलिलता ने 2014 के लिए सबसे बड़ा चुनावी हथियार आजमा डाला। जयललिता ने तीसरे मोर्चे को सीढ़ी बनाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने की अपनी इच्‍छा तो पहले ही जाहिर कर दी है, अब उसके लिए हर प्रकार का हथकंडा अपनाने की मंशा से भी अवगत करा दिया है।
जयललिता की इस नई चुनावी बिसात पर कांग्रेस का आगबबूला होना स्‍वाभाविक था और इसीलिए खुद राहुल गांधी तक ने कह डाला कि अगर देश के पूर्व प्रधानमंत्री को न्‍याय नहीं मिल सकता तो आम आदमी न्‍याय की उम्‍मीद कैसे कर सकता है।
राहुल गांधी का दुख तो समझ में आता है लेकिन यह बात उन्‍हें भी समझनी होगी कि जयललिता जो कुछ कर रही हैं, यह उसी घिनौने राजनीतिक खेल का हिस्‍सा है जिसकी शुरूआत कांग्रेस ने खुद की थी।
कांग्रेस का हर निर्णय कुछ इसी तरह की घिनौनी राजनीति के इर्द-गिर्द रहता है। याद कीजिए प्रियंका और सोनिया का नलिनी को लेकर उठाया गया कदम जिससे साफ होता है कि वह भी राजीव के सभी हत्‍यारों को फांसी से बचाना चाहती थीं।
अगर वह वाकई यही चाहती थीं तो आज जयललिता के निर्णय पर इतनी हायतौबा किसलिए। क्‍या इसलिए कि राजीव के हत्‍यारों को माफी दिलवाकर जो श्रेय सोनिया एंड कंपनी खुद लेना चाहती थी, उस पर जयललिता ने एक झटके में न सिर्फ पानी फेर दिया बल्‍कि चुनावी गणित फिट करके उसका पूरा लाभ उठाने की भी रणनीति बना डाली।
अब जयललिता के दोनों हाथ में लड्डू हैं। केन्‍द्र यदि राजीव के हत्‍यारों को रिहा करने की इजाजत देता है तो उसका चुनावी लाभ अम्‍मा को इसलिए मिलेगा कि उसकी पहल उन्‍होंने की और यदि नहीं देता है तो भी उन्‍हें इसलिए लाभ मिलेगा कि उन्‍होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की। इसके ठीक उलट कांग्रेस दोनों स्‍थितियों में खाली हाथ रहेगी और यही माना जायेगा कि उसने जो कुछ किया, सिर्फ मजबूरी में किया।
कांग्रेस के पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि यदि वह राजीव के हत्‍यारों को माफी देने के पक्ष में नहीं थी तो दस सालों से क्‍या कर रही थी। केंद्र में अपनी सरकार के होते क्‍यों नहीं वह राष्‍ट्रपति से उस पर कोई फैसला करा पाई। दया याचिकाओं पर निर्णय लेने के राष्‍ट्रपति के अधिकार को किसी समय-सीमा में बांधने की बात यदि फिलहाल छोड़ भी दी जाए तो भी क्‍या कांग्रेस को सुप्रीम कोर्ट के रुख से स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा था कि वह राजीव गांधी की हत्‍या के दोषियों को राहत दे सकता है।
कांग्रेस अगर चाहती तो सुप्रीम कोर्ट के रुख को भांपकर राष्‍ट्रपति से तत्‍काल कोई फैसला करने का अनुरोध कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया और केवल तमाशबीन बनी रही।
जाहिर है कि उसकी अपनी नीयत भी पूरे मामले को राजनीतिक हानि-लाभ के तराजू में तौलने की थी लेकिन अब बाजी हाथ से निकलती देख हवा का रुख बदलने की कोशिश की जा रही है।
सच तो यह है कि सत्‍ता पर काबिज रहने और काबिज होने के पूरे खेल का न कोई नियम रह गया है, न कोई नीति। जो कुछ है सब अनीति ही अनीति है।
अनीति के इस खेल का अब वो दौर आ गया है जब खिलाड़ी खुद मोहरा बनने लगे हैं। शह और मात के लिए नियमों को ताक पर रखने का ही परिणाम है कि प्‍यादा भी वजीर को चुनौती दे रहा है।
चुनौती तो आमजन के सामने भी है लेकिन वह इस बात से खुश है कि अब तक आग लगाकर दूर से तमाशा देखने वाले, खुद तमाशा बन रहे हैं। जो अब तक मचान पर बैठकर शिकार करते रहे, वह अपनी ही नीतियों का शिकार हो रहे हैं। बकरी को बांधकर शेर को ललचाने की परंपरा घातक होती जा रही है।
बेहतर होगा कि समय रहते राजनीति और चुनावी खेल के नियमों में परिवर्तन कर लिया जाए वर्ना वो दिन दूर नहीं जब शिकारी, शिकार का निवाला बन जायेगा और उसके सारे हथियार धोखा दे जायेंगे।
2014 भले ही पूरी व्‍यवस्‍था को परिवर्तित न कर पाए लेकिन उसके लिए रास्‍ता बनाने का ज़रिया जरूर बनेगा क्‍योंकि 66 सालों की तथाकथित स्‍वतंत्रता से लोगों का भरोसा उठने लगा है और वो समझने लगे हैं कि 15 अगस्‍त 1947 को जो परिवर्तन हुआ था, वह भी एक छलावा था।
उधार के संविधान और उसके आधार पर बने कानून ने सिर्फ सूरतों में रद्दोबदल किया, सीरतों में नहीं लिहाजा आज के शासकों तथा बीते हुए कल के शासकों में कोई फर्क दिखाई नहीं देता।
चूंकि 66 साल एक आदमी की औसत उम्र भी है इसलिए मान लेना चाहिए कि 1947 में फिरंगियों से मिली स्‍वतंत्रता और उनसे विरासत में मिले संविधान प्रदत्‍त अधिकार एवं कर्तव्‍यों की भी मियाद पूरी हो चुकी है।
अब उस नई सोच के हिसाब से संविधान गढ़ना होगा जो स्‍वतंत्रता के साथ-साथ अपने अधिकार एवं कर्तव्‍यों को पहले से कहीं अच्‍छी तरह समझने लगा है और जो राजनीति, राजनेताओं, चुनावी खेल तथा सत्‍ता हथियानों के लिए अपनाये जाने वाले हथकंडों से वाकिफ हो चुका है।
आउटडेटेड हो चुकी स्‍वतंत्रता और बेमानी हो चुकी राजनीति को राजनीतिक दल समय रहते समझ लें तो ठीक अन्‍यथा समय तो सब समझा ही देगा। इंतजार कीजिए.....कहानी अभी खत्‍म नहीं हुई। सच तो यह है कि कहानी यहां से शुरू हो रही है।
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