बुधवार, 24 नवंबर 2010

यम के ''फांस'' में यमुना

यमद्वितीया पर विशेष

लीजेण्‍ड न्‍यूज़
आज यमद्वितीया है, यम के ''फांस'' (फंदे) से मुक्‍ित का पर्व। कहते हैं कि आज के दिन यमुना के तीर्थस्‍थल मथुरा में विश्राम घाट पर जो भाई-बहिन हाथ पकड़ कर एकसाथ स्‍नान करते हैं, उन्‍हें यम के फांस से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्‍ित मिल जाती है। यम के फांस से मुक्‍ति अर्थात बार-बार जन्‍म और मृत्‍यु के उस बंधन से मुक्‍ित जिसकी कामना बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, साधु-संत, योगी तथा वैरागी भी करते हैं।
यमुना जल के पान (आचमन) और उसमें स्‍नान से पतितों के भी पावन होने की धार्मिक मान्‍यता के कारण यूं तो वर्षभर लाखों लोग मथुरा आते हैं लेकिन यमद्वितीया पर यह संख्‍या एक ही दिन में लाखों तक पहुंच जाती है। जिला प्रशासन को इस दिन सुरक्षा व सुविधा के विशेष इंतजाम करने पड़ते हैं।
आदिकाल से चली आ रहीं धार्मिक मान्‍यताओं के तहत पतित पावनी और मोक्ष प्रदायनी यमुना बेशक अनवरत लोगों के पाप धो रही हो, उन्‍हें यम के फांस से मुक्‍ित दिला रही हो लेकिन आज वह खुद इस फांस से मुक्‍ित का मार्ग तलाश रही है। प्रदूषण ने उसके अस्‍ितत्‍व को खतरे में डाल दिया है। वह तिल-तिल उस दिशा में जा रही है जहां से उसके मात्र कागजों तक सिमट जाने की संभावना बलवती होती है। इसे कलियुग का प्रभाव कहें या कलियुगी मानसिकता का दुष्‍परिणाम कि मृत्‍यु के देवता और अपने भाई ''यम'' के फंदे से मुक्‍ित दिलाने वाली ''यमुना'' को अब अपने लिए कोई मुक्‍ितदाता नहीं मिल पा रहा। यमुना को खुद के लिए एक ऐसे तारनहार की तलाश है जो उसे प्रदूषण से मुक्‍ित दिला सके। उन लोगों का इंतजार है जो उसे पूरी तरह काल के गाल में समाने से पहले एकबार फिर जीवनदायिनी बना सकें। व्‍यवस्‍थागत दोष से आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूबी हमारी विधायिका, कार्यपालिका तथा न्‍यायपालिका को चेता सकें, उन्‍हें यह समझा सकें कि जल के बिना जीवन संभव नहीं है इसलिए जल की अक्षय स्‍त्रोत नदियों को पवित्र बनाये रखना जीवन को बचाये रखने के लिए जरूरी है।
कहने को यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति के लिए दायर हुई जनहित याचिका के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट ने न केवल अनेक दिशा-निर्देश दिये बल्‍िक उनका पालन कराने हेतु एक कमेटी का गठन किया और एक नोडल अधिकारी की भी नियुक्‍ित की परंतु आज वह सब बेमानी हो चुके हैं।
कमेटी निष्‍क्रिय पड़ी है और माननीय न्‍यायालय के अधिकार प्राप्‍त नोडल अधिकारी (जिले के एडीएम प्रशासन) को न अपने अधिकारों का पता है, न कर्तव्‍यों का।
जाहिर है कि जब उन्‍हें ही अपने अधिकार और कर्तव्‍यों की जानकारी नहीं है तो वो यमुना एक्‍शन प्‍लान से जुड़े विभागों तथा उनके अधिकारियों को उनके अधिकार व कर्तव्‍य कैसे बतायेंगे।
ऐसे में वही हो रहा है जिसकी उम्‍मीद की जाती है। पतित पावनी की संज्ञा प्राप्‍त यमुना में नाले और नालियों की गंदगी सहित चांदी एवं साड़ियों के कारखानों का कैमिकलयुक्‍त जहरीला पानी दिन-रात समाहित हो रहा है। गटर की मल-मूत्र युक्‍त गंदगी सीधी गिर रही है और हाईकोर्ट के आदेशों को ताक पर रखकर अवैध रूप से संचालित की जा रही पशुवधशाला का रक्‍त समा रहा है।
यमुना की प्रदूषण मुक्‍ित के लिए अब तक मिला सैंकड़ों करोड़ रुपया भ्रष्‍टाचारियों की तिजोरियां भर चुका है और इस मद में मिलने वाले बाकी रुपयों को हड़पने की व्‍यवस्‍था की जा चुकी है।
आश्‍चर्यजनक रूप से माननीय न्‍यायालय भी चुप्‍पी साधे बैठे हैं जबकि विभिन्‍न माध्‍यमों से उन तक बार-बार इस आशय की शिकायतें पहुंचायी जाती रही हैं कि यमुना प्रदूषण के मामले में उनके द्वारा दिये-गये आदेश-निर्देश मजाक बनकर रह गये हैं। उनका अनुपालन न करके कोर्ट की लगातार अवमानना की जा रही है। जिन अधिकारियों पर यमुना को प्रदूषणमुक्‍त रखने के लिए सुझाये गये उपायों का अनुपालन कराने की जिम्‍मेदारी है, वही निजी आर्थिक लाभ उठाकर यमुना के अस्‍तित्‍व को षड्यंत्र पूर्वक समाप्‍त करा रहे हैं।
10 जुलाई सन् 1998 को यमुना प्रदूषण सम्‍बन्‍धी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिये गये आदेश-निर्देशों का लगभग तभी से खुला उल्‍लंघन किया जा रहा है लेकिन आज तक इसके लिए जिम्‍मेदार किसी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
अपनी गर्दन बचाये रखने एवं न्‍यायपालिका को गुमराह करने के लिए अधिकारी समय-समय पर बैठकें तो करते हैं तथा उनमें शिकायतों के निस्‍तारण का भी नाटक किया जाता है लेकिन यह सारी कवायद केवल इसलिए ताकि सनद रहे और वक्‍त जरूरत काम आये।
इन हालातों में ऐसी कोई उम्‍मीद करना कि पतित पावनी और मोक्षदायिनी यमुना खुद पावन हो पायेगी, दिवास्‍वप्‍न देखने से अधिक कुछ नहीं।
यमुना को अगर उसका खोया हुआ स्‍वरूप लौटाना है, उसे प्रदूषणमुक्‍त करना है, उसकी संज्ञाएं कायम रखनी हैं तो सबको अपने-अपने हिस्‍से का संकल्‍प करना होगा।
कुछ ऐसा करना होगा जिससे हमारे व्‍यवस्‍थागत दोष दूर हों और हम यमुना के साथ-साथ समस्‍त जीवनदायिनी नदियों की पवित्रता उसी भावना, उसी धार्मिक मान्‍यता की तरह बनाये रख सकें जिसके तहत हजारों साल बाद भी हम यमुना का पान (आचमन) तथा उसमें स्‍नान करने जाते हैं।
यदि समय रहते ऐसा कुछ नहीं किया गया तो नदियों के साथ-साथ हमारा भी अस्‍तित्‍व समाप्‍त होने से हमें कोई नहीं बचा पायेगा। तब हम पछतायेंगे जरूर लेकिन देर इतनी हो चुकी होगी कि उसका भी कोई मतलब नहीं रह जायेगा।
सचमुच पूरे देश में ही इस कहावत को बदलना होगा ,हम आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हैं.....सुमित्रा सिंह ,खुर्दबुर्द.ब्लागस्पाट.कॉम

प्‍लीज ! ''उल्‍लुओं'' को दोष मत दो


लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष
बर्बाद गुलिस्‍तां करने को, जब एक ही उल्‍लू काफी हो ।
अंजामे गुलिस्‍तां क्‍या होगा, हर शाख पर उल्‍लू बैठा है ।।
मुझे नहीं मालूम कि ये पंक्‍ितयां कब तथा किस परिपेक्ष्‍य में लिखी गयी थीं लेकिन इतना जरूर पता है कि स्‍वतंत्रता मिलने के बाद से इनका इस्‍तेमाल अक्‍सर उन लोगों के लिए किया जाता रहा है जिन्‍हें हम ''नेता'' कहते हैं और जो खुद को देश का कर्णधार एवं भाग्‍य विधाता मानते रहे हैं।
आज में एक ऐसी कहानी आपके लिए लिख रहा हूं जो शायद इस सर्वमान्‍य धारणा को बदल सके और समझा सके कि किसी चमन की बर्बादी के पीछे वास्‍तविक कारण क्‍या होते हैं।
कहानी कुछ इस तरह है कि किसी जंगल में हंस-हंसिनी का एक जोड़ा वर्षों से रहा करता था। जंगल बहुत हरा-भरा होने के कारण उनका जीवन बड़े आनंदपूर्वक व्‍यतीत हो रहा था। एक साल उस जंगल में भयानक सूखा पड़ा। पेड़-पौधों के साथ-साथ पानी के सारे साधन सूख गये। यहां तक कि पशु-पक्षियों के पीने लायक पानी भी नहीं बचा।

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