शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

निकाय चुनाव और समाजसेवियों की फौज

हमारे यहां लोगों में समाजसेवा का जज्‍बा इस कदर कूट-कूट कर भरा है कि वह घर फूंक कर भी तमाशा देखने को बेताब रहते हैं। बस जरूरत होती है तो एक अदद चुनाव की।
चुनाव की आहट सुनाई दी कि मोहल्‍ले के हर तीसरे-चौथे आदमी के अंदर से समाजसेवा छलक कर टपकने लगती है।
अभी बहुत दिन नहीं बीते कि विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदेशभर के समाजसेवियों ने अपने-अपने जिलों से लखनऊ तक की सड़क एक-एक इंच नाप ली थी।
समाजसेवा के इस जूनून में कुछ को सफलता मिली और कुछ को नहीं मिली, किंतु हिम्‍मत किसी ने नहीं हारी।
जो जीत गए वो आज सिकंदर बने बैठे हैं और हारने वाले समाजसेवा का टोकरा सिर पर उठाए एकबार फिर तैयार हैं।
इस मर्तबा विधानसभा के न सही, नगर निकाय के चुनाव तो हैं लिहाजा समाजसेवा का कुलाचें भरना स्‍वाभाविक है।
सच पूछें तो नगर निकाय के चुनावों में सेवा का मर्म वही जानता है जो उसके छद्म रूप में छिपी मेवा से वाकिफ हो।
निर्वाचन आयोग भी इन समाजसेवियों की भावनाओं का कितना ध्‍यान रखता है कि इस बार उसने निकाय चुनावों में प्रत्‍याशियों के लिए खर्च की सीमा पहले के मुकाबले दोगुनी कर दी है। वो भी तब जबकि इस खर्चे की भरपाई का कोई प्रत्‍यक्ष स्‍त्रोत नहीं होता।
पद नाम भले ही ऊपर-नीचे हो जाता हो किंतु कमाई के नाम पर मेयर और पार्षद उसी तरह समान हैं जिस तरह समाज में स्‍त्रियों को बराबर का दर्जा प्राप्‍त है। न मेयर को धेला मिलता है और न पार्षद को। बुढ़ापे की लाठी रुपी पेंशन भी नहीं है बेचारे माननीयों के लिए लेकिन क्‍या मजाल कि इससे किसी प्रत्‍याशी की समाजसेवा का जज्‍बा रत्तीभर कम हो जाता हो।
सुना है कि एक-एक पार्टी के पास समाजसेवा के हजार-हजार आवेदन आए पड़े हैं। आर्थिक रूप से कमजोर आवेदकों ने तो कर्ज का इंतजाम भी कर लिया है जिससे इधर पार्टी समाजसेवा के लिए अधिकृत करे और उधर वो गुलाबी व हरे नोटों के बंडल लेकर समाजसेवा को कूद पड़ें।
समाजसेवा में हाथ का मैल कहीं आड़े न आए इसलिए उन लोगों ने भी बैंक एकाउंट का ब्‍यौरा लेना शुरू कर दिया है जो कल तक आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों पर धरना-प्रदर्शन करने को आमादा थे।
समाजसेवा को लालायित लोगों के विचार इस मामले में कभी नहीं टकराते। बैनर कोई हो, झंडा किसी का भी टंगा हो, हैं तो सभी के नुमाइंदे समाजसेवी। समाजसेवी और समाजसेवियों के बीच कैसा भेद। बस कैसे भी एकबार मौका मिल जाए। बहती गंगा में हाथ धोना किसे सुकून नहीं देता।
सरकार भी कितनी समझदार है। मतदान की तारीखों के साथ यमुना में गिर रहे नाले-नालियों को रोकने के लिए 3 हजार 500 करोड़ की रकम भी घोषित कर दी ताकि मेयर और पार्षद तथा चेयरमैन तथा सदस्‍यों के बीच किसी प्रकार का कन्‍फ्यूजन न रहे। लक्ष्‍य सामने हो तो समाजसेवा करने का आनंद ही कुछ और है। समाजसेवा की यमुना कभी दूषित नहीं होती। जनता के विचार दूषित हो सकते हैं किंतु समाजसेवियों की भावना हमेशा पवित्र रहती है।
वेतन-भत्ता नहीं है नगर निकाय की सेवा में तो न सही। पेंशन या फंड नहीं मिलता तो कोई बात नहीं। सेवा तो नाम ही है मेवा का। सेवा करेंगे तो मेवा भी मिलेगी। मेवा का इंतजाम ”ऊपर वाला” करता रहता है। यूं भी यमुना मैया सबकी सुनती है। चोंच के साथ चुग्‍गे का इंतजाम हो जाता है। मेयर की चोंच को मेयर के लायक और पार्षद की चोंच को पार्षद के लायक। ईश्‍वर हाथी से लेकर चींटीं तक के पेट की व्‍यवस्‍था करता है। किसी को भूखा नहीं रखता।
समाजसेवी लोग ईश्‍वर में पूरी आस्‍था रखते हैं इसलिए चुनाव की खातिर सबकुछ दांव पर लगाने से गुरेज नहीं करते। वो जानते हैं कि व्‍यवस्‍था कभी इतनी निर्मम नहीं हो सकती कि सेवा की मेवा देने में कोताही बरते।
यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 3500 करोड़ की घोषणा तो कुछ नहीं, तीर्थस्‍थल के नाम पर बहुत कुछ मिलना बाकी है।
जय यमुना मैया की, जय कृष्‍ण कन्‍हैया की।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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