रविवार, 5 जून 2016

Mathura हिंसा: जांच से पहले ही नतीजा निकाल लेने की जल्‍दबाजी किसलिए ?

Mathura की हिंसा के प्रमुख खलनायक और दोनों नायक अब इस दुनिया में नहीं रहे। रामवृक्ष नामक जो सांप दो सालों से जवाहर बाग को अपना बिल बनाकर रह रहा था, उसके भी मारे जाने की पुष्‍टि प्रदेश पुलिस के मुखिया ने स्‍वयं कर दी। अब हमेशा की तरह लकीर पीटने का दौर शुरू हो चुका है। कोई अपने ही अधीनस्‍थों से जांच कराने के नाम पर लकीर पीट रहा है तो कोई सीबीआई जांच कराने की मांग के नाम पर। यहां यह कहना तो बेमानी है कि लाशों पर राजनीति की जा रही है अथवा चुनावों को देखते हुए वोट की राजनीति का प्‍लेटफॉर्म तैयार किया जा रहा है। राजनेता हैं तो राजनीति करेंगे ही। नेता यदि राजनीति नहीं करेंगे तो कौन करेगा। सत्‍ता की खातिर वोट की राजनीति भी जरूरी है और जनता उस राजनीति का शिकार होने के लिए अभिशप्‍त है। फिलहाल इस समस्‍या का कोई हल दूर-दूर तक नजर भी नहीं आ रहा इसलिए इसका जिक्र करने से भी कोई लाभ नहीं होगा।
अभी जो जरूरी है, वह यह कि जो भी और जैसी भी जांच हो, उस जांच की दिशा क्‍या होगी।
अगर जांच की दिशा सिर्फ यह रही कि दोनों पुलिस अधिकारी कैसे और किसकी चूक से मारे गए तो सच कभी सामने नहीं आ पायेगा। सच तभी सामने आएगा जब जांच की दिशा यह रहे कि आखिर किसकी शह से एक अदना से निपट देहाती इंसान शासन, प्रशासन और यहां तक कि उस न्‍याय पालिका को भी चुनौती देता रहा जिसके सामने अधिकांश मामलों में शासन व प्रशासन भी अंतत: नतमस्‍तक होने के लिए बाध्‍य होते हैं।
सबको मालूम है कि दोनों पुलिस अधिकारी कैसे मारे गए, उनको मारने वाले कौन थे इसलिए उसके बारे में जांच करना सिर्फ मामले को हमेशा की तरह लटकाना और लोगों की आंखों में धूल झोंकने से अधिक कुछ नहीं होगा।
नहीं मालमू तो यह कि आखिर एक मामूली सा वृक्ष इतना बड़ा विषवृक्ष कैसे बन गया। कौन उसे खाद दे रहा था और किसने उसे पानी दिया।
इतना अंदाज तो लोगों को लग चुका है कि सत्‍ता के गलियारों से उसे पूरा संरक्षण प्राप्‍त था और उसी संरक्षण के बल पर वह जवाहर बाग में बैठकर अपनी समानांतर सत्‍ता कायम कर पाया किंतु अब जरूरी है कि उस संरक्षणदाता का चेहरा भी बेनकाब हो क्‍योंकि जब तक ऐसे चेहरे बेनकाब नहीं होंगे तब तक कहीं न कहीं कोई न कोई जांबाज अफसर राजनीति की भेंट चढ़ता रहेगा।
जांच इस बात की होनी चाहिए कि किस वजह से मथुरा का पुलिस प्रशासन पूरे दो साल तक हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहा और तमाशबीन बना रहा। ऐसी क्‍या मजबूरी थी कोर्ट की अवमानना तक बात पहुंच जाने के बावजूद जिले में तैनात पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी असहायों की तरह लखनऊ की ओर टकटकी लगाए देखते रहे। वो कौन से अधिकारी थे जो यहां से जवाहर बाग के संबंध में जाने वाली हर चिठ्ठी को डस्‍टबिन के हवाले करते रहे और किसके इशारे पर करते रहे।
280 एकड़ में फैले सरकारी बाग को कब्‍जाने का ख्‍वाब देखने वाले रामवृक्ष यादव और उसके गुर्गों को रसद-पानी कहां से आ रहा था और उसे यह सब मुहैया कराने वाले का मकसद क्‍या था।
आखिर वह भी तो रामवृक्ष से कुछ न कुछ जरूर चाहता होगा। वह कोई व्‍यक्‍ति विशेष था अथवा कोई समूह या पूरी संस्‍था।
अगर कोई अब भी यह कहे कि रामवृक्ष को कहीं से कोई संरक्षण प्राप्‍त नहीं था और वह एक सिरफिरा सनकी इंसानभर था, तो इससे बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं हो सकता। ऐसा कहना सिर्फ और सिर्फ उस सच को छिपाने की कोशिश भर है जिसका पता लग जाने पर उत्‍तर प्रदेश तो क्‍या, देश के अंदर भूचाल आ सकता है।
सच को छिपाने के लिए ही रामवृक्ष की गिरफ्तारी नहीं की गई, सच को छिपाने के लिए ही पहले दिन से जांच बदलनी शुरू हो गई। सच को सामने लाने की मंशा होती तो सत्‍ता पर काबिज लोग इस आशय की थोथी दलील नहीं देते कि सीबीआई जांच में देरी होगी इसलिए प्रदेश सरकार सीबीआई जांच कराने की हिमायती नहीं है और अपने अधिकारियों से ही जांच कराना चाहती है।
एक सच यह भी है कि मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव पूरी घटना के लिए अधिकारियों को बिना जांच के ही जिम्‍मेदार ठहरा देते हैं और कहते हैं कि चूक तो उनसे हुई है, जबकि मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार पूरी तरह मुख्‍यमंत्री के निष्‍कर्ष को खारिज कर देते हैं। वह हर बात का सिलसिलेवार जवाब मीडिया को देते हैं और बताते हैं कि न सिर्फ उनके कार्यकाल में बल्‍कि उनसे पहले भी जितने अधिकारी रहे, सभी ने जवाहर बाग से अतिक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए यथासंभव प्रयास किए।
जिलाधिकारी का यह कथन बहुत कुछ कहता है और मुख्‍यमंत्री का कथन स्‍पष्‍ट करता है कि वह जांच से पहले ही नतीजे पर पहुंचने की जल्‍दबाजी में हैं। अब ऐसा क्‍यों है और क्‍यों वह घटना के दूसरे दिन ही इस निष्‍कर्ष पर जा पहुंचे कि अधिकारियों की चूक ही हिंसा के लिए जिम्‍मेदार है, इसका भी जवाब वही दे सकते हैं।
बहरहाल, कृष्‍ण की नगरी पर दो जांबाज पुलिस अधिकारियों की वीभत्‍स हत्‍या का कलंक तो लग ही गया। यह कलंक शायद ही कभी मिटे, लेकिन यदि इस कलंक से भी सबक सीखना है तो जांच से ज्‍यादा जरूरी है जांच की दिशा तय करना। एकबार यदि जांच सही दिशा में शुरू हो गई तो निश्‍चित ही नतीजा भी अपेक्षा के अनुरूप निकलेगा।
विभिन्‍न राजनीतिक दल, अपनी राजनीति करें। चुनावों के मद्देनजर पूरे घटनाक्रम को वोट की राजनीति में तब्‍दील करने की भी कोशिश करें, आरोप-प्रत्‍यारोप भी जारी रखें लेकिन सिर्फ इतना प्रयास जरूर करें कि पूरा सच सामने आ सके।
आज एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसआई संतोष यादव की शहादत को सलाम करने वाले और उन्‍हें विनम्र श्रंद्धाजलि अर्पित करने वाले भी यदि थोड़ी सी कोशिश जांच की दिशा तय कराने के लिए कर दें। उसके लिए धरना-प्रदर्शन सहित जो कुछ करना हो करें, तो निश्‍चित जानिए कि फिर सत्‍ता के संरक्षण में छिपकर न तो रामवृक्ष जैसा कोई भेड़िया मुकुल व संतोष जैसे शेरों का शिकार कर पायेगा और न सत्‍ता पर काबिज कोई रंगा हुआ सियार किसी भेड़िए अथवा भेड़ियों के झुण्‍ड को बेखौफ संरक्षण दे पायेगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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