आबरू क्यों किसी की लुट जाए ।
देश है ये, कोई हरम तो नहीं ।।
लेकिन जब देश की ही आबरू दांव पर लगी हो तो क्या कहेंगे, क्या करेंगे?
क्या तमाशबीन बने रहेंगे सदा की तरह, या भांड़ों की उस जमात का हिस्सा बन जायेंगे जो अपने बुद्धि व विवेक को कभी किसी राजनीतिक दल के लिए गिरवीं रख देती है और कभी उसके सुप्रीमो की चापलूसी को ही सब-कुछ समझती है।
इस माह अगस्त में देश को स्वतंत्र हुए पूरे 65 साल हो गये। इन पैंसठ सालों में आम आदमी को न तो सम्मानपूर्वक जीने का हक मिला और न जरूरतें पूरी करने लायक रोजी-रोजगार। कानून की किताबें लगता है जैसे सामर्थ्यवानों की हिफाजत के लिए लिखी गई हैं और संविधान में दर्ज आम आदमी के अधिकार की बातें किस्से-कहानियां बन चुकी हैं।
संविधान प्रदत्त अधिकारों की बात करें अथवा आउटडेटेड कानून की, सभी ने फिरंगियों की कार्बन कॉपियों को फर्श से अर्श तक पहुंचाने का काम किया है जबकि आम आदमी को जीते जी मार देने की व्यवस्था। 65 सालों बाद तक आमजन बिजली, पानी, सड़क, खाद और बीज जैसी जरूरतों को तरस रहा है जबकि राजनेता कई-कई पीढ़ियों के ऐश-मौज का इंतजाम कर चुके हैं।
दरअसल संविधानिक अधिकारों और कानून की किताबों का मनमाफिक अनुवाद करने की छूट केवल उन्हीं को है जिन्हें लोकतंत्र के स्तंभ का दर्जा दिया गया था। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका।
संविधान की रचना करने वालों ने शायद ही कभी सोचा हो कि भविष्य में संविधान के ये तीनों स्तंभ उस आम आदमी की प्रताड़ना का हथियार बनकर रह जायेंगे जिसकी हिफाजत का जिम्मा उन्हें सौंपा जा रहा है।
कहने भर के लिए कहा जा सकता है कि न्यायपालिका अपना काम यथासंभव कर रही है लेकिन यह आधा सच होगा। पूरा सच भयावह है। पूरा सच जानना हो तो उन न्यायाधीशों से जानिये जिन्हें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए एक लड़ाई हर वक्त अपने साथियों से ही लड़नी पड़ती है। जिन्हें ईमानदारी से और कानून सम्मत काम करने की कीमत कदम-कदम पर चुकानी पड़ती है।
यहां लोकतंत्र के उस तथाकथित चौथे स्तंभ की चर्चा के बिना काम नहीं चल सकता जिसे संविधान ने तो ऐसा कोई तमगा नहीं दिया अलबत्ता मौखिक तौर पर उसे ''फोर्थ पिलर'' कहा जाता है।
इस फोर्थ पिलर ने समय के साथ 'प्रेस' से 'मीडिया' का सफर अवश्य तय कर लिया परंतु अधिकांश मीडिया पर्सन ''मीडियेटर'' और ''लाइजनर'' बनकर रह गये हैं। देशी भाषा में इन्हें ''दलाल'' अथवा ''बिचौलिये'' जैसे शब्दों से नवाजा जाता है।
कुछ वर्षों पहले तक पत्रकारों की पहचान आमजन की आवाज़ या फिर व्यवस्था की खामियों को रेखांकित करने वालों के तौर पर होती थी लेकिन अब इनका आमजन से कोई खास सरोकार नहीं रहा। अलबत्ता कुछ जुनूनी लोग अब भी अपनी ढपली से अपना अलग राग अलापने की जद्दोजहद करते देखे जा सकते हैं। इन्हें अपवाद मान लीजिये। ठीक उसी तरह जिस तरह के अपवाद राजनीति, न्यायपालिका और नौकरशाही में भी मिलते हैं।
पहले सीडब्ल्यूजी, फिर 2जी, उसके बाद कोल-जी और अब जीजा-जी जैसे घोटालों पर भांड़ों की जमात तालियां बजा रही है। वह कोरस में स्तुतिगान करती है और जनता की बेबसी पर अट्टहास कर रही है। ऐसा अट्टहास जिसने आमजन के कानों के परदे फाड़ दिये हैं।
देश के अंदर मची हुई लूट को लेकर टीवी चैनलों पर हर रोज चर्चा-परिचर्चाएं होती हैं। रटे-रटाये अनुबंध व निबंधों को इनमें उन रटे-रटाये चेहरों के माध्यम से दोहराया जाता है जिनकी सिर्फ सूरतें भिन्न-भिन्न होती हैं पर सीरतें एक समान। यहां भी सवाल टीआरपी के खेल का जो है। जो पिछड़ गया वो भीड़ का हिस्सा बनकर रह जायेगा। नम्बरों के खेल में अहमियत मात्र एक, दो या तीन तक की ही होती है। इसके आगे कुछ नहीं।
देश लुट रहा है, लाखों करोड़ के घोटाले एक के बाद एक सामने आ रहे हैं परंतु पक्ष और विपक्ष आरोप-प्रत्यारोप की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं। सत्तापक्ष कहता है कि वह एनडीए के शासनकाल में बनाई गई लकीरों पर चल रहा है और विपक्ष कहता है कि वह लकीरों पर चल नहीं रहा, निजी स्वार्थ में लकीर पीट रहा है।
दोनों जानते हैं कि पूरा सच जिस दिन सामने आ गया, उस दिन चीरहरण होते देर नहीं लगेगी इसलिए भलाई इसी में है कि बारी-बारी से चोर-सिपाही का खेल खेलते रहो। कभी गाड़ी नाव पर और कभी नाव गाड़ी पर।
क्या आपने कभी सुना है कि अदालत के कठघरे में खड़ा कोई आरोपी जज साहब से यह कहकर बच निकला हो कि मुझसे पहले भी तमाम लोगों ने अपराध किये हैं इसलिए मैंने कर दिया तो क्या हुआ। नहीं सुना होगा। लेकिन खुद को देश के भाग्य विधाता कहने वाले राजनीतिक दल यही कर रहे हैं।
कांग्रेस कहती है कि भाजपा भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबी है इसलिए उसे हमारे खिलाफ कुछ बोलने का अधिकार नहीं है और भाजपा कहती है कि पहले अपने भ्रष्टाचार को देखो, उसके बाद हमारी ओर उंगली उठाना। मायावती कहती है कि मुलायम से बड़ा भ्रष्टाचारी कोई नहीं और मुलायम कहते हैं मायावती ने पूरे प्रदेश को खोखला कर दिया। लालू यादव, नीतीश को लुटेरा बताते हैं और नीतीश कहते हैं कि इन मियां-बीबी ने बिहार को बर्बाद कर दिया।
यही हाल तमिलनाडु का है और यही कर्नाटक का। यही राजस्थान का है और यही मध्यप्रदेश का। सच तो यह है कि कोई प्रदेश इस अंधी लूट से बचा नहीं है। पक्ष और विपक्ष अब केवल दिखावे के लिए हैं। केवल एक ही जात है, और वह है नेता तथा एक ही मकसद है, और वह है सत्ता। वो जमाने लद गये जब राजनीति के लिए जनसेवा भी एक सब्जेक्ट हुआ करती थी और उसमें उत्तीर्ण होने लायक एक तिहाई अंक लाना जरूरी होता था। आज तो मूक सहमति से सब-कुछ स्मूथली चल रहा है। सबकी अपनी-अपनी भूमिका तय हैं, और उन भूमिकाओं के लिए समय भी तय है। तभी तो सपा से लेकर बसपा तक और भाजपा से लेकर माकपा तक सब कहते हैं कि विरोध अपनी जगह लेकिन सरकार गिराना हमारा मकसद नहीं।
तभी तो रॉबर्ट वाड्रा (वढ़ेरा) की ओर उंगली उठाये जाने पर देश का कानून मंत्री कहता है कि दामाद के जरिये सोनिया जी को टारगेट बनाया जा रहा है जो हमें बर्दाश्त नहीं। सोनियाजी के लिए हम जान तक दे सकते हैं।
इस कानून मंत्री से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि वह देश का कानून मंत्री है या सोनिया गांधी का वकील । क्या सोनिया अपने खिलाफ लगे आरोपों का जवाब देने में सक्षम नहीं हैं या फिर वह जानती हैं कि सलमान खुर्शीद जैसे चापलूसों की पूरी फौज जब तक उनके पास है तब तक उन्हें कुछ बोलने की जरूरत नहीं है।
तभी तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी सिंचाई घोटालेबाजों के पक्ष में चिठ्ठी लिखे जाने पर सीना चौड़ाकर कहते हैं कि जरूरत पड़ी तो ऐसी सौ चिठ्ठियां और लिखूंगा। मैंने कुछ गलत नहीं किया। वह बड़ी बेशर्मायी से यह और कहते हैं कि ऐसी चिठ्ठियां लिखना हमारा हक है।
पेट्रोल, डीजल, मिट्टी के तेल और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि किये जाने की पूर्व सूचना होने के बावजूद समूक्षा विपक्ष चुप्पी साधे बैठा रहता है लेकिन जब कीमतें बढ़ा दी जाती हैं तब धरना, प्रदर्शन और बंद की राजनीति में सब एकसाथ कूद पड़ते हैं।
नरेन्द्र वशिष्ठ का भी यह शेर हालातों को बखूबी बयां करता है-
नाग जब लोगों को डसकर, हो गया नजरों से दूर।
बीन लेकर शहर में कितने सपेरे आ गये।।
आज देश में विपक्ष जैसी कोई चीज है ही नहीं। सबके सब सत्तापक्ष हैं। कोई प्रत्यक्ष रूप से सत्तासुख भोग रहा है और कोई अप्रत्यक्ष रूप से। इनका महंगाई व भ्रष्टाचार को लेकर विरोध करना केवल और केवल दिखावा है।
कल एक टीवी कार्यक्रम में जब किसी ने पूछा था कि क्या हमारा देश खामोशी के साथ गृहयुद्ध अथवा रक्तक्रांति की ओर बढ़ रहा है तो बड़ा अजीब सा सवाल लगा था पर आज लगता है कि उसने कुछ गलत भी तो नहीं पूछा। लोकतंत्र का फटा हुआ ढोल आखिर कब तक जनता की सहनशीलता का मजाक उड़ायेगा। कब तक आमजन अपने ही द्वारा निर्वाचित और जनप्रतिनिधि कहलाने वाले इन निरंकुश आधुनिक राजा-महाराजाओं की चौखटों पर अपनी एड़ियां रगड़ते रहेंगे तथा कब तक अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों के लिए भी गिड़गिड़ाते रहेंगे।
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