शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

नगर निकाय चुनाव यूपी: कोर्ट के रुख से बहुत से भाजपाई खुश, लेकिन पार्टी के व्यवहार से क्षुब्ध


 यूपी में नगर निकाय चुनावों के लिए आरक्षण की अधिसूचना पर इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा फिलहाल रोक लगाए जाने से एक ओर जहां तमाम वो भाजपाई खुश हैं जो सामान्य सीट होने की स्‍थिति में चुनाव लड़ने की योग्‍यता रखते हैं वहीं दूसरी ओर पार्टी पदाधिकारियों के रवैये से कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग नाखुश दिखाई दे रहा है।

दरअसल, नगर निकाय चुनावों के लिए आरक्षित सीटों की घोषणा होने से पहले भाजपा का एक बड़ा वर्ग अपने लिए पार्षद और मेयर के पदों पर चुनाव लड़ने की संभावना तलाश रहा था, किंतु आरक्षण की घोषणा ने उसकी उम्‍मीदों पर पानी फेर दिया। विशेषकर उन जिलों में जहां 2017 के चुनावों में भी मेयर पद आरक्षित था।

ऐसे जिलों में कृष्‍ण की नगरी मथुरा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। दरअसल, 2017 के निकाय चुनावों में ही स्‍थानीय लोगों के भारी विरोध को दरकिनार कर मथुरा एवं वृंदावन नगर पालिकाओं को मिलाकर ''मथुरा-वृंदावन नगर निगम'' बना दिया गया। फिर यहां का मेयर पद भी दलित के लिए आरक्षित कर दिया।

अब पार्टीजन ये मानकर चल रहे थे कि 2022 में इस धार्मिक नगरी का मेयर पद सामान्य घोषित कर दिया जाएगा किंतु इस बार इसे ओबीसी (महिला) के लिए आरक्षित कर दिया।

बहरहाल, ओबीसी आरक्षण के खिलाफ दायर एक याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंड पीठ द्वारा फिलहाल 20 दिसंबर तक रोक लगाकर सुनवाई की जा रही है जिससे उम्‍मीद बंधी है कि शायद सरकार की घोषणा लागू न हो सके और ओबीसी के लिए पिछले दिनों घोषित सीटों पर भी बिना आरक्षण चुनाव कराने पड़ें। लेकिन इस सबके बीच बीजेपी कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग पार्टी पदाधिकारियों के उपेक्षित रवैये से नाराज है।

उसका कहना है कि सालों-साल मेहनत तो करता है सामान्‍य कार्यकर्ता, किंतु जब बात आती है टिकटों के बंटवारे की तो उसे कोई तरजीह नहीं दी जाती। यहां तक कि उसी के इलाके की उम्‍मीदावारी पर भी उसकी राय लेना जरूरी नहीं समझा जाता और पार्टी पदाधिकारी 'अंधे बांटें रेवड़ी' की कहावत को चरितार्थ करने लगते हैं।

इन कार्यकर्ताओं की मानें तो पार्टी पदाधिकारी अपमान की हद तक उनके साथ रूखा व्‍यवहार करते हैं और अपने-अपने लोगों के नाम आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं, जो समर्पित कार्यकताओं के साथ सरासर अन्याय है।

यही नहीं, पार्षद के पद पर चुनाव लड़ने के इच्‍छुक कार्यकर्ताओं द्वारा दावेदारी जताये जाने की स्‍थिति में उन्‍हें उनकी हैसियत का अहसास कराया जाता है ताकि वह चुनाव लड़ने का विचार ही त्याग दें।

उदाहरण के तौर पर यदि बात करें मथुरा की तो इसका प्रमाण तब देखने को मिला जब दो दिन पहले सीएम योगी आदित्यनाथ यहां आए।

पार्टी सूत्रों के अनुसार योगी की सभा में भीड़ जुटाने की जिम्‍मेदारी पार्षद का चुनाव लड़ने के इच्‍छुक कार्यकर्ताओं पर थोप दी गई। एक-एक दावेदार से सौ-सौ लोगों को सभा स्‍थल तक पहुंचाने को कहा गया। साथ ही उनसे दो-दो बड़े होर्डिंग लगवाए गए।

चूंकि एक-एक वार्ड से टिकट मांगने वाले कार्यकताओं की संख्‍या दर्जनों तक पहुंच रही है इसलिए भीड़ तो एकत्र हो गई लेकिन उसे जुटाने तथा होर्डिंग लगवाने का खर्चा बहुतों को अखर गया।

ऐसे में जाहिर है कि अनेक ऐसे कार्यकर्ता तो पार्षद का भी चुनाव लड़ने की बात नहीं सोच सकते जिनकी आर्थिक स्‍थिति लाखों रुपए खर्च करने की इजाजत नहीं देती।

यदि वो किसी पदाधिकारी के सामने अपनी इच्‍छा व्‍यक्त करते हैं तो उन्‍हें इसका अहसास करा दिया जाता है कि चुनाव लड़ना उनके बस की बात नहीं।

बेशक आज निकाय चुनाव लड़ना आसान नहीं रहा और इसमें भी दूसरे चुनावों की तरह प्रत्याशी को पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है लेकिन समर्पित कार्यकर्ता तो चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते ही हैं क्योंकि उनका अपना राजनीतिक भविष्‍य अंतत: चुनावों पर ही टिका होता है।

ऊपर से अगर पार्टी पदाधिकारी उनके साथ सौतेला व्‍यवहार करते हैं और उन्‍हीं का नाम आगे बढ़ाते हैं जो या तो उनकी गणेश परिक्रमा करने में माहिर होते हैं या फिर पैसा खर्च करने में समर्थ, तो आम कार्यकर्ताओं को ठेस लगना स्‍वाभाविक है।

भारतीय जनता पार्टी को आज जो मुकाम हासिल है, उसके पीछे आम कार्यकर्ता की मेहनत, लगन, निष्‍ठा और समर्पण का भी बहुत बड़ा हाथ है इसलिए उसे किसी षड्यंत्र या सोची-समझी रणनीति के तहत चुनाव लड़ने के उसके अधिकार से वंचित करना तथा टिकट मांगने पर हतोत्‍साहित करना, आज नहीं तो कल पार्टी को भारी पड़ सकता है।

ये बात इसलिए और अहमियत रखती है कि पिछले दिनों जब पार्टी ने मथुरा-वृंदावन का मेयर पद ओबीसी (महिला) के लिए आरक्षित कर दिया था तब भी अधिकांश वही लोग हावी होने की कोशिश कर रहे थे जिन्‍हें सीधे तौर पर टिकट का हकदार नहीं माना जा सकता। इन लोगों में वो लोग प्रमुख थे जिनके पुत्रों ने इस श्रेणी की महिला से शादी की है या जिनकी अपनी पत्नी इस इस वर्ग के आरक्षण की श्रेणी में आती हैं।

नगर निगम बनने के बाद दलित के लिए आरक्षित योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की पावन भूमि का पहला मेयर तो भाजपा के मुकेश आर्यबंधु को चुना गया लेकिन उनका कार्यकाल ऐसा नहीं रहा जिसमें कोई उल्‍लेखनीय उपलब्‍धि हासिल की गई हो और जनता उनके काम से संतुष्‍ट हो।

माना कि इस दौर में भाजपा के सभी प्रत्याशी मोदी और योगी पर चुनकर आते हैं किंतु फिर भी पब्‍लिक की अपने जनप्रतिनिधि से कुछ तो अपेक्षाएं होती ही हैं। इन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए योग्य प्रत्‍याशियों का चयन जरूरी है।

पद चाहे मेयर का हो या पार्षद का, न तो आम जनता यह चाहती है कि उसके लिए प्रत्याशी उसके ऊपर थोप दिया जाए और न पार्टी कार्यकर्ता ऐसे प्रत्याशी को पसंद करते हैं। विकल्‍प के अभाव में जनता, तथा अनुशासन की डोर में बंधे होने के कारण कार्यकर्ता बुझे मन से भले ही टिकट पाने वाले प्रत्‍याशी का साथ देते नजर आएं लेकिन कहीं न कहीं उन्‍हें ये बात अखरती जरूर है।

हाल ही में सपन्‍न हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजे इस बात का प्रमाण है कि असंतुष्‍ट एवं बागी भाजपा प्रत्‍याशियों ने किस तरह पार्टी के जबड़े से जीत छीन ली और वोट प्रतिशत में बहुत मामूली अंतर रहने के बावजूद भाजपा इतिहास बनाने से चूक गई।  

पार्टी के सूत्रों की मानें तो मथुरा-वृंदावन मात्र उदाहरण है अन्‍यथा पूरे प्रदेश में कमोबेश हालात एक जैसे हैं। सामान्य कार्यकर्ता तरसता रह जाता है और प्रभावशाली लोग अपने मोहरे फिट करने में सफल हो जाते हैं।

'मथुरा' के भाजपाइयों को तो इस मामले में यूं भी काफी कटु अनुभव है क्‍योंकि पिछले तीन लोकसभा चुनावों से यहां पार्टी किसी स्‍थानीय को न लड़ाकर, बाहरी प्रत्‍याशी को लड़ा रही है। 2009 में गठबंधन के चलते रालोद के जयंत चौधरी को टिकट दे दिया गया और 2014 तथा 2019 में हेमा मालिनी बाजी मार ले गईं। 2024 के लिए भी कोई स्‍थानीय चेहरा नहीं चमक रहा।

जो भी हो, समय रहते यदि पार्टी ने गंभीर होती इस समस्‍या पर ध्‍यान नहीं दिया और समर्पित भाजपा कार्यकर्ताओं की इसी तरह उपेक्षा की जाती रही तो निश्‍चित ही इसके परिणाम भविष्‍य में अच्‍छे नहीं निकलेंगे।

बेहतर होगा कि नगर निकाय के इन चुनावों में भी प्रत्‍याशियों का चयन योग्‍यता के आधार पर किया जाए, न कि चापलूसी या संबंधों के अधार पर। सीट आरक्षित हो या सामान्‍य, लेकिन जनसामान्‍य के दिलों में जगह बनाने वाले जनप्रतिनिधि ही बड़ी लकीर खींचने में सफल होंगे। वही पार्टी के लिए मुफीद होंगे और वही जनता के लिए। भाजपा के निर्णायक नेता इस पर कम से कम एकबार विचार करके जरूर देखें।

- लीजेण्‍ड न्‍यूज़  

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