आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इस वर्ष के पत्रकारिता दिवस का महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि इन दिनों राजनीति के साथ-साथ पत्रकारिता भी विभिन्न कारणों से विमर्श के केंद्र में है। हाल ही में ”कोबरा पोस्ट” द्वारा किए गए एक स्टिंग ऑपरेशन ने इस विमर्श को ज्वलंत बना दिया है।
कोबरा पोस्ट के स्टिंग में कितना दम है, यह तो फिलहाल जांच का विषय है किंतु इतना तय है कि सबके ऊपर उंगली उठाने वाले मीडिया की अपनी तीन उंगलियां खुद उसके ऊपर उठी हुई हैं।
यहां बात केवल मीडिया के बिकाऊ होने की नहीं है, बात लोकतंत्र के उस अस्तित्व की है जिसका एक मजबूत पिलर मीडिया खुद को मानता है। अब इस मजबूत पिलर की बुनियाद हर स्तर पर खोखली होती दिखाई दे रही है।
खबरों के नाम पर सारे-सारे दिन बासी व उबाऊ कंटेन्ट परोसना और बेतुके विषयों पर बेहूदों लोगों को बैठाकर सातों दिन डिस्कशन कराने के अतिरिक्त मीडिया के पास जैसे कुछ रह ही नहीं गया।
आश्चर्य की बात तो यह है कि डिस्कशन का विषय चाहे कुछ भी हो, पैनल में चंद रटे-रटाये चेहरे प्रत्येक टीवी चैनल पर देखे जा सकते हैं। बहस का विषय भले ही बदलता रहता हो किंतु चेहरे नहीं बदलते।
क्या सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में मात्र कुछ दर्जन लोगों को ही वो ज्ञान प्राप्त है जिसके बूते वह खेत से लेकर खलिहान तक और आकाश से लेकर पाताल तक के विषय पर चर्चा कर लेते हैं।
राजनीति, कूटनीति, रणनीति, विदेशनीति व अर्थनीति ही नहीं…धर्म, जाति और संप्रदाय जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी बहस के बीच वही चंद चेहरे बैठे मिलते हैं।
तथाकथित सभ्य समाज से ताल्लुक रखने वाले ये लोग जब बहस का हिस्सा बनते हैं तो यह पता लगते देर नहीं लगती कि कहीं न कहीं उनके डीएनए में खोट जरूर है।
पिछले कुछ समय से टीवी चैनल्स पर आने वाली डिबेट्स का स्तर देखकर कोई भी अंदाज लगा सकता है कि इन सो-कॉल्ड विशेषज्ञों की असलियत क्या होगी।
जाहिर है कि बहस कराने वाले एंकर्स इनसे अलग नहीं रह पाते और वह अब एंपायर या रैफरी की जगह अतिरिक्त खिलाड़ी बन जाते हैं। ऐसे में एंकर्स के ऊपर आरोप लगाना पैनल के विशेषज्ञों की आदत का हिस्सा बन चुका है। तथाकथित विशेषज्ञ उन्हें भी अपने साथ हमाम में नंगा देखना चाहते हैं।
रही बात प्रिंट मीडिया की, तो व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में वह भी पतन के रास्ते पर चल पड़ा है। विज्ञापन के लिए अख़बार न सिर्फ समाचारों से समझौता करने को तत्पर रहते हैं बल्कि किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं।
बाकी कोई कसर रह जाती है तो उसे सोशल मीडिया पूरी कर देता है। पत्रकारिता की आड़ में सोशल मीडिया पर आवारा साड़ों का ऐसा झुण्ड चौबीसों घंटे विचरण करता है जिसकी नाक में नकेल डालना फिलहाल तो किसी के बस में दिखाई नहीं देता।
तिल का ताड़ और रस्सी का सांप बनाने में माहिर ये झुण्ड इस कदर बेलगाम है कि टीवी चैनल्स ने इनका ”वायरल टेस्ट” करने की दुकानें अलग से खोल ली हैं। अब लगभग हर टीवी चैनल पर ऐसी खबरों के ”वायरल टेस्ट” की भी खबरें आती हैं।
इन हालातों में सिर्फ पत्रकारिता दिवस मनाने और उसके आयोजन में नेताओं को बुलाकर उनके गले पड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है। सही मायनों में पत्रकारिता दिवस मनाना है तो उस सोच को बदलना होगा जिसने पत्रकारों के साथ-साथ पत्रकारिता को भी तेजी से कलंकित किया है और जिसके कारण आज पत्रकारिता तथा नेतागीरी एकसाथ आ खड़े हुए हैं। जिसके कारण समाज का आम आदमी पत्रकारों को भी उतनी ही हेय दृष्टि से देखने लगा है जितनी हेय दृष्टि से वह नेताओं को देखता है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
कोबरा पोस्ट के स्टिंग में कितना दम है, यह तो फिलहाल जांच का विषय है किंतु इतना तय है कि सबके ऊपर उंगली उठाने वाले मीडिया की अपनी तीन उंगलियां खुद उसके ऊपर उठी हुई हैं।
यहां बात केवल मीडिया के बिकाऊ होने की नहीं है, बात लोकतंत्र के उस अस्तित्व की है जिसका एक मजबूत पिलर मीडिया खुद को मानता है। अब इस मजबूत पिलर की बुनियाद हर स्तर पर खोखली होती दिखाई दे रही है।
खबरों के नाम पर सारे-सारे दिन बासी व उबाऊ कंटेन्ट परोसना और बेतुके विषयों पर बेहूदों लोगों को बैठाकर सातों दिन डिस्कशन कराने के अतिरिक्त मीडिया के पास जैसे कुछ रह ही नहीं गया।
आश्चर्य की बात तो यह है कि डिस्कशन का विषय चाहे कुछ भी हो, पैनल में चंद रटे-रटाये चेहरे प्रत्येक टीवी चैनल पर देखे जा सकते हैं। बहस का विषय भले ही बदलता रहता हो किंतु चेहरे नहीं बदलते।
क्या सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में मात्र कुछ दर्जन लोगों को ही वो ज्ञान प्राप्त है जिसके बूते वह खेत से लेकर खलिहान तक और आकाश से लेकर पाताल तक के विषय पर चर्चा कर लेते हैं।
राजनीति, कूटनीति, रणनीति, विदेशनीति व अर्थनीति ही नहीं…धर्म, जाति और संप्रदाय जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी बहस के बीच वही चंद चेहरे बैठे मिलते हैं।
तथाकथित सभ्य समाज से ताल्लुक रखने वाले ये लोग जब बहस का हिस्सा बनते हैं तो यह पता लगते देर नहीं लगती कि कहीं न कहीं उनके डीएनए में खोट जरूर है।
पिछले कुछ समय से टीवी चैनल्स पर आने वाली डिबेट्स का स्तर देखकर कोई भी अंदाज लगा सकता है कि इन सो-कॉल्ड विशेषज्ञों की असलियत क्या होगी।
जाहिर है कि बहस कराने वाले एंकर्स इनसे अलग नहीं रह पाते और वह अब एंपायर या रैफरी की जगह अतिरिक्त खिलाड़ी बन जाते हैं। ऐसे में एंकर्स के ऊपर आरोप लगाना पैनल के विशेषज्ञों की आदत का हिस्सा बन चुका है। तथाकथित विशेषज्ञ उन्हें भी अपने साथ हमाम में नंगा देखना चाहते हैं।
रही बात प्रिंट मीडिया की, तो व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में वह भी पतन के रास्ते पर चल पड़ा है। विज्ञापन के लिए अख़बार न सिर्फ समाचारों से समझौता करने को तत्पर रहते हैं बल्कि किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं।
बाकी कोई कसर रह जाती है तो उसे सोशल मीडिया पूरी कर देता है। पत्रकारिता की आड़ में सोशल मीडिया पर आवारा साड़ों का ऐसा झुण्ड चौबीसों घंटे विचरण करता है जिसकी नाक में नकेल डालना फिलहाल तो किसी के बस में दिखाई नहीं देता।
तिल का ताड़ और रस्सी का सांप बनाने में माहिर ये झुण्ड इस कदर बेलगाम है कि टीवी चैनल्स ने इनका ”वायरल टेस्ट” करने की दुकानें अलग से खोल ली हैं। अब लगभग हर टीवी चैनल पर ऐसी खबरों के ”वायरल टेस्ट” की भी खबरें आती हैं।
इन हालातों में सिर्फ पत्रकारिता दिवस मनाने और उसके आयोजन में नेताओं को बुलाकर उनके गले पड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है। सही मायनों में पत्रकारिता दिवस मनाना है तो उस सोच को बदलना होगा जिसने पत्रकारों के साथ-साथ पत्रकारिता को भी तेजी से कलंकित किया है और जिसके कारण आज पत्रकारिता तथा नेतागीरी एकसाथ आ खड़े हुए हैं। जिसके कारण समाज का आम आदमी पत्रकारों को भी उतनी ही हेय दृष्टि से देखने लगा है जितनी हेय दृष्टि से वह नेताओं को देखता है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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