ऐसी तमाम औरतें मिल जाएंगी जिनकी तरक्की में किसी भी पुरुष का हाथ नहीं रहा, किंतु कोई पुरुष शायद ही ऐसा मिले जिसने औरत के सहयोग बिना तरक्की हासिल की हो। शायद इसीलिए कहा जाता है कि हर पुरुष की तरक्की में किसी न किसी महिला का अपरोक्ष या परोक्ष हाथ जरूर होता है।
दुनियाभर को छोड़कर यदि सिर्फ भारतीय महिलाओं की बात करें तो माया, ममता, जया (जयललिता) जैसी देवियां इसकी उदाहरण हैं। पुरुषों में अटल बिहारी वाजपेयी (अब स्वर्गीय) का नाम अपवाद स्वरूप लिया जा सकता है। हालांंकि उनके खुद के शब्दों में वो अविवाहित जरूर थे किंतु कुंवारे नहीं। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही निकलता है कि उनकी जिंदगी में भी कोई न कोई औरत रही जरूर थी। मोदी जी ने अपने पिछले नामांकन पत्र से स्पष्ट कर ही दिया था कि वह विवाहित हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि आदिकाल से किसी महिला को कभी कालिदास की आवश्यकता महसूस नहीं हुई परंतु हर युग में कालिदासों को विद्योत्तमा की सख्त जरूरत रही है। एक भी उदाहरण ऐसा देखने या सुनने में नहीं मिलता कि कोई कालिदास किसी विद्योत्तमा के हड़काए बिना ‘महाकवि कालिदास’ बना हो।
यह अलग बात है कि कोई कालिदास विवाहित जीवन के प्रथम चरण में विद्योत्तमा से ज्ञान प्राप्त कर बुद्धिमानों की जमात का हिस्सा बन जाता है और किसी-किसी के ज्ञान चक्षु अंतिम चरण में जाकर खुलते हैं। जैसे हमारे मोदी जी ने प्रथम चरण में ज्ञान प्राप्त कर लिया लिहाजा आज कितनों के कलेजे पर मूंग दल रहे हैं।
खैर, मुझे तो चिंता हो रही है अपने राहुल ‘बाबा’ की। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि आधी सदी बीत गई जीवन की, लेकिन उनके नाम से चिपका हुआ ”बाबा” उनका पीछा नहीं छोड़ रहा।
अभी पिछले दिनों संसद में उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि लोग उन्हें प्यार से ”पप्पू” भी कहते हैं। अब ”पप्पू” का शाब्दिक अर्थ क्या है, इसकी जानकारी या तो कहने वालों को होगी या सुनने वालों को। राहुल बाबा भी इस नाम में छिपे रहस्य से अवश्य वाकिफ होंगे अन्यथा इतने गर्व के साथ एक्सेप्ट नहीं करते। इतने गर्व से तो वह खुद को हिंदू तक नहीं कहते, फिर पप्पू क्यों कहने लगे। जाहिर है कि वह हिंदू और पप्पू दोनों का गूढ़ार्थ समझते हैं। हिंदू होना भी वह यदा-कदा इसी तरह स्वीकार कर लेते हैं जैसे पप्पू होना।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि हमारे राहुल बाबा की जिंदगी में अब तक कोई महिला नहीं आई है। दस्तावेज तो यही बताते हैं, वैसे राहुल बाबा अपने लिए किसी विद्योत्तमा की तलाश करने को कब के अधिकृत हो चुके हैं। राहुल बाबा की जिंदगी में किसी महिला की कमी अक्सर तब खटकती है जब वो सार्वजनिक भाषण देते हैं।
अब देखिए…जर्मनी के हैम्बर्ग में वह कह बैठे कि भारत में मॉब लिंचिंग होने की वजह नोटबंदी, GST तथा बेरोजगारी है, और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आईएसआईएस जैसे कुख्यात आतंकवादी गिरोह का उदय भी बेरोजगारी के कारण हुआ था।
लोगों का दावा है कि यदि राहुल बाबा के जीवन में लिखा-पढ़ी के तहत कोई विद्योत्तमा होती तो वो ऐसा कतई नहीं बोलते।
उन्होंने इस दौरान पुरुषों को भी यह कहकर अच्छा-खासा लैक्चर पिलाया कि भारतीय पुरुष महिलाओं को लेकर समानता व सम्मान का भाव नहीं रखते। पता नहीं राहुल बाबा को यह ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ।
जहां तक उनकी परवरिश का सवाल है तो उनके यहां महिलाओं को बराबर से ऊपर का दर्जा भी मिला और सम्मान भी भरपूर प्राप्त हुआ। उनकी दादी इसका प्रमाण हैं। फिर मम्मी सोनिया जी सामने हैं। यह बात अलग है कि बहन प्रियंका को वो सम्मान अब तक नहीं मिला जिसकी वो हकदार बताई जाती हैं। पता नहीं राहुल बाबा, मम्मी जी से बहन प्रियंका के बारे में कब बात करेंगे।
देश के अधिकांश जिम्मेदार नागरिकों को ऐसा महसूस होता है कि राहुल बाबा को एक अदद विद्योत्तमा की अत्यंत आवश्यकता है और यह आवश्यकता उन्हें 2019 के चुनाव का बिगुल बजने से पहले पूरी कर लेनी चाहिए।
कालिदास के जीवन में जो कुछ घटा, वह बताता है कि बुद्धि की कमी उनमें कभी नहीं रही होगी। होती तो वह किसी भी सूरत में कालिदास से महाकवि कालिदास नहीं बन सकते थे। बुद्धि उनमें भरपूर थी परंतु उसका उदय तब हुआ जब विद्योत्तमा ने उनके जीवन में पदार्पण किया।
गुजरे जमाने में जगद्गुरू शंकराचार्य को भी ऐसी मुसीबत झेलनी पड़ी थी। गए थे मंडन मिश्र नामक विद्वान से शास्त्रार्थ करने, उन्हें आसानी से हरा भी दिया लेकिन उनकी पत्नी गले पड़ गईं। कहने लगीं कि मैं इनकी आर्धांगनी हूं इसलिए मुझे हराए बिना इनकी हार मुकम्मल नहीं मानी जा सकती। बेचारे शंकराचार्य थे अविवाहित। गृहस्थाश्रम के ज्ञान से शून्य। चुनौती मिली तो लौटना पड़ा उल्टे पांव। बाद में किसी जतन से गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया और मंडन मिश्र की पत्नी के सवालों का जवाब खोज पाए। कहने का मतलब यह है कि शंकराचार्य जैसे धर्मधुरंधर को भी मंडन मिश्र की विद्योत्तमा ने दौड़ा लिया।
यूं भी देखा जाए तो किसी भी भाषण का स्क्रिप्ट राइटर घर का होने के कई फायदे हैं। बात दबी रहती है। पता नहीं चलता कि घर-घर में कालिदास बैठे हैं। हिंदुस्तान तो कालिदासों से भरा पड़ा है। बात घर की चारदीवारी से निकली नहीं कि पोल खुल जाती है। फिर जर्मनी तो बहुत दूर है। स्क्रिप्ट राइटर कहां-कहां साथ जा सकता है। सामने से कब कौन सवाल उछाल दे।
आपको पता होगा कि जर्मनी जैसे ही एक हिंदुस्तानी कार्यक्रम में राहुल बाबा पर किसी लड़की ने एनसीसी के बावत सवाल दे मारा। बेचारे बमुश्किल यह कहकर पीछा छुड़ा पाए कि मुझे एनसीसी का कोई ज्ञान नहीं है।
राहुल बाबा को समझना चाहिए कि हर जगह पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता क्योंकि हर जगह एनसीसी से जुड़े सवाल नहीं पूछे जाते।
भारत वापसी पर कोई यह भी पूछ सकता है कि अपने निष्कर्ष से आप देश में आईएसआईएस को न्योता दे रहे हैं या ये बता रहे हैं कि बेरोजगारी के चलते भारत में आईएसआईएस के लिए बहुत स्कोप है।
जो भी हो राहुल बाबा, 2019 का चुनाव सामने हैं। आपके पास तो वैसे ही मणिशंकर जैसी मणि, दिग्विजय जैसे दिग्गज और संजय निरुपम जैसे निराले व्यक्तित्वों की भरमार है। बेहतर होगा कि आप उनसे खुद को अलग बनाए रखें।
ऐसा न हो सके तो एक अदद विद्योत्तमा समय रहते तलाश लें वरना लेने के देने पड़ जाएंगे। चुनाव बेशक कुंभ का मेला न सही, लेकिन चुनाव तो है। पांच साल बाद मौका मिलता है। और हां, बोल चाहे जहां लें। दुनिया के किसी कोने में भाषण दे आएं परंतु आपके लिए चुनाव भारत में होने हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
दुनियाभर को छोड़कर यदि सिर्फ भारतीय महिलाओं की बात करें तो माया, ममता, जया (जयललिता) जैसी देवियां इसकी उदाहरण हैं। पुरुषों में अटल बिहारी वाजपेयी (अब स्वर्गीय) का नाम अपवाद स्वरूप लिया जा सकता है। हालांंकि उनके खुद के शब्दों में वो अविवाहित जरूर थे किंतु कुंवारे नहीं। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही निकलता है कि उनकी जिंदगी में भी कोई न कोई औरत रही जरूर थी। मोदी जी ने अपने पिछले नामांकन पत्र से स्पष्ट कर ही दिया था कि वह विवाहित हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि आदिकाल से किसी महिला को कभी कालिदास की आवश्यकता महसूस नहीं हुई परंतु हर युग में कालिदासों को विद्योत्तमा की सख्त जरूरत रही है। एक भी उदाहरण ऐसा देखने या सुनने में नहीं मिलता कि कोई कालिदास किसी विद्योत्तमा के हड़काए बिना ‘महाकवि कालिदास’ बना हो।
यह अलग बात है कि कोई कालिदास विवाहित जीवन के प्रथम चरण में विद्योत्तमा से ज्ञान प्राप्त कर बुद्धिमानों की जमात का हिस्सा बन जाता है और किसी-किसी के ज्ञान चक्षु अंतिम चरण में जाकर खुलते हैं। जैसे हमारे मोदी जी ने प्रथम चरण में ज्ञान प्राप्त कर लिया लिहाजा आज कितनों के कलेजे पर मूंग दल रहे हैं।
खैर, मुझे तो चिंता हो रही है अपने राहुल ‘बाबा’ की। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि आधी सदी बीत गई जीवन की, लेकिन उनके नाम से चिपका हुआ ”बाबा” उनका पीछा नहीं छोड़ रहा।
अभी पिछले दिनों संसद में उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि लोग उन्हें प्यार से ”पप्पू” भी कहते हैं। अब ”पप्पू” का शाब्दिक अर्थ क्या है, इसकी जानकारी या तो कहने वालों को होगी या सुनने वालों को। राहुल बाबा भी इस नाम में छिपे रहस्य से अवश्य वाकिफ होंगे अन्यथा इतने गर्व के साथ एक्सेप्ट नहीं करते। इतने गर्व से तो वह खुद को हिंदू तक नहीं कहते, फिर पप्पू क्यों कहने लगे। जाहिर है कि वह हिंदू और पप्पू दोनों का गूढ़ार्थ समझते हैं। हिंदू होना भी वह यदा-कदा इसी तरह स्वीकार कर लेते हैं जैसे पप्पू होना।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि हमारे राहुल बाबा की जिंदगी में अब तक कोई महिला नहीं आई है। दस्तावेज तो यही बताते हैं, वैसे राहुल बाबा अपने लिए किसी विद्योत्तमा की तलाश करने को कब के अधिकृत हो चुके हैं। राहुल बाबा की जिंदगी में किसी महिला की कमी अक्सर तब खटकती है जब वो सार्वजनिक भाषण देते हैं।
अब देखिए…जर्मनी के हैम्बर्ग में वह कह बैठे कि भारत में मॉब लिंचिंग होने की वजह नोटबंदी, GST तथा बेरोजगारी है, और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आईएसआईएस जैसे कुख्यात आतंकवादी गिरोह का उदय भी बेरोजगारी के कारण हुआ था।
लोगों का दावा है कि यदि राहुल बाबा के जीवन में लिखा-पढ़ी के तहत कोई विद्योत्तमा होती तो वो ऐसा कतई नहीं बोलते।
उन्होंने इस दौरान पुरुषों को भी यह कहकर अच्छा-खासा लैक्चर पिलाया कि भारतीय पुरुष महिलाओं को लेकर समानता व सम्मान का भाव नहीं रखते। पता नहीं राहुल बाबा को यह ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ।
जहां तक उनकी परवरिश का सवाल है तो उनके यहां महिलाओं को बराबर से ऊपर का दर्जा भी मिला और सम्मान भी भरपूर प्राप्त हुआ। उनकी दादी इसका प्रमाण हैं। फिर मम्मी सोनिया जी सामने हैं। यह बात अलग है कि बहन प्रियंका को वो सम्मान अब तक नहीं मिला जिसकी वो हकदार बताई जाती हैं। पता नहीं राहुल बाबा, मम्मी जी से बहन प्रियंका के बारे में कब बात करेंगे।
देश के अधिकांश जिम्मेदार नागरिकों को ऐसा महसूस होता है कि राहुल बाबा को एक अदद विद्योत्तमा की अत्यंत आवश्यकता है और यह आवश्यकता उन्हें 2019 के चुनाव का बिगुल बजने से पहले पूरी कर लेनी चाहिए।
कालिदास के जीवन में जो कुछ घटा, वह बताता है कि बुद्धि की कमी उनमें कभी नहीं रही होगी। होती तो वह किसी भी सूरत में कालिदास से महाकवि कालिदास नहीं बन सकते थे। बुद्धि उनमें भरपूर थी परंतु उसका उदय तब हुआ जब विद्योत्तमा ने उनके जीवन में पदार्पण किया।
गुजरे जमाने में जगद्गुरू शंकराचार्य को भी ऐसी मुसीबत झेलनी पड़ी थी। गए थे मंडन मिश्र नामक विद्वान से शास्त्रार्थ करने, उन्हें आसानी से हरा भी दिया लेकिन उनकी पत्नी गले पड़ गईं। कहने लगीं कि मैं इनकी आर्धांगनी हूं इसलिए मुझे हराए बिना इनकी हार मुकम्मल नहीं मानी जा सकती। बेचारे शंकराचार्य थे अविवाहित। गृहस्थाश्रम के ज्ञान से शून्य। चुनौती मिली तो लौटना पड़ा उल्टे पांव। बाद में किसी जतन से गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया और मंडन मिश्र की पत्नी के सवालों का जवाब खोज पाए। कहने का मतलब यह है कि शंकराचार्य जैसे धर्मधुरंधर को भी मंडन मिश्र की विद्योत्तमा ने दौड़ा लिया।
यूं भी देखा जाए तो किसी भी भाषण का स्क्रिप्ट राइटर घर का होने के कई फायदे हैं। बात दबी रहती है। पता नहीं चलता कि घर-घर में कालिदास बैठे हैं। हिंदुस्तान तो कालिदासों से भरा पड़ा है। बात घर की चारदीवारी से निकली नहीं कि पोल खुल जाती है। फिर जर्मनी तो बहुत दूर है। स्क्रिप्ट राइटर कहां-कहां साथ जा सकता है। सामने से कब कौन सवाल उछाल दे।
आपको पता होगा कि जर्मनी जैसे ही एक हिंदुस्तानी कार्यक्रम में राहुल बाबा पर किसी लड़की ने एनसीसी के बावत सवाल दे मारा। बेचारे बमुश्किल यह कहकर पीछा छुड़ा पाए कि मुझे एनसीसी का कोई ज्ञान नहीं है।
राहुल बाबा को समझना चाहिए कि हर जगह पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता क्योंकि हर जगह एनसीसी से जुड़े सवाल नहीं पूछे जाते।
भारत वापसी पर कोई यह भी पूछ सकता है कि अपने निष्कर्ष से आप देश में आईएसआईएस को न्योता दे रहे हैं या ये बता रहे हैं कि बेरोजगारी के चलते भारत में आईएसआईएस के लिए बहुत स्कोप है।
जो भी हो राहुल बाबा, 2019 का चुनाव सामने हैं। आपके पास तो वैसे ही मणिशंकर जैसी मणि, दिग्विजय जैसे दिग्गज और संजय निरुपम जैसे निराले व्यक्तित्वों की भरमार है। बेहतर होगा कि आप उनसे खुद को अलग बनाए रखें।
ऐसा न हो सके तो एक अदद विद्योत्तमा समय रहते तलाश लें वरना लेने के देने पड़ जाएंगे। चुनाव बेशक कुंभ का मेला न सही, लेकिन चुनाव तो है। पांच साल बाद मौका मिलता है। और हां, बोल चाहे जहां लें। दुनिया के किसी कोने में भाषण दे आएं परंतु आपके लिए चुनाव भारत में होने हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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