देश को स्वतंत्र हुए आज पूरे 71 साल हो गए। यानी जिस पीढ़ी ने आजाद भारत में आंखें खोलीं, वह आज बूढ़ों की जमात में शामिल हो चुकी है। इस पीढ़ी ने आजादी की लड़ाई को सिर्फ किस्से-कहानियों की तरह सुना है, या चलचित्रों में देखा है।
परतंत्र भारत की पीड़ा के साक्षी मुठ्ठीभर लोग ही बचे होंगे, और जो बचे होंगे उनमें बहुत से तो उस पीड़ा को बयां करने की स्थिति में नहीं होंगे।
गुलामी, परतंत्रता, अधीनता आदि कहने को तो मात्र शब्दभर हैं किंतु इनका दर्द वही समझ सकता है जिसने इन्हें भोगा है।
https://youtu.be/XK6566eXM4U
परतंत्र भारत की पीड़ा के साक्षी मुठ्ठीभर लोग ही बचे होंगे, और जो बचे होंगे उनमें बहुत से तो उस पीड़ा को बयां करने की स्थिति में नहीं होंगे।
गुलामी, परतंत्रता, अधीनता आदि कहने को तो मात्र शब्दभर हैं किंतु इनका दर्द वही समझ सकता है जिसने इन्हें भोगा है।
https://youtu.be/XK6566eXM4U
स्वतंत्र भारत ने 71 सालों के इस सफर में निश्चित ही एक मुकाम हासिल किया है और दुनिया को लोकतंत्र की ताकत समझाने में सफल भी रहा है परंतु टीस इस बात की है कि सत्तासुख भोगने वाले लोग जवान होती पीढ़ी को यह समझाने में असफल रहे कि देश ने स्वतंत्रता की कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।
एक तरह से देखा जाए तो स्वतंत्रता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वालों और उसके लिए जीवन लगा देने वालों के बलिदान को चंद लोगों ने भुनाया तो खूब, परंतु श्रेय देने से मुंह मोड़ते रहे।
यही कारण है कि आज की पीढ़ी उंगलियों पर गिने जाने लायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से ही परिचित है।
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों की भव्यता में नि:संदेह काफी इजाफा हुआ है किंतु भावनात्मक दृष्टि से ये वर्ष-दर-वर्ष फीके होते जा रहे हैं क्योंकि इस बीच राष्ट्रवाद को भी राजनीति का विषय बना दिया गया।
सत्ता मात्र सुख का साधन बन गई और उसकी प्राप्ति के एकमात्र ध्येय में लिप्त राजनेताओं के लिए स्वतंत्रता का मकसद पीछे छूटता चला गया।
स्वतंत्रता सेनानियों को भी निजी स्वार्थपूर्ति के लिए खांचों में बांट देने वाली दलगत राजनीति ने कभी यह सोचा ही नहीं कि नई पीढ़ी को बिना तोड़े-मरोड़े उस दौर के इतिहास से परिचित कराना बहुत जरूरी है। आज वीर सावरकर एक दल के लिए महान क्रांतिकारी हैं तो दूसरा दल उन्हें फिरंगियों का मोहरा साबित करने से नहीं चूकता।
भगत सिंह पर वामपंथी अपना ठप्पा लगाते हैं तो अंबेडकर को दूसरे दलों ने अपना प्रतीक चिन्ह घोषित कर दिया है।
कहते हैं कि आधा ज्ञान और आधी जानकारी हमेशा अंधे कुएं की तरह हैं। नई पीढ़ी इसी अंधे कुएं में भटकने को अभिशप्त है। उसके सामने है तो ऐसी ही आधी-अधूरी जानकारियों से भरा गूगल बाबा का वो पिटारा जो विदेशी सोच से संचालित होता है।
आज यदि सबसे ज्यादा जरूरत है तो इस बात की कि स्वतंत्र भारत के युवा को गूगल के ज्ञान से इतर ले जाया जाए। उसकी गूगल पर बढ़ती निर्भरता को कम करके धरातल पर मौजूद सच्चाई का साक्षात्कार कराया जाए। जंगे आजादी में भूमिका निभाने वाले बचे-खुचे सेनानियों को सामने लाया जाए। उन्हें मात्र पेंशन देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने की बजाय उनके संघर्ष की गाथाएं सुनाई जाएं।
सिर्फ अधिकारों की बात करने वाली नई पीढ़ी को देश के प्रति अपने कर्तव्य का भान कराना भी उतना ही जरूरी है जितना कि नई तकनीक से परिचित कराना। कर्तव्यों से विमुख नई पीढ़ी तकनीकी रूप से चाहे कितनी भी समृद्ध क्यों न हो जाए, वह न तो कभी देश के काम आ सकती है और न देशवासियों के।
नई पीढ़ी में कर्तव्यों के प्रति बोध पैदा करने के लिए बिना भेद-भाव स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास सामने लाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इतिहास से सबक़ न लेने वाले लोग नष्ट होने को अभिशप्त होते हैं।
क्यों न इस स्वतंत्रता दिवस पर ऐसा कोई संकल्प लिया जाए जिससे नई पीढ़ी अपने राष्ट्रीय पर्वों को मात्र छुट्टी का एक दिन न समझकर देश के प्रति कर्तव्य का अहसास करे तथा उससे लेने ही लेने की बजाय, उसे कुछ देने अथवा उसके लिए कुछ करने का जज्बा भी पाल सके।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
एक तरह से देखा जाए तो स्वतंत्रता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वालों और उसके लिए जीवन लगा देने वालों के बलिदान को चंद लोगों ने भुनाया तो खूब, परंतु श्रेय देने से मुंह मोड़ते रहे।
यही कारण है कि आज की पीढ़ी उंगलियों पर गिने जाने लायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से ही परिचित है।
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों की भव्यता में नि:संदेह काफी इजाफा हुआ है किंतु भावनात्मक दृष्टि से ये वर्ष-दर-वर्ष फीके होते जा रहे हैं क्योंकि इस बीच राष्ट्रवाद को भी राजनीति का विषय बना दिया गया।
सत्ता मात्र सुख का साधन बन गई और उसकी प्राप्ति के एकमात्र ध्येय में लिप्त राजनेताओं के लिए स्वतंत्रता का मकसद पीछे छूटता चला गया।
स्वतंत्रता सेनानियों को भी निजी स्वार्थपूर्ति के लिए खांचों में बांट देने वाली दलगत राजनीति ने कभी यह सोचा ही नहीं कि नई पीढ़ी को बिना तोड़े-मरोड़े उस दौर के इतिहास से परिचित कराना बहुत जरूरी है। आज वीर सावरकर एक दल के लिए महान क्रांतिकारी हैं तो दूसरा दल उन्हें फिरंगियों का मोहरा साबित करने से नहीं चूकता।
भगत सिंह पर वामपंथी अपना ठप्पा लगाते हैं तो अंबेडकर को दूसरे दलों ने अपना प्रतीक चिन्ह घोषित कर दिया है।
कहते हैं कि आधा ज्ञान और आधी जानकारी हमेशा अंधे कुएं की तरह हैं। नई पीढ़ी इसी अंधे कुएं में भटकने को अभिशप्त है। उसके सामने है तो ऐसी ही आधी-अधूरी जानकारियों से भरा गूगल बाबा का वो पिटारा जो विदेशी सोच से संचालित होता है।
आज यदि सबसे ज्यादा जरूरत है तो इस बात की कि स्वतंत्र भारत के युवा को गूगल के ज्ञान से इतर ले जाया जाए। उसकी गूगल पर बढ़ती निर्भरता को कम करके धरातल पर मौजूद सच्चाई का साक्षात्कार कराया जाए। जंगे आजादी में भूमिका निभाने वाले बचे-खुचे सेनानियों को सामने लाया जाए। उन्हें मात्र पेंशन देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने की बजाय उनके संघर्ष की गाथाएं सुनाई जाएं।
सिर्फ अधिकारों की बात करने वाली नई पीढ़ी को देश के प्रति अपने कर्तव्य का भान कराना भी उतना ही जरूरी है जितना कि नई तकनीक से परिचित कराना। कर्तव्यों से विमुख नई पीढ़ी तकनीकी रूप से चाहे कितनी भी समृद्ध क्यों न हो जाए, वह न तो कभी देश के काम आ सकती है और न देशवासियों के।
नई पीढ़ी में कर्तव्यों के प्रति बोध पैदा करने के लिए बिना भेद-भाव स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास सामने लाना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इतिहास से सबक़ न लेने वाले लोग नष्ट होने को अभिशप्त होते हैं।
क्यों न इस स्वतंत्रता दिवस पर ऐसा कोई संकल्प लिया जाए जिससे नई पीढ़ी अपने राष्ट्रीय पर्वों को मात्र छुट्टी का एक दिन न समझकर देश के प्रति कर्तव्य का अहसास करे तथा उससे लेने ही लेने की बजाय, उसे कुछ देने अथवा उसके लिए कुछ करने का जज्बा भी पाल सके।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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