शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

पतन की राह पर ''मीडिया''

मथुरा (लीजेण् न्यूज)। आखिर प्रेस काउंसिल ऑफ इण्िडया के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे. एन. रे को भी ''पेड न्यूज'' के रूप में सामने आये प्रिंट मीडिया के भ्रष्टाचार पर शीघ्र श्वेत पत्र जारी करने की बात कहनी पड़ी। उन्होंने पैसे लेकर खबरें छापने की बढ़ती प्रवृत्ित को गंभीर समस्या बताते हुए कहा कि हम इस बात से बहुत चिंतित हैं। उन्होंने बताया कि इस मामले में श्वेत पत्र जारी करेंगे। इसके लिए समाज के अलग-अलग तबकों से चर्चा कर सूचनाएं जुटाई जा रही हैं।
भारतीय प्रेस परिषद् के अध्‍यक्ष द्वारा इसी संदर्भ में की गई यह टिप्‍पणी रेखांकित करने लायक है कि ''सच का केवल एक पहलू होता है''।
यूं तो पेड न्‍यूज का चलन कई वर्ष पहले अस्‍ितत्‍व में आ चुका था लेकिन इसका वीभत्‍स रूप गत लोकसभा चुनावों में देखने को मिला और तभी से इसके खिलाफ आवाजें उठनी शुरू हुईं। सबसे ज्‍यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि मीडिया और विशेषकर प्रिंट मीडिया के खिलाफ आवाज उठाने वालों में एक ओर जहां खुद मीडियाकर्मी आगे आये वहीं दूसरी ओर वो राजनेता तथा राजनीतिक पार्टियां शामिल हुईं जिनका अपना दामन बेदाग नहीं होता। यह स्‍िथति निश्‍िचत ही शर्मनाक है पर सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या गंदगी से गंदगी साफ की जा सकती है और मीडिया को पेड न्‍यूज के माध्‍यम से भ्रष्‍टाचार के दलदल में उतारने का जिम्‍मेदार है कौन?
पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनावों के बाद नोएडा से प्रकाशित एक पाक्षिक पत्रिका ने तो अपना 16 जुलाई 2009 का पुरा अंक ''बिकाऊ मीडिया, खरीदार नेता'' जैसे शीर्षक से निकाला। इस अंक में स्‍वर्गीय प्रभाष जोशी से लेकर सौरभ राय, अजय कुमार श्रीवास्‍तव, राजीव यादव, रूप चौधरी, सुशील राघव, सुरेन्‍द्र किशोर जैसे मीडिया से जुड़े दर्जनों लोगों ने आर्टिकल दिये तो पूर्व केन्‍द्रीय मंत्री हरमोहन धवन, देवरिया से समाजवादी पार्टी के प्रत्‍याशी मोहन सिंह, भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के राष्‍ट्रीय सचिव अतुल अंजान और भाजपा नेता लालजी टण्‍डन जैसे नेताओं ने बड़े-बड़े मीडिया घरानों को बेनकाब किया।
किसी ने लिखा कि इस चुनाव में पाठकों के विश्‍वास की हत्‍या हो गई तो किसी ने लिखा कि '' जिस तरह शादी-विवाह के मौके पर घोड़े वाला, बैण्‍ड-बाजे वाले आदि धन कमाते हैं, ठीक उसी प्रकार समाचार पत्र चुनाव में छद्म विज्ञापन को धन कमाने का जरिया बना रहे हैं। एक पत्रकार ने लिखा कि पैकेज पत्रकारिता मीडिया की साख को नष्‍ट कर देगी और यदि साख नष्‍ट हो गई तो कौन सा सत्‍ताधारी नेता, भ्रष्‍ट अफसर या फिर बेईमान व्‍यापारी मीडिया की परवाह करेगा?
इस पत्रिका के दिल्‍ली ब्‍यूरो ने तो यहां तक लिख डाला कि इस बार के चुनावों में मीडिया का चरित्र सरेबाजार नीलाम हुआ क्‍योंकि मीडिया हाउस ने चुनाव कवरेज को बाकायदा बिजनेस मान लिया। अखबारों ने विज्ञापन रूपी खबरों के लिए प्रति सेंटीमीटर के हिसाब से अपने पन्‍ने बेचकर विज्ञापन और खबर के बीच की दूरी पूरी तरह समाप्‍त कर दी। चुनाव के परवान चढ़ते ही पैसा लेकर खबरें छापने का अभियान इस कदर तेज हो गया कि अखबारों के बीच बड़े से बड़ा विज्ञापन पैकेज बेचने की होड़ लग गई।
दरअसल गत लोकसभा चुनावों में मीडिया ने उसी प्रकार लोकतंत्र का जमकर मजाक उड़ाया जिस प्रकार अब तक भ्रष्‍ट शासक और प्रशासक उड़ाते रहे हैं। पैसे की खातिर आम आदमी के विश्‍वास की खिल्‍ली उड़ाई गई। अखबारों की ओर से स्‍पष्‍ट कह दिया गया कि जो प्रत्‍याशी पैकेज नहीं लेगा उसकी विज्ञिप्‍ित भी नहीं छपेगी। चुनावों बाद यह साफ हो गया कि पैसे हड़पने के इस खेल में अखबारों ने उन उम्‍मीदवारों की भारी बहुमत से जीत बताई थी जिन्‍हें कुल पांच हजार वोट नहीं मिले और जो जीते उन्‍हें मुकाबले से बाहर बताया गया था। जिन्‍हें पत्रकार, कलमकार, स्‍टाफ रिपोर्टर या ब्‍यूरो चीफ कहा जाता है वह अखबार मालिकों तथा पार्टी प्रत्‍याशियों व पार्टी प्रमुखों के बीच मीडिएटर की भूमिका निभा रहे थे। वह मोलभाव करा रहे थे और इस मोलभाव से निकली खुरचन चाटकर स्‍वयं को तृप्‍त कर रहे थे।
संभवत: इसी के बाद कुछ समाचार पत्रों ने मीडिया से जुड़ी खबरों के लिए अलग से स्‍थान देना शुरू कर दिया ताकि किसी स्‍तर से कहीं हलचल होती दिखाई दे और पेड न्‍यूज के घिनौने खेल में जो समाचार पत्र शामिल नहीं हुए उन्‍हें कुछ संबल मिले। सरकार भी धन लेकर खबर छापने या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उसे दिखाने पर रोक के लिए शीघ्र कानून बनाने हेतु गंभीरता पूर्वक विचार कर रही है। फिलहाल उसे इस तरह के मामले में मिली शिकायतों की पड़ताल के लिए बनाई उप समिति की रिपोर्ट का इंतजार है।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि आज मीडिया घराने और मीडियाकर्मी पतन के जिस रास्‍ते पर चल पडे हैं, वह अत्‍यन्‍त खतरनाक है। उन्‍हें इस रास्‍ते पर और आगे बढ़ने से यदि अतिशीघ्र नहीं रोका गया तो समूचा देश इसके दुष्‍परिणाम भोगेगा। जाहिर है कि मीडिया में भी पेड न्‍यूज के भ्रष्‍टाचार की गंगा ऊपर से बहनी शुरू हुई है औरे ऊपर वालों को इस देश में नियंत्रित करना असंभव नहीं तो टेढ़ी खीर जरूर है।
कौन नहीं जानता कि स्‍िट्रन्‍गर, कस्‍बाई व ग्रामीण संवाद्दाता और यहां तक कि जिला मुख्‍यालयों के ब्‍यूरो दफ्तरों में बैठने वाले अधिकतर पत्रकारों की जीविका दलाली तथा ब्‍लैकमेलिंग पर आधारित है।
कौन है इसके लिए जिम्‍मेदार? क्‍या वो मीडिया घराने नहीं जो सब-क़छ जानते व समझते हुए आंखों पर पट्टी बांधे रहते हैं और इन्‍हीं लोगों को चुनावों के दौरान तथा अन्‍य विशेष अवसरों पर विज्ञापन झटकने का माध्‍यम बनाते हैं।
यही कारण है कि लोकतंत्र में चौथे खम्‍भे की उपमा प्राप्‍त अनेक पत्रकार दिनरात अपनी कलम और ईमान बेचते देखे जा सकते हैं। वह दफ्तर की जिस बीट पर बैठते हैं उससे जुड़े सरकारी अफसरों के तलवे पैसे की खातिर चाटते हैं। जनता के भरोसे का खून करके अफसरों के साथ खबरों की सौदेबाजी करते हैं। यहां तक कि विज्ञप्‍ितयों व दर्ज मुकद्दमों तक को बेच खाते हैं।
ऐसा नहीं है कि इन ब्‍लैकमेलर, दलाल और खबर बेचने वाले पत्रकारों की शिकायत उनके अखबार मालिकों एवं संपादकों तक न पहुंचती हो। उन तक भी ये शिकायतें खूब पहुंचती हैं परन्‍तु वो उन शिकायतों पर गौर नहीं करते। वो जानते हैं कि जो काम उनके मातहत छोटे पैमाने पर कर रहे हैं, वही काम वो खुद बडे़ पैमाने पर करते हैं। कुछ नामचीन समाचार पत्रों के स्‍थानीय संपादक व उनका प्रबंधत्रंत तो इस हद तक गिर चुका है कि अपने अधीनस्‍थों से ही शराब व सबाब की मांग करने में गुरेज नहीं करता। यही लोग उनके घरों की होली-दीवाली मनवाते हैं और यही उनके बच्‍चों के बर्थडे पर किसी मंहगे होटल में केक कटवाने का बंदोबस्‍त करते हैं। शादी की सालगिरह पर ब्‍यूरो दफ्तर से कॉकटेल पार्टी का इंतजाम स्‍टारर होटल में किया जाता है। मीडिया में अब यह एक ऐसी परंपरा का रूप धारण कर चुका है जो हर स्‍तर पर ऊपर से नीचे लागू है। ब्‍यूरोचीफ भी यही सब अपने सब-ऑर्डीनेट से कराते हैं।
इन हालातों में प्रेस काउंसिल और सरकार के लिए मीडिया के भ्रष्‍टाचार को नियंत्रित करना आसान नहीं होगा। यह तभी संभव है जब प्रबल इच्‍छाशक्‍ित के साथ-साथ कठोर कदम भी उठाये जाएं और मीडिया से जुड़े उन लोगों का साथ दिया जाए जो अब तक जल के अंदर रहकर मगरों से बैर लिये बैठे हैं। -सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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