रविवार, 19 दिसंबर 2010

बनारस ब्‍लास्‍ट..ध्‍यान बांटने की कोशिश!

लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष
बनारस के शीतला माता घाट पर आतंकियों द्वारा किये गये बम विस्‍फोट के बाद किसी युवक ने सोशल नेटवर्किंग साइट 'फेसबुक' पर लिखा कि कहीं ये ब्‍लास्‍ट भ्रष्‍टाचार से घिरे नेताओं ने जनता का ध्‍यान बांटने के लिए तो नहीं कराया।
इसी प्रकार जब संसद पर आतंकी हमला हुआ और सुरक्षा बलों ने अपनी जान पर खेलकर उस हमले को विफल किया तो अधिकांश युवा यह कहते सुने गये कि काश !  सुरक्षा बल आतंकियों को अंदर घुस जाने देते।
बेशक ये दोनों ही टिप्‍पणियां गैरजिम्‍मेदारी का परिचय देती हैं लेकिन इनसे एक बात का पता जरूर लगता है कि देश की जनता और विशेषकर युवा वर्ग उन लोगों से किस कदर आजिज आ चुका है जो खुद को देश का कर्णधार तथा भाग्‍यविधाता कहते हैं। 
यदि देखा जाए तो यह एक संदेश भी है कि स्‍वतंत्र भारत का युवा क्‍या सोचता है और वह किस मन: स्‍थति में जी रहा है। युवाओं की इन टिप्‍पणियों के गूणार्थ समझना यूं भी जरूरी है कि भारत को युवा देश माना जा रहा है यानि वो देश जिसकी कुल जनसंख्‍या में सबसे ज्‍यादा संख्‍या युवाओं की है।
संसद पर हमले को एक लम्‍बा अरसा गुजर गया लेकिन बनारस का बम ब्‍लास्‍ट हाल का है इसलिए फिलहाल यदि वहीं की बात करें तो अब सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या भ्रष्‍टाचार ने वाकई देश के हालात इतने खराब कर दिये हैं कि युवक ऐसा सोचने को बाध्‍य है ?
इस प्रश्‍न का उत्‍तर 'हां' में मिलता है क्‍योंकि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के चारों स्‍तंभों से भ्रष्‍टाचार की 'बू' आने लगी है। संवैधानिक तीनों स्‍तंभ यानि विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका में से विधायिका व कार्यपालिका तो काफी पहले भ्रष्‍ट हो चुके थे। यह भी कह सकते हैं कि वह कभी ईमानदार रहे ही नहीं। बाकी बची थी न्‍यायपालिका, तो वह भी अब अछूती नहीं रही। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने ऐसे ही नहीं कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ सड़ रहा है। उधर सुप्रीम कोर्ट में भी सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं है। 
चौथा और गैर संवैधानिक स्‍तंभ कहलाता है मीडिया। गैर संवैधानिक होते हुए लोकतंत्र में मीडिया की एक अहम् व सशक्‍त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वह भूमिका जिसके कारण मीडिया का महत्‍व कभी कम नहीं हुआ और जिसके कारण तीनों संवैधानिक स्‍तंभ उसे अहमियत देने के लिए मजबूर रहे।
यह मीडिया भी भ्रष्‍टाचार की दलदल में बड़ी तेजी के साथ समा रहा है। पहले तो पेड न्‍यूज़ ने और अब स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने मीडिया में भ्रष्‍टाचार को रेखांकित किया है लिहाजा सबका ध्‍यान इस ओर गया।
अब जबकि चारों स्‍तंभों को भ्रष्‍टाचार का घुन लग चुका हो और किसी भी देश का भविष्‍य कहलाने वाले युवाओं के भविष्‍य पर गहरा सवालिया निशान लगा हो, तो युवा सोचेगा भी क्‍या।
वह यही सोच सकता है क्‍योंकि उसे यह सब सोचने पर लगभग मजबूर किया जा रहा है।
बनारस के शीतला माता घाट पर किये गये बम विस्‍फोट से हालांकि बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि आतंकी आखिर बार-बार हमारे यहां ब्‍लास्‍ट कर हमारी संप्रभुता को खुली चनौती दे रहे हैं और हम आज तक उनके रहमोकरम पर जिंदा हैं।
यही कारण है कि लोग आज पूछ रहे हैं- बनारस के बाद कहां ? उन्‍हें सरकार से कहीं अधिक आतंकियों के नेटवर्क पर भरोसा है। उन्‍हें मालूम है कि सरकार अभी तक ऐसा कोई तंत्र खड़ा नहीं कर पायी है जो आतंकवादियों की प्‍लानिंग का उसके अंजाम तक पहुंचने से पहले पता लगा सके।
सरकार प्रदेश की हो या देश की, उसे आतंकियों के बावत जो जानकारियां मिलती भी हैं वो इतनी मामूली होती हैं जिनके आधार पर किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा जा सकता।
संभवत: इसीलिए बनारस ब्‍लास्‍ट के बाद केन्‍द्र और प्रदेश सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्‍यारोप में उलझी हैं जबकि ब्‍लास्‍ट करने वालों का कोई सुराग नहीं लगा। जिनके ऊपर कानून-व्‍यवस्‍था का निर्वहन करने की जिम्‍मेदारी है, वह अंधेरे में तीर चला रहे हैं। वोट की राजनीति के लिए आजमगढ़ में दबिश न देने की हिदायत दे रहे हैं। दलील दी जा रही है कि आजमगढ़ को बदनाम किया जा रहा है। इनसे कोई ये पूछने वाला नहीं है कि विस्‍फोट करने वालों के तार आजमगढ़ से जुड़े होने की सूचना आम पब्‍िलक ने नहीं दी। ये सूचना भी सरकारी तंत्र ने ही दी। फिर आजमगढ़ में दबिश देने से मनाही क्‍यों ? सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि एक खास तबके का वोट बैंक उसकी वजह से प्रभावित न हो।
नेताओं के लिए राष्‍ट्रहित कोई मायने नहीं रखता, यह एक आम धारणा बन चुकी है। यह धारणा यूं ही नहीं बनी, इसके पीछे कुछ खास कारण हैं। सब जानते हैं कि जब कभी कोई आतंकी वारदात देश के अंदर कहीं होती है तो आतंकियों तक पहुंचने की बजाय सारा तंत्र इस बहस में उलझ जाता है कि वारदात को अंजाम देने वाले किस तबके से थे। वो हिंदू थे या मुसलमान। सिख थे या ईसाई। कोई यह नहीं सोचता कि वो किसी वर्ग से हों समाज, देश व मानवता के अपराधी हैं। उनकी पहचान किसी समुदाय से नहीं, उनके अपराध से की जानी चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं। बस इसीलिए आज यह पूछा जा रहा है कि बनारस के बाद कहां ?
बात सही भी है क्‍योंकि कोई आतंकी वारदात आखिरी साबित नहीं होती। मुंबई पर किये गये आतंकी हमले के बाद यह माना जा रहा था कि सरकार शायद अब ऐसे कुछ मुकम्‍मल इंतजामात करेगी कि कोई आतंकी संगठन कहीं किसी वारदात को अंजाम नहीं दे पायेगा लेकिन यह विश्‍वास टूट गया।
जब आतंकवादी किसी एक जगह को बार-बार टारगेट बना सकते हैं तो उनके लिए किसी नई जगह पर वारदात करना और भी आसान है। बनारस को फिर टारगेट बनाकर उन्‍होंने यह संदेश दिया है कि वह जब चाहें और जहां चाहें, अपनी नापाक हरकतों को अंजाम दे सकते हैं। रही बात किसी नई जगह की तो कहीं भी कुछ करने को स्‍वतंत्र हैं।
जिन प्रमुख स्‍थानों पर आतंकी साया मंडराने की सूचनाएं मिलती रहती हैं, उनमें मथुरा तथा आगरा शामिल हैं। अब अगर बात करें यहां की सुरक्षा-व्‍यवस्‍था को लेकर तो वह कृष्‍ण जन्‍मभूमि, मथुरा रिफाइनरी तथा ताजमहल तक सीमित है। इसके बाद सब भगवान भरोसे हैं।
मथुरा हो या आगरा, कहीं के जिला प्रशासन को न तो यह मालूम है कि उनके जिलों में कितने मोबाइल उपभोक्‍ता हैं। कितने पोस्‍टपेड कनैक्‍शन हैं और कितने प्रीपेड। उनकी आइडेंटिटी सही है या फर्जी।
यहीं नहीं, पुलिस तथा प्रशासन को तो यह तक नहीं मालूम कि इन दो अति संवेदनशील जिलों में कितने साइबर कैफे हैं और कितने लोग व्‍यक्‍ितगत रूप से इंटरनेट का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। जो इंटरनेट यूजर हैं, उनका पेशा क्‍या है।
इन हालातों में किसी के भी द्वारा इसका दुरुपयोग किया जाना बहुत मामूली बात है। फिर सांप जब डस कर निकल जाता है तब लकीर पीटने की औपचारिकता निभाई जाती है। वो भी तब तक जब तक आम पब्‍िलक का गुस्‍सा ठण्‍डा नहीं पड़ जाता। विरोधियों के तीर चलने बंद नहीं हो जाते। जैसे ही आक्रोश ठण्‍डा पड़ने लगता है, लकीर पीटने की कवायद भी बंद कर दी जाती है। शायद इस इंतजार में कि जब अगली बारदात होगी, तब देखा जायेगा।
शासन-प्रशासन की इसी मानसिकता के कारण संभवत: कोई आतंकी वारदात, आखिरी वारदात साबित नहीं होती।
संभवत: यही वो वजह है जो युवाओं को ऐसा कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है कि कहीं बनारस का ब्‍लास्‍ट नेताओं ने ही जनता का ध्‍यान भ्रष्‍टाचार व महंगाई जैसी लाइलाज समस्‍याओं से हटाने के लिए तो नहीं कराया।
युवाओं की इस सोच को गैरजिम्‍मेदाराना भले ही मान लिया जाए लेकिन पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता क्‍योंकि आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूब चुके हमारे तंत्र का किसी भी हद तक गिर जाना, आश्‍चर्य की बात नहीं रह गई। वह निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ भी कर और करा सकते हैं। किसी भी हद तक जा सकते हैं। वो दंगे-फसाद करा सकते हैं तो बम ब्‍लास्‍ट भी करा सकते हैं।
वो देश का पैसा लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कर सकते हैं तो पैसे की खातिर विदेशी एजेंट भी बन सकते हैं। ऐसे उदाहरण सामने हैं।
फिर कैसे तो जनता यह भरोसा करे कि नेता चाहे कुछ भी कर लें लेकिन देश की संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेंगे। वह कैसे मान ले कि बनारस का ब्‍लास्‍ट आखिरी ब्‍लास्‍ट साबित होगा।
अगर आज कोई युवा फेसबुक पर यह लिख रहा है कि बनारस में ब्‍लास्‍ट आतंकियों की बजाय नेताओं ने तो नहीं कराया, तो इसमें युवक का क्‍या दोष ?

1 टिप्पणी:

  1. aaj ka yuva 90s ke yuva se jyada samajhdaar hai.facebook par wo apne comment yun hi nahi de deta.magar netaon ke liye ye visfote bhi mahaz ek game plan jiske jariye wo bayanbazi ka achhakhasa khel khel lete hain.time paa bhi ho jata hai.bas aur unhen kya chahiye .desh vikas ke baare main sochkar wo apna waqt barbaad nahi karna chahte.

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