पांच राज्यों के इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा की झोली से तीन राज्य एक साथ झटक लिए। इन तीन में से दो राज्य तो ऐसे थे जहां भाजपा पिछले 15 सालों तक लगातार सत्ता में रही। राजस्थान जरूर अकेला ऐसा राज्य है जहां हर चुनाव के बाद सत्ता बदल देने की रिवायत चली आ रही है, लिहाजा इन चुनावों में भी वहां यही हुआ। तेलंगाना और मिजोरम के नतीजों में ऐसा कुछ अप्रत्याशित नहीं है, जिसकी चर्चा जरूरी हो।
मिजोरम में कांग्रेस का गढ़ ढहा जरूर किंतु राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण राज्यों की जीत ने उसकी चर्चा को निरर्थक बना दिया।
किसकी जय, किसकी विजय
हर चुनाव के बाद कुछ बातें प्रमुखता से दोहराई जाती हैं। जैसे कि यह लोकतंत्र की जीत है…जनता की जीत है।
किंतु क्या वाकई कभी किसी चुनाव में आज तक जनता जीत पाई है, क्या लोकतंत्र सही मायनों में विजयी हुआ है ?
15 अगस्त 1947 की रात के बाद से लेकर आज तक क्या वाकई कभी जनता ने कोई अपना प्रतिनिधि चुना है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी तक के चुनाव में क्या जनता की कोई प्रत्यक्ष भूमिका रही है।
प्रधानमंत्री तो दूर, क्या जनता कभी किसी सूबे के मुख्यमंत्री का चुनाव अपनी पसंद से कर पाई है।
कहने को कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री का चयन संसदीय दल और मुख्यमंत्री का चयन विधायक दल की सर्वसम्मति से होता है किंतु यह कितना सच है इससे शायद ही कोई अनभिज्ञ हो।
चुनाव से पहले या चुनाव के बाद, नेता का चुनाव पार्टी आलाकमान ही तय करते आए हैं। जन प्रतिनिधि तो मात्र अंगूठा निशानी हैं। यानी आपके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि तत्काल प्रभाव से गुलामों की उस फेहरिस्त का हिस्सा बन जाता है, जिसका काम मात्र हाथ उठाकर हाजिरी लगाने का होता है न कि मत व्यक्त करने का।
गुलामी की परंपरा
ऐसा इसलिए कि फिरंगियों की दासता से मुक्ति मिलने के बावजूद हम आज तक गुलामी की परंपरा से मुक्त नहीं हो पाए। शरीर से भले ही हमें मुक्ति मिल गई हो परंतु मानसिक दासता हमारी रग-रग का हिस्सा है।
लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व मतदान भी हर स्तर पर गुलामी की छाया में संपन्न होता रहा है और हम उसी दास परंपरा का जश्न मनाते आ रहे हैं।
कोई कांग्रेस का गुलाम है तो कोई भाजपा का, कोई सपा का पिठ्ठू है तो कोई बसपा का। किसी ने जाने-अनजाने राष्ट्रीय लोकदल की दासता स्वीकार कर रखी है तो किसी ने अपना मन-मस्तिष्क एक खास नेता के लिए गिरवी रख दिया है।
देखा जाए तो सवा सौ करोड़ की आबादी किसी न किसी रूप में, किसी न किसी नेता या दल की जड़ खरीद गुलाम बनकर रह गई है। उसकी सोचने-समझने की शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी है कि वह अब इस दासता से मुक्ति का मार्ग तक तलाशना भूल गई है।
क्या याद आता है पिछले 70 वर्षों में हुआ ऐसा कोई चुनाव जिस पर दलगत राजनीति हावी न रही हो या जिसने सही अर्थों में जनता को अपना नेता चुनने का अधिकार दिया हो।
देश का सबसे पहला जुमला था वो, जब कहा गया था कि लोकतंत्र में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार का चुनाव किया जाता है।
हकीकत यह है कि स्वतंत्र भारत में हमेशा गुलामों द्वारा गुलामों के लिए गुलामों की सरकार चुनी गई है। देश या प्रदेश, हर जगह यही होता आया है।
हो भी क्यों न, जब हमारी अपनी कोई सोच ही नहीं है। हमारी प्रतिबद्धता किसी न किसी पार्टी या व्यक्ति के लिए है, राष्ट्र के लिए नहीं।
राष्ट्र के लिए प्रतिबद्धता दलगत राजनीति की मोहताज नहीं होती और इस देश की जनता दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं चाहती।
यूं भी कहा जाता है कि भीड़ का कोई दिमाग नहीं होता, इसलिए भीड़चाल और भेड़चाल में कोई फर्क नहीं होता। दोनों उसी राह को पकड़ लेती हैं जो उन्हें दिखा दी जाती है।
वर्तमान भारत भीड़तंत्र से संचालित है, लोकतंत्र से नहीं और इसीलिए न लोक बचा है और न तंत्र।
चुनाव इस भीड़तंत्र को बनाए रखने की वो रस्म अदायगी है जिसके जरिए राजनीतिक दल अपने-अपने गुलामों की गणना करते रहते हैं।
अगर यह सच न होता तो स्वतंत्र भारत साल-दर-साल तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रहा होता और आज उस मुकाम पर जा पहुंचता जहां दुनिया के तमाम दूसरे मुल्क हमसे सीख लेते दिखाई पड़ते।
क्या कुछ बदल पाएगा
जिन तीन राज्यों की जीत पर कांग्रेस आज फूली नहीं समा रही और भाजपा अपनी हार की समीक्षा कर रही है, उन राज्यों में क्या अब ऐसा कुछ होने जा रहा है जो आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक बनेगा।
क्या पंद्रह-पंद्रह वर्षों के शासनकाल में भाजपा अपने शासित राज्यों से गरीबी, भुखमरी, भय, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, बेरोजगारी जैसी समस्याएं समाप्त कर पाई।
क्या कांग्रेस ने अपने पूर्ववर्ती कार्यकाल में इन समस्याओं का समाधान कर दिया था और भाजपा ने आते ही इन्हें पुनर्जीवित कर डाला।
क्या देश पर कांग्रेस के लंबे शासनकाल में आम जनता की सुनवाई होती थी, और क्या आज भी आम जनता की सुनवाई बेरोकटोक होती है।
ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनका उत्तर या तो किसी के पास है ही नहीं या कोई देना नहीं चाहता क्योंकि उत्तर के नाम पर आंकड़े हैं तथा आंकड़ों की भाषा सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों के बाजीगरों को ही समझ में आती है। संभवत: इसीलिए किसी भी समस्या का आज तक मुकम्मल समाधान नहीं हो पाया।
धरातल पर देखने जाएं तो पता लगता है कि नौकरशाहों की मानसिकता में आज तक कोई बदलाव नहीं आया। वो परतंत्र भारत में भी खुद को शासक समझते थे और आज भी शासक ही बने हुए हैं। कहने को वो जनसेवक हैं किंतु जनता से उन्हें बदबू आती है। विशिष्टता उनके खून में इस कदर रच-बस चुकी है कि शिष्टता कहीं रह ही नहीं गई।
जिस तरह सड़क पर रेंगने वाला गया-गुजरा व्यक्ति भी नेता बनते ही अतिविशिष्ट की श्रेणी को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार जनसामान्य के बीच से नौकरशाही पाने वाला भी स्वयं को जनसामान्य का भाग्यविधाता समझ बैठता है।
यही कारण है कि सत्ताएं भले ही बदल जाएं लेकिन बदलाव किसी स्तर पर नहीं होता। न पुलिसिया कार्यशैली बदलती है और न प्रशासनिक ढर्रे में कोई बदलाव आता है।
सत्ता के साथ अधिकारियों के चेहरे बेशक बदलते हैं परंतु उनके चाल- चरित्र और आचार-व्यवहार जस के तस रहते हैं। जनता के पास यदि दलगत राजनीति का कोई विकल्प नहीं है तो सत्ताधीशों के पास भी नौकरशाही का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है।
दिखाई चाहे यह देता है कि देश की दशा और दिशा नेता तय करते हैं किंतु कड़वा सच यह है कि देश की नियति नौकरशाह निर्धारित करते हैं। हर सरकार की नीति और नीयत का निर्धारण नौकरशाही के क्रिया-कलापों पर निर्भर करता है। नौकरशाही उसे जिस रूप में पेश कर दे, उसी रूप में उसका प्रतिफल सामने आता है। नौकरशाही में विकल्प हीनता और निरंकुशता का ही परिणाम है कि केंद्र से लेकर तमाम राज्यों की सरकारों को एक ओर जहां अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर जनता का विश्वास जीतने में परेशानी हो रही है।
समाधान क्या
इन हालातों में एक अहम सवाल यह खड़ा होना स्वाभाविक है कि क्या 70 सालों से रटे-रटाए ढर्रे पर चल रही इस व्यवस्था को बदलने का कोई रास्ता है भी और क्या ऐसा कोई समाधान मिल सकता है जिसके माध्यम से हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के उच्च मानदण्ड स्थापित कर सकें तथा सही मायनों में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार चुनने का मार्ग प्रशस्त कर पाएं।
इसका एकमात्र उपाय है “राइट टू रिकाल”। जिस दिन जनता को यह अधिकार प्राप्त हो गया, उस दिन निश्चित ही एक ऐसे बड़े परिवर्तन की राह खुल जाएगी जिससे देश और देशवासियों का भाग्योदय संभव है।
सामान्य तौर पर यह मात्र एक अधिकार प्रतीत होता है परंतु यही वो सबसे बड़ा जरिया है जिससे नेताओं की देश व देशवासियों के प्रति जिम्मेदारी तय की जा सकती है। जिससे जनता पांच साल बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करने से निजात पा सकती है और नेताओं को जब चाहे उनकी औकात बता सकती है। हालांकि यह अकेला उपाय काफी नहीं है।
इसके साथ कुछ ऐसे और उपाय भी करने होंगे जिनसे राजनीति शत-प्रतिशत लाभ का व्यवसाय न बनी रहे और राजनेताओं की जवाबदेही भी निर्धारित हो।
उदाहरण के लिए उनके वेतन-भत्तों की वर्तमान व्यवस्था, सुख-सुविधा और सुरक्षा के मानक, चारों ओर फैलने वाली व्यावसायिक गतिविधियां तथा उनके साथ-साथ उनके परिजनों की भी आमदनी के विभिन्न ज्ञात एवं अज्ञात स्त्रोतों का आकलन।
कुछ ऐसी ही व्यवस्था नौकरशाहों के लिए भी लागू हो जिससे वो अपने-अपने राजनीतिक आकाओं की शह पर मनमानी न कर सकें और नेताओं की बजाय जनता के प्रति लॉयल्टी साबित करें।
यदि ऐसा होता है तो अब तक एक-दूसरे की पूरक बनी हुई विधायिका व कार्यपालिका का गठजोड़ टूटेगा और इन्हें जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास होगा।
और यदि ऐसा कुछ नहीं होता तथा जर्जर हो चुकी व्यवस्थाओं का यही प्रारूप कायम रहता है तो निश्चित जानिए कि सरकारें बदलने का सिलसिला तो जारी रहेगा परंतु देश कभी नहीं बदल सकेगा।
शारीरिक तौर पर स्वतंत्रता दुनिया को दिखाई देती रहेगी किंतु मानसिक स्वतंत्रता कभी हासिल नहीं हो पाएगी।
हजारों साल से चला आ रहा गुलामी का सिलसिला यदि तोड़ना है तो आमजन को उस मानसिक गुलामी से मुक्ति पानी होगी जिसके तहत वह कठपुतली की तरह नेताओं की डोर से बंधा है। दलगत राजनीति के हाथ का खिलौना बना अपने ही द्वारा संसद अथवा विधानसभा में पहुंचाए गए लोगों को माई-बाप समझता है। उनके एक इशारे पर जान देने और जान लेने के लिए आमादा रहता है।
मतपत्र पर ठप्पा लगाने की व्यवस्था गुजरे जमाने की बात हो चुकी हो तो क्या, मशीन का बटन भी अपने-अपने नेता और अपने-अपने दल के कहने पर लगाता है। वो भी बिना यह सोचे-समझे कि उस दल का प्रत्याशी संसद या विधानसभा में बैठने की योग्यता रखता है या नहीं। उसका सामान्य ज्ञान, जनसामान्य जितना है भी या नहीं।
बरगलाने के लिए कहा जाता है कि देश ने बहुत तरक्की की है और हर युग में की है परंतु सच्चाई यह नहीं है। सच्चाई यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाला मुल्क आजतक पाकिस्तान जैसे पिद्दीभर देश से निपटने की पर्याप्त ताकत नहीं रखता। आतंकवादियों को सही अर्थों में मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाता और सेना की आधी से अधिक ताकत को अपने ही घर की सुरक्षा करने में जाया कर रहा है।
आंखें खोलकर देखेंगे तो साफ-साफ पता लगेगा कि इन सारी समस्याओं की जड़ में वही रटी-रटाई व्यवस्थाएं हैं जिन्हें बड़े गर्व के साथ हम लोकतंत्र के स्तंभ कहते हैं।
हर व्यवस्था को समय और परिस्थितियों के अनुरूप तब्दीली की दरकार होती है। भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था बड़ी शिद्दत के साथ बदलाव का इंतजार कर रही है। एक ऐसी व्यवस्था जिससे सही अर्थों में लोकतंत्र गौरवान्वित हो और गौरवान्वित हों वो लोग जिनके लिए यह व्यवस्था कायम की गई थी।
ऐसी किसी व्यवस्था के लिए सबसे पहले देश व देशवासियों को अंग्रेजों से मिली शारीरिक स्वतंत्रता का लबादा अपने शरीर से उतार फेंकना होगा और मानसिक स्वतंत्रता अपनानी होगी ताकि हम अपने लिए न सिर्फ सही प्रतिनिधि बल्कि सही नेतृत्व भी चुन सकें।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
मिजोरम में कांग्रेस का गढ़ ढहा जरूर किंतु राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण राज्यों की जीत ने उसकी चर्चा को निरर्थक बना दिया।
किसकी जय, किसकी विजय
हर चुनाव के बाद कुछ बातें प्रमुखता से दोहराई जाती हैं। जैसे कि यह लोकतंत्र की जीत है…जनता की जीत है।
किंतु क्या वाकई कभी किसी चुनाव में आज तक जनता जीत पाई है, क्या लोकतंत्र सही मायनों में विजयी हुआ है ?
15 अगस्त 1947 की रात के बाद से लेकर आज तक क्या वाकई कभी जनता ने कोई अपना प्रतिनिधि चुना है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी तक के चुनाव में क्या जनता की कोई प्रत्यक्ष भूमिका रही है।
प्रधानमंत्री तो दूर, क्या जनता कभी किसी सूबे के मुख्यमंत्री का चुनाव अपनी पसंद से कर पाई है।
कहने को कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री का चयन संसदीय दल और मुख्यमंत्री का चयन विधायक दल की सर्वसम्मति से होता है किंतु यह कितना सच है इससे शायद ही कोई अनभिज्ञ हो।
चुनाव से पहले या चुनाव के बाद, नेता का चुनाव पार्टी आलाकमान ही तय करते आए हैं। जन प्रतिनिधि तो मात्र अंगूठा निशानी हैं। यानी आपके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि तत्काल प्रभाव से गुलामों की उस फेहरिस्त का हिस्सा बन जाता है, जिसका काम मात्र हाथ उठाकर हाजिरी लगाने का होता है न कि मत व्यक्त करने का।
गुलामी की परंपरा
ऐसा इसलिए कि फिरंगियों की दासता से मुक्ति मिलने के बावजूद हम आज तक गुलामी की परंपरा से मुक्त नहीं हो पाए। शरीर से भले ही हमें मुक्ति मिल गई हो परंतु मानसिक दासता हमारी रग-रग का हिस्सा है।
लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व मतदान भी हर स्तर पर गुलामी की छाया में संपन्न होता रहा है और हम उसी दास परंपरा का जश्न मनाते आ रहे हैं।
कोई कांग्रेस का गुलाम है तो कोई भाजपा का, कोई सपा का पिठ्ठू है तो कोई बसपा का। किसी ने जाने-अनजाने राष्ट्रीय लोकदल की दासता स्वीकार कर रखी है तो किसी ने अपना मन-मस्तिष्क एक खास नेता के लिए गिरवी रख दिया है।
देखा जाए तो सवा सौ करोड़ की आबादी किसी न किसी रूप में, किसी न किसी नेता या दल की जड़ खरीद गुलाम बनकर रह गई है। उसकी सोचने-समझने की शक्ति इतनी क्षीण हो चुकी है कि वह अब इस दासता से मुक्ति का मार्ग तक तलाशना भूल गई है।
क्या याद आता है पिछले 70 वर्षों में हुआ ऐसा कोई चुनाव जिस पर दलगत राजनीति हावी न रही हो या जिसने सही अर्थों में जनता को अपना नेता चुनने का अधिकार दिया हो।
देश का सबसे पहला जुमला था वो, जब कहा गया था कि लोकतंत्र में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार का चुनाव किया जाता है।
हकीकत यह है कि स्वतंत्र भारत में हमेशा गुलामों द्वारा गुलामों के लिए गुलामों की सरकार चुनी गई है। देश या प्रदेश, हर जगह यही होता आया है।
हो भी क्यों न, जब हमारी अपनी कोई सोच ही नहीं है। हमारी प्रतिबद्धता किसी न किसी पार्टी या व्यक्ति के लिए है, राष्ट्र के लिए नहीं।
राष्ट्र के लिए प्रतिबद्धता दलगत राजनीति की मोहताज नहीं होती और इस देश की जनता दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं चाहती।
यूं भी कहा जाता है कि भीड़ का कोई दिमाग नहीं होता, इसलिए भीड़चाल और भेड़चाल में कोई फर्क नहीं होता। दोनों उसी राह को पकड़ लेती हैं जो उन्हें दिखा दी जाती है।
वर्तमान भारत भीड़तंत्र से संचालित है, लोकतंत्र से नहीं और इसीलिए न लोक बचा है और न तंत्र।
चुनाव इस भीड़तंत्र को बनाए रखने की वो रस्म अदायगी है जिसके जरिए राजनीतिक दल अपने-अपने गुलामों की गणना करते रहते हैं।
अगर यह सच न होता तो स्वतंत्र भारत साल-दर-साल तरक्की की सीढ़ियां चढ़ रहा होता और आज उस मुकाम पर जा पहुंचता जहां दुनिया के तमाम दूसरे मुल्क हमसे सीख लेते दिखाई पड़ते।
क्या कुछ बदल पाएगा
जिन तीन राज्यों की जीत पर कांग्रेस आज फूली नहीं समा रही और भाजपा अपनी हार की समीक्षा कर रही है, उन राज्यों में क्या अब ऐसा कुछ होने जा रहा है जो आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक बनेगा।
क्या पंद्रह-पंद्रह वर्षों के शासनकाल में भाजपा अपने शासित राज्यों से गरीबी, भुखमरी, भय, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, बेरोजगारी जैसी समस्याएं समाप्त कर पाई।
क्या कांग्रेस ने अपने पूर्ववर्ती कार्यकाल में इन समस्याओं का समाधान कर दिया था और भाजपा ने आते ही इन्हें पुनर्जीवित कर डाला।
क्या देश पर कांग्रेस के लंबे शासनकाल में आम जनता की सुनवाई होती थी, और क्या आज भी आम जनता की सुनवाई बेरोकटोक होती है।
ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं जिनका उत्तर या तो किसी के पास है ही नहीं या कोई देना नहीं चाहता क्योंकि उत्तर के नाम पर आंकड़े हैं तथा आंकड़ों की भाषा सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों के बाजीगरों को ही समझ में आती है। संभवत: इसीलिए किसी भी समस्या का आज तक मुकम्मल समाधान नहीं हो पाया।
धरातल पर देखने जाएं तो पता लगता है कि नौकरशाहों की मानसिकता में आज तक कोई बदलाव नहीं आया। वो परतंत्र भारत में भी खुद को शासक समझते थे और आज भी शासक ही बने हुए हैं। कहने को वो जनसेवक हैं किंतु जनता से उन्हें बदबू आती है। विशिष्टता उनके खून में इस कदर रच-बस चुकी है कि शिष्टता कहीं रह ही नहीं गई।
जिस तरह सड़क पर रेंगने वाला गया-गुजरा व्यक्ति भी नेता बनते ही अतिविशिष्ट की श्रेणी को प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार जनसामान्य के बीच से नौकरशाही पाने वाला भी स्वयं को जनसामान्य का भाग्यविधाता समझ बैठता है।
यही कारण है कि सत्ताएं भले ही बदल जाएं लेकिन बदलाव किसी स्तर पर नहीं होता। न पुलिसिया कार्यशैली बदलती है और न प्रशासनिक ढर्रे में कोई बदलाव आता है।
सत्ता के साथ अधिकारियों के चेहरे बेशक बदलते हैं परंतु उनके चाल- चरित्र और आचार-व्यवहार जस के तस रहते हैं। जनता के पास यदि दलगत राजनीति का कोई विकल्प नहीं है तो सत्ताधीशों के पास भी नौकरशाही का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है।
दिखाई चाहे यह देता है कि देश की दशा और दिशा नेता तय करते हैं किंतु कड़वा सच यह है कि देश की नियति नौकरशाह निर्धारित करते हैं। हर सरकार की नीति और नीयत का निर्धारण नौकरशाही के क्रिया-कलापों पर निर्भर करता है। नौकरशाही उसे जिस रूप में पेश कर दे, उसी रूप में उसका प्रतिफल सामने आता है। नौकरशाही में विकल्प हीनता और निरंकुशता का ही परिणाम है कि केंद्र से लेकर तमाम राज्यों की सरकारों को एक ओर जहां अदालतों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर जनता का विश्वास जीतने में परेशानी हो रही है।
समाधान क्या
इन हालातों में एक अहम सवाल यह खड़ा होना स्वाभाविक है कि क्या 70 सालों से रटे-रटाए ढर्रे पर चल रही इस व्यवस्था को बदलने का कोई रास्ता है भी और क्या ऐसा कोई समाधान मिल सकता है जिसके माध्यम से हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के उच्च मानदण्ड स्थापित कर सकें तथा सही मायनों में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार चुनने का मार्ग प्रशस्त कर पाएं।
इसका एकमात्र उपाय है “राइट टू रिकाल”। जिस दिन जनता को यह अधिकार प्राप्त हो गया, उस दिन निश्चित ही एक ऐसे बड़े परिवर्तन की राह खुल जाएगी जिससे देश और देशवासियों का भाग्योदय संभव है।
सामान्य तौर पर यह मात्र एक अधिकार प्रतीत होता है परंतु यही वो सबसे बड़ा जरिया है जिससे नेताओं की देश व देशवासियों के प्रति जिम्मेदारी तय की जा सकती है। जिससे जनता पांच साल बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करने से निजात पा सकती है और नेताओं को जब चाहे उनकी औकात बता सकती है। हालांकि यह अकेला उपाय काफी नहीं है।
इसके साथ कुछ ऐसे और उपाय भी करने होंगे जिनसे राजनीति शत-प्रतिशत लाभ का व्यवसाय न बनी रहे और राजनेताओं की जवाबदेही भी निर्धारित हो।
उदाहरण के लिए उनके वेतन-भत्तों की वर्तमान व्यवस्था, सुख-सुविधा और सुरक्षा के मानक, चारों ओर फैलने वाली व्यावसायिक गतिविधियां तथा उनके साथ-साथ उनके परिजनों की भी आमदनी के विभिन्न ज्ञात एवं अज्ञात स्त्रोतों का आकलन।
कुछ ऐसी ही व्यवस्था नौकरशाहों के लिए भी लागू हो जिससे वो अपने-अपने राजनीतिक आकाओं की शह पर मनमानी न कर सकें और नेताओं की बजाय जनता के प्रति लॉयल्टी साबित करें।
यदि ऐसा होता है तो अब तक एक-दूसरे की पूरक बनी हुई विधायिका व कार्यपालिका का गठजोड़ टूटेगा और इन्हें जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास होगा।
और यदि ऐसा कुछ नहीं होता तथा जर्जर हो चुकी व्यवस्थाओं का यही प्रारूप कायम रहता है तो निश्चित जानिए कि सरकारें बदलने का सिलसिला तो जारी रहेगा परंतु देश कभी नहीं बदल सकेगा।
शारीरिक तौर पर स्वतंत्रता दुनिया को दिखाई देती रहेगी किंतु मानसिक स्वतंत्रता कभी हासिल नहीं हो पाएगी।
हजारों साल से चला आ रहा गुलामी का सिलसिला यदि तोड़ना है तो आमजन को उस मानसिक गुलामी से मुक्ति पानी होगी जिसके तहत वह कठपुतली की तरह नेताओं की डोर से बंधा है। दलगत राजनीति के हाथ का खिलौना बना अपने ही द्वारा संसद अथवा विधानसभा में पहुंचाए गए लोगों को माई-बाप समझता है। उनके एक इशारे पर जान देने और जान लेने के लिए आमादा रहता है।
मतपत्र पर ठप्पा लगाने की व्यवस्था गुजरे जमाने की बात हो चुकी हो तो क्या, मशीन का बटन भी अपने-अपने नेता और अपने-अपने दल के कहने पर लगाता है। वो भी बिना यह सोचे-समझे कि उस दल का प्रत्याशी संसद या विधानसभा में बैठने की योग्यता रखता है या नहीं। उसका सामान्य ज्ञान, जनसामान्य जितना है भी या नहीं।
बरगलाने के लिए कहा जाता है कि देश ने बहुत तरक्की की है और हर युग में की है परंतु सच्चाई यह नहीं है। सच्चाई यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाला मुल्क आजतक पाकिस्तान जैसे पिद्दीभर देश से निपटने की पर्याप्त ताकत नहीं रखता। आतंकवादियों को सही अर्थों में मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाता और सेना की आधी से अधिक ताकत को अपने ही घर की सुरक्षा करने में जाया कर रहा है।
आंखें खोलकर देखेंगे तो साफ-साफ पता लगेगा कि इन सारी समस्याओं की जड़ में वही रटी-रटाई व्यवस्थाएं हैं जिन्हें बड़े गर्व के साथ हम लोकतंत्र के स्तंभ कहते हैं।
हर व्यवस्था को समय और परिस्थितियों के अनुरूप तब्दीली की दरकार होती है। भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था बड़ी शिद्दत के साथ बदलाव का इंतजार कर रही है। एक ऐसी व्यवस्था जिससे सही अर्थों में लोकतंत्र गौरवान्वित हो और गौरवान्वित हों वो लोग जिनके लिए यह व्यवस्था कायम की गई थी।
ऐसी किसी व्यवस्था के लिए सबसे पहले देश व देशवासियों को अंग्रेजों से मिली शारीरिक स्वतंत्रता का लबादा अपने शरीर से उतार फेंकना होगा और मानसिक स्वतंत्रता अपनानी होगी ताकि हम अपने लिए न सिर्फ सही प्रतिनिधि बल्कि सही नेतृत्व भी चुन सकें।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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