2018 का कैंलेंडर बदलते ही सर्द हवाओं के बावजूद लोकसभा चुनाव 2019 की सरगर्मियां शुरू हो जाएंगी। खुद प्रधानमंत्री मोदी भी केरल से 06 जनवरी को लोकसभा के चुनाव प्रचार का आगाज़ करने जा रहे हैं।
इस बार के लोकसभा चुनाव यूं तो कई मायनों में संपूर्ण भारत की राजनीति के लिए विशेष अहमियत रखते हैं किंतु जब बात आती है उत्तर प्रदेश की तो जवाब देने से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पेशानी पर भी बल साफ-साफ दिखाई देने लगते हैं।
अमित शाह समय-समय पर यह स्वीकार भी करते रहे हैं कि संभावित गठबंधन से पार्टी के सामने यदि कहीं कोई परेशानी खड़ी हो सकती है तो वह उत्तर प्रदेश ही है।
उत्तर प्रदेश के रास्ते ही केंद्र में सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त होने की कहावत वैसे तो काफी पुरानी है लेकिन 2014 के चुनावों ने इस कहावत में तब चार चांद लगा दिए जब भाजपा को यहां से छप्पर फाड़ विजय प्राप्त हुई। इस विजय ने ही भाजपा को इतनी मजबूती प्रदान की कि वह सरकार चलाने के लिए एनडीए के किसी घटक दल पर आश्रित नहीं रही।
आज एक ओर प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक उत्तर प्रदेश से सांसद हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल और सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र भी यूपी ही है।
देश की दिशा और दशा तय करने वाले राम, कृष्ण और बाबा विश्वनाथ के धाम भी यूपी का हिस्सा हैं। विश्वनाथ के धाम वाराणसी से स्वयं प्रधानमंत्री सांसद हैं और कृष्ण की नगरी मथुरा का प्रतिनिधित्व भाजपा की ही स्टार सांसद हेमा मालिनी कर रही हैं। अयोध्या (फैजाबाद) के सांसद लल्लूसिंह हैं।
वाराणसी से तो 2019 का चुनाव भी प्रधानमंत्री ही लड़ेंगे इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन मथुरा तथा अयोध्या के बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि माना यही जा रहा है कि इन सीटों पर भी हेमा मालिनी और लल्लूसिंह को दोहराया जाएगा।
यदि ऐसा होता है तो न सिर्फ भाजपा के लिए बल्कि गठबंधन प्रत्याशी के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती मथुरा सीट बनने वाली है।
मथुरा ही क्यों
काशी, अयोध्या एवं मथुरा में से मथुरा सीट पर सत्तापक्ष को चुनौती मिलने का बड़ा कारण इसका विकास के पायदान पर काशी और अयोध्या के सामने काफी पीछे रह जाना है जबकि विपक्ष के लिए प्रत्याशी का चयन ही किसी चुनौती से कम नहीं होगा। सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन हो जाने की सूरत में इतना तो तय है कि जाटों का गढ़ होने की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की यह सीट रालोद के खाते में जाएगी किंतु रालोद के लिए यह सीट निकालना टेढ़ी खीर साबित होगा।
रालोद ने 2009 का लोकसभा चुनाव मथुरा से तब जीता था जब उसे भाजपा का समर्थन प्राप्त था अन्यथा इससे पूर्व उनकी बुआ डॉ. ज्ञानवती और दादी गायत्री देवी को भी यहां से हार का मुंह देखना पड़ा था।
रालोद युवराज जयंत चौधरी को पहली बार संसद भेजने वाले मथुरा के मतदाता तब निराश हुए जब जयंत चौधरी ने मथुरा को न तो स्थाई ठिकाना बनाया और न विकास कराने में कोई रुचि ली।
रही-सही कसर लोकसभा चुनाव 2009 के बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनावों ने पूरी कर दी जिसमें जयंत चौधरी मथुरा की मांट सीट से इस कमिटमेंट के साथ उतरे थे कि यदि वह मांट से चुनाव जीत जाते हैं तो लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे और बतौर विधायक क्षेत्रीय जनता की सेवा करेंगे।
दरअसल, जोड़-तोड़ की राजनीति के चलते जयंत चौधरी को उस समय अपने लिए बड़ी संभावना नजर आ रही थी किंतु जैसे ही वह संभावना धूमिल हुई जयंत चौधरी ने मांट सीट से इस्तीफा दे दिया और लोकसभा सदस्य बने रहे।
जयंत चौधरी से क्षेत्रीय लोगों की नाराजगी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस्तीफे से खाली हुई मांट विधानसभा सीट के उपचुनाव में उनका प्रत्याशी हार गया और अजेय समझे जाने वाले जिन श्यामसुंदर शर्मा को जयंत चौधरी हराने में सफल हुए थे, वह एक बार फिर चुनाव जीत गए।
यही नहीं, 2017 के विधानसभा चुनावों में भी रालोद उम्मीदवार मांट से फिर चुनाव हार गया।
2014 का लोकसभा चुनाव भी जयंत चौधरी ने मथुरा से लड़ा किंतु इस बार न तो उन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त था और न जनता का। 2009 में रालोद को समर्थन देने वाली भाजपा ने जयंत चौधरी के सामने हेमा मालिनी को चुनाव मैदान में उतारा, नतीजतन जयंत चौधरी 2014 का लोकसभा चुनाव भारी मतों से हार गए।
आज मथुरा की कुल पांच विधानसभा सीटों में से चार पर भाजपा काबिज है जबकि एक बसपा के खाते में है। जाटों का गढ़ मानी जाने वाली मथुरा में फिलहाल रालोद कहीं नहीं है।
रहा सवाल सपा और बसपा का, तो सपा अपने स्वर्णिम काल में भी कभी मथुरा से अपने किसी प्रत्याशी को जीत नहीं दिला सकी। मथुरा उसके लिए हमेशा बंजर बनी रही। हां बसपा ने वो दौर जरूर देखा है जब उसके यहां से तीन विधायक हुआ करते थे। लोकसभा का कोई चुनाव बसपा भी मथुरा से कभी नहीं जीत सकी।
इस नजरिए से देखा जाए तो रालोद के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में जितना फायदा भाजपा के समर्थन से मिला, उतना अब सपा और बसपा दोनों के समर्थन से भी मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि सपा-बसपा का वोट बैंक इस बीच खिसका ही है, बढ़ा तो कतई नहीं है।
जयंत चौधरी के अलावा कोई और
2019 के लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट के साथ अब यह प्रश्न बड़ी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या सपा-बसपा से गठबंधन की सूरत में रालोद मथुरा सीट पर जयंत चौधरी की जगह किसी अन्य प्रत्याशी को चुनाव लड़ा सकता है।
इस प्रश्न का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि रालोद की ओर से भी कुछ ऐसे ही संकेत दिए जा रहे हैं और संभावित प्रत्याशियों की लंबी-चौड़ी लिस्ट तैयार होने लगी है।
ऐसे में इस प्रश्न के साथ एक प्रश्न और स्वाभाविक तौर पर जुड़ जाता है कि क्या जयंत चौधरी के अतिरिक्त भी रालोद के किसी नेता में मथुरा से भाजपा को हराने का माद्दा है?
इस प्रश्न का जवाब देने में रालोद के स्थानीय नेताओं सहित उन नेताओं को भी पसीने आ गए जो मथुरा से लोकसभा चुनाव लड़ने का दम भर रहे हैं।
संभवत: वो जानते हैं कि सपा और बसपा का साथ मिलने के बाद भी रालोद के लिए भाजपा को मथुरा से हराना इतना आसान नहीं होगा। जयंत चौधरी ही एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हो सकते हैं जिनके लिए मान मनौवल करके अपना गणित फिट करने की संभावना दिखाई देती है।
अब बात भाजपा प्रत्याशी की
भाजपा के बारे में सर्वविदित है कि वह अपने उम्मीदवारों का चयन करने में बहुत समय लेती है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी हेमा मालिनी को सामने लाने में बहुत देर की गई थी किंतु 2019 के लिए अब तक हेमा मालिनी को ही दोहराए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। स्वयं हेमा मालिनी भी दूसरा चुनाव मथुरा से लड़ने की ही इच्छा जता चुकी हैं और जनता से अपने लिए और पांच साल मांग भी चुकी हैं। हालांकि इस बार मथुरा से कई अन्य भाजपा नेता भी ताल ठोक रहे हैं और उनमें मथुरा से विधायक प्रदेश सरकार के दोनों कबीना मंत्री श्रीकांत शर्मा व लक्ष्मीनारायण चौधरी भी शामिल हैं। इनके अलावा कई युवा नेता और कुछ पुराने चावल उम्मीद लगाए हुए हैं।
ये बात अलग है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को एक लंबे समय से मथुरा में पार्टी के लिए कोई ऊर्जावान नेता नजर नहीं आता और इसीलिए उसने चौधरी तेजवीर सिंह के बाद किसी स्थानीय नेता को लोकसभा चुनाव लड़ाने का जोखिम मोल नहीं लिया।
बहरहाल, इतना तय है कि 2019 में मथुरा की सीट जीतना भाजपा के लिए भी उतना आसान नहीं होगा जितना 2014 में रहा था। प्रथम तो 2014 जैसी मोदी लहर अब दिखाई नहीं देती और दूसरे हेमा मालिनी का ग्लैमर भी ब्रजवासियों के सिर चढ़कर बोलने का समय बीत गया।
हेमा मालिनी मथुरा में काफी काम कराने के चाहे जितने भी दावे करें और भाजपा मथुरा को वाराणसी बनाने के कितने ही ख्वाब दिखाए किंतु हकीकत यही है कि धरातल पर कृष्ण की नगरी विकास के लिए तरस रही है। नि:संदेह योजनाएं तो तमाम हैं परंतु उनका नतीजा कहीं दिखाई नहीं देता। कोढ़ में खाज यह और कि यहां का सांगठनिक ढांचा चरमरा रहा है, साथ ही जनप्रतिनिधियों के बीच कलह की कहानियां भी तैर रही हैं।
माना कि मथुरा, भाजपा के लिए वाराणसी व अयोध्या जैसा महत्व नहीं रखती लेकिन महत्व तो रखती है क्योंकि महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि भी ठीक उसी तरह कोई दूसरी नहीं हो सकती जिस तरह मर्यादा पुरुषात्तम श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के अन्यत्र नहीं हो सकती।
1992 से पहले भाजपा भी विहिप और बजरंग दल के सुर में सुर मिलाकर कहती थी कि ” राम, कृष्ण, विश्वनाथ, तीनों लेंगे एकसाथ”।
राजनीति के धरातल पर आज भाजपा की झोली में अयोध्या, मथुरा और काशी तीनों एकसाथ हैं लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या यह तीनों 2019 में भी भाजपा अपनी झोली में रख पाएगी।
निश्चित ही यह भाजपा के लिए 2014 जितना आसान काम नहीं होगा लेकिन आसान सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन प्रत्याशी के लिए भी नहीं होगा। तब तो बिल्कुल नहीं जब मथुरा की सीट रालोद के खाते में जाने पर भी रालोद अपने युवराज की जगह किसी दूसरे उम्मीदवार पर दांव लगाने की सोच रहा हो।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
इस बार के लोकसभा चुनाव यूं तो कई मायनों में संपूर्ण भारत की राजनीति के लिए विशेष अहमियत रखते हैं किंतु जब बात आती है उत्तर प्रदेश की तो जवाब देने से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की पेशानी पर भी बल साफ-साफ दिखाई देने लगते हैं।
अमित शाह समय-समय पर यह स्वीकार भी करते रहे हैं कि संभावित गठबंधन से पार्टी के सामने यदि कहीं कोई परेशानी खड़ी हो सकती है तो वह उत्तर प्रदेश ही है।
उत्तर प्रदेश के रास्ते ही केंद्र में सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त होने की कहावत वैसे तो काफी पुरानी है लेकिन 2014 के चुनावों ने इस कहावत में तब चार चांद लगा दिए जब भाजपा को यहां से छप्पर फाड़ विजय प्राप्त हुई। इस विजय ने ही भाजपा को इतनी मजबूती प्रदान की कि वह सरकार चलाने के लिए एनडीए के किसी घटक दल पर आश्रित नहीं रही।
आज एक ओर प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक उत्तर प्रदेश से सांसद हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल और सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र भी यूपी ही है।
देश की दिशा और दशा तय करने वाले राम, कृष्ण और बाबा विश्वनाथ के धाम भी यूपी का हिस्सा हैं। विश्वनाथ के धाम वाराणसी से स्वयं प्रधानमंत्री सांसद हैं और कृष्ण की नगरी मथुरा का प्रतिनिधित्व भाजपा की ही स्टार सांसद हेमा मालिनी कर रही हैं। अयोध्या (फैजाबाद) के सांसद लल्लूसिंह हैं।
वाराणसी से तो 2019 का चुनाव भी प्रधानमंत्री ही लड़ेंगे इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन मथुरा तथा अयोध्या के बारे में अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि माना यही जा रहा है कि इन सीटों पर भी हेमा मालिनी और लल्लूसिंह को दोहराया जाएगा।
यदि ऐसा होता है तो न सिर्फ भाजपा के लिए बल्कि गठबंधन प्रत्याशी के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती मथुरा सीट बनने वाली है।
मथुरा ही क्यों
काशी, अयोध्या एवं मथुरा में से मथुरा सीट पर सत्तापक्ष को चुनौती मिलने का बड़ा कारण इसका विकास के पायदान पर काशी और अयोध्या के सामने काफी पीछे रह जाना है जबकि विपक्ष के लिए प्रत्याशी का चयन ही किसी चुनौती से कम नहीं होगा। सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन हो जाने की सूरत में इतना तो तय है कि जाटों का गढ़ होने की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की यह सीट रालोद के खाते में जाएगी किंतु रालोद के लिए यह सीट निकालना टेढ़ी खीर साबित होगा।
रालोद ने 2009 का लोकसभा चुनाव मथुरा से तब जीता था जब उसे भाजपा का समर्थन प्राप्त था अन्यथा इससे पूर्व उनकी बुआ डॉ. ज्ञानवती और दादी गायत्री देवी को भी यहां से हार का मुंह देखना पड़ा था।
रालोद युवराज जयंत चौधरी को पहली बार संसद भेजने वाले मथुरा के मतदाता तब निराश हुए जब जयंत चौधरी ने मथुरा को न तो स्थाई ठिकाना बनाया और न विकास कराने में कोई रुचि ली।
रही-सही कसर लोकसभा चुनाव 2009 के बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनावों ने पूरी कर दी जिसमें जयंत चौधरी मथुरा की मांट सीट से इस कमिटमेंट के साथ उतरे थे कि यदि वह मांट से चुनाव जीत जाते हैं तो लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देंगे और बतौर विधायक क्षेत्रीय जनता की सेवा करेंगे।
दरअसल, जोड़-तोड़ की राजनीति के चलते जयंत चौधरी को उस समय अपने लिए बड़ी संभावना नजर आ रही थी किंतु जैसे ही वह संभावना धूमिल हुई जयंत चौधरी ने मांट सीट से इस्तीफा दे दिया और लोकसभा सदस्य बने रहे।
जयंत चौधरी से क्षेत्रीय लोगों की नाराजगी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस्तीफे से खाली हुई मांट विधानसभा सीट के उपचुनाव में उनका प्रत्याशी हार गया और अजेय समझे जाने वाले जिन श्यामसुंदर शर्मा को जयंत चौधरी हराने में सफल हुए थे, वह एक बार फिर चुनाव जीत गए।
यही नहीं, 2017 के विधानसभा चुनावों में भी रालोद उम्मीदवार मांट से फिर चुनाव हार गया।
2014 का लोकसभा चुनाव भी जयंत चौधरी ने मथुरा से लड़ा किंतु इस बार न तो उन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त था और न जनता का। 2009 में रालोद को समर्थन देने वाली भाजपा ने जयंत चौधरी के सामने हेमा मालिनी को चुनाव मैदान में उतारा, नतीजतन जयंत चौधरी 2014 का लोकसभा चुनाव भारी मतों से हार गए।
आज मथुरा की कुल पांच विधानसभा सीटों में से चार पर भाजपा काबिज है जबकि एक बसपा के खाते में है। जाटों का गढ़ मानी जाने वाली मथुरा में फिलहाल रालोद कहीं नहीं है।
रहा सवाल सपा और बसपा का, तो सपा अपने स्वर्णिम काल में भी कभी मथुरा से अपने किसी प्रत्याशी को जीत नहीं दिला सकी। मथुरा उसके लिए हमेशा बंजर बनी रही। हां बसपा ने वो दौर जरूर देखा है जब उसके यहां से तीन विधायक हुआ करते थे। लोकसभा का कोई चुनाव बसपा भी मथुरा से कभी नहीं जीत सकी।
इस नजरिए से देखा जाए तो रालोद के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में जितना फायदा भाजपा के समर्थन से मिला, उतना अब सपा और बसपा दोनों के समर्थन से भी मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि सपा-बसपा का वोट बैंक इस बीच खिसका ही है, बढ़ा तो कतई नहीं है।
जयंत चौधरी के अलावा कोई और
2019 के लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट के साथ अब यह प्रश्न बड़ी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या सपा-बसपा से गठबंधन की सूरत में रालोद मथुरा सीट पर जयंत चौधरी की जगह किसी अन्य प्रत्याशी को चुनाव लड़ा सकता है।
इस प्रश्न का महत्व इसलिए बढ़ जाता है क्योंकि रालोद की ओर से भी कुछ ऐसे ही संकेत दिए जा रहे हैं और संभावित प्रत्याशियों की लंबी-चौड़ी लिस्ट तैयार होने लगी है।
ऐसे में इस प्रश्न के साथ एक प्रश्न और स्वाभाविक तौर पर जुड़ जाता है कि क्या जयंत चौधरी के अतिरिक्त भी रालोद के किसी नेता में मथुरा से भाजपा को हराने का माद्दा है?
इस प्रश्न का जवाब देने में रालोद के स्थानीय नेताओं सहित उन नेताओं को भी पसीने आ गए जो मथुरा से लोकसभा चुनाव लड़ने का दम भर रहे हैं।
संभवत: वो जानते हैं कि सपा और बसपा का साथ मिलने के बाद भी रालोद के लिए भाजपा को मथुरा से हराना इतना आसान नहीं होगा। जयंत चौधरी ही एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हो सकते हैं जिनके लिए मान मनौवल करके अपना गणित फिट करने की संभावना दिखाई देती है।
अब बात भाजपा प्रत्याशी की
भाजपा के बारे में सर्वविदित है कि वह अपने उम्मीदवारों का चयन करने में बहुत समय लेती है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी हेमा मालिनी को सामने लाने में बहुत देर की गई थी किंतु 2019 के लिए अब तक हेमा मालिनी को ही दोहराए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। स्वयं हेमा मालिनी भी दूसरा चुनाव मथुरा से लड़ने की ही इच्छा जता चुकी हैं और जनता से अपने लिए और पांच साल मांग भी चुकी हैं। हालांकि इस बार मथुरा से कई अन्य भाजपा नेता भी ताल ठोक रहे हैं और उनमें मथुरा से विधायक प्रदेश सरकार के दोनों कबीना मंत्री श्रीकांत शर्मा व लक्ष्मीनारायण चौधरी भी शामिल हैं। इनके अलावा कई युवा नेता और कुछ पुराने चावल उम्मीद लगाए हुए हैं।
ये बात अलग है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को एक लंबे समय से मथुरा में पार्टी के लिए कोई ऊर्जावान नेता नजर नहीं आता और इसीलिए उसने चौधरी तेजवीर सिंह के बाद किसी स्थानीय नेता को लोकसभा चुनाव लड़ाने का जोखिम मोल नहीं लिया।
बहरहाल, इतना तय है कि 2019 में मथुरा की सीट जीतना भाजपा के लिए भी उतना आसान नहीं होगा जितना 2014 में रहा था। प्रथम तो 2014 जैसी मोदी लहर अब दिखाई नहीं देती और दूसरे हेमा मालिनी का ग्लैमर भी ब्रजवासियों के सिर चढ़कर बोलने का समय बीत गया।
हेमा मालिनी मथुरा में काफी काम कराने के चाहे जितने भी दावे करें और भाजपा मथुरा को वाराणसी बनाने के कितने ही ख्वाब दिखाए किंतु हकीकत यही है कि धरातल पर कृष्ण की नगरी विकास के लिए तरस रही है। नि:संदेह योजनाएं तो तमाम हैं परंतु उनका नतीजा कहीं दिखाई नहीं देता। कोढ़ में खाज यह और कि यहां का सांगठनिक ढांचा चरमरा रहा है, साथ ही जनप्रतिनिधियों के बीच कलह की कहानियां भी तैर रही हैं।
माना कि मथुरा, भाजपा के लिए वाराणसी व अयोध्या जैसा महत्व नहीं रखती लेकिन महत्व तो रखती है क्योंकि महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि भी ठीक उसी तरह कोई दूसरी नहीं हो सकती जिस तरह मर्यादा पुरुषात्तम श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के अन्यत्र नहीं हो सकती।
1992 से पहले भाजपा भी विहिप और बजरंग दल के सुर में सुर मिलाकर कहती थी कि ” राम, कृष्ण, विश्वनाथ, तीनों लेंगे एकसाथ”।
राजनीति के धरातल पर आज भाजपा की झोली में अयोध्या, मथुरा और काशी तीनों एकसाथ हैं लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या यह तीनों 2019 में भी भाजपा अपनी झोली में रख पाएगी।
निश्चित ही यह भाजपा के लिए 2014 जितना आसान काम नहीं होगा लेकिन आसान सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन प्रत्याशी के लिए भी नहीं होगा। तब तो बिल्कुल नहीं जब मथुरा की सीट रालोद के खाते में जाने पर भी रालोद अपने युवराज की जगह किसी दूसरे उम्मीदवार पर दांव लगाने की सोच रहा हो।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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