शनिवार, 5 नवंबर 2011

लोकतंत्र के तानाशाह

जिस देश का प्रधानमंत्री यह कहे कि उसे नहीं पता महंगाई कब तक और कैसे कम होगी। जिस देश का प्रधानमंत्री यह कहे कि उसे नहीं मालूम देश का कितना काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। जिस देश का प्रधानमंत्री कहे कि वह ज्‍योतिषी नहीं है इसलिए महंगाई व कालेधन के बारे में कोई सटीक जवाब नहीं दे सकता। जिस देश का प्रधानमंत्री आयेदिन की जा रही पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्‍य वृद्धि पर कहे कि उन्‍हें ना तो कम किया जा सकता है और ना नियंत्रित किया जाना संभव है।
जिस देश का गृहमंत्री आतंकवादी हमलों के बाद कहे कि ऐसे हमले होना हमारी खुफिया एजेंसियों की नाकामी नहीं है। जिस देश की सत्‍ताधारी पार्टी का युवराज तथा कथित भावी प्रधानमंत्री कहे कि सभी आतंकी हमलों को नहीं रोका जा सकता।
जिस देश का वित्‍तमंत्री कहे कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ने से महंगाई और बढ़ेगी लेकिन हम कर कुछ नहीं सकते। जिस देश का कृषि मंत्री कहे कि हमारे पास अनाज को सुरक्षित रखने का बेशक कोई इंतजाम नहीं है इसलिए हम उसे सड़ने से नहीं बचा सकते। वह यह भी कहे कि हम अनाज को सड़ने देखने के बावजूद उसे गरीबों में नहीं बांट सकते। उसे कम कीमत पर भी नहीं बेच सकते।
जिस देश का प्रधानमंत्री अनाज को सड़ाने की जगह उसे गरीबों में बांट देने के सर्वोच्‍च न्‍यायालय के आदेश पर कहे कि न्‍यायालय को नीतिगत मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है।
और जिस देश का प्रधानमंत्री अपने ही मंत्रियों को भ्रष्‍टाचार की एतिहासिक इबारत लिखते हुए देखकर भी मूकदर्शक बना रहे तथा आमजन को राहत देना तो दूर राहतभरी बात तक न कहता हो, उस देश को क्‍या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जा सकता है ?
क्‍या लोकतंत्र का मतलब सत्‍ता पर काबिज लोगों का निरंकुश, बेशर्म तथा निर्लज्‍ज हो जाना तथा अधिकारों का पूर्णत: दुरुपयोग करने का अधिकार प्राप्‍त कर लेना है ?
यदि इसे लोकतंत्र कहते हैं तो तानाशाही किसे कहेंगे ?
पद एवं सत्‍ता से प्राप्‍त अधिकारों की सीमा को लांघना तानाशाही कहलाता है क्‍योंकि सीमा लांघने के बाद ही अधिकार, अधिकार न रहकर तानाशाही बन जाते है।
विश्‍वभर में मान्‍य तानाशाही की इस परिभाषा के मुताबिक तो हमारे देश के वर्तमान शासकों को तानाशाह कहना कुछ गलत नहीं होगा।
इन्‍हें तानाशाह कहना यदि गलत है तो फिर यह मजबूर हैं। अगर यह मजबूर हैं तो जाहिर है कि जिन पदों पर बैठे हैं, उनके लायक ही नहीं हैं। इन्‍हें सत्‍ता से चिपके रहने का कोई अधिकार नहीं रह जाता।
सत्‍ता से जबरन चिपके रहने का केवल एक ही मतलब है और वह यह कि कोई माने या ना माने लेकिन हैं ये तानाशाह ही।
सद्दाम हूसैन, जनरल जियाउल हक, जनरल परवेज मुशर्रफ, कर्नल गद्दाफी या दनिया का इनके जैसा हर तानाशाह खुद को अंत तक लोकतंत्र का सबसे बड़ा हिमायती तथा जनता का शुभचिंतक बताता रहा। यहां तक कि तालिबान और नक्‍सली भी यही कहते हैं कि वो जो करते हैं, सब अपनी जनता की भलाई के लिए करते हैं। लेकिन इसका आशय यह तो नहीं कि ये सब लोग जनता के हितैषी हैं।
क्‍या फर्क है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की उपमा प्राप्‍त इस देश के शासकों तथा विश्‍व के कुख्‍यात तानाशाहों में। बस इतना कि यह लोग महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्‍टाचार जैसे हथियारों से आमजन को तिल-तिल कर मरने पर बाध्‍य कर रहे हैं और उन्‍होंने यह काम सीधे तौर पर किया।
उनके खिलाफ अगर किसी ने आवाज उठाई तो उन्‍होंने उसे तत्‍काल दबा दिया जबकि हमारे शासक ऐसे हालात पैदा कर देते हैं जिनसे शिकायत और शिकायतकर्ता दोनों निपट जाते हैं।
किसी का भी छद्म रूप उसके प्रत्‍यक्ष रूप से कहीं अधिक घातक तथा मारक होता है। हमारे यहां तानाशाही का छद्म रूप व्‍याप्‍त है जो निसंदेह उसके मौलिक रूप से कई गुना अधिक घातक है। पिछले 64 सालों से देश की जनता जिस तथाकथित लोकतंत्र के साये में जी रही है, उसका वीभत्‍स रूप आज दिखाई दे रहा है।
भ्रष्‍टाचार ने जनता का जीना हराम कर रखा है, महंगाई के कारण लोगों का दम निकला जा रहा है, कानून-व्‍यवस्‍था की स्‍थिति बदहाल है, गरीब आदमी के पास न रोटी है और न कपड़ा। उसके नाम पर बनने वाले मकान भी भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। अमीर लगातार अमीर हो रहे हैं और गरीब दिन-प्रतिदिन गरीब।
एक वर्ग है जो सुबह से शाम तक पैसे को खर्च करने के ठिकाने तलाशता है, दूसरा वर्ग अपनी छोटी होती जा रही चादर से तन ढकने के अथक प्रयास में लगा रहता है।  सीमित कमाई में जैसे-तैसे इज्‍जत बचाये रखने की कोशिश करता रहता है, और तीसरा वर्ग हर दिन कुआं खोदकर आधी-अधूरी प्‍यास बुझाता है।
इनके अलावा कुछ और भी वर्ग हैं जिनके लिए उच्‍च मध्‍यम वर्ग तथा ऐसे ही कुछ नाम गढ़ लिये गये हैं। इस तरह कश्‍मीर से लेकर कन्‍याकुमारी तक का भारत खण्‍ड-खण्‍ड है, अखण्‍ड नहीं परन्‍तु देश के शासक वर्ग को इस खण्‍ड-खण्‍ड हो चुके भारत की कोई चिंता नहीं। उसे चिंता होगी भी क्‍यों ?
पेट्रोल 72 रुपये प्रति लीटर की जगह 100 रुपये प्रति लीटर हो जाए,  डीजल भी 75 रुपये लीटर हो जाए और रसोई गैस का सिलैण्‍डर 1000 रुपये में बिकने लगे। आटा, दालें, सब्‍जियां, फल आदि को खरीद पाना लोगों के लिए चाहे कितना ही मुश्‍िकल क्‍यों न हो जाए, शासक वर्ग को क्‍या। इन सब की कीमतें और तीन गुना हो जाएं तो भी सत्‍ता पर काबिज लोगों को क्‍या फर्क पड़ने वाला है।
जब एक बार किसी तरह माननीय का तबका पा जाने वाला व्‍यक्‍ित अपनी सात पीढ़ियों तक के ऐशो-आराम का इंतजाम कर लेता है तो किसी भी माननीय को महंगाई, भ्रष्‍टाचार, बेरोजगारी आदि की चिंता क्‍यों सतायेगी।
जब उनके बच्‍चों के पैदा होने से पहले चांदी तथा सोने की चम्‍मचों का इंतजाम होगा और कालेधन को विदेशी बैंकों में जमा करने का मुकम्‍मल इंतजाम होगा, जब उनके सारे काम एक इशारे पर होते रहेंगे और उनकी सुरक्षा का भी पुख्‍ता इंतजाम होगा तो उन्‍हें आम आदमी के दर्द का अहसास क्‍यों होने लगा।
प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्‍तमंत्री तथा राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों एवं मंत्रियों की बात तो दूर, छोटे से छोटे जनप्रतिनिधि तक अपने अल्‍प अधिकार काल में तमाम सम्‍पत्‍ति व शक्‍ित एकत्र कर लेते हैं। वह शिष्‍ट से विशिष्‍ट कहलाने लगते हैं। उनके आगे भूतपूर्व लग जाने के बाद भी उनकी शक्‍ितयां कमोबेश बरकरार रहती हैं। जो जनता उन्‍हें माननीय का तमगा दिलाती है, उसके लिए उनके दरवाजों पर पहरे बैठा दिये जाते हैं। उसका मान और अपमान करना, माननीयों के मौज पर निर्भर हो जाता है तो वह उसकी चिंता क्‍यों करने लगे। लेकिन यक्ष प्रश्‍न हर युग में खड़ा रहता है इसलिए इस युग में भी खड़ा है।
ऐसा क्‍या है जिसे लोग रात-दिन देखकर भी भूले रहते हैं ? 
धर्मराज युधिष्‍ठिर ने इसका जवाब दे भी दिया था और बताया था कि मृत्‍यु ही एकमात्र शाश्‍वत सत्‍य है। हर व्‍यक्‍ित देखता है कि किसी न किसी दिन उसे भी मृत्‍यु को प्राप्‍त होना है, बावजूद इसके वह कभी उसके बावत सोचता तक नहीं।
जिन तानाशाहों ने बेहिसाब दौलत और असीम शक्‍ितयां हासिल कीं उनका भी हश्र क्‍या हुआ, यह हमारे इन लोकतांत्रिक तानाशाहों से छिपा नहीं है। लीबिया के तानाशाह गद्दाफी के हश्र का ताजा उदाहरण सबके सामने है।
यदि फिर भी वह सोचते हैं कि जिस जनता ने उन्‍हें सर्वोच्‍च सत्‍ता तक पहुंचाया, जिसने उन्‍हें आम से खास बनाया, उसकी परेशानियों की अवहेलना करके, उसके जले पर नमक छिड़क कर तथा उसके दुखों पर अट्टहास करके वह हमेशा शासन करते रहेंगे तो ऐसा सोचना उनकी बहुत बड़ी भूल है।
अधिकारों का अतिक्रमण तथा पद का दुरुपयोग करने वाले लोगों के प्रति समय इतना क्रूर बन जाता है कि आंखों से आंसू की एक बूंद निकालने की इजाजत नहीं देता।
आज जिस तरह हमारा शासक वर्ग बेरहम तथा संवेदनाहीन बना हुआ है, उसे समय रहते समझ लेना चाहिए कि एक राष्‍ट्र उसे सौंपा गया है तो इसलिए नहीं कि वह उसका स्‍वामी बन जाए।
सत्‍ता में मद होता है, यह सच है लेकिन जब मदांध सत्‍ताधारियों को समय की चक्‍की पीसना शुरू करती है तो उसका अंत बहुत भयावह होता है।
पीसे जाने की यह क्रिया कब प्रारंभ हो जाती है, सत्‍ता मद में चूर लोगों को इसका अहसास तक नहीं होता। जब अहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

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