शहर ही नहीं, प्रदेश की नामचीन आवासीय शिक्षण संस्था 'अमरनाथ विद्या आश्रम' के एक हिस्से से कल रेलवे ने तो अवैध निर्माण ध्वस्त कर अपनी जमीन उनके कब्जे से मुक्त करा ली किंतु बड़ा सवाल यह है कि ये शिक्षण संस्थान वाजपेयी बंधुओं के कब्जे से कब तक मुक्त हो सकेगा, और हो सकेगा भी या नहीं। दरअसल, भूतेश्वर रेलवे स्टेशन से मथुरा जंक्शन तक इन दिनों रेलवे अपनी चौथी लाइन बिछाने का कार्य कर रहा है लेकिन इस कार्य में कैलाश नगर तथा अमरनाथ विद्या आश्रम द्वारा किया गया अतिक्रमण बाधा बन रहा था। रेलवे अधिकारियों ने इस अतिक्रमण को हटाने के लिए कई बार नोटिस जारी किए, और अमरनाथ विद्या आश्रम को तो अंतिम नोटिस इसी महीने की 17 तारीख को दिया गया किंतु अमरनाथ विद्या आश्रम के प्रबंधतंत्र ने रेलवे के नोटिस का जवाब तक देना जरूरी नहीं समझा। रेलवे ने अपनी जमीन पर अवैध रूप से बनी अमरनाथ विद्या आश्रम की चारदीवारी तथा गेट को ध्वस्त करने के लिए पहले उनका चिन्हांकन भी किया लेकिन अमरनाथ विद्या आश्रम का प्रबंधतंत्र न कुछ देखने को तैयार था और न सुनने को। आखिर रेलवे ने कल सुरक्षाबलों के सहयोग से अमरनाथ विद्या आश्रम का अवैध निर्माण ध्वस्त कर दिया, जिस पर प्रबंधतंत्र ने जमकर हंगामा किया। क्या कहता है अमरनाथ विद्या आश्रम का प्रबंधतंत्र
इस संबध में पूछे जाने पर अमरनाथ विद्या आश्रम के प्रधानाचार्य अरुण वाजपेयी ने अपने लिखित जवाब में बताया कि बिना किसी पूर्व सूचना के रेलवे प्रशासन की टीम ने बुल्डोजर लेकर शिक्षण संस्था के मुख्य मार्ग की बाउंड्रीवाल को ध्वस्त करना शुरु कर दिया। अरुण वाजपेयी के अनुसार, विद्यालय प्रबंधन ने रेलवे के अधिकारियों से वार्ता करनी चाही तो उन्होंने किसी भी तरह की वार्ता से इंकार कर दिया। यह अनाधिकृत कार्रवाई उस समय की गई, जब अमरनाथ विद्या आश्रम में प्ले ग्रुप से लेकर 12वीं तक के विद्यार्थी शिक्षण कार्य कर रहे थे, जबकि अमरनाथ डिग्री कालेज में छात्राएं विश्वविद्यालय की परीक्षाएं दे रही थीं। रेल प्रशासन ने बाउंड्रीवाल को ध्वस्त करने की कोई भी सूचना नहीं दी। यही नहीं, अचानक शिक्षण संस्थान की विद्युत आपूर्ति बाधित कर दी गयी जिससे परीक्षा दे रहीं छात्राओं के कक्ष में अंधेरा छा गया। विद्यालय प्रबंधन ने रेल अधिकारियों से कहा कि रेलवे पथ के निर्माण में वो रेल प्रशासन के साथ हैं। बच्चों की परीक्षाएं सम्पन्न हो जाने दीजिए, लेकिन इसके बावजूद रेलवे प्रशासन ने बाउंड्रीवाल को ध्वस्त करने के साथ-साथ तमाम लगे वृक्षों को उजाड़ दिया गया। नगर निगम की स्ट्रीट लाइटें भी तोड़ दी गयीं। मना करने पर रेलवे निर्माण विभाग के सहायक अधिशासी अभियंता राघवेन्द्र गुप्ता और उनके साथ आए अधिकारी कर्मचारियों ने हाथापाई और मारपीट कर दी। अमरनाथ विद्या आश्रम ने दावा किया कि इससे पूर्व विद्यालय प्रबंधन ने जिलाधिकारी चन्द्र प्रकाश सिंह के समक्ष पूरा प्रकरण रखते हुए कहा था कि रेल प्रशासन के कार्य में विद्यालय की बाउंड्री से कोई भी अवरोध उत्पन्न नहीं हो रहा है, लेकिन रेलवे के अधिकारी रेल लाइन का काम न करके जबरन बाउंड्रीवाल को तोड़ने पर आमादा थे। सिटी मजिस्ट्रेट राकेश कुमार ने भी रेल अधिकारियों से बाउंड्रीवाल को फिलहाल छोड़कर अपना काम करने के लिए फोन किया, लेकिन रेलवे के अधिकारियों ने उनकी भी नहीं सुनीं। बाउंड्रीवाल तोड़ दिए जाने से बाहरी तत्वों का विद्यालय में प्रवेश प्रारंभ हो गया है। विद्यालय प्रशासन व बच्चों के साथ कभी भी कोई बड़ी घटना घट सकती है। विद्यालय में अत्यंत दहशत का वातावरण है। प्रधानाचार्य अरुण वाजपेयी को जब रेलवे के नोटिस की प्रति भेजकर उसके संदर्भ में जानकारी मांगी गई तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया जबकि अमरनाथ विद्या आश्रम कह रहा है कि उन्हें कोई नोटिस दिए बिना रेलवे ने ध्वस्तीकरण की कार्रवाई शुरू कर दी। मथुरा-वृंदावन रेलवे लाइन पर भी बना रखा है गेट
अमरनाथ विद्या आश्रम ने अपना एक गेट मथुरा-वृंदावन रेलवे लाइन की ओर भी बना रखा है। चूंकि यह रेलवे ट्रैक फिलहाल बंद पड़ा है इसलिए संभवत: इसके बारे में अभी कोई बात नहीं हो रही। इस गेट के संबंध में भी फोटो भेजकर अरुण वाजपेयी से जानकारी मांगी गई लेकिन समाचार लिखे जाने तक उनका कोई जवाब नहीं आया। ट्रस्ट के साथ भी 3 दशक से चल रहा है अमरनाथ विद्या आश्रम का विवाद सच तो यह है कि अमरनाथ विद्या आश्रम का सिर्फ रेलवे से ही नहीं संस्थान के मूल ट्रस्टियों से भी विवाद चल रहा है जो आज तक एसडीएम (सदर) की कोर्ट में लंबित है। हालांकि इसकी शुरूआत तीन दशक पहले तब हुई थी जब इस विद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य आनंद मोहन वाजपेयी ने एक नए ट्रस्ट का गठन कर विद्यालय पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। संस्थान के मूल ट्रस्टियों में से एक धीरेन्द्रनाथ भार्गव का कहना है कि वाजपेयी परिवार ने विद्यालय पर अपना कब्जा दिखाने के उद्देश्य से एक ओर जहां तमाम दानदाताओं की ओर से कराए गए निर्माण कार्य के सबूत मिटा दिए वहीं दूसरी ओर विद्यालय में गेट के ठीक सामने पार्क में लगी उन स्वर्गीय 'द्वारिकानाथ भार्गव' की मूर्ति भी नष्ट कर दी जिन्होंने विद्यालय की स्थापना की थी। ट्रस्टी धीरेन्द्रनाथ भार्गव द्वारा दी गई लिखित जानकारी के अनुसार अमरनाथ विद्या आश्रम को लेकर एक लम्बे समय से वाजपेयी बंधुओं द्वारा भ्रामक और गलत जानकारियाँ देकर जनता को गुमराह किया जा रहा है जबकि सच्चाई यह है कि अमरनाथ विद्या आश्रम की स्थापना सन् 1961 में स्वतंत्रता सेनानी और अधिवक्ता श्री द्वारिका नाथ भार्गव ने स्वर्गीय अमरनाथ भार्गव की स्मृति में एक ट्रस्ट के जरिए की थी। आनन्द मोहन वाजपेयी को तब इस शिक्षण संस्था में बतौर प्रधानाध्यापक नियुक्त किया गया था। सन् 1990 तक आनन्द मोहन वाजपेयी इस शिक्षण संस्था के प्रधानाध्यापक रहे। उसके बाद ट्रस्ट ने उन्हें स्कूल का निदेशक घोषित कर दिया लेकिन उन्होंने संस्था के ट्रस्टियों का भरोसा तोड़कर एक नया फर्जी ट्रस्ट रजिस्टर्ड करवा लिया और पूरी संस्था पर अपने भाई-भतीजों सहित काबिज हो गए।आनन्द मोहन वाजपेयी ने खुद को अमरनाथ विद्या आश्रम का आजीवन ट्रस्टी दर्शाते हुए सन् 1995 में ट्रस्ट का नवीनीकरण करा लिया। जब इस बात की जानकारी मूल ट्रस्टियों को हुई तो उन्होंने उपनिबंधक फर्म, सोसायटी एवं चिट्स आगरा के यहाँ उनके इस कृत्य को चुनौती दी। जिसके उपरांत उपनिबंधक ने माना कि आनन्द मोहन वाजपेयी न तो ट्रस्ट के लिए गठित कार्यकारिणी के चुनाव सम्बन्धी कोई रजिस्टर प्रस्तुत कर सके और न ही ट्रस्ट की वैधता साबित कर सके। उपनिबंधक आगरा द्वारा 2 जून 1995 को दिए गए अपने आदेश में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि आनन्द मोहन वाजपेयी की ओर से प्रस्तुत 30 अक्टूबर 1993 को दर्शाये गए कार्यकारिणी के चुनावों की वैधता संदिग्ध है और 1988 में हुआ चुनाव ही अंतिम चुनाव था। धीरेन्द्रनाथ भार्गव के अनुसार अमरनाथ विद्या आश्रम पर मूल रूप से श्री द्वारिका नाथ भार्गव द्वारा गठित ट्रस्ट का ही अधिकार है और वही इसके संचालन का हकदार है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि रेलवे ने तो अमरनाथ विद्या आश्रम का अवैध निर्माण ध्वस्त कर अपनी जमीन उसके कब्जे से मुक्त करा ली किंतु क्या स्वतंत्रता सेनानी और अधिवक्ता द्वारिका नाथ भार्गव द्वारा स्थापित यह शिक्षण संस्थान कभी वाजपेयी बंधुओं के कब्जे से मुक्त हो पाएगा क्योंकि संस्थान पर काबिज वाजपेयी बंधु एक ओर जहां पुलिस-प्रशासन में ऊंची पहुंच होने का दम भरते आए हैं वहीं दूसरी ओर सत्ता के गलियारों में भी गहरी पैठ होने का दावा करते हैं। उनके इस दावे में दम इसलिए नजर आता है कि रेलवे जैसे विभाग को उनसे अपनी जमीन कब्जा मुक्त कराने में वर्षों एड़ियां रगड़नी पड़ गईं, और यदि अब भी रेलवे की चौथी लाइन नहीं पड़ रही होती तो ये काम संभव नहीं होता। रहा सवाल शिक्षण संस्थान के मूल ट्रस्टियों का तो वो आज तक वाजपेयी बंधुओं के बिछाए कानूनी जाल में फंसे हुए हैं और कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पर मजबूर हैं। -Legend News
वृंदावन के छटीकरा रोड पर स्थित डालमिया बाग में हाउसिंग प्रोजेक्ट खड़ा करने का ख्वाब अब कभी पूरा नहीं हो सकता, लेकिन शंकर सेठ एंड कंपनी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर भ्रम फैला रही है। ऐसा करने के पीछे भूमाफिया की टोली का एक मकसद तो यह है कि हाउसिंग प्रोजेक्ट 'गुरू कृपा तपोवन' के नाम पर पूर्व में हड़पे गए हजारों करोड़ रुपए को जायज ठहराया जा सके, और दूसरा इसकी आड़ में फिर फ्रॉड करने का रास्ता साफ हो जाए। सच तो यह है कि डालमिया बाग से 454 हरे दरख्त काटने के बाद जब शंकर सेठ पर कानूनी शिकंजा कसा गया तो उसने नित-नई कहानियां गढ़नी शुरू कर दीं। पहले कहा कि मेरा तो इस प्रोजेक्ट से कोई लेना-देना ही नहीं है। फिर वह और उसकी टोली कहने लगी कि जिला प्रशासन से सारी 'सेटिंग' हो गई है और मामला इसी स्तर पर समाप्त हो जाएगा। लेकिन जब बात एनजीटी, इलाहाबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंची और एनजीटी ने बाकायदा एक जांच कमेटी गठित कर दी तो इन्होंने जांच कमेटी से सब रफा-दफा करा लेने का 'शिगूफा' छोड़ दिया। अब जबकि उसी जांच कमेटी की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ओर जहां प्रति पेड़ एक लाख रुपए का जुर्माना ठोक दिया और नौ हजार से अधिक नए पेड़ लगाने का आदेश दे दिया तो अब शंकर सेठ एंड कंपनी नया भ्रम फैलाने में जुट गई है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश कहता है कि ये नौ हजार से अधिक पेड़ डालमिया बाग के निकट एक किलोमीटर के दायरे में नई जमीन खरीद कर लगाने होंगे। यही नहीं, आदेश का अनुपालन होने तक हाउसिंग प्रोजेक्ट पर रोक रहेगी। यदि नक्शा पास करा भी लिया गया तो उसे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत करना होगा। यहां यह समझना जरूरी है कि अब तक किसी के नाम डालमिया बाग की कोई रजिस्ट्री ही नहीं हुई है। जो हुआ है, वो मात्र एमओयू था जिसके आधार पर न तो नक्शा पास कराया जा सकता है और न निर्माण संबंधी कोई गतिविधि शुरू की जा सकती है। जहां तक सवाल नौ हजार से अधिक नए पेड़ लगाने के आदेश का है तो उसका अनुपालन करने के लिए शंकर सेठ एंड कंपनी को 20 एकड़ से अधिक जमीन खरीदनी होगी। वन विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार ताज ट्रैपेजियम जोन यानी TTZ क्षेत्र में एक हेक्टेयर जमीन पर एक हजार पेड़ लगाने का नियम है। एक हेक्टेयर जमीन में 2.47 एकड़ जमीन होती है। इस हिसाब से करीब 9 हेक्टेयर जमीन की दरकार होगी। डालमिया बाग से एक किलोमीटर के दायरे में ये जमीन किस मूल्य पर मिलेगी, इसके बारे में सोचकर ही शंकर सेठ एंड कंपनी को पसीना आ गया होगा। गौरतलब है कि एनजीटी की जांच कमेटी ने डालमिया बाग को ग्रीन बेल्ट घोषित करने की भी सिफारिश की है, जिस पर निर्णय आना अभी बाकी है। संभावना यही है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने जांच कमेटी की सभी सिफारिशें पूरी तरह मान ली हैं तो आगे ग्रीन बेल्ट घोषित करने की मांग भी मान ली जाएगी।इसके अलावा बाग में 'गुरूकृपा तपोवन' नामक हाउसिंग प्रोजेक्ट बनाने की आड़ में कच्ची पर्चियों पर हड़पे गए हजारों करोड़ रुपए को लेकर भी एक वो याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, जिसमें शंकर सेठ आदि के खिलाफ सीबीआई और ईडी से जांच कराने की मांग की गई है। अब क्या भ्रम फैला रही है शंकर सेठ एंड कंपनी? यूं तो शंकर सेठ एंड कंपनी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सच्चाई और उसके अनुपालन में आने वाली कठिनाइयों से भली-भांति परिचित होगी। और अगर उसे समझने में कोई दिक्कत पेश आ रही होगी तो पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी जैसे विद्वान समझा ही देंगे जिन्हें इन्होंने मोटी फीस देकर अपने पक्ष में दलीलें पेश करने को खड़ा किया था, बावजूद इसके यह टोली भरपूर भ्रम फैला रही है। माफिया की टोली और इसके गुर्गे निवेशकों से कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट से फैसला हमारे मन मुताबिक आया है। कोर्ट ने नक्शा पास कराने पर कोई रोक नहीं लगाई है। जल्द ही हम नक्शा पास कराकर काम शुरू कर देंगे जबकि सच्चाई यह है कि जिस जमीन की रजिस्ट्री ही नहीं हुई, उसका नक्शा पास कैसे हो सकता है। भ्रम फैलाने के पीछे माफिया की टोली का मकसद क्या है? सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर भ्रम फैलाने के पीछे माफिया की टोली का बड़ा मकसद यह है कि जिन लोगों की आंखों में धूल झोंक कर ये हजारों करोड़ रुपया ठग चुकी है, उन्हें गुमराह किया जा सके। साथ ही जिन लोगों की पूरी रकम नहीं आई है, उनसे बाकी रकम वसूली जा सके। चूंकि शंकर सेठ और डालिमया बाग कांड में संलिप्त अन्य लोगों से निवेशकों का भरोसा इस दौरान पूरी तरह उठ चुका है, इसलिए भ्रम फैलाने के पीछे एक मकसद यह भी है कि फिर से यह भरोसा पैदा हो जाए जिससे इनके दूसरे रियल एस्टेट प्रोजेक्ट पर अब उसका दुष्प्रभाव बाकी न रहे। ऐसा न होता तो जो शंकर सेठ शुरू में यह कह रहा था कि उसका डालमिया बाग कांड में कोई हाथ नहीं है, उसने फिर अचानक पेड़ काटने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर कैसे ले ली। ये जानते व समझते हुए कि सुप्रीम कोर्ट में अपराध स्वीकार कर लेने के बाद वन विभाग के लिए उसे अब स्थानीय अदालत में दोषी साबित करना बहुत आसान होगा। यानी जो सजा उस अपराध के लिए मुकर्रर है, वह तो होगी ही। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है शंकर सेठ एंड कंपनी अपनी फितरत से बाज नहीं आ रही। अब इसे उसकी मजबूरी कहें या आदतन अपराध की प्रवृत्ति, लेकिन इतना तय है कि डालमिया बाग पर गुरू कृपा तपोवन बनाने का सपना अब कभी पूरा नहीं होगा। देखना बस यह है कि निवेशकों से किया गया इनका वायदा कब और किस सूरत में पूरा होता है, अथवा पूरा होता है भी या नहीं। उनसे हड़पी गई रकम उन्हें वापस मिलती है या इसी प्रकार भ्रम फैलाकर और गुमराह करके लगातार मूर्ख बनाया जाता है। देखना यह भी है अब तक शंकर सेठ एंड कंपनी पर आंख बंद करके भरोसा करने वाले क्या इनके नए हथकंडे पर भरोसा करेंगे, और करेंगे तो कब तक? और जूतों में दाल बंटने की जो नौबत अभी अंदर ही अंदर पनप रही है, वह कब और कैसे सामने आएगी। -सुरेन्द्र चतुर्वेदी
दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा पर आरोप लगे हैं कि नई दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास से भारी मात्रा में कैश मिला है. 14 मार्च को उनके आवास के एक स्टोर रूम में आग लगी थी, जहाँ पर कथित तौर पर उनके घर से बड़ी मात्रा में कैश मिला था.अभी यशवंत वर्मा के खिलाफ 'इन-हाउस' जांच प्रक्रिया जारी है. इसके लिए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने तीन जजों की कमेटी बनाई है.इस बारे में 22 मार्च की रात सुप्रीम कोर्ट ने एक रिपोर्ट सार्वजनिक की थी. उसमें दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय की इस घटना पर रिपोर्ट और यशवंत वर्मा का बचाव है.फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने ये फैसला लिया है कि जस्टिस यशवंत वर्मा को कुछ समय तक कोई न्यायिक जिम्मेदारी न सौंपी जाए. इन सब के बीच जानते हैं कि हाई कोर्ट के जज के खिलाफ क्या और कैसे कार्रवाई हो सकती है और ऐसे मामलों में पहले अब तक क्या हुआ है? क्या हाई कोर्ट जजों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव है हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने के लिए संसद में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है लेकिन महाभियोग की यह प्रक्रिया लंबी होती है. अगर लोक सभा के सौ सांसद या राज्य सभा के पचास सांसद जज को हटाने का प्रस्ताव दें तो फिर सदन के अध्यक्ष या सभापति उसको स्वीकार कर सकते हैं.इस प्रस्ताव के स्वीकार होने के बाद तीन सदस्यों की समिति इस मामले की तहकीकात करती है और एक रिपोर्ट सदन को सौंपती है.अगर समिति ये पाती है कि जज के खिलाफ आरोप बेबुनियाद हैं तो मामला वहीं खत्म हो जाता. अगर समिति जज को दोषी पाती है तो फिर इसकी चर्चा दोनों सदनों में होती है और इस पर वोटिंग होती है.अगर संसद के दोनों सदन में विशेष बहुमत से जज को हटाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए तो ये प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जाता है, जो जज को हटाने का आदेश देते हैं.आज तक भारत में किसी भी जज को इस प्रकार से हटाया नहीं गया है, हालांकि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कम से कम छह जजों को इंपीच करने की कोशिश की गई है.इंपीचमेंट के अलावा उच्च न्यायालय के जज के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही भी हो सकती है. हालांकि, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों का पालन करना होगा. आज तक किसी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को भ्रष्टाचार के लिए दोषी नहीं पाया गया है. क्या जजों पर कार्रवाई हो सकती है उच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ 'प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट' के तहत कार्रवाई हो सकती है. पर, पुलिस खुद से किसी जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती.राष्ट्रपति को भारत के चीफ़ जस्टिस की सलाह लेनी होगी और उसके बाद तय करना होगा कि एफआईआर दर्ज हो सकती है या नहीं.सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा अपने साल 1991 के फैसले में कहा था, जब मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के वीरास्वामी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की शिकायत दर्ज हुई थी.फिर साल 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने एक 'इन-हाउस' प्रक्रिया का गठन किया, जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्यवाही हो सके. इसमें कहा गया है कि अगर किसी जज के खिलाफ शिकायत आती है तो पहले हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस या भारत के चीफ जस्टिस शिकायत की जांच करे.अगर वो पाते है कि शिकायत बेबुनियाद है तो मामला वहीं खत्म हो जाता है. अगर ऐसा नहीं होता है तो जिस जज के खिलाफ शिकायत आई है उससे जवाब मांगा जाता है. अगर जवाब से चीफ जस्टिस को लगे कि आगे किसी कार्रवाई की ज़रूरत नहीं है तो मामला खत्म हो जाता है. अगर ये लगे कि मामले की और गहरी जाँच होनी चाहिए तो भारत के चीफ जस्टिस एक कमेटी का गठन कर सकते हैं. इस कमेटी में 3 जज होते हैं.अपनी कार्रवाई के बाद कमेटी या तो जज को बेकसूर पा सकती है या जज को इस्तीफा देने के लिए कह सकती है. इस्तीफा देने से अगर जज ने मना कर दिया तो समिति उनके इंपीचमेंट के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सूचना दे सकती है.ऐसे भी कुछ मामले हुए हैं जिसमें इन हाउस कमेटी के फैसले के बाद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को हाई कोर्ट जज के खिलाफ कार्यवाही करने को कहा है.इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज एसएन शुक्ला के खिलाफ 2018 में इन-हाउस कमिटी की प्रक्रिया चली थी. उसके बाद उन्होंने इस्तीफ़ा देने से मना कर दिया. साल 2021 में सीबीआई ने उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों पर एक चार्जशीट दर्ज की.पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की पूर्व जज निर्मल यादव के खिलाफ भी सीबीआई ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं. उनके खिलाफ मुक़दमा अभी लंबित है.मार्च 2003 में दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज शमित मुखर्जी को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. हाई कोर्ट के जज को क्या सुविधाएं देती है सरकार? भारत में हाई कोर्ट जज एक संवैधानिक पद है. इनकी नियुक्ति की भी लंबी प्रक्रिया होती है. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज और सरकार की सहमति के बाद इन्हें नियुक्त किया जाता है.सातवें वेतन आयोग के तहत उनकी मासिक सैलरी 2.25 लाख रुपए होती है, और ऑफिस के काम-काज के लिए 27 हज़ार रुपए मासिक भत्ता भी मिलता है. ऐसे जजों को रहने के लिए एक सरकारी आवास दिया जाता है. और अगर वे सरकारी घर ना लें, तो किराए के लिए अलग से पैसे मिलते हैं.इस घर के रखरखाव के पैसे सरकार देती है. इन घरों को एक सीमा तक बिजली और पानी मुफ्त मिलता है. और फर्नीचर के लिए 6 लाख तक की रकम मिलती है.साथ ही उन्हें एक गाड़ी दी जाती है और हर महीने दो सौ लीटर पेट्रोल लेने की अनुमति होती है. इसके अलावा चिकित्सा की सुविधा, ड्राइवर और नौकरों के लिए भत्ते का भी प्रावधान है.भ्रष्टाचार से बचने और न्यायालय की स्वतंत्रता के लिए ये ज़रूरी है कि जजों का वेतन पर्याप्त हो.जज अपना काम निडरता से कर सके इसलिए संविधान में उन्हें कुछ सुरक्षाएँ दी गई है. उच्च न्यायपालिका यानी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ़ महाभियोग (इंपीचमेंट) की प्रक्रिया के ज़रिए ही हटाया जा सकता है. -Legend News
मथुरा। वृंदावन के डालमिया बाग कांड में फंसे शंकर सेठ को अभी और कुछ दिन जेल में ही गुजारने होंगे। जिला शासकीय अधिवक्ता शिवराम सिंह तरकर द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक आज कंडोलेंस होने के कारण इस मामले में अब सुनवाई के लिए अगली तारीख 21 नवंबर दे दी गई है। दरअसल, 15 नवंबर को वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश यादव 'मामा' का और आज सुबह बार एसोसिएशन मथुरा के सीनियर कर्मचारी भरत यादव का निधन हो गया था। हालांकि बार एसोसिएशन मथुरा ने आज सुबह एक पत्र इस आशय का जारी किया था कि पिछले 10 दिनों से न्यायालयों में कोई कार्य नहीं हो पा रहा है इसलिए अधिवक्ता राकेश यादव को श्रद्धांजलि देने के लिए समस्त अधिवक्तागण दोपहर 1 बजे से न्यायिक कार्य नहीं करेंगे किंतु बार का यह निर्णय कुछ सदस्यों को अनुचित लगा लिहाजा उन्होंने इसका विरोध शुरू कर दिया। इन सदस्यों ने बार एसोसिएशन के WhatsApp ग्रुप पर नवनिर्वाचित अध्यक्ष तथा सचिव को संबोधित करते हुए लिखा कि आपके द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश यादव के निधन पर शोक तथा श्रद्धांजलि सभा का आयोजन लंच के बाद रखे जाने की जानकारी मिली है। मथुरा बार एसोसिएशन के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि किसी अधिवक्ता की मृत्यु के उपरांत लंच के बाद कंडोलेंस करने का प्रस्ताव पारित किया गया हो। बार के सम्मानित सदस्यों ने WhatsApp ग्रुप पर यह भी लिखा- चूंकि यह कतई गलत है इसलिए इसे मथुरा बार एसोसिएशन कालादिवस के रूप में दर्ज करेगी। यही नहीं, बार के कुछ सदस्यों ने तो ग्रुप में यह तक लिख कर डाल दिया कि क्या बार के नवनिर्वाचित पदाधिकारियों ने निवर्तमान पदाधिकारियों का अनुसरण शुरू कर दिया है या आज किसी की जमानत के लिए कोई तारीख लगी है, शायद शंकर सेठ की। बार एसोसिएशन के WhatsApp ग्रुप पर साथियों के विरोध का सम्मान करते हुए नवनिर्वाचित सचिव की ओर से लिखा गया कि वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश यादव के निधन पर शोक एवं श्रद्धांजलि सभा का आयोजन आज प्रात: 10 बजे ही बार के कार्यालय में किया जाएगा। साथ ही बार ने यह प्रस्ताव भी पारित किया है कि बार एसोसिएशन मथुरा के समस्त अधिवक्तागण पूरे दिन कार्य से विरत रहेंगे। बहरहाल, शंकर सेठ के प्रयास जहां एक बार और विफल हो गए वहीं उसके चाहने वालों की उन उम्मीदों पर भी पानी फिर गया जिन्हें लेकर वह आज हर हाल में उसके बाहर निकल आने की सोचे हुए थे। गौरतलब है कि वृंदावन के डालमिया बाग में पेड़ों को काटने, एमवीडीए की बाउंड्रीवाल क्षतिग्रस्त करने व विद्युत सप्लाई को बाधित करने के मामले में शंकर सेठ सहित 42 आरोपियों की अंतरिम जमानत एसीजेएम प्रथम सोनिका वर्मा ने पिछले महीने 23 अक्टूबर को खारिज कर दी थी। इसके बाद न्यायालय में उपस्थित शंकर सेठ समेत 31 आरोपियों को तो जेल भेज दिया गया जबकि 11 आरोपी फरार चल रहे हैं। शंकर सेठ की दीपावली चूंकि जेल में ही बीत गई इसलिए उसे पूरी उम्मीद थी कि अब उसे न्यायालय से नियमित जमानत जरूर मिल जाएगी किंतु आज भी ऐसा नहीं हो सका और शंकर सेठ अब भी सलाखों के पीछे है। -Legend News
वृंदावन के डालमिया बाग मामले में मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण (MVDA) की भूमिका को लेकर VC एसबी सिंह से कुछ सीधे सवाल पूछना अब बहुत जरूरी हो गया है। इन सवालों का संबंध गुरुकृपा तपोवन नामक उस कथित रियल एस्टेट प्रोजेक्ट से है जो डालमिया बाग पर प्रस्तावित है तथा जिसकी गूंज प्रदेश की राजधानी लखनऊ के साथ-साथ देश की राजधानी दिल्ली तक सुनाई दे रही है क्योंकि इसमें निवेशकों का करीब एक हजार करोड़ रुपया फंस गया है। यही नहीं, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) जहां इस पर जांच कमेटी गठित कर चुका है वहीं शासन के निर्देश से मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की भूमिका को लेकर कमिश्नर आगरा मंडल द्वारा भी जांच बैठा दी गई है। इसके अतिरिक्त बाग का मालिक डालमिया परिवार इलाहाबाद हाईकोर्ट जा पहुंचा है। दरअसल, इन्हीं सब स्थिति-परिस्थितियों के मद्देनजर Legend News ने बुधवार की सुबह 9 बजकर 39 मिनट पर MVDA के VC एसबी सिंह को ये WhatsApp मैसेज भेजा- 
VC महोदय ने Legend News को तो इस मैसेज का कोई जवाब देना जरूरी नहीं समझा अलबत्ता कुछ सिलेक्टेड मीडिया कर्मियों के माध्यम से MVDA की भूमिका पर लग रहे दागों को धोने की नाकाम कोशिश अवश्य की।
VC महोदय को ऐसा शायद इसलिए उपयुक्त लगा होगा क्योंकि सिलेक्टेड मीडियाकर्मी सवाल नहीं उठाते, कोई Cross question नहीं करते।
बहरहाल, VC एसबी सिंह के हवाले से गुरुवार सुबह छपी खबरों के मुताबिक 'तपोवन' के नाम से एक लेआउट 15 अगस्त 2024 को स्वीकृति के लिए पोर्टल पर अपलोड किया गया है। पेड़ों का कटान 18/19 सितंबर की रात किया गया था, जिस कारण अब 'तपोवन' के मानचित्र पर उनके द्वारा NGT में निस्तारण न होने तक रोक लगा दी गई है।
VC महोदय का कथन है कि 'तपोवन' का नक्शा फिलहाल लखनऊ स्तर पर स्क्रूटनी सेल में विचाराधीन है तथा MVDA को प्राप्त नहीं हुआ है लिहाजा न तो वह MVDA में विचाराधीन है और न ही स्वीकृत किया गया है।
VC महोदय के अनुसार पोर्टल पर दर्ज अभिलेखों में भूमि के मालिक का नाम नारायण प्रसाद डालमिया अंकित है।
बहरहाल, डालमिया बाग पर प्रस्तावित आवासीय प्रोजेक्ट को लेकिर VC महोदय का यह एक जवाब ही तमाम नए सवाल खड़े कर रहा है और MVDA की भूमिका पर संदेह तथा नक्शे पर भ्रम की स्थिति बढ़ा रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे बड़ी शिद्दत से उस पूरे अमले को बचाने की कोशिश की जा रही है जिसने कृष्ण की जन्मस्थली पर कलंक लगाने का काम किया है।
फोन रिसीव न करने, कॉल बैक न करने, मैसेज का उत्तर न देने तथा आरटीआई का भी संतोषजनक जवाब न देने के लिए 'कुख्यात' MVDA को इस बार खड़े हो रहे सवालों के जवाब किसी न किसी स्तर पर तो देने ही होंगे क्योंकि अब समय रहते ये उत्तर नहीं दिए गए तो अंतत: न्यापालिका सारे उत्तर मांगेगी।
जो भी हो, VC महोदय का जवाब जो कुछ महत्वपूर्ण सवाल खड़े करता है उनमें सबसे पहला सवाल तो यह है कि पोर्टल पर अपलोड किए जाने वाले नक्शों की सूचना संबंधित प्राधिकरण तक कैसे पहुंचती है और इस सूचना को पहुंचने में कितना समय लगता है?
2- क्या किसी नक्शे को स्वीकृति देने की कोई समय-सीमा शासन स्तर से निर्धारित है या प्राधिकरण अपनी सुविधानुसार समय तय करता है?
3- गुरुकृपा तपोवन का नक्शा स्वीकृति के लिए पोर्टल पर अपलोड करने की जानकारी MVDA को कब लगी, वृक्षों के अवैध कटान से पहले या बाद में?
4- वृक्षों का अवैध कटान हुए एक महीने से ऊपर का समय बीत चुका है और NGT में दायर याचिकाओं पर जांच बैठाए भी 25 दिन हो गए हैं, लेकिन MVDA अब जाकर क्यों बता रहा है कि उसने गुरुकृपा तपोवन के नक्शे पर रोक लगा दी है।
5- क्या NGT ने MVDA को इस आशय के कोई आदेश-निर्देश दिए हैं या उसने स्वत: संज्ञान लिया है?
6- यदि MVDA ने स्वत: संज्ञान लिया है तो यह तब क्यों नहीं लिया गया जब पेड़ कटने के बाद हंगामा मचना शुरू हुआ और यह बात जानकारी में आई कि न तो गुरुकृपा तपोवन का अभी कोई नक्शा पास हुआ है और न उस भूमि की रजिस्ट्री हुई है जिस पर यह प्रोजेक्ट प्रस्तावित बताया गया?
7- डालमिया परिवार द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट को दी गई सूचना बताती है कि उसने अपनी भूमि का कोई नक्शा स्वीकृति के लिए नहीं भेजा। न वो गुरुकृपा तपोवन से और न शंकर सेठ नामक किसी व्यक्ति से परिचित है। डालमिया परिवार का तो यहां तक कहना है कि उनके यहां शंकर सेठ नाम का कोई नौकर भी नहीं है। तो फिर नारायण प्रसाद डालमिया के नाम से गुरुकृपा तपोवन का नक्शा स्वीकृति के लिए किसने पोर्टल पर अपलोड कर दिया और नक्शा अपलोड करने वाले का उद्देश्य क्या था?
8- मथुरा-वृंदावन में प्रस्तावित प्रोजेक्ट्स की पूरी जानकारी स्क्रूटनी सेल को देने का जिम्मा किसका है?
9- स्क्रूटनी का मतलब ही होता है किसी चीज़ के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए उसकी सावधानीपूर्वक और विस्तृत जांच करना, तो क्या स्क्रूटनी सेल दो महीने बाद भी यह पता लगाने में असमर्थ है कि नारायण दास डालमिया तथा गुरूकृपा बिल्डर्स के बीच कोई व्यावसायिक संबंध है भी या नहीं?
10- क्या MVDA आज भी यह स्पष्ट कर सकता है कि डालमिया बाग पर प्रोजेक्ट की स्वीकृति के लिए गुरुकृपा तपोवन ने अपने मालिकाना हक साबित करने के पक्ष में तथा नक्शा पास कराने के लिए जरूरी अन्य दस्तावेजों में कौन-कौन से पेपर्स सबमिट किए हैं?
11- VC महोदय के अनुसार जो नक्शा स्वीकृति के लिए अपलोड किया है, वो मात्र 'तपोवन' के नाम से है जबकि नक्शे में प्रोजेक्ट का नाम साफ-साफ गुरुकृपा तपोवन लिखा है जो शंकर सेठ की फर्म का नाम है। तो क्या पूरा नाम न बताने के पीछे भी कोई कारण है?
प्रश्न और भी बहुत हैं किंतु फिलहाल इनके ही जवाब मिल जाएं तो काफी हद तक भ्रम दूर हो सकता है अन्यथा MVDA की भूमिका पर संदेह कम होने की बजाय बढ़ेगा ही क्योंकि MVDA की कार्यप्रणाली पहले ही हमेशा से संदेह के घेरे में रहती है।
VC महोदय चूंकि पहले भी कृष्ण की इस नगरी में अपनी सेवाएं दे चुके हैं तो वह भलीभांति इस सच्चाई से वाकिफ होंगे। फिर अब तो मामला एक इतने बड़े घपले से जुड़ा है जिसे सिर्फ एक नक्शे से अंजाम दे दिया गया। ऐसे में जांच होगी तो दूर तक जाएगी ही। NGT इस पर अपना क्या निर्णय देता है, इसका MVDA से दूर-दूर तक कोई वास्ता फिलहाल नजर नहीं आता।
बेहतर होगा कि मूल प्रश्नों को भटकाने की जगह मुद्दे की बात की जाए, और मुद्दा यही है कि 15 अगस्त को गुरुकृपा तपोवन का जो नक्शा अपलोड करके या उससे भी पहले हजार करोड़ से अधिक का फ्रॉड किया गया उसमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किस-किस ने भूमिका अदा की है तथा उस भूमिका के एवज में क्या-क्या हासिल किया है?
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
वैसे तो समूचे उत्तर प्रदेश के विकास प्राधिकरण अपनी भ्रष्ट कार्यप्रणाली को लेकर अच्छे-खासे बदनाम हैं, लेकिन अगर बात करें मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण (MVDA) की तो यहां तैनात उसके अधिकारी एवं कर्मचारी बाकायदा अपराधियों के किसी संगठित गिरोह की तरह काम करते हैं। इसमें सबकी अपनी भूमिका और उसके अनुसार सबकी हिस्सेदारी भी तय है। कोई किसी के काम में दखल नहीं देता, इसलिए सबकुछ बहुत सहजता के साथ चलता रहता है। ताजा मामला वृंदावन के डालमिया बाग का है जिस पर एक रियल एस्टेट प्रोजेक्ट खड़ा करने के लिए गुरुकृपा तपोवन के नाम से MVDA में नक्शा मूव किया गया और नक्शा पास हुए बिना ही प्लॉट बुक करने शुरू कर दिए। यही नहीं, माफिया ने मात्र एक नक्शे की आड़ में अनुमानत: एक हजार करोड़ रुपया एकत्र कर लिया। चूंकि माफिया ने निवेशकों से एक बड़ी रकम हथिया ली थी इसलिए उसे एक ओर जहां डालमिया बाग पर अपना कब्जा दिखाना था वहीं दूसरी ओर ये भी जाहिर करना था कि उसका काम पूरी प्रगति पर है लिहाजा उसने बाग के साढ़े चार सौ से अधिक हरे वृक्षों को रातों-रात कटवा डाला। हरे वृक्षों के इस अवैध कटान ने माफिया की बदनीयति सामने लाकर रख दी। MVDA की भूमिका पहले दिन से संदिग्ध मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण ने हालांकि पेड़ कटने के बाद अपना मुंह साफ रखने की कोशिश में प्राधिकरण की रेलिंग काटने का एक केस भी दर्ज कराया किंतु उसका मुंह साफ हो नहीं पा रहा, जिसके कुछ ठोस कारण हैं। सबसे पहला और बड़ा कारण तो यह है कि MVDA के जो अधिकारी एवं कर्मचारी अपने क्षेत्र में छोटे से छोटे अवैध निर्माण को सूंघते फिरते हैं और उसके खिलाफ कार्रवाई का भय दिखाकर मनमानी वसूली करने जा धमकते हैं, वो एक ऐसे रियल एस्टेट प्रोजेक्ट की आड़ में की जा रही अवैध बुकिंग पर क्यों मौन साधे रहे जिसका नक्शा उसके यहां विचाराधीन था लेकिन पास नहीं किया गया था। नियमानुसार MVDA को नक्शा पेश किए जाने की सूचना सार्वजनिक करनी चाहिए थी, जो उसने नहीं की। ताज्जुब इस बात का भी है कि MVDA आज तक गुरुकृपा तपोवन के नक्शे की असलियत पर चुप्पी साधे बैठा है जबकि निवेशक अपनी रकम डूब जाने के भय से माफिया के यहां चक्कर काट रहा है। विकास प्राधिकरण की यही चुप्पी उसकी माफिया से मिलीभगत का दूसरा संकेत है। नक्शा पास कराने के लिए पेश सपोर्टिंग पेपर्स की स्थिति तक स्पष्ट नहीं यहां गौर करने वाली बात यह है कि किसी भी प्रोजेक्ट, यहां तक कि घर-दुकान या मकान का नक्शा पास कराने के लिए नक्शे के साथ कुछ सपोर्टिंग पेपर्स भी सबमिट करने होते हैं जिनमें सबसे जरूरी होता है मालिकाना हक साबित करना। इसके बाद नंबर आता है विभिन्न विभागों के नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट (NOC) लगाने का जो आवश्यकता अनुसार लगाने होते हैं। ऐसे में एक महत्वपूर्ण सवाल खुद-ब-खुद सामने खड़ा हो जाता है कि गुरुकृपा तपोवन का नक्शा पास कराने के लिए मालिकाना हक साबित करने वाले पेपर्स पेश किए गए हैं या नहीं, और किए गए हैं तो मालिकाना हक किसके पास बताया गया है। यह मान भी लिया जाए कि MVDA को न तो डालिमया बाग में सैकड़ों हरे वृक्ष खड़े होने की कोई जानकारी थी और न रजिस्ट्री होने-न होने का कुछ पता था तब भी उसे यह स्पष्ट करना चाहिए कि गुरुकृपा तपोवन का नक्शा पास कराने किसने भेजा तथा किस आधार पर भेजा। डालमिया बाग पर उपजे विवाद को अब एक महीने से ऊपर का समय बीत चुका है। जाहिर है कि अब तक तो MVDA को काफी कुछ पता लग चुका होगा, किंतु आज भी MVDA का कोई अधिकारी या कर्मचारी इस मुद्दे पर अपना मुंह खोलने को तैयार नहीं। आखिर क्यों? आज भी 'लीजेण्ड न्यूज़' ने MVDA के उपाध्यक्ष श्याम बहादुर सिंह को whatsapp मैसेज भेजकर गुरुकृपा तपोवन के नक्शे पर विभाग की स्थिति सामने रखने का अनुरोध किया लेकिन मैसेज भेजे हुए कई घंटे बीत जाने के बावजूद कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। हजार करोड़ की ठगी में किस-किस की हिस्सेदारी मात्र एक फर्जी नक्शा पेश करके पब्लिक से करीब हजार करोड़ रुपए ठग लिए गए लेकिन विकास प्राधिकरण मुंह सिल कर बैठ जाए तो इसका क्या अर्थ निकालता है, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं। गुरुकृपा तपोवन के नाम पर जो आपराधिक कृत्य किया गया वह सीधे-सीधे IPC की धारा 420, 467, 468 और 471 के अलावा 120B का गंभीर अपराध है क्योंकि एक ऐसे प्रोजेक्ट का सब्जबाग दिखाकर हजार करोड़ रुपया ठग लिया गया जिसका मालिकाना हक तो दूर नक्शा तक पास नहीं हुआ। जिसे लेकर कोई एग्रीमेंट नहीं हुआ। जो हुआ, वो सिर्फ और सिर्फ एक Memorandum of understanding (MOU) है यानी कोई सौदा करने के लिए दो पक्षों के बीच अंडरस्टेंडिंग। चूंकि विकास प्राधिकरण इतना सब हो जाने पर भी अपनी स्थिति स्पष्ट करने को तैयार नहीं है इसलिए इससे यही संदेश जाता है कि उसकी माफिया से मिलीभगत है। ऐसा न होता तो जनहित में ही सही, वह कम से कम सच्चाई तो सामने ला ही सकता है ताकि अपने प्लॉट बुकिंग की कच्ची पर्ची हाथ में लेकर घूम रहे लोगों को तो पता लग सके कि वास्तविकता क्या है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो साफ है कि उसके भी कई अधिकारी एवं कर्मचारी न केवल हजार करोड़ की ठगी करने वाले गिरोह से मिले हुए हैं बल्कि वह उसका हिस्सा भी हैं जो उनको IPC की धारा 120B का आरोपी बनाने के लिए पर्याप्त है। सबकुछ कमिश्नर द्वारा गठित जांच कमेटी की रिपोर्ट पर निर्भर अब जबकि मंडलायुक्त ऋतु माहेश्वरी ने शासन के निर्देश पर इस मामले में मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की भूमिका का पता लगाने को 3 सदस्यीय जांच कमेटी का गठन कर दिया है तो सबकुछ उस रिपोर्ट पर निर्भर करता है, लेकिन इतना तय है कि MVDA के अधिकारियों के लिए तमाम प्रश्नों के उत्तर देना बहुत मुश्किल होगा। संभवत: यह पहली बार होगा जब माफिया और अधिकारियों का गठजोड़ बेनकाब होगा और आमजन भी यह जान सकेगा कि कैसे योगी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रदेश में भ्रष्टाचार एवं भ्रष्टाचारी फल-फूल रहे हैं क्योंकि एक ओर कमिश्नर आगरा ऋतु माहेश्वरी बहुत सख्त मिजाज अधिकारी हैं तो दूसरी ओर जांच कमेटी में शामिल तीनों उच्च अधिकारी भी ईमानदार बताए जाते हैं। बस इंतजार है तो निर्धारित 15 दिन पूरे होने का। -Legend News
मथुरा। वृंदावन के डालमिया बाग का मामला कोई सामान्य सौदा न होकर पूरी साजिश से किया गया हजारों करोड़ रुपए का ऐसा फ्रॉड है जिसे पहले तो माफिया ने पोंजी स्कीम की तरह अंजाम तक पहुंचाया और फिर निवेशकों को उसके जाल में फंसाकर मोटी रकम हड़पी गई। धर्म की नगरी में अधर्म के सहारे खेले गए इस खेल की कोई सामान्य कारोबारी तो कल्पना तक नहीं कर सकता। डालमिया परिवार के साथ वृंदावन के बाग का नहीं हुआ कोई एग्रीमेंट किसी को भी यह जानकार घोर आश्चर्य हो सकता है कि डालमिया परिवार ने वृंदावन के अपने बाग का कोई एग्रीमेंट नहीं किया। जिसे एग्रीमेंट बता कर निवेशकों को गुमराह किया गया, वह वास्तव में मात्र एक Memorandum of understanding (MOU) है, न कि एग्रीमेंट। सामान्य भाषा में कहें तो एमओयू और एग्रीमेंट के बीच मुख्य अंतर है उनकी कानूनी प्रवर्तनीयता (Enforceability)। एग्रीमेंट कानूनी रूप से बाध्यकारी एक दस्तावेज है जबकि एमओयू नहीं। कोलकाता के डालमिया परिवार ने वृंदावन निवासी गिर्राज अग्रवाल तथा मथुरा निवासी आशीष कौशिक की पार्टनरशिप फर्म राधामाधव डेवलेपर्स के साथ वर्ष 2023 में एक एमओयू साइन किया है जिसकी कोई कानूनी अहमियत नहीं है। उसे बाग के सौदे का कोई दस्तावेज नहीं माना जा सकता। यदि बाग के सौदे का कोई एग्रीमेंट हुआ होता तो अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन करने वाले को अदालत में घसीटा जा सकता था लेकिन एमओयू साइन करने भर से ऐसा नहीं किया जा सकता। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह होता है कि डालमिया परिवार द्वारा सौदा कैंसिल किए जाने की चर्चा निराधार नहीं है। वह जब चाहे एमओयू को खारिज कर सकता है। कोलकाता में तो एग्रीमेंट कराया ही नहीं जा सकता था यहां यह भी समझना बहुत जरूरी हो जाता है कि डालिमया परिवार किसी भी तरह कोलकाता में बैठकर बाग का एग्रीमेंट नहीं कर सकता और यह बात दोनों पक्ष भली प्रकार जानते होंगे। कानूनन किसी जमीन का एग्रीमेंट उसी तहसील क्षेत्र में रजिस्टर्ड हो सकता है जहां वह जमीन है, न कि किसी दूसरे शहर में। इसके अलावा रजिस्टर्ड एग्रीमेंट के लिए यह आवश्यक है कि विक्रेता द्वारा क्रेता से ली जा रही रकम पर निर्धारित स्टांप ड्यूटी देय होगी। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो यह कृत्य कर की चोरी के दायरे में आता है जिससे बड़ी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। जाहिर है कि ऐसे में डालमिया बाग के सौदे को लेकर अब तक प्रचारित की गईं सभी बातें न सिर्फ भ्रामक हैं बल्कि किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए फैलाया गया सोचा-समझा झूठ है। डालमिया परिवार और राधामाधव डेवलेपर्स के दो साझेदारों गिर्राज अग्रवाल तथा आशीष कौशिक द्वारा साइन किए गए एमओयू से पूरी तरह साबित होता है कि सैकड़ों करोड़ के इस सौदे की शुरूआत ही नेकनीयत से नहीं की गई। बेशक यह जांच का विषय हो सकता है कि ऐसा करने के पीछे मूल रूप से बदनीयती किसकी है, परंतु इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि निवेशकों को गुमराह किया गया और उनसे एग्रीमेंट को लेकर झूठ बोला गया। डालमिया परिवार द्वारा सौदे का इनकम टैक्स जमा कराने वाली बात भी नितांत झूठ बाग के सौदे को लेकर लगातार बोले जा रहे झूठ का एक हिस्सा वह भी है जिसमें कहा गया कि डालमिया परिवार ने तो ली गई रकम पर बनने वाला इनकम टैक्स भी जमा करा दिया है जबकि मात्र एमओयू साइन करने की स्थिति में कोई टैक्स बनता ही नहीं। एग्रीमेंट कराया होता तो नंबर एक में लिए गए पेमेंट का पूरा ब्यौरा देना पड़ता किंतु एमओयू साइन करने के लिए उसकी दरकार नहीं होती। डालमिया परिवार ने इसीलिए एमओयू में प्राप्त रकम तथा बकाया रकम का जिक्र तो जरूर किया है परंतु इसका उल्लेख कहीं नहीं किया कि वो रकम उसे किस माध्यम से प्राप्त हुई। मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण भी साजिश में शामिल इस पूरे प्रकरण को गौर से देखें तो मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण भी पूरी साजिश का हिस्सा मालूम पड़ता है क्योंकि उसके जिम्मेदार अधिकारी अब तक मौन साधे बैठे हैं। बिना नक्शा पास कराए मामूली निर्माण की सूचना पाकर किसी के भी यहां जा धमकने वाले और नोटिस पर नोटिस जारी करने वाले विकास प्राधिकरण के अधिकारियों ने डालमिया बाग मामले में कोई संज्ञान नहीं लिया। सब जानते हैं कि डालमिया बाग में रियल एस्टेट प्रोजेक्ट डेवलेप करने के लिए गुरूकृपा तपोवन के नाम से एक नक्शा पेश किया गया है। यह नक्शा मीडिया में भी प्रकाशित व प्रचारित हो चुका है। इसी नक्शे को आधार बनाकर निवेशकों को आकर्षित किया गया और उनसे अच्छी-खासी रकम ऐंठी गई। डालमिया बाग से रातों-रात सैकड़ों हरे पेड़ काटे जाने के बाद जब यह मामला चर्चा में आया और वनविभाग ने डालमिया परिवार के साथ गुरुकृपा तपोवन के मालिक का नाम भी एफआईआर में दर्ज कराया तो गुरुकृपा तपोवन के मालिक ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि उसका इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है। चूंकि डालमिया परिवार और राधामाधव डेवलेपर्स के बीच साइन हुए एमओयू में भी गुरुकृपा तपोवन के मालिक का नाम नहीं है तो सवाल यह पैदा होता है कि मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण में गुरूकृपा तपोवन के नाम से नक्शा किसने पेश कर दिया? इससे भी बड़ी बात यह है कि मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की ओर से गुरूकृपा तपोवन का नक्शा न तो आज तक खारिज किया है और न फर्जी नक्शा पेश करने वाले के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही अमल में लाई गई है। आश्चर्यजनक रूप से गुरुकृपा तपोवन के मालिक ने भी नक्शा पेश करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करना जरूरी नहीं समझा जिससे मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की भूमिका पर संदेह होना स्वाभाविक है। पोंजी स्कीम की तरह माफिया ने किया हजारों करोड़ का फ्रॉड एक अनुमान के अनुसार कथित रियल एस्टेट प्रोजेक्ट गुरुकृपा तपोवन के नाम पर अब तक एक हजार करोड़ रुपए से अधिक की रकम बतौर एडवांस ली जा चुकी है जबकि ऐसा कोई प्रोजेक्ट फिलहाल धरातल पर है ही नहीं। डालमिया बाग का एग्रीमेंट होना तो दूर, उसके अंजाम तक पहुंचने की संभावना दिखाई नहीं दे रही। जो एमओयू साइन किया गया है, उसकी कोई कानूनी अहमियत नहीं है। बावजूद इसके निवेशकों को लगातार गुमराह किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सब ठीक कर देंगे। पैसे में बड़ी ताकत है। अभी और खुलेंगे बहुत से राज ऐसे में तय है कि अभी बहुत से राज खुलने बाकी हैं। जैसे कि राधामाधव डेवलेपर्स में गिर्राज अग्रवाल तथा आशीष कौशिक के अतिरिक्त भी क्या और पार्टनर है, यदि हैं तो वो कौन-कौन हैं। उनकी भूमिका अब तक क्या रही है। निवेशकों से पैसा किस-किस ने लिया और किस आधार पर लिया। ईडी ने ली इनकम टैक्स विभाग से जानकारी सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मामले में ईडी ने इनकम टैक्स विभाग से भी जानकारी मांगी है ताकि राधामाधव डेवलेपर्स के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिस्सेदारों का पता लगाया जा सके, साथ ही इस फर्म का वास्तविक स्टेटस जाना जा सके। ईडी को पूरा भरोसा है कि कृष्ण की पावन जन्मभूमि पर जमीन की आड़ में खेले गए इस सबसे बड़े खेल का पर्दाफाश होगा तो बहुत से चौंकाने वाले चेहरे बेनकाब होंगे। बस देखना यह है कि उसके शिकंजे में कौन-कौन फंसता है और कब तक फंसता है क्योंकि सरकारी मशीनरी की कछुआ चाल से फिलहाल तो माफिया के बुलंद हौसले सबको चुनौती देते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि यह मानने वालों की भी कमी नहीं जो कहते हैं कि इन्होंने सैकड़ों हरे पेड़ों को काटकर जो पाप किया है, वही एक दिन इन्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा। बहरहाल, इस सबसे इतर यह जानकर निश्चित ही निवेशकों पर पहाड़ टूट पड़ेगा जब उन्हें पता लगेगा कि डालमिया परिवार से बाग का सौदा और एग्रीमेंट किए जाने जैसी बातें पूरी तरह बेबुनियाद हैं, लिहाजा उनका पैसा पूरी तरह खटाई में पड़ चुका है। -सुरेन्द्र चतुर्वेदी