सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

मथुरा में मतदाता की मौन के मायने ?

छठवें चरण के मतदान की उल्‍टी गिनती शुरू हो चुकी है। मथुरा जनपद की कुल 5 सीटों पर भी मतदान इसी चरण में होना है।
बात-बात पर गाली देने, करील के कांटेदार वृक्षों, खारे पानी और हमेशा ऊंची आवाज़ में बोलने के लिए विख्‍यात ब्रज की इस भूमि का मतदाता मतदान को लेकर चुप्‍पी साधे बैठा है। वह कतई यह बताने को तैयार नहीं कि किसके पक्ष में है और किसे नापसंद कर रहा है।
शायद इसीलिए प्रदेश में अपनी सरकार बनने का दावा करने वालों से लेकर जीत के मामले में आश्‍वस्‍त होने का दिखावा करने वालों तक, अंदर से सब हिले हुए हैं। उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा कि ब्रजभूमि में ऊंट किस करवट बैठेगा।
मतदान के मामले में काफी कुरेदने पर लोग यही कहते हैं कि अब अपनी भावनाएं व्‍यक्‍त करने का वक्‍त नहीं रहा। वह दौर बीत गया जब खुलकर मत व्‍यक्‍त किया जा सकता था।
कारण पूछे जाने पर जवाब मिलता है कि ...और भी गम हैं जमाने में ''राजनीति'' के सिवा। जिन्‍हें राजनीति करनी है और जो दलगत राजनीति का हिस्‍सा हैं, उनकी बात और है पर हम क्‍यों किसी के बुरे बनें।
वो आगे कहते हैं कि वर्तमान हालातों में किसी ''चाणक्‍य'' की प्रतिष्‍ठा दांव पर है तो किसी का ''गुरूर''। कोई पहली पारी में सफलता का स्‍वाद चखने को बेताब है तो किसी के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का प्रश्‍न बन चुका है। कोई जीत से आगे मंत्री बनने के सपने संजाये हुए है तो कोई अपने मंत्रीपद को और अगले पांच सालों के लिए सुरक्षित कर लेना चाहता है। ऐसे प्रत्‍याशियों की भी कमी नहीं जो 06 मार्च के बाद लगने वाली राजनीति की हाट में अपनी पूरी कीमत वसूल लेना चाहते हैं और इसलिए हार का मुंह देखने को तैयार नहीं।
सबके अपने अरमान हैं और सबकी अपनी वो महत्‍वाकांक्षाएं जिन्‍हें हवस भी कह सकते हैं।
मतदाताओं का एक वर्ग बड़ी बेतकल्‍लुफी से लेकिन खीझ के साथ पूछता है कि क्‍या किसी मीडियाकर्मी ने पुराने नेताओं से यह जानने की कोशिश की कि उनकी संपत्‍ति का ग्राफ इतना ऊपर कैसे पहुंच गया।
कल तक जो साइकिल या स्‍कूटर पर चला करते थे या जिनकी माली हालत सामान्‍य थी, वह आज करोडों-अरबों के मालिक कैसे बन बैठे। उनके पास इतना पैसा कहां से आया कि कोई रीयल एस्‍टेट कंपनी में साइलेंट पार्टनर है तो कोई किसी उद्योगपति का हिस्‍सेदार है। जो एक-दो बार भी चुनाव जीत गया वह कम से कम गैस एजेंसी अथवा आर्म्‍स स्‍टोर का मालिक तो बन ही बैठा।
विधानसभा में बैठने के बाद किसी ने बरसाने की पहाड़ियों का अवैध खनन कराकर ब्रज वसुंधरा का सीना छलनी कराया तो किसी ने रिफाइनरी से होने वाले तेल के खेल में दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्‍की की लेकिन कृष्‍ण की मथुरा का ख्‍याल तक मन में नहीं आया। वह जस की तस है। जैसी दो दशक पहले थी, वैसी आज है। हां, इन दो दशकों में इस धार्मिक जनपद से चुने गये जनप्रतिधियों ने अगर कुछ किया, तो वह है उस यमुना के साथ छल जिसे वह लगातार अपनी घृणित राजनीति का हथियार बनाते चले आये हैं और जुबान से जिसे ''मां'' की संज्ञा देते हैं।
यमुना में आस्‍था रखने वालों की भावनाओं को कैश करने के लिए नामांकन भरने से पूर्व यमुना पूजन करने वाले इन पूर्व जनप्रतिनिधियों में से किसी को कभी इतनी लज्‍जा नहीं आई कि वह यमुना की बदहाली के लिए कम से कम नैतिक जिम्‍मेदारी तो ले सके।
देखते-देखते हमारी आंखों के सामने यमुना एक नदी से गंदे नाले में तब्‍दील हो गई और जिस कट्टीघर में पशु कटान गिनकर होता था वहां हाईकोर्ट के फैसले को ताक पर रखकर अनगिनित पशु काटे जाने लगे। हर चार कदम पर एक शराब की दुकान खुल गई और समूचे क्षेत्र में काले तेल के अवैध गोदाम स्‍थापित हो गये। जिन जनप्रतिनिधियों ने यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने की शपथ ली थी उन्‍होंने यमुना एक्‍शन प्‍लान को पलीता लगाने में अहम् भूमिका निभाई और जिन पर काले तेल के अवैध धंधे को बंद कराने की जिम्‍मेदारी थी, वह उसके संचालन बनकर बेशुमार दौलत कमाने लगे।
और तो और जब कभी किसी ईमानदार पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी ने तेल के इस खेल में व्‍यवधान डाला, उसे उन्‍होंने अपने प्रभाव का इस्‍तेमाल कर जिला बदर करा दिया।
मतदाताओं की मानें तो इस बार भी चुनाव मैदान में अधिकांश चेहरे वही हैं। कुछ नये लोग अपना भाग्‍य आजमाने उतरे भी हैं तो उनमें व्‍यवस्‍था से टकराने का माद्दा नजर नहीं आ रहा। जाहिर है कि आगे चलकर वह भी व्‍यवस्‍था का अंग बनकर काम करने में ही अपनी भलाई समझेंगे।
मथुरा के विकास की उम्‍मीद मतदाता को किसी से नहीं है और इसीलिए वह पूरी तरह चुप्‍पी साधे बैठा है।
काबिले गौर है एक मतदाता का यह कथन कि घर फूंककर जनसेवा करने कोई नहीं चला। सब इसलिए चुनाव लड़ रहे हैं क्‍योंकि राजनीति से अच्‍छा अब कोई व्‍यवसाय नहीं रहा। ऐसा व्‍यवसाय जिसमें दौलत, शौहरत और तथाकथित ही सही लेकिन इज्‍जत भी है।
रहा सवाल मतदान करने का तो मतदाता के पास बारी-बारी से आजमाने के अलावा चारा ही क्‍या है। पेठा छुरी पर गिरे या छुरी पेठे पर, क्‍या फर्क पड़ता है।

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