बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

''मजबूरी का नाम मतदाता''

महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली मथुरा। पश्‍िचमी उत्‍तर प्रदेश की क्राइमबेल्‍ट कहलाने वाला मथुरा। चांदी के वैध-अवैध धंधे का एक बड़ा केन्‍द्र मथुरा। मूर्ति तस्‍करी के लिए विश्‍व में कुख्‍यात मथुरा। इंडियन आर्मी की कोर- 1 का मुख्‍यालय मथुरा। विश्‍व के मशहूर आधुनिक मंदिरों में शुमार ''रिफाइनरी'' के लिए पहचाना जाने वाला मथुरा। विश्‍व के महत्‍वपूर्ण संग्रहालयों में से ''एक'' के लिए ''विशिष्‍ट'' पहचान रखने वाला मथुरा। यम के फांस से मुक्‍ित प्रदान करने वाला यमुना का सबसे बड़ा तीर्थ मथुरा और उत्‍तर प्रदेश में महिलाओं का एकमात्र ''फांसीघर'' जिला कारागार मथुरा।
इतनी सारी अच्‍छाई और बुराइयों को लंबे समय से सहेजकर रखने वाला मथुरा, यूपी ही नहीं देश की राजनीति में भी एक अहम् स्‍थान रखता है। राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से काफी कम दूरी इसकी अहमियत और बढ़ा देती है। यहां से जीतने वाले राजनीतिक दल और उसके प्रत्‍याशी को लगता है कि ''अब दिल्‍ली दूर'' नहीं है। राष्‍ट्रीय लोकदल के मुखिया चौधरी अजीत सिंह व उनके पुत्र जयंत चौधरी इसके उदाहरण हैं। जयंत को लोकसभा चुनाव में मिली सफलता ने चौधरी अजीत सिंह को कुछ देर से ही सही लेकिन दिल्‍ली की सत्‍ता का हिस्‍सेदार बनवा दिया।
अब यहीं के रास्‍ते उनकी नजर लखनऊ की सत्‍ता पर है। जयंत चौधरी
सांसद रहते अपनी व रालोद की प्रतिष्‍ठा को दांव पर लगाकर यहां की
''मांट'' सीट से विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। आखिर सवाल यूपी की सत्‍ता में हिस्‍सेदारी का जो है। उनके सामने हैं छ: बार के अपराजेय विधायक और चिर-परिचित प्रतिद्वंदी प्रदेश के कबीना मंत्री श्‍यामसुंदर शर्मा।
श्‍यामसुंदर शर्मा भी सत्‍ता से दूर रहने का मोह नहीं त्‍याग पाते।
बसपा से ठाकुर रामपाल, भाजपा से चौधरी प्रणतपाल व सपा से एडवोकेट संजय शर्मा भी मैदान में हैं लेकिन उन्‍हें मुख्‍य मुकाबले से बाहर माना जा रहा है।
मथुरा की दूसरी सबसे हॉट सीट है मथुरा-वृंदावन विधानसभा सीट। यहां
तीन बार से लगातार निर्वाचित हो रहे कांग्रेस प्रत्‍याशी प्रदीप माथुर हैं तो
बसपा की प्रत्‍याशी हैं निवर्तमान पालिकाध्‍यक्ष वृंदावन पुष्‍पा शर्मा।
आपराधिक पृष्‍ठभूमि से आने वाली पुष्‍पा शर्मा का बतौर पालिकाध्‍यक्ष
कार्यकाल खासा विवादित रहा है जबकि प्रदीप माथुर को ''कमीशन माथुर'' का खिताब प्राप्‍त है।    
भारतीय जनता पार्टी ने बेदाग छवि वाले आरएसएस कोटे के देवेन्‍द्र शर्मा पर दांव लगाया है लेकिन जनता पता नहीं क्‍यों अभी से उनकी तुलना रवीन्‍द्र पाण्‍डे के साथ करने लगी है। भाजपा को मथुरा से ''तड़ी पार'' कराने में पालिकाध्‍यक्ष की हैसियत से रवीन्‍द्र पाण्‍डे की अहम् भूमिका रही थी।
समाजवादी पार्टी ने बसपा से ''बेआबरू'' करके निकाले गये बाल रोग
विशेषज्ञ अशोक अग्रवाल को इस सीट पर मैदान में उतारा है। समाजवादी पार्टी पर मथुरा में खोने के लिए कुछ नहीं है क्‍योंकि वह आज तक यहां अपना खाता नहीं खोल सकी इसलिए यह माना जा सकता है कि उसके पास पाने को बहुत कुछ है। डॉ. अशोक अग्रवाल को मुख्‍य मुकाबले में मानकर चल रही सपा यदि यह सीट जीत जाती है तो निश्‍िचत ही उसके लिए बड़ी उपलब्‍िध होगी। ये बात दीगर है कि डॉ. अशोक के परिजनों का साथ उनके लिए ''माइनस प्‍वाइंट'' बताया जा रहा है।
मथुरा की तीसरी बड़ी चुनावी लड़ाई छाता विधानसभा क्षेत्र में लड़ी जा रही है जहां आमने-सामने हैं प्रदेश के कद्दावर कबीना मंत्रियों में शामिल चौधरी लक्ष्‍मीनारायण और प्रदेश के पूर्व राज्‍य मंत्री ठाकुर तेजपाल सिंह। ठाकुर तेजपाल सिंह राष्‍ट्रीय लोकदल के प्रत्‍याशी हैं।
देश की जनसंख्‍या बढ़ाने में लालू प्रसाद यादव को भी शिकस्‍त देने वाले
प्रदेश के कृषि मंत्री चौधरी लक्ष्‍मीनारायण ने क्षेत्र का कितना विकास कराया और किसानों को कितनी राहत दी, इस पर तो विवाद हो सकता है लेकिन अपना विकास भरपूर किया, यह निर्विवाद है। नामांकन के वक्‍त प्रस्‍तुत की गई उनकी वर्तमान आर्थिक हैसियत इसकी गवाह है कि उन्‍होंने अच्‍छी छलांग लगाई है। उनसे किसी मामले में कम तो ठाकुर तेजपाल भी नहीं हैं लेकिन उन्‍हें सत्‍ता से स्‍वाभाविक नाराजगी का लाभ मिलने की संभावना है।
पहली बार अस्‍तित्‍व में आई बल्‍देव सुरक्षित विधानसभा सीट पर एक ओर भाजपा से अजय कुमार पोइया हैं तो दूसरी ओर पूरन प्रकाश। भाजपा से अपना राजनीतिक सफर शुरू करने वाले अजय कुमार पोइया ने पूर्व में टिकट न दिये जाने पर बसपा का दामन थाम लिया था लेकिन अब बसपा से टिकट मिलने की क्षीण संभावना के चलते घर वापसी कर ली।
पूरन प्रकाश भी बसपा में रहे हैं लेकिन पिछला चुनाव उन्‍होंने गोवर्धन
सुरक्षित सीट से रालोद की टिकट पर ही जीता था।
अब सामान्‍य घोषित गोवर्धन विधानसभा सीट मथुरा जनपद की पांचवीं
सीट है और यहां से भाजपा के ठाकुर कारिंदा सिंह, रालोद के ठाकुर
मेघश्‍याम पहली बार अपना भाग्‍य आजमा रहे हैं जबकि बसपा के
राजकुमार रावत इससे पहले गोकुल क्षेत्र से चुनाव जीते थे। नये परसीमन में गोकुल सीट समाप्‍त कर बल्‍देव सीट का सृजन किया गया है।
रालोद प्रत्‍याशियों को कांग्रेस से हुए पार्टी के गठबंधन का लाभ मिलने की भी उम्‍मीद जताई जा रही है, हालांकि आमजन इससे नुकसान होने की बात कहता है। उसका तर्क है कि महंगाई व भ्रष्‍टाचार के लिए कांग्रेस जिम्‍मेदार है लिहाजा उसका साथ लेना रालोद को भारी पड़ सकता है।
विधानसभा चुनाव 2012 के इस समर में कौन किस पर भारी पड़ता है
और कौन किसके लिए मुफीद साबित होता है, यह तो फिलहाल भविष्‍य के गर्भ में है लेकिन एक बात तय है कि अनेक खूबियों वाले इस विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद में मुकाबला काफी रोचक भी है और अनुमान से परे भी।
अनुमान से परे इसलिए कि जनता के पास विकल्‍प नहीं हैं। बसपा, सपा व भाजपा हो या कांग्रेस-रालोद, सब की चाल और सब का चरित्र कमोबेश एक जैसा है। कुछ प्रत्‍याशी नये जरूर हैं लेकिन उनके बारे में यह कहना
मुश्‍िकल है कि जीत दर्ज करने के बाद वह अपनी पार्टी के ही रंग में नहीं
रंग जायेंगे या राजनीति के माहिर खिलाड़ी बनने में उन्‍हें कोई देर लगेगी।
जातिगत आधार पर टिकटों का वितरण करके सभी राजनीतिक दलों ने यह तो जता ही दिया है कि जनता से जुड़े मुद्दे उनके लिए अहमियत नहीं
रखते, अब यह दिखाने की बारी है कि राजनीति के हमाम में सत्‍ता पाने
की खातिर कौन कितना बड़ा नंगा है।
कृष्‍ण की जन्‍मभूमि का गौरव प्राप्‍त यह जनपद नि:संदेह राजनीति के क्षेत्र में विशेष दर्जा रखता है पर दुर्भाग्‍य से हर चुनाव के बाद इसे इसका
गौरवशाली अतीत मुंह चिढ़ाता दिखाई देता है। चिढ़ाये भी क्‍यों नहीं, कल
भाजपा का साथ लेकर संसद में बैठने वाले जयंत चौधरी आज यूपी की
सत्‍ता में सहभागिता के लिए कांग्रेस के कांधे का सहारा ले रहे हैं और पूरे
पांच साल सत्‍ता का सुख लेने वाले श्‍यामसुंदर शर्मा त्रणमूल कांग्रेस के
उम्‍मीदवार हैं।
सपा के सहयोग से पालिकाध्‍यक्ष बनीं पुष्‍पा शर्मा आज बसपा की प्रत्‍याशी हैं और बसपा के कोऑडिनेटर रहे डॉं अशोक अग्रवाल सपा की टिकट पर जनप्रतिनिधि बनने को आतुर हैं।
कुल मिलाकर स्‍पष्‍ट है कि चाहे कोई एकदम नया चेहरा हो या राजनीति
का पुराना खिलाड़ी, सभी ने टिकट के लिए जोड़-तोड़ की है और सत्‍ता के
लिए दल व दिल बदले हैं। इन सभी का मकसद क्‍या हो सकता है, यह
बताने की जरूरत नहीं रह जाती। एक प्रत्‍याशी ने तो कहा भी है कि उसका भरोसा विकास में है। विकास किसका, अपना या अपने क्षेत्र का ?
विचारणीय है यह प्रश्‍न। लेकिन विचार करके भी क्‍या होगा। हैं तो सब एक ही थैली के चट्टे-बटे।
मतों की गणना में चाहे कोई जीत जाए, जनता को तो हारना ही है क्‍योंकि इन्‍हीं में से किसी एक को चुनकर भेजना उसकी मजबूरी है। मजबूरी का नाम महात्‍मा गांधी कभी माना जाता होगा लेकिन आज की कड़वी सच्‍चाई है ''मजबूरी का नाम मतदाता''। आज नहीं तो कल (मतगणना के बाद) इसे स्‍वीकारना होगा।

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