(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
आज की शुरूआत एक कहानी से करते हैं। कहानी कुछ यूं है- रास्ते से गुजरते किसी व्यक्ति को एक ही स्थान पर हाथियों का झुण्ड दिखाई दिया। उत्सुकतावश वह रुक गया तो उसने देखा कि सारे हाथी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पेड़ों के किनारे खड़े हैं। गौर करने पर पता लगा कि हर हाथी का एक-एक पैर उस रस्सी से बंधा है जो रस्सी पेड़ से बंधी है।
राहगीर ने इधर-उधर नजरें घुमाईं तो उसे एक व्यक्ति भी दिखाई दिया। यह व्यक्ति इन हाथियों का महावत था।
राहगीर ने महावत से पूछा- क्यों भाई! ये इतना बलशाली जीव जो चाहे तो एक झटके में पेड़ को उखाड़ दे, एक मामूली रस्सी से कैसे बंधा है ?
इस पर महावत का जवाब था- मैं इन हाथियों की देखभाल इनके बचपन से कर रहा हूं। तब मैं इनकी उम्र को देखकर इनके एक-एक पैर में रस्सी बांध दिया करता था और ये उसी से बंधे रहते थे।
अब बेशक ये बड़े हो चुके हैं और इनमें अपार ताकत है लेकिन एक रस्सी से बंधे रहने की इनकी सोच नहीं बदली।
ये अब भी यही सोचते हैं कि इस रस्सी को तोड़ना इनके वश की बात नहीं। सच तो यह है कि यह रस्सी या पेड़ से नहीं, अपनी सोच से बंधे हैं।
अब न तो ये आजाद होने की कोशिश करते हैं और ना ही बंधनमुक्त होना चाहते हैं।
इन्होंने अपने जीवन को एक मामूली सी रस्सी के हवाले कर दिया है
लिहाजा अब इस बात से भी बहुत फर्क नहीं पड़ता कि मैं यहां बना रहूं या कोई और। इनके लिए रस्सी और किसी एक व्यक्ति की मौजूदगी काफी है।
देश आज स्वतंत्रता की 66 वीं वर्षगांठ मना रहा है। ऐसे में यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या वाकई हम स्वतंत्र हैं, क्या आजाद भारत का सपना वास्तव में साकार हो चुका है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच ने हमें हाथियों के उस झुण्ड की स्थिति में ला खड़ा किया है ?
थोड़ा सा विचार कीजिए कि विशालकाय हाथियों का समूह अपनी सोच के कारण एक मामूली आदमी की मौजूदगी से गुलामी का जीवन इसलिए व्यतीत कर रहा है क्योंकि वह मानसिक रूप से गुलाम है।
सवा सौ करोड़ लोगों पर मुठ्ठीभर लोग क्या केवल इसीलिए आज भी अपने निर्णय नहीं थोपे चले जा रहे क्योंकि हम उस सोच के गुलाम अब तक बने हुए हैं जिस सोच ने हमें सैकड़ों साल अंग्रेजों का गुलाम बनाये रखा।
शासक वर्ग को मालूम है कि गुलामी का जीवन जीने के आदी इस देश के लोगों के लिए हाथियों के महावत की तरह एक अदद शासक की मौजूदगी ही काफी है।
संभवत: इसीलिए इन 66 सालों में हमारे शासकों के चेहरे चाहे जितने बदले हों लेकिन चरित्र में कोई बदलाव दिखाई नहीं दिया। चरित्र की समानता ने शासक वर्ग को बाकायदा एक अलग नस्ल, एक विशेष प्रजाति में तब्दील कर दिया।
लोग कहते हैं तो कहते रहें कि देश पर आज भी गोरों की कार्बन कॉपियां ही शासन कर रही हैं। शासक वर्ग पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला है।
2004 से पहले एनडीए नामक दो दर्जन दलों का गठबंधन देश पर शासन कर रहा था और 2004 से लगातार यूपीए का शासन है। हो सकता है कि 2014 के चुनावों में सत्ता बदल जाए पर इससे शासकों का चरित्र नहीं बदलने वाला।
उदाहरण के लिए आरटीआई एक्ट में किये जा रहे बदलाव और निर्वाचन प्रक्रिया में कोर्ट द्वारा दखल दिये जाने को एकराय से खारिज किये जाने जैसे प्रकरण सामने हैं।
ऐसे एक-दो नहीं, तमाम उदाहरण मिल जायेंगे जिनसे पता लगता है कि पार्टियों के नाम और सिंबल तो आम आदमी को गुमराह करने के हथियार हैं।
तभी तो आलम यह है कि सीबीआई की स्वायत्तता का मामला हो या न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का, इन पर कभी कोई पार्टी और नेता दोराय नहीं होते।
आरटीआई में बदलाव के लिए कांग्रेस और भाजपा इस तरह एकस्वर से बोल रहे हैं, इस तरह खोखली व बेहूदी लेकिन एक जैसी दलीलें दे रहे हैं जैसे 'सहोदर' हों।
माननीयों के महंगाई-भत्ते बढ़ाने पर कभी किसी दल में मतभेद नहीं होता पर महंगाई से त्रस्त जनता के लिए आवाज उठाने की औपचारिकता निभाई जाती है।
देश की सुरक्षा न सीमाओं पर मुकम्मल है और ना आंतरिक, लेकिन नेता सुरक्षित हैं क्योंकि उनकी सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर लगातार समीक्षा की जाती है।
जिनके ऊपर कोई संवैधानिक दायित्व नहीं है, वो भी इसलिए भारी-भरकम सुरक्षा प्राप्त हैं क्योंकि उनका ताल्लुक किसी नेता के परिवार से है।
आम आदमी आतंकी हमलों में कुत्ते की मौत मारा जाता है, सीमा पर तैनात जवान लचर नीतियों के कारण अपनी जान से हाथ धो बैठता है लेकिन नेता फिर भी शांतिदूत बने रहते हैं। निर्दोष सैनिकों और आम लोगों की मौत पर उनके शोकगीत इतने रटे-रटाये होते हैं जिन्हें सुनकर कोई भी उनकी संवेदन हीनता का अनुमान आसानी से लगा सकता है।
कल तक इसी व्यवस्था का अभिन्न अंग रहे और आज राष्ट्राध्यक्ष के पद को सुशोभित करने वाले प्रणव मुखर्जी स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में कहते हैं कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है, चारों ओर निराशा का भाव है, विधायिका से आमजन का विश्वास उठ रहा है।
उम्र के अंतिम पड़ाव में और राजनीति के अवसान पर हो सकता है कि प्रणव मुखर्जी को ये बातें कुछ सुकून दे रही हों, उन्हें लग रहा हो कि ऐसा कहकर वह अपने आज तक के क्रिया-कलापों से संतुष्ट हो सकें परंतु ऐसा है नहीं।
उनके कुछ भी बोलने और कुछ भी कह देने का तब तक कोई मतलब नहीं, जब तक उसका कोई असर व्यवस्था के क्रिया-कलापों में दिखाई न दे।
तब तक उनका आत्मचिंतन कोरे भाषण से अधिक कुछ नहीं। ऐसा कोरा भाषण जिसे नेताओं के प्रति जनता की गलतफहमी बनाये रखने के लिए लिखता कोई और है।
इसी कड़ी में लाल किले की प्राचीर से बोलने वाले प्रधानमंत्रियों का भाषण और राज्यों में बोलने वाले मुख्यमंत्रियों का भाषण भी शामिल होता है।
66 साल गुजर गए, 66 साल और गुजर जाएं, कोई अंतर नहीं आयेगा इस व्यवस्था में। कोई अंतर नहीं आयेगा नेताओं के भाषण में।
आयेगा भी क्यों ?
हम हाथियों के समूह की तरह कितने ही बलशाली क्यों न हों लेकिन हम अपनी सोच के गुलाम खुद हैं। हम ऐसे मुठ्ठीभर नेताओं को ही देश और स्वयं का भाग्य विधाता मान बैठे हैं जिनके लिए देश सिर्फ लूटमार करके अपनी तिजोरियां भरने का अकूत खजानाभर है।
हम उनसे कालेधन को लाने की उम्मीद पाले बैठे हैं जो खुद अधिकांश कालेधन पर कुंडली मारे बैठे हैं। हम उनसे महंगाई कम करने की गुहार लगाते हैं जिनके लिए रुपया गिनने की चीज नहीं, बोरियों में भरने का सामान है।
उनके लिए गरीब की थाली से गायब होती प्याज या मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के लिए जुगाड़ से सम्मान पूर्वक जीने की कोशिश करने के क्या मायने होंगे, उन्हें पैट्रोल या डीजल की आसमान छूती कीमतें कैसे प्रभावित करेंगी ?
सही अर्थों में तो देश इन्हीं के लिए स्वतंत्र हुआ था। आम आदमी तब भी गलतफहमी में था और आज भी गलतफहमी में है।
समय का अंतराल कलेंडर की तारीख, सन् एवं संवत् भले ही बदल देता हो लेकिन सच्चा बदलाव तब तक आना संभव नहीं जब तक हम अपने पैरों में पड़ी उन बेड़ियों से मुक्त नहीं हो जाते जिनका सीधा संबंध सोच से है।
स्वतंत्रता की ऐसी चाहे कितनी ही सालगिरह क्यों न मना ली जाएं, रटे-रटाये शब्दों से भ्रम में जीने का नया रास्ता बना लिया जाए लेकिन हम गुलाम थे, गुलाम हैं और सोच को नहीं बदलेंगे तो गुलाम ही रहेंगे। कभी अपनों के तो कभी परायों के।
आज की शुरूआत एक कहानी से करते हैं। कहानी कुछ यूं है- रास्ते से गुजरते किसी व्यक्ति को एक ही स्थान पर हाथियों का झुण्ड दिखाई दिया। उत्सुकतावश वह रुक गया तो उसने देखा कि सारे हाथी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पेड़ों के किनारे खड़े हैं। गौर करने पर पता लगा कि हर हाथी का एक-एक पैर उस रस्सी से बंधा है जो रस्सी पेड़ से बंधी है।
राहगीर ने इधर-उधर नजरें घुमाईं तो उसे एक व्यक्ति भी दिखाई दिया। यह व्यक्ति इन हाथियों का महावत था।
राहगीर ने महावत से पूछा- क्यों भाई! ये इतना बलशाली जीव जो चाहे तो एक झटके में पेड़ को उखाड़ दे, एक मामूली रस्सी से कैसे बंधा है ?
इस पर महावत का जवाब था- मैं इन हाथियों की देखभाल इनके बचपन से कर रहा हूं। तब मैं इनकी उम्र को देखकर इनके एक-एक पैर में रस्सी बांध दिया करता था और ये उसी से बंधे रहते थे।
अब बेशक ये बड़े हो चुके हैं और इनमें अपार ताकत है लेकिन एक रस्सी से बंधे रहने की इनकी सोच नहीं बदली।
ये अब भी यही सोचते हैं कि इस रस्सी को तोड़ना इनके वश की बात नहीं। सच तो यह है कि यह रस्सी या पेड़ से नहीं, अपनी सोच से बंधे हैं।
अब न तो ये आजाद होने की कोशिश करते हैं और ना ही बंधनमुक्त होना चाहते हैं।
इन्होंने अपने जीवन को एक मामूली सी रस्सी के हवाले कर दिया है
लिहाजा अब इस बात से भी बहुत फर्क नहीं पड़ता कि मैं यहां बना रहूं या कोई और। इनके लिए रस्सी और किसी एक व्यक्ति की मौजूदगी काफी है।
देश आज स्वतंत्रता की 66 वीं वर्षगांठ मना रहा है। ऐसे में यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या वाकई हम स्वतंत्र हैं, क्या आजाद भारत का सपना वास्तव में साकार हो चुका है ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच ने हमें हाथियों के उस झुण्ड की स्थिति में ला खड़ा किया है ?
थोड़ा सा विचार कीजिए कि विशालकाय हाथियों का समूह अपनी सोच के कारण एक मामूली आदमी की मौजूदगी से गुलामी का जीवन इसलिए व्यतीत कर रहा है क्योंकि वह मानसिक रूप से गुलाम है।
सवा सौ करोड़ लोगों पर मुठ्ठीभर लोग क्या केवल इसीलिए आज भी अपने निर्णय नहीं थोपे चले जा रहे क्योंकि हम उस सोच के गुलाम अब तक बने हुए हैं जिस सोच ने हमें सैकड़ों साल अंग्रेजों का गुलाम बनाये रखा।
शासक वर्ग को मालूम है कि गुलामी का जीवन जीने के आदी इस देश के लोगों के लिए हाथियों के महावत की तरह एक अदद शासक की मौजूदगी ही काफी है।
संभवत: इसीलिए इन 66 सालों में हमारे शासकों के चेहरे चाहे जितने बदले हों लेकिन चरित्र में कोई बदलाव दिखाई नहीं दिया। चरित्र की समानता ने शासक वर्ग को बाकायदा एक अलग नस्ल, एक विशेष प्रजाति में तब्दील कर दिया।
लोग कहते हैं तो कहते रहें कि देश पर आज भी गोरों की कार्बन कॉपियां ही शासन कर रही हैं। शासक वर्ग पर इससे क्या फर्क पड़ने वाला है।
2004 से पहले एनडीए नामक दो दर्जन दलों का गठबंधन देश पर शासन कर रहा था और 2004 से लगातार यूपीए का शासन है। हो सकता है कि 2014 के चुनावों में सत्ता बदल जाए पर इससे शासकों का चरित्र नहीं बदलने वाला।
उदाहरण के लिए आरटीआई एक्ट में किये जा रहे बदलाव और निर्वाचन प्रक्रिया में कोर्ट द्वारा दखल दिये जाने को एकराय से खारिज किये जाने जैसे प्रकरण सामने हैं।
ऐसे एक-दो नहीं, तमाम उदाहरण मिल जायेंगे जिनसे पता लगता है कि पार्टियों के नाम और सिंबल तो आम आदमी को गुमराह करने के हथियार हैं।
तभी तो आलम यह है कि सीबीआई की स्वायत्तता का मामला हो या न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का, इन पर कभी कोई पार्टी और नेता दोराय नहीं होते।
आरटीआई में बदलाव के लिए कांग्रेस और भाजपा इस तरह एकस्वर से बोल रहे हैं, इस तरह खोखली व बेहूदी लेकिन एक जैसी दलीलें दे रहे हैं जैसे 'सहोदर' हों।
माननीयों के महंगाई-भत्ते बढ़ाने पर कभी किसी दल में मतभेद नहीं होता पर महंगाई से त्रस्त जनता के लिए आवाज उठाने की औपचारिकता निभाई जाती है।
देश की सुरक्षा न सीमाओं पर मुकम्मल है और ना आंतरिक, लेकिन नेता सुरक्षित हैं क्योंकि उनकी सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर लगातार समीक्षा की जाती है।
जिनके ऊपर कोई संवैधानिक दायित्व नहीं है, वो भी इसलिए भारी-भरकम सुरक्षा प्राप्त हैं क्योंकि उनका ताल्लुक किसी नेता के परिवार से है।
आम आदमी आतंकी हमलों में कुत्ते की मौत मारा जाता है, सीमा पर तैनात जवान लचर नीतियों के कारण अपनी जान से हाथ धो बैठता है लेकिन नेता फिर भी शांतिदूत बने रहते हैं। निर्दोष सैनिकों और आम लोगों की मौत पर उनके शोकगीत इतने रटे-रटाये होते हैं जिन्हें सुनकर कोई भी उनकी संवेदन हीनता का अनुमान आसानी से लगा सकता है।
कल तक इसी व्यवस्था का अभिन्न अंग रहे और आज राष्ट्राध्यक्ष के पद को सुशोभित करने वाले प्रणव मुखर्जी स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में कहते हैं कि भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है, चारों ओर निराशा का भाव है, विधायिका से आमजन का विश्वास उठ रहा है।
उम्र के अंतिम पड़ाव में और राजनीति के अवसान पर हो सकता है कि प्रणव मुखर्जी को ये बातें कुछ सुकून दे रही हों, उन्हें लग रहा हो कि ऐसा कहकर वह अपने आज तक के क्रिया-कलापों से संतुष्ट हो सकें परंतु ऐसा है नहीं।
उनके कुछ भी बोलने और कुछ भी कह देने का तब तक कोई मतलब नहीं, जब तक उसका कोई असर व्यवस्था के क्रिया-कलापों में दिखाई न दे।
तब तक उनका आत्मचिंतन कोरे भाषण से अधिक कुछ नहीं। ऐसा कोरा भाषण जिसे नेताओं के प्रति जनता की गलतफहमी बनाये रखने के लिए लिखता कोई और है।
इसी कड़ी में लाल किले की प्राचीर से बोलने वाले प्रधानमंत्रियों का भाषण और राज्यों में बोलने वाले मुख्यमंत्रियों का भाषण भी शामिल होता है।
66 साल गुजर गए, 66 साल और गुजर जाएं, कोई अंतर नहीं आयेगा इस व्यवस्था में। कोई अंतर नहीं आयेगा नेताओं के भाषण में।
आयेगा भी क्यों ?
हम हाथियों के समूह की तरह कितने ही बलशाली क्यों न हों लेकिन हम अपनी सोच के गुलाम खुद हैं। हम ऐसे मुठ्ठीभर नेताओं को ही देश और स्वयं का भाग्य विधाता मान बैठे हैं जिनके लिए देश सिर्फ लूटमार करके अपनी तिजोरियां भरने का अकूत खजानाभर है।
हम उनसे कालेधन को लाने की उम्मीद पाले बैठे हैं जो खुद अधिकांश कालेधन पर कुंडली मारे बैठे हैं। हम उनसे महंगाई कम करने की गुहार लगाते हैं जिनके लिए रुपया गिनने की चीज नहीं, बोरियों में भरने का सामान है।
उनके लिए गरीब की थाली से गायब होती प्याज या मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के लिए जुगाड़ से सम्मान पूर्वक जीने की कोशिश करने के क्या मायने होंगे, उन्हें पैट्रोल या डीजल की आसमान छूती कीमतें कैसे प्रभावित करेंगी ?
सही अर्थों में तो देश इन्हीं के लिए स्वतंत्र हुआ था। आम आदमी तब भी गलतफहमी में था और आज भी गलतफहमी में है।
समय का अंतराल कलेंडर की तारीख, सन् एवं संवत् भले ही बदल देता हो लेकिन सच्चा बदलाव तब तक आना संभव नहीं जब तक हम अपने पैरों में पड़ी उन बेड़ियों से मुक्त नहीं हो जाते जिनका सीधा संबंध सोच से है।
स्वतंत्रता की ऐसी चाहे कितनी ही सालगिरह क्यों न मना ली जाएं, रटे-रटाये शब्दों से भ्रम में जीने का नया रास्ता बना लिया जाए लेकिन हम गुलाम थे, गुलाम हैं और सोच को नहीं बदलेंगे तो गुलाम ही रहेंगे। कभी अपनों के तो कभी परायों के।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया बताते चलें कि ये पोस्ट कैसी लगी ?