मथुरा।
(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
2014 के चुनावी महासमर के लिए महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की नगरी से भारतीय जनता पार्टी क्या कोई 'अमोघ अस्त्र' इस्तेमाल करने जा रही है ?
क्या भाजपा इस धर्म नगरी से फिल्म अभिनेता 'सनी देओल' को चुनाव मैदान में उतार रही है ?
भारतीय जनता पार्टी के ही उच्च पदस्थ सूत्रों का तो यही कहना है क्योंकि पार्टी अब कृष्ण की नगरी पर कोई कमजोर दांव खेलने के लिए तैयार नहीं है।
भाजपा हाईकमान के इस फैसले की सुगबुगाहट ने मथुरा के भाजपाइयों को सकते में ला दिया है, विशेष तौर पर उन्हें जो इस बार लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए अपनी पुख्ता दावेदारी जताते रहे हैं।
आखिर भाजपा हाईकमान ऐसा निर्णय क्यों ले रहा है और क्यों स्थानीय दावेदारों पर उसे भरोसा नहीं है, यह जानने के लिए मथुरा के पिछले और वर्तमान राजनीतिक हालातों को जानना जरूरी हो जाता है।
सर्वविदित है कि विश्व विख्यात धार्मिक नगरी मथुरा एक जाट बाहुल्य संसदीय क्षेत्र है लिहाजा यहां जाट मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।
पिछली बार भारतीय जनता पार्टी से हुए पैक्ट के तहत राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी ने यहीं से अपना चुनावी सफर शुरू किया था जिसमें उन्हें बड़ी विजय प्राप्त हुई।
इससे पहले जाट बिरादरी के ही स्थानीय नेता चौधरी तेजवीर सिंह लगातार तीन बार सांसद रहे लेकिन 2004 के चुनावों में कांग्रेस के कुंवर मानवेन्द्र सिंह से वह हार गये और इसके साथ ही पार्टी को भी स्थानीय प्रत्याशियों पर भरोसा नहीं रहा।
संभवत: इसीलिए 2009 के लोकसभा चुनावों में जब भाजपा ने रालोद से पैक्ट करके मथुरा की सीट उसके युवराज जयंत के नाम लिख दी तो स्थानीय भाजपाइयों ने बहुत तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी और अंतत: रालोद के साथ जा खड़े हुए।
परेशानी तब शुरू हुई जब अपनी फितरत के अनुसार राष्ट्रीय लोकदल ने बहुत जल्दी भाजपा से पल्ला झाड़ लिया और मंत्रिपद की खातिर उसके मुखिया चौधरी अजीत सिंह कांग्रेस की गोद में जा बैठे।
गत विधानसभा चुनावों में भाजपा को फिर इसका खामियाजा भुगतना पड़ा और मात्र 500 मतों से मथुरा-वृंदावन क्षेत्र का पार्टी प्रत्याशी इसलिए कांग्रेस के प्रदीप माथुर से चुनाव हार गया क्योंकि रालोद से गठबंधन के चलते शहरी जाट वोट उसे मिल गये।
लगभग एक दशक के इस घटनाक्रम में पार्टी के अंदर स्थानीय स्तर पर गुटबाजी इस कदर हावी हो गई कि उसकी गूंज कई मर्तबा ऊपर तक सुनाई दी लेकिन ऊपर बैठे हुए नेताओं ने भी कुछ खास नहीं किया नतीजतन यहां पार्टी आज तक लगभग उसी दशा को प्राप्त है।
गुटबाजी एवं अंतर्कलह के चलते पार्टी यहां अपनी गरिमा के अनुरूप सरवाइव नहीं कर पाई और इसीलिए कोई ऐसा नेता भी नहीं रहा जिसका अपना जनाधार हो तथा जिसे पार्टीजनों की सर्वसम्मति मिल सके।
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत यूं तो कई नेता मथुरा से अपनी प्रबल दावेदारी जता रहे हैं और येन-केन-प्रकारेण टिकट पाने की जुगत में लगे हैं लेकिन उनमें से कोई ऐसा नहीं जो 'नमो' के प्रभावी फैक्टर के बावजूद पार्टी हाईकमान को अपनी जीत का सौ फीसदी भरोसा करा सके।
उधर मथुरा की सीट को भाजपा अब न तो किसी गुटबाजी की भेंट चढ़ाने को तैयार है और ना जातिगत समीकरणों की भेंट चढ़ाना चाहती है। सच तो यह है कि वह किसी भी कीमत पर हारने को तैयार नहीं है।
दूसरी ओर इस बात की भी संभावना है कि जयंत चौधरी एकबार फिर मथुरा से ही अपना भाग्य आजमायेंगे और रालोद का कांग्रेस से पैक्ट बरकरार रहेगा लिहाजा भाजपा कोई रिस्क उठाना नहीं चाहती। वह अपनी खोई हुई ज़मीन वापस चाहती है। वो ज़मीन जिस पर एक दशक पहले चारों ओर उसी की खेती लहलहाया करती थी।
चूंकि समाजवादी पार्टी ने अभी तक तो चंदन सिंह के रूप में 'ठाकुर' उम्मीदवार खड़ा कर रखा है और बहुजन समाज पार्टी ने योगेश द्विवेदी के रूप में 'ब्राह्मण' पर दांव लगा रखा है इसलिए भी भाजपा के लिए अपना उम्मीदवार तय करना टेढ़ी खीर तो है ही।
इस सबके बावजूद मथुरा के भाजपाइयों की अपनी 'पीर' है। वह कहते हैं कि देशभर में कौन सा जनपद ऐसा है जो गुटबाजी से पूरी तरह अछूता हो। यह बात अलग है कि कहीं यह कुछ ज्यादा है तो कहीं कम।
सनी देओल को मथुरा से पार्टी उम्मीदवार बनाये जाने पर स्थानीय भाजपाइयों ने नाम सार्वजनिक न किए जाने की शर्त के साथ बताया कि यदि पार्टी ऐसा करती है तो वह अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारने के समान होगा।
इन लोगों ने खुलकर कहा कि मथुरा भाजपा में यदि कोई गुटबाजी है भी तो उसके जिम्मेदार पार्टी के ही बड़े नेता और उनके द्वारा लिए गये फैसले हैं।
यह जानते हुए कि रालोद किसी का कभी भरोसेमंद साथी नहीं रहा, उससे पैक्ट करके जयंत चौधरी को चुनाव लड़वाना ऐसा फैसला था जो किसी के गले नहीं उतरा। जल्द ही उसका नतीजा सामने भी आ गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भाजपा की उर्वरा जमीन पर रालोद कब्जा जमा चुकी थी।
सनी देओल या किसी अन्य को मथुरा से 2014 का लोकसभा चुनाव लड़वाये जाने के निर्णय पर भाजपा के नेता एकस्वर से कहते हैं कि प्रथम तो अब कोई बाहरी उम्मीदवार स्वीकार नहीं होगा, और दूसरे यदि किसी बाहरी को ही चुनाव लड़वाना है तो केवल पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह अथवा पीएम प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ही स्वीकार होंगे, इसके अलावा कोई नहीं।
गौरतलब है कि इससे पहले सनी देओल की सौतेली मां और बॉलीवुड की ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी को मथुरा से चुनाव लड़ाने की काफी चर्चाएं रही हैं। उनके अतिरिक्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साढ़ू भाई और पेशे से चार्टड एकाउंटेंट अरुण सिंह का नाम भी बाहरी उम्मीदवारों की लिस्ट में अब तक बना हुआ है।
इस बारे में भी स्थानीय भाजपाई लगभग कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि राजनाथ सिंह और अरुण सिंह दोनों ही मिर्जापुर के मूल निवासी हैं, वह अपने जनपद से चुनाव क्यों नहीं लड़ते। मथुरा की सीट पर पहला हक मथुरा के लोगों का है और यूं भी मथुरा की जनता का बाहरी जनप्रतिनिधियों को लेकर अनुभव काफी कटु रहा है लिहाजा अब किसी बाहरी को उम्मीदवार न बनाना ही पार्टी के हित में होगा।
पार्टी के स्थानीय पदाधिकारियों, टिकट के दावेदारों तथा कार्यकर्ताओं की इस सोच के इतर भाजपा के निर्णायक मंडल का कहना है कि मथुरा में कोई चेहरा ऐसा नजर नहीं आता जिस पर आंख बंद करके भरोसा किया जाए। न कोई कद्दावर जाट नेता है और ठाकुर या ब्राह्मण। लोकसभा की सीट निकालने का माद्दा यहां किसी में नहीं है जबकि जातिगत समीकरणों को दरकिनार करना असंभव है।
सनी देओल के साथ सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट यही है कि वह जाट हैं और बड़ी सेलेब्रिटी तो हैं ही। उनका परिवार लंबे समय से भाजपा में हैं और उनके पिता व प्रख्यात अभिनेता धर्मेन्द्र भी राजस्थान की बीकानेर संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
इन सब हालातों के मद्देनजर कृष्ण की नगरी से पार्टी किसी ऐसे योद्धा को चुनावी समर में उतारना चाहती है जो लगभग अपराजेय हो और जिसके सामने गुटबाजी या अंतर्कलह की कोई गुंजाइश ही न रहे।
(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
2014 के चुनावी महासमर के लिए महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की नगरी से भारतीय जनता पार्टी क्या कोई 'अमोघ अस्त्र' इस्तेमाल करने जा रही है ?
क्या भाजपा इस धर्म नगरी से फिल्म अभिनेता 'सनी देओल' को चुनाव मैदान में उतार रही है ?
भारतीय जनता पार्टी के ही उच्च पदस्थ सूत्रों का तो यही कहना है क्योंकि पार्टी अब कृष्ण की नगरी पर कोई कमजोर दांव खेलने के लिए तैयार नहीं है।
भाजपा हाईकमान के इस फैसले की सुगबुगाहट ने मथुरा के भाजपाइयों को सकते में ला दिया है, विशेष तौर पर उन्हें जो इस बार लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए अपनी पुख्ता दावेदारी जताते रहे हैं।
आखिर भाजपा हाईकमान ऐसा निर्णय क्यों ले रहा है और क्यों स्थानीय दावेदारों पर उसे भरोसा नहीं है, यह जानने के लिए मथुरा के पिछले और वर्तमान राजनीतिक हालातों को जानना जरूरी हो जाता है।
सर्वविदित है कि विश्व विख्यात धार्मिक नगरी मथुरा एक जाट बाहुल्य संसदीय क्षेत्र है लिहाजा यहां जाट मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।
पिछली बार भारतीय जनता पार्टी से हुए पैक्ट के तहत राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी ने यहीं से अपना चुनावी सफर शुरू किया था जिसमें उन्हें बड़ी विजय प्राप्त हुई।
इससे पहले जाट बिरादरी के ही स्थानीय नेता चौधरी तेजवीर सिंह लगातार तीन बार सांसद रहे लेकिन 2004 के चुनावों में कांग्रेस के कुंवर मानवेन्द्र सिंह से वह हार गये और इसके साथ ही पार्टी को भी स्थानीय प्रत्याशियों पर भरोसा नहीं रहा।
संभवत: इसीलिए 2009 के लोकसभा चुनावों में जब भाजपा ने रालोद से पैक्ट करके मथुरा की सीट उसके युवराज जयंत के नाम लिख दी तो स्थानीय भाजपाइयों ने बहुत तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी और अंतत: रालोद के साथ जा खड़े हुए।
परेशानी तब शुरू हुई जब अपनी फितरत के अनुसार राष्ट्रीय लोकदल ने बहुत जल्दी भाजपा से पल्ला झाड़ लिया और मंत्रिपद की खातिर उसके मुखिया चौधरी अजीत सिंह कांग्रेस की गोद में जा बैठे।
गत विधानसभा चुनावों में भाजपा को फिर इसका खामियाजा भुगतना पड़ा और मात्र 500 मतों से मथुरा-वृंदावन क्षेत्र का पार्टी प्रत्याशी इसलिए कांग्रेस के प्रदीप माथुर से चुनाव हार गया क्योंकि रालोद से गठबंधन के चलते शहरी जाट वोट उसे मिल गये।
लगभग एक दशक के इस घटनाक्रम में पार्टी के अंदर स्थानीय स्तर पर गुटबाजी इस कदर हावी हो गई कि उसकी गूंज कई मर्तबा ऊपर तक सुनाई दी लेकिन ऊपर बैठे हुए नेताओं ने भी कुछ खास नहीं किया नतीजतन यहां पार्टी आज तक लगभग उसी दशा को प्राप्त है।
गुटबाजी एवं अंतर्कलह के चलते पार्टी यहां अपनी गरिमा के अनुरूप सरवाइव नहीं कर पाई और इसीलिए कोई ऐसा नेता भी नहीं रहा जिसका अपना जनाधार हो तथा जिसे पार्टीजनों की सर्वसम्मति मिल सके।
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत यूं तो कई नेता मथुरा से अपनी प्रबल दावेदारी जता रहे हैं और येन-केन-प्रकारेण टिकट पाने की जुगत में लगे हैं लेकिन उनमें से कोई ऐसा नहीं जो 'नमो' के प्रभावी फैक्टर के बावजूद पार्टी हाईकमान को अपनी जीत का सौ फीसदी भरोसा करा सके।
उधर मथुरा की सीट को भाजपा अब न तो किसी गुटबाजी की भेंट चढ़ाने को तैयार है और ना जातिगत समीकरणों की भेंट चढ़ाना चाहती है। सच तो यह है कि वह किसी भी कीमत पर हारने को तैयार नहीं है।
दूसरी ओर इस बात की भी संभावना है कि जयंत चौधरी एकबार फिर मथुरा से ही अपना भाग्य आजमायेंगे और रालोद का कांग्रेस से पैक्ट बरकरार रहेगा लिहाजा भाजपा कोई रिस्क उठाना नहीं चाहती। वह अपनी खोई हुई ज़मीन वापस चाहती है। वो ज़मीन जिस पर एक दशक पहले चारों ओर उसी की खेती लहलहाया करती थी।
चूंकि समाजवादी पार्टी ने अभी तक तो चंदन सिंह के रूप में 'ठाकुर' उम्मीदवार खड़ा कर रखा है और बहुजन समाज पार्टी ने योगेश द्विवेदी के रूप में 'ब्राह्मण' पर दांव लगा रखा है इसलिए भी भाजपा के लिए अपना उम्मीदवार तय करना टेढ़ी खीर तो है ही।
इस सबके बावजूद मथुरा के भाजपाइयों की अपनी 'पीर' है। वह कहते हैं कि देशभर में कौन सा जनपद ऐसा है जो गुटबाजी से पूरी तरह अछूता हो। यह बात अलग है कि कहीं यह कुछ ज्यादा है तो कहीं कम।
सनी देओल को मथुरा से पार्टी उम्मीदवार बनाये जाने पर स्थानीय भाजपाइयों ने नाम सार्वजनिक न किए जाने की शर्त के साथ बताया कि यदि पार्टी ऐसा करती है तो वह अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारने के समान होगा।
इन लोगों ने खुलकर कहा कि मथुरा भाजपा में यदि कोई गुटबाजी है भी तो उसके जिम्मेदार पार्टी के ही बड़े नेता और उनके द्वारा लिए गये फैसले हैं।
यह जानते हुए कि रालोद किसी का कभी भरोसेमंद साथी नहीं रहा, उससे पैक्ट करके जयंत चौधरी को चुनाव लड़वाना ऐसा फैसला था जो किसी के गले नहीं उतरा। जल्द ही उसका नतीजा सामने भी आ गया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भाजपा की उर्वरा जमीन पर रालोद कब्जा जमा चुकी थी।
सनी देओल या किसी अन्य को मथुरा से 2014 का लोकसभा चुनाव लड़वाये जाने के निर्णय पर भाजपा के नेता एकस्वर से कहते हैं कि प्रथम तो अब कोई बाहरी उम्मीदवार स्वीकार नहीं होगा, और दूसरे यदि किसी बाहरी को ही चुनाव लड़वाना है तो केवल पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह अथवा पीएम प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ही स्वीकार होंगे, इसके अलावा कोई नहीं।
गौरतलब है कि इससे पहले सनी देओल की सौतेली मां और बॉलीवुड की ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी को मथुरा से चुनाव लड़ाने की काफी चर्चाएं रही हैं। उनके अतिरिक्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साढ़ू भाई और पेशे से चार्टड एकाउंटेंट अरुण सिंह का नाम भी बाहरी उम्मीदवारों की लिस्ट में अब तक बना हुआ है।
इस बारे में भी स्थानीय भाजपाई लगभग कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि राजनाथ सिंह और अरुण सिंह दोनों ही मिर्जापुर के मूल निवासी हैं, वह अपने जनपद से चुनाव क्यों नहीं लड़ते। मथुरा की सीट पर पहला हक मथुरा के लोगों का है और यूं भी मथुरा की जनता का बाहरी जनप्रतिनिधियों को लेकर अनुभव काफी कटु रहा है लिहाजा अब किसी बाहरी को उम्मीदवार न बनाना ही पार्टी के हित में होगा।
पार्टी के स्थानीय पदाधिकारियों, टिकट के दावेदारों तथा कार्यकर्ताओं की इस सोच के इतर भाजपा के निर्णायक मंडल का कहना है कि मथुरा में कोई चेहरा ऐसा नजर नहीं आता जिस पर आंख बंद करके भरोसा किया जाए। न कोई कद्दावर जाट नेता है और ठाकुर या ब्राह्मण। लोकसभा की सीट निकालने का माद्दा यहां किसी में नहीं है जबकि जातिगत समीकरणों को दरकिनार करना असंभव है।
सनी देओल के साथ सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट यही है कि वह जाट हैं और बड़ी सेलेब्रिटी तो हैं ही। उनका परिवार लंबे समय से भाजपा में हैं और उनके पिता व प्रख्यात अभिनेता धर्मेन्द्र भी राजस्थान की बीकानेर संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
इन सब हालातों के मद्देनजर कृष्ण की नगरी से पार्टी किसी ऐसे योद्धा को चुनावी समर में उतारना चाहती है जो लगभग अपराजेय हो और जिसके सामने गुटबाजी या अंतर्कलह की कोई गुंजाइश ही न रहे।
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