(लीजेण्ड न्यूज़ विशेष)
बात चूंकि अखबारों से निकली है इसलिए अखबार की कतरनों को ही देश का भविष्य रेखांकित करने के लिए चुन रहा हूं।
सबसे पहले उस अखबार के क्लासीफाइड विज्ञापन का ज़िक्र जिसकी टैग लाइन है- ''विश्व का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला अखबार''
विज्ञापन का शीर्षक है 'मित्र बनाओ', लेकिन मजमून कहता है '' साक्षी मसाज क्लब (रजिस्टर्ड 2001) हाई प्रोफाइल लड़कियों, मैडम की मसाज करके युवक 25000 रुपये कमाएं (तुरंत सर्विस)। मोबाइल नंबर-080594*****
अब देखिए एक दूसरे अखबार के विज्ञापन को जिसकी टैगलाइन है -''तरक्की को चाहिए नया नज़रिया'' ।
अब अखबार के इस नए नज़रिए को देखिए-
इसके तहत 'मनोरंजन' शीर्षक वाले विज्ञापनों में प्रकाशित इस क्लासीफाइड का मजमून है- 'मस्ती फ्रेंडशिप'.......ऑल इंडिया सर्विस, हाईप्रोफाइल हाउसवाइफ से फुल एंजॉय करके पार्ट/फुल टाइम 18000-25000 रोजाना कमाएं।
इस विज्ञापन के साथ संपर्क करने के आठ मोबाइल नंबर दिए गये हैं।
इसी तरह 'मेडिकल' शीर्षक वाले विज्ञापनों के तहत उत्तेजना कैप्सूल से लेकर रोमांटिक स्प्रे तक और कामसूत्र पुस्तिका से लेकर गुप्तांग को कड़क, सुडौल, ताकतवर व लंबा-मोटा तक करने का दावा बेहद अश्लील भाषा में किया जाता है।
इसी प्रकार 'वाणिज्य' शीर्षक वाले विज्ञापनों की बानगी देखिए- '' सभी कंपनियों के 3G डिजिटल टावर खाली जमीन, छत, खेत या प्लॉट पर लगवाएं और पाएं 80 लाख रुपये एडवांस, 70 हजार रुपये किराया एवं 20 साल का कोर्ट एग्रीमेंट। संपर्क करें- 09991039***
यहां यह जान लेना जरूरी है कि ऐसे सभी विज्ञापन अधिकांशत: बड़ी धोखेबाजी का सबब बनते हैं और आये दिन इनके माध्यम से लोगों को ठगने की खबरें भी छपती हैं।
विज्ञापनों के बाद चर्चा उन खबरों की जिनका सीधा संबंध देश के तथाकथित भाग्य विधाताओं से है।
पहली खबर राजनीति से, जिसमें देश के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद साहब कहते हैं कि सोनिया गांधी राहुल गांधी की ही नहीं, हमारी और देशभर की मां हैं। उनके सानिध्य में ही देश सुरक्षित है।
दूसरी खबर जुडीशियरी से, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायधीश लेकिन पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष माननीयअशोक गांगुली कहते हैं कि मुझ पर यौन शोषण के आरोप प्रथम दृष्ट्या सही साबित होते हों तो होते रहें परंतु मैं अपने पद से इस्तीफा नहीं दूंगा। मुझे क्या करना है, यह मैं जानता हूं और इसके लिए जवाब देने को बाध्य नहीं हूं।
बाकी खबरें ब्यूरोक्रेसी से, जिसमें सीबीएसई के एक अधिकारी पर यौन शोषण के आरोप लगते हैं। एक अधिकारी रिश्वत लेते रंगेहाथ पकड़ा जाता है। एक आईपीएस पर उसी की अधीनस्थ दुराचार का आरोप लगाती है और एक आईएएस पर उसकी पत्नी दहेज उत्पीड़न का केस दर्ज कराती है।
अलग-अलग किस्म के आपराधिक मामले होने के बावजूद इनमें एक समानता भी है। समानता यह है कि सभी आरोपी खुद को निर्दोष बताते हुए कहते हैं कि उन्हें फंसाया जा रहा है।
इसके बाद नंबर आता है उन साधु-संतों का जिनके ऊपर समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाये रखने की जिम्मेदारी है और जो भारतीय संस्कृति, धर्म, नीति, नैतिकता तथा चरित्र के संरक्षक माने जाते हैं।
आसाराम बापू और नारायण साईं नामक पिता-पुत्र पर लगे आरोप इस क्षेत्र में आई गिरावट का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए काफी हैं अन्यथा सब जानते हैं कि ऐसे तत्वों की फेहरिस्त काफी लंबी हो सकती है।
एकबार फिर लौटते हैं लोकतंत्र के उस चौथे खंभे की ओर जो 'प्रेस' से 'मीडिया' और मीडिया से 'मीडिएटर' कब बन बैठा, पता ही नहीं लगा।
इस तबके पर भी वैसे तो उंगलियां उठती रहती थीं लेकिन तरुण तेजपाल के रूप में इसका जो घिनौना चेहरा सामने आया है, उसने किसी मीडिया पर्सन को भरोसे लायक नहीं छोड़ा। जिसके तेज से कभी देश के प्रधानमंत्रियों एवं रक्षामंत्रियों की भी आंखें चुंधियाने लगी थीं और जिसने पत्रकारिता की एक नई परिभाषा गढ़कर देश के लोगों में उम्मीद की किरण पैदा की, उसका अपना चेहरा इतना वीभत्स होगा इसकी कल्पना तक किसी से नहीं की थी।
तो यह सच्चाई है आज के हमारे उस लोकतंत्र की, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह चार मजबूत स्तंभों पर टिका है। और ये चार स्तंभ हैं क्रमश: विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता।
इनमें से पहले तीन संवैधानिक हैं जबकि पत्रकारिता को चौथा स्तंभ यूं ही मान लिया गया है।
अखबारों से निकली खबरें और उन्हीं में छपे विज्ञापन यह बताने को काफी हैं कि जिन स्तंभों (खंभों) पर विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र पिछले 66 सालों से टिका है, वह न सिर्फ जर्जर हो चुके हैं बल्कि इस कदर सड़ चुके हैं कि अब उनके सहारे लोकतंत्र को जीवित रख पाना असंभव सा लगता है।
स्वतंत्रता के बाद राजनीति के लगातार होने वाले पतन ने 'छूत' की किसी बीमारी की तरह जिस तरह बाकी क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है, उससे जाहिर होता है कि अब यदि देर की तो उपचार करने का वक्त भी हाथ से निकल जायेगा।
लोकतंत्र के चारों पाए जिस तेजी के साथ ध्वस्त हो रहे हैं, उन्हें समय रहते नहीं संभाला गया तो अखबार की कतरनें अट्टहास करती सुनाई देंगी और हमारे मुंह से चाहते हुए भी चीख तक नहीं निकल पायेगी।
किसी का कत्ल करने के लिए जरूरी नहीं कि खंजर से उसे मारा जाए या कि बंदूक की गोली उस पर चलाई जाए। मारने के और भी कई तरीके हैं.....और उनमें से एक तरीका यह भी है कि अपना धर्म, अपना कर्तव्य न निभाकर उस रास्ते को अपना लिया जाए जो सिर्फ और सिर्फ तमाशाबीन बनाए रखता है। जो अपनी हवस मिटाने के लिए उस ओर ले जाता है जहां से सही-गलत, धर्म-अधर्म तथा नीति व अनीति का अंतर तक दिखाई नहीं देता।
जहां खड़े होकर सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति को ही अपना कर्तव्य समझ लिया जाता है और ऐसी परिभाषाएं गढ़ ली जाती हैं जिनमें निजी स्वार्थ ही निहित हो।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की बात यदि कुछ क्षणों के लिए छोड़ दी जाए तो पत्रकारिता का पतन सर्वाधिक चिंता का विषय हो जाता है क्योंकि आमजन के लिए यही वह आखिरी प्लेटफॉर्म है जहां वह बिना किसी प्रोटोकॉल के अपनी बात रख सकता है, जहां से उसे उम्मीद होती है कि बिना कुछ गंवाये वह न्याय पा सकता है।
लेकिन अफसोस कि उसके चरित्र में बहुत तेजी से गिरावट देखने को मिल रही है। विज्ञापनों में नहीं, खबरों में भी। खबरनवीस खुद खबर बन रहे हैं।
निजी हित साधने के लिए तंत्र के साथ लोक की भी हत्या कर रहा है पत्रकारिता का यह पतन।
हत्या भी ऐसी जिसमें खंजर या बंदूक की जगह आधुनिक संसाधनों का दुरुपयोग तथा कानून में बने सूराखों का हरसंभव उपयोग कुछ इस तरह किया जा रहा है कि किसी को आसानी से इल्म तक न हो।
आखिर में एक शेर के साथ बात खत्म, जो कुछ यूं है-
जो कहते हैं इस शहर में कातिल नहीं कोई।
तू उनके लिए सुबह का अखबार लिए जा।।
बात चूंकि अखबारों से निकली है इसलिए अखबार की कतरनों को ही देश का भविष्य रेखांकित करने के लिए चुन रहा हूं।
सबसे पहले उस अखबार के क्लासीफाइड विज्ञापन का ज़िक्र जिसकी टैग लाइन है- ''विश्व का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला अखबार''
विज्ञापन का शीर्षक है 'मित्र बनाओ', लेकिन मजमून कहता है '' साक्षी मसाज क्लब (रजिस्टर्ड 2001) हाई प्रोफाइल लड़कियों, मैडम की मसाज करके युवक 25000 रुपये कमाएं (तुरंत सर्विस)। मोबाइल नंबर-080594*****
अब देखिए एक दूसरे अखबार के विज्ञापन को जिसकी टैगलाइन है -''तरक्की को चाहिए नया नज़रिया'' ।
अब अखबार के इस नए नज़रिए को देखिए-
इसके तहत 'मनोरंजन' शीर्षक वाले विज्ञापनों में प्रकाशित इस क्लासीफाइड का मजमून है- 'मस्ती फ्रेंडशिप'.......ऑल इंडिया सर्विस, हाईप्रोफाइल हाउसवाइफ से फुल एंजॉय करके पार्ट/फुल टाइम 18000-25000 रोजाना कमाएं।
इस विज्ञापन के साथ संपर्क करने के आठ मोबाइल नंबर दिए गये हैं।
इसी तरह 'मेडिकल' शीर्षक वाले विज्ञापनों के तहत उत्तेजना कैप्सूल से लेकर रोमांटिक स्प्रे तक और कामसूत्र पुस्तिका से लेकर गुप्तांग को कड़क, सुडौल, ताकतवर व लंबा-मोटा तक करने का दावा बेहद अश्लील भाषा में किया जाता है।
इसी प्रकार 'वाणिज्य' शीर्षक वाले विज्ञापनों की बानगी देखिए- '' सभी कंपनियों के 3G डिजिटल टावर खाली जमीन, छत, खेत या प्लॉट पर लगवाएं और पाएं 80 लाख रुपये एडवांस, 70 हजार रुपये किराया एवं 20 साल का कोर्ट एग्रीमेंट। संपर्क करें- 09991039***
यहां यह जान लेना जरूरी है कि ऐसे सभी विज्ञापन अधिकांशत: बड़ी धोखेबाजी का सबब बनते हैं और आये दिन इनके माध्यम से लोगों को ठगने की खबरें भी छपती हैं।
विज्ञापनों के बाद चर्चा उन खबरों की जिनका सीधा संबंध देश के तथाकथित भाग्य विधाताओं से है।
पहली खबर राजनीति से, जिसमें देश के विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद साहब कहते हैं कि सोनिया गांधी राहुल गांधी की ही नहीं, हमारी और देशभर की मां हैं। उनके सानिध्य में ही देश सुरक्षित है।
दूसरी खबर जुडीशियरी से, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायधीश लेकिन पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष माननीयअशोक गांगुली कहते हैं कि मुझ पर यौन शोषण के आरोप प्रथम दृष्ट्या सही साबित होते हों तो होते रहें परंतु मैं अपने पद से इस्तीफा नहीं दूंगा। मुझे क्या करना है, यह मैं जानता हूं और इसके लिए जवाब देने को बाध्य नहीं हूं।
बाकी खबरें ब्यूरोक्रेसी से, जिसमें सीबीएसई के एक अधिकारी पर यौन शोषण के आरोप लगते हैं। एक अधिकारी रिश्वत लेते रंगेहाथ पकड़ा जाता है। एक आईपीएस पर उसी की अधीनस्थ दुराचार का आरोप लगाती है और एक आईएएस पर उसकी पत्नी दहेज उत्पीड़न का केस दर्ज कराती है।
अलग-अलग किस्म के आपराधिक मामले होने के बावजूद इनमें एक समानता भी है। समानता यह है कि सभी आरोपी खुद को निर्दोष बताते हुए कहते हैं कि उन्हें फंसाया जा रहा है।
इसके बाद नंबर आता है उन साधु-संतों का जिनके ऊपर समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाये रखने की जिम्मेदारी है और जो भारतीय संस्कृति, धर्म, नीति, नैतिकता तथा चरित्र के संरक्षक माने जाते हैं।
आसाराम बापू और नारायण साईं नामक पिता-पुत्र पर लगे आरोप इस क्षेत्र में आई गिरावट का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए काफी हैं अन्यथा सब जानते हैं कि ऐसे तत्वों की फेहरिस्त काफी लंबी हो सकती है।
एकबार फिर लौटते हैं लोकतंत्र के उस चौथे खंभे की ओर जो 'प्रेस' से 'मीडिया' और मीडिया से 'मीडिएटर' कब बन बैठा, पता ही नहीं लगा।
इस तबके पर भी वैसे तो उंगलियां उठती रहती थीं लेकिन तरुण तेजपाल के रूप में इसका जो घिनौना चेहरा सामने आया है, उसने किसी मीडिया पर्सन को भरोसे लायक नहीं छोड़ा। जिसके तेज से कभी देश के प्रधानमंत्रियों एवं रक्षामंत्रियों की भी आंखें चुंधियाने लगी थीं और जिसने पत्रकारिता की एक नई परिभाषा गढ़कर देश के लोगों में उम्मीद की किरण पैदा की, उसका अपना चेहरा इतना वीभत्स होगा इसकी कल्पना तक किसी से नहीं की थी।
तो यह सच्चाई है आज के हमारे उस लोकतंत्र की, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह चार मजबूत स्तंभों पर टिका है। और ये चार स्तंभ हैं क्रमश: विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता।
इनमें से पहले तीन संवैधानिक हैं जबकि पत्रकारिता को चौथा स्तंभ यूं ही मान लिया गया है।
अखबारों से निकली खबरें और उन्हीं में छपे विज्ञापन यह बताने को काफी हैं कि जिन स्तंभों (खंभों) पर विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र पिछले 66 सालों से टिका है, वह न सिर्फ जर्जर हो चुके हैं बल्कि इस कदर सड़ चुके हैं कि अब उनके सहारे लोकतंत्र को जीवित रख पाना असंभव सा लगता है।
स्वतंत्रता के बाद राजनीति के लगातार होने वाले पतन ने 'छूत' की किसी बीमारी की तरह जिस तरह बाकी क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है, उससे जाहिर होता है कि अब यदि देर की तो उपचार करने का वक्त भी हाथ से निकल जायेगा।
लोकतंत्र के चारों पाए जिस तेजी के साथ ध्वस्त हो रहे हैं, उन्हें समय रहते नहीं संभाला गया तो अखबार की कतरनें अट्टहास करती सुनाई देंगी और हमारे मुंह से चाहते हुए भी चीख तक नहीं निकल पायेगी।
किसी का कत्ल करने के लिए जरूरी नहीं कि खंजर से उसे मारा जाए या कि बंदूक की गोली उस पर चलाई जाए। मारने के और भी कई तरीके हैं.....और उनमें से एक तरीका यह भी है कि अपना धर्म, अपना कर्तव्य न निभाकर उस रास्ते को अपना लिया जाए जो सिर्फ और सिर्फ तमाशाबीन बनाए रखता है। जो अपनी हवस मिटाने के लिए उस ओर ले जाता है जहां से सही-गलत, धर्म-अधर्म तथा नीति व अनीति का अंतर तक दिखाई नहीं देता।
जहां खड़े होकर सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति को ही अपना कर्तव्य समझ लिया जाता है और ऐसी परिभाषाएं गढ़ ली जाती हैं जिनमें निजी स्वार्थ ही निहित हो।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की बात यदि कुछ क्षणों के लिए छोड़ दी जाए तो पत्रकारिता का पतन सर्वाधिक चिंता का विषय हो जाता है क्योंकि आमजन के लिए यही वह आखिरी प्लेटफॉर्म है जहां वह बिना किसी प्रोटोकॉल के अपनी बात रख सकता है, जहां से उसे उम्मीद होती है कि बिना कुछ गंवाये वह न्याय पा सकता है।
लेकिन अफसोस कि उसके चरित्र में बहुत तेजी से गिरावट देखने को मिल रही है। विज्ञापनों में नहीं, खबरों में भी। खबरनवीस खुद खबर बन रहे हैं।
निजी हित साधने के लिए तंत्र के साथ लोक की भी हत्या कर रहा है पत्रकारिता का यह पतन।
हत्या भी ऐसी जिसमें खंजर या बंदूक की जगह आधुनिक संसाधनों का दुरुपयोग तथा कानून में बने सूराखों का हरसंभव उपयोग कुछ इस तरह किया जा रहा है कि किसी को आसानी से इल्म तक न हो।
आखिर में एक शेर के साथ बात खत्म, जो कुछ यूं है-
जो कहते हैं इस शहर में कातिल नहीं कोई।
तू उनके लिए सुबह का अखबार लिए जा।।
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