शुक्रवार, 13 मार्च 2015

न्‍यूज़ चैनल्‍स का ‘पैनल′ पॉल्‍यूशन’

”न भूतो, न भविष्‍यति” (जो न पहले कभी हुआ, न आगे कभी होगा) की तर्ज पर मीडिया (विशेष रूप से इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया) ”आम आदमी पार्टी” (आप) को लेकर समाचारों तथा पैनल डिस्‍कशन का प्रसारण कर रहा है, उसे देख और सुनकर ऐसा लगता है जैसे देश की सारी समस्‍याएं सिमटकर ”आप” तक सीमित रह गई हों।
विभिन्‍न समाचार चैनल्‍स ”आप” के अंदर उपजी फूट पर न केवल खुद अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं बल्‍कि ऐसे-ऐसे तत्‍वों को भी अनर्गल प्रलाप करने का अवसर दे रहे हैं जिनका स्‍तर किसी गली-मोहल्‍ले की समस्‍या सुलझाने में सहायक नहीं हो सकता। यह भी कह सकते हैं कि उनका किसी समस्‍या के समाधान से दूर-दूर तक कोई वास्‍ता ही नहीं होता, अलबत्‍ता वह स्‍वयं में समस्‍या जरूर होते हैं।
कुछ समाचार चैनल्‍स ने तो इसके लिए अपने मेहमान बाकायदा मुकर्रर किये हुए हैं। इन चैनल्‍स ने हर समस्‍या पर बोलने का इन्‍हें जैसे कॉपी राइट दे रखा हो अथवा उनके लिए पेटेंट हासिल कर लिया हो। बिना यह सोचे-समझे कि उनके इस तथाकथित डिस्‍कशन से उनके दर्शक किस कदर परेशान हैं। उन्‍हें समझ में नहीं आता कि बहस रूपी इस मानसिक प्रदूषण से छुटकारा पाया जाए तो कैसे?
हद तो तब हो जाती है जब टीवी का एंकर किसी कथित बुद्धिजीवी से पूछता कुछ है लेकिन वह जवाब वही देता है, जो देना चाहता है। जिसे वह रट कर आया है अथवा शब्‍दों के दोहराव के कारण उसे रट गया है।
चूंकि इस तथाकथित डिस्‍कशन में विरोधी पार्टियों सहित संबंधित पार्टी का भी कोई न कोई नुमाइंदा जरूर शामिल किया जाता है इसलिए बहस को सास-बहू की तू-तू मैं-मैं बनते देर नहीं लगती।
कल तक जो आम आदमी पार्टी खुद को खास बताते नहीं थकती थी और उसके पदाधिकारी कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा या देश की तमाम दूसरी पार्टियों से खुद की तुलना तक करना गवारा नहीं करते थे, आज वही अपने अंदर से उठ रही सड़ांध को ढकने का प्रयास उन्‍हीं पार्टियों से तुलना करके दे रहे हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि कोई टीवी प्रस्‍तोता इनसे यह नहीं पूछता, कि अरे भाई…उनके कर्मों का लेखा-जोखा गिनाने से आप दूध के धुले किस तरह साबित हो सकते हैं?
भाजपा ने अपराधियों को टिकट बांटे, कांग्रेस ने गुण्‍डे मवालियों को नेता बना दिया, सपा और बसपा में अपराधियों का बोलबाला है…अगर यह बातें मान भी ली जाएं तो इससे आपको वैसे ही (कु) कर्म करने का अधिकार प्राप्‍त हो जाता है क्‍या?
आप अपने नेताओं प्रशांत भूषण, योगेन्‍द्र यादव, अंजलि दमानिया, राजेश गर्ग, इरफान उल्‍ला खान सहित पार्टी के संरक्षक शांति भूषण द्वारा लगाये गये आरोपों का जवाब देने की बजाय हर बहस को दूसरी ओर क्‍यों मोड़ ले जाते हो?
क्‍या कोई आरोपी यह दलील देकर खुद को आरोपमुक्‍त करा सकता है कि आरोप लगाने वाले पर इसी तरह के कई आरोप पहले से चस्‍पा हैं…अथवा जिस तरह के आरोप हम पर लगाये जा रहे हैं, वैसे आरोप तो लाखों-करोड़ों लोगों पर हर दिन लगते हैं लिहाजा पहले उनसे सफाई मांगी जाए, उसके बाद हम अपनी सफाई देंगे।
बुद्धि का दिवाला निकाल कर बैठने वालों और उन्‍हें उसका खुलेआम अवसर देने वालों से मैं यह पूछना चाहता हूं कि आपको देशभर में यह डिस्‍कशन प्रदूषण फैलाने का अधिकार किसने दे दिया?
जिन दर्शकों के दम पर टीआरपी का खेल खेलकर सारे चैनल्‍स खुद को सर्वोपरि साबित करते रहते हैं, क्‍या उनसे कभी किसी चैनल ने यह जानने की कोशिश की कि आखिर वह क्‍या देखना चाहता है और क्‍या सुनना उसे पसंद है।
चैनल्‍स के लिए क्‍या दिल्‍ली के अंदर पापी पेट की खातिर बंदरिया का नाच दिखाने वाला ही सब-कुछ होता है, दिल्‍ली के बाहर की दुनिया हिंदुस्‍तान का हिस्‍सा नहीं है।
टीआरपी की दौड़ और उसके लिए किये जाने वाले खेल की खातिर दिल्‍ली तक सिमट कर बैठे इलैक्‍ट्रॉनिक चैनल्‍स में से कोई बतायेगा कि दिल्‍ली के बाहर जिस पार्टी को हाल के लोकसभा चुनावों में कोई पूछने वाला तक पैदा नहीं हुआ, उसे लेकर वह हर रोज ”स्‍यापा” आयोजित किसलिए करते हैं?
राजस्‍थान की रुदालियों की तरह क्‍यों लगभग सभी चैनल्‍स ने अपने-अपने लिए किराये के कथित बुद्धिजीवी एकत्र कर रखे हैं?
क्‍यों कभी इस बहस में किन्‍हीं ऐसे लोगों को शामिल नहीं करते जिनका संबंध आम जनमानस से हो, जो बता सकें कि सत्‍ता के भूखे इन भेड़ियों से इतर भी एक दुनिया है और उस दुनिया के लोग उनके बारे में क्‍या सोचते हैं।
जनता के साथ यह कैसा मजाक है कि उसे किस्‍म-किस्‍म के बहुरूपियों को हर रोज केवल इसलिए झेलना पड़ता है क्‍योंकि वह टीवी चैनल्‍स के ”खास मेहमान” होते हैं।
आम आदमियों से भरे इस देश में ‘खास मेहमानों’ के बिना क्‍या टीवी चैनल्‍स की दुकान भी नहीं चल सकती जबकि समाचार जगत तो हमेशा से आम आदमी की दुनिया से सरोकार रखने का दावा करता रहा है।
यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब समाचारों के प्रसारण का यह माध्‍यम पूरी तरह महत्‍वहीन होकर रह जायेगा और इसकी भी कुगति वैसी ही होगी जैसी आज किसी भी राजनीतिक दल की है। बेशक लोग मजबूरी में उसे ढोते जरूर हैं किंतु सम्‍मान कोई नहीं करता। आम आदमी पार्टी के खास चेहरे चाहे कहें कुछ भी, किंतु चेहरे का नकाब उतर चुका है। उन्‍होंने भी सत्‍ता धोखे से ही हथियाई है, इसका खुलासा हो गया है।
यकीन न हो तो एक जेनुइन सर्वे उस दिल्‍ली की जनता के बीच जाकर करवा लीजिए जिसने चंद रोज पहले 70 में से 67 सीटों पर जीत दिलवाकर अरविंद केजरीवाल को मुख्‍यमंत्री का ताज सौंपा था।
तय मानिये कि दिल्‍ली की जनता आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही होगी…और कोस रही होगी उस दिन को जिसे उसने अपने लिए परिवर्तन का अवसर मानकर आप जैसी फूहड़ पार्टी के पक्ष में भारी मतदान किया।
उसे अफसोस होगा कि उन्‍होंने क्‍यों अरविंद केजरीवाल पर भरोसा कर लिया। जो शख्‍स अपने साथियों तक का भरोसा बनाये रखने में सफल नहीं हो पाया, वह जनता के भरोसे पर क्‍या खरा साबित होगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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