यक्ष प्रश्नों का जहाँ पहरा कड़ा हो,
जिस सरोवर के किनारे
भय खड़ा हो,
उस जलाशय का न पानी पीजिए
राजा युधिष्ठिर।
बंद पानी में
बड़ा आक्रोश होता,
पी अगर ले, आदमी बेहोश होता,
प्यास आख़िर प्यास है, सह लीजिए,
राजा युधिष्ठिर।
जो विकारी वासनाएँ कस न पाए,
मुश्किलों में
जो कभी भी हँस न पाए,
कामनाओं को तिलांजलि दीजिए
राजा युधिष्ठिर।
प्यास जब सातों समंदर
लांघ जाए,
यक्ष किन्नर देव नर सबको हराए,
का-पुरुष बन कर जिए
तो क्या जिए?
राजा युधिष्ठिर।
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।
अभी तो हाल यह है कि सत्ताएं बदलती हैं। सत्ताओं के साथ कुछ चेहरे भी बदलते हैं लेकिन नहीं बदलती तो वो व्यवस्था जिसकी उम्मीद में चुनाव दर चुनाव आम आदमी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चुप्पी चाहे सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की हो या फिर जमीन से चिपके हुए आमजन की, होती बहुत महत्वपूर्ण है। हर तूफान से पहले प्रकृति शायद इसीलिए खामोशी ओढ़ लेती है।
2014 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद आज जिस तरह की खामोशी समूचे राजनीतिक वातावरण में व्याप्त है, वह भयावह है। भयावह इसलिए कि ऊपरी तौर पर भरपूर कोलाहल सुनाई पड़ रहा है, संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ने जा रहा है। शीतकालीन सत्र पर भी अभी से आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं किंतु सारे कोलाहल और हंगामे के बीच कहीं से कोई उत्तर नहीं मिल रहा। कोई समाधान नहीं सूझ रहा लिहाजा देश जैसे ठहर गया है। अगर कोई चाप सुनाई भी देती है तो सिर्फ रेंगने की, उसमें कहीं कोई गति नहीं है। सिर्फ दुर्गति है।
आमजन खुद को हर बार ठगा हुआ और अभिशप्त पाता है। उसे समझ में नहीं आता कि राजनीतिक कुतर्कों के बीच वह अपने तर्क किसके सामने रखे और कैसे व कब रखे। जिस वोट की ताकत पर वह सत्ता बदलने का माद्दा रखता है, वह ताकत भी बेमानी तथा निरर्थक प्रतीत होती है।
आमजन अब भी भूखा है, अब भी प्यासा है लेकिन राजनीति व राजनेताओं की भूख और प्यास हवस में तब्दील हो चुकी है। नीति व नैतिकता केवल किताबी शब्द बनकर रह गए हैं।
अब कोई राजा युधिष्ठिर अपनी कामनाओं, अपनी वासनाओं को तिलांजलि देने के लिए तैयार ही नहीं है। लगता है कि 21 वीं सदी में किसी और महाभारत की पटकथा तैयार हो रही है।
राजनेताओं की प्यास सातों समंदर लांघ रही है। यक्ष, किन्नर, देव, नर सबको हरा रही है। का-पुरुष बनकर जीने से किसी को परहेज नहीं रहा। आमजन की उम्मीद के सारे स्त्रोत सूखते दिखाई देते हैं। कहने को लोकतंत्र है परंतु आमजन जितना परतंत्र 67 साल पहले था, उतना ही परतंत्र आज भी है। व्यवस्था के तीनों संवैधानिक स्तंभ विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका…और कथित चौथा स्तंभ पत्रकारिता भी किसी अंधी सुरंग में तब्दील हो चुके हैं। यहां रौशनी की कोई किरण कभी दिखाई देती भी है तो सामर्थ्यवान को दिखाई देती है। असमर्थ व्यक्ति असहाय है। उसकी पीड़ा तक को व्यावसायिक या फिर निजी स्वार्थों की तराजू में तोलने के बाद महसूस करने का उपक्रम किया जाता है। वह लाभ पहुंचा सकती है तो ठीक अन्यथा नक्कारखाने में बहुत सी तूतियां समय-समय पर चीखकर स्वत: खामोश हो लेती हैं।
जिस न्यायपालिका से किसी भी आमजन की अंतिम आस बंधी होती है, वह न्यायपालिका खुद इतने बंधनों और किंतु-परंतुओं में उलझती जा रही है कि उसे खुद अब एक दिशा की दरकार है। सवाल बड़ा यह है कि दिग्दर्शक को दिशा दिखाए तो दिखाये कौन?
टकराव के हालात मात्र राजनीति तक शेष नहीं रहे, वह उस मुकाम तक जा पहुंचे हैं जहां से पूरी व्यवस्था के चरमराने का खतरा मंडराने लगा है। न्याय के इंतजार में कोई थक-हार कर बैठ जाता है तो कोई हताश होकर वहां टकटकी लगाकर देखने लगता है, जहां कहते हैं कि कोई परमात्मा विराजमान है। वास्तव का परमात्मा। जिसे लोगों ने अपनी सुविधा से अलग-अलग नाम और अलग-अलग काम दे रखे हैं।
कहते हैं वह ऊपर बैठा-बैठा सबको देखता है, सबकी सुनता है लेकिन कब देखता है और कब सुनता है, इसका पता न सुनाने वाले को लगता है और न टकटकी लगाकर देखने वालों को।
हालात तो कुछ ऐसा बयां करते हैं जैसे 21 वीं सदी का आमजन ही ऊपर वाले को देख रहा है। देख रहा है कि वह कब और कैसे महाभारत में कहे गये अपने शब्दों को साकार करने आता है।
कहते हैं कि उसे भी निराकार से साकार होने के लिए किसी आकार की जरूरत पड़ती है।
तो क्या हमारी व्यवस्था भी कोई आकार ले रही है। इस बेतुकी व्यवस्था से ही कोई तुक निकलेगा और वह सबको तृप्त करने का उपाय करने में सक्षम होगा?
कुछ पता नहीं…लेकिन डॉ. विष्णु विराट सही लिखते हैं कि-
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।
यक्ष प्रश्नों का जवाब दिए बिना…ठहरे हुए सरोवर से प्यास बुझाने के लिए बाध्य असहायों को राजा युधिष्ठिर कब उत्तर देकर पुनर्जीवित करते हैं, यह भी अपने आप में एक यक्ष प्रश्न बन चुका है। नई व्यवस्था के नए राजा युधिष्ठिर के लिए नए यक्ष प्रश्न।
ऐसे-ऐसे यक्ष प्रश्न जिनके उत्तर अब शायद इस युग के राजा युधिष्ठिर को भी तलाशने पड़ रहे हैं।
इधर यक्ष प्रश्नों को भी उत्तर का इंतजार है राजा युधिष्ठिर!
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
जिस सरोवर के किनारे
भय खड़ा हो,
उस जलाशय का न पानी पीजिए
राजा युधिष्ठिर।
बंद पानी में
बड़ा आक्रोश होता,
पी अगर ले, आदमी बेहोश होता,
प्यास आख़िर प्यास है, सह लीजिए,
राजा युधिष्ठिर।
जो विकारी वासनाएँ कस न पाए,
मुश्किलों में
जो कभी भी हँस न पाए,
कामनाओं को तिलांजलि दीजिए
राजा युधिष्ठिर।
प्यास जब सातों समंदर
लांघ जाए,
यक्ष किन्नर देव नर सबको हराए,
का-पुरुष बन कर जिए
तो क्या जिए?
राजा युधिष्ठिर।
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।
मथुरा में जन्मे और इसी वर्ष 11 फरवरी 2015 को ‘नि:शब्द’ हुए डा. विष्णु विराट ने यह कविता पता नहीं कब लिखी थी और किस उद्देश्य के साथ लिखी थी, यह तो कहना मुश्किल है अलबत्ता इत्तिफाक देखिए कि वर्तमान दौर में उनकी यह कविता व्यवस्था पर किस कदर गहरी चोट करती है जैसे लगता है कि भविष्य को वह अपनी मृत्यु से पहले ही रेखांकित कर गये हों।
धर्मराज युधिष्ठिर को केंद्र में रखकर लिखी गई इस कविता की तरह आज हमारा देश भी तमाम यक्ष प्रश्नों के पहरे में घुटकर रह गया है। स्वतंत्रता पाने के 67 सालों बाद भी आमजन भयभीत है। वह डरा हुआ है न केवल खुद को लेकर बल्कि देश के भी भविष्य को लेकर क्योंकि देश का भविष्य स्वर्णिम दिखाई देगा तभी तो उसका अपना भविष्य उज्ज्वल नजर आयेगा।अभी तो हाल यह है कि सत्ताएं बदलती हैं। सत्ताओं के साथ कुछ चेहरे भी बदलते हैं लेकिन नहीं बदलती तो वो व्यवस्था जिसकी उम्मीद में चुनाव दर चुनाव आम आदमी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चुप्पी चाहे सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की हो या फिर जमीन से चिपके हुए आमजन की, होती बहुत महत्वपूर्ण है। हर तूफान से पहले प्रकृति शायद इसीलिए खामोशी ओढ़ लेती है।
2014 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद आज जिस तरह की खामोशी समूचे राजनीतिक वातावरण में व्याप्त है, वह भयावह है। भयावह इसलिए कि ऊपरी तौर पर भरपूर कोलाहल सुनाई पड़ रहा है, संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ने जा रहा है। शीतकालीन सत्र पर भी अभी से आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं किंतु सारे कोलाहल और हंगामे के बीच कहीं से कोई उत्तर नहीं मिल रहा। कोई समाधान नहीं सूझ रहा लिहाजा देश जैसे ठहर गया है। अगर कोई चाप सुनाई भी देती है तो सिर्फ रेंगने की, उसमें कहीं कोई गति नहीं है। सिर्फ दुर्गति है।
आमजन खुद को हर बार ठगा हुआ और अभिशप्त पाता है। उसे समझ में नहीं आता कि राजनीतिक कुतर्कों के बीच वह अपने तर्क किसके सामने रखे और कैसे व कब रखे। जिस वोट की ताकत पर वह सत्ता बदलने का माद्दा रखता है, वह ताकत भी बेमानी तथा निरर्थक प्रतीत होती है।
आमजन अब भी भूखा है, अब भी प्यासा है लेकिन राजनीति व राजनेताओं की भूख और प्यास हवस में तब्दील हो चुकी है। नीति व नैतिकता केवल किताबी शब्द बनकर रह गए हैं।
अब कोई राजा युधिष्ठिर अपनी कामनाओं, अपनी वासनाओं को तिलांजलि देने के लिए तैयार ही नहीं है। लगता है कि 21 वीं सदी में किसी और महाभारत की पटकथा तैयार हो रही है।
राजनेताओं की प्यास सातों समंदर लांघ रही है। यक्ष, किन्नर, देव, नर सबको हरा रही है। का-पुरुष बनकर जीने से किसी को परहेज नहीं रहा। आमजन की उम्मीद के सारे स्त्रोत सूखते दिखाई देते हैं। कहने को लोकतंत्र है परंतु आमजन जितना परतंत्र 67 साल पहले था, उतना ही परतंत्र आज भी है। व्यवस्था के तीनों संवैधानिक स्तंभ विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका…और कथित चौथा स्तंभ पत्रकारिता भी किसी अंधी सुरंग में तब्दील हो चुके हैं। यहां रौशनी की कोई किरण कभी दिखाई देती भी है तो सामर्थ्यवान को दिखाई देती है। असमर्थ व्यक्ति असहाय है। उसकी पीड़ा तक को व्यावसायिक या फिर निजी स्वार्थों की तराजू में तोलने के बाद महसूस करने का उपक्रम किया जाता है। वह लाभ पहुंचा सकती है तो ठीक अन्यथा नक्कारखाने में बहुत सी तूतियां समय-समय पर चीखकर स्वत: खामोश हो लेती हैं।
जिस न्यायपालिका से किसी भी आमजन की अंतिम आस बंधी होती है, वह न्यायपालिका खुद इतने बंधनों और किंतु-परंतुओं में उलझती जा रही है कि उसे खुद अब एक दिशा की दरकार है। सवाल बड़ा यह है कि दिग्दर्शक को दिशा दिखाए तो दिखाये कौन?
टकराव के हालात मात्र राजनीति तक शेष नहीं रहे, वह उस मुकाम तक जा पहुंचे हैं जहां से पूरी व्यवस्था के चरमराने का खतरा मंडराने लगा है। न्याय के इंतजार में कोई थक-हार कर बैठ जाता है तो कोई हताश होकर वहां टकटकी लगाकर देखने लगता है, जहां कहते हैं कि कोई परमात्मा विराजमान है। वास्तव का परमात्मा। जिसे लोगों ने अपनी सुविधा से अलग-अलग नाम और अलग-अलग काम दे रखे हैं।
कहते हैं वह ऊपर बैठा-बैठा सबको देखता है, सबकी सुनता है लेकिन कब देखता है और कब सुनता है, इसका पता न सुनाने वाले को लगता है और न टकटकी लगाकर देखने वालों को।
हालात तो कुछ ऐसा बयां करते हैं जैसे 21 वीं सदी का आमजन ही ऊपर वाले को देख रहा है। देख रहा है कि वह कब और कैसे महाभारत में कहे गये अपने शब्दों को साकार करने आता है।
कहते हैं कि उसे भी निराकार से साकार होने के लिए किसी आकार की जरूरत पड़ती है।
तो क्या हमारी व्यवस्था भी कोई आकार ले रही है। इस बेतुकी व्यवस्था से ही कोई तुक निकलेगा और वह सबको तृप्त करने का उपाय करने में सक्षम होगा?
कुछ पता नहीं…लेकिन डॉ. विष्णु विराट सही लिखते हैं कि-
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।
यक्ष प्रश्नों का जवाब दिए बिना…ठहरे हुए सरोवर से प्यास बुझाने के लिए बाध्य असहायों को राजा युधिष्ठिर कब उत्तर देकर पुनर्जीवित करते हैं, यह भी अपने आप में एक यक्ष प्रश्न बन चुका है। नई व्यवस्था के नए राजा युधिष्ठिर के लिए नए यक्ष प्रश्न।
ऐसे-ऐसे यक्ष प्रश्न जिनके उत्तर अब शायद इस युग के राजा युधिष्ठिर को भी तलाशने पड़ रहे हैं।
इधर यक्ष प्रश्नों को भी उत्तर का इंतजार है राजा युधिष्ठिर!
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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