रविवार, 28 फ़रवरी 2016

सांसदों के चंगुल में Parliament

अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता, असहिष्‍णुता, धर्मनिरपेक्षता तथा सर्वधर्म समानता जैसे कुछ शब्‍द इन दिनों देश की सारी समस्‍याओं पर हावी हैं। तमाम समस्‍याएं एक तरफ और इन चार शब्‍दों की महत्‍ता एक तरफ। सब-कुछ जैसे इन्‍हीं चार शब्‍दों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है। सब-कुछ ठहर गया है, ठप्‍प हो गया है।
लोकसभा ठप्‍प, राज्‍यसभा ठप्‍प और इनके साथ अनेक वो बिल भी ठप्‍प जिनके पास होने का इंतजार देश की जनता पिछले चार संसद सत्रों से कर रही है।
ऐसा लगता है जैसे आमजन के मताधिकार से विशिष्‍टजन की श्रेणी को प्राप्‍त माननीयों ने ही संसद को बंधक बना लिया। वह उनके चंगुल में फंस चुकी है। आश्‍चर्य की बात तो यह है कि जनप्रतिनिधि कहलाने वाले इन लोगों ने उन मुद्दों पर संसद को बंधक बना रखा है जिनका आमजन से दूर-दूर तक कोई वास्‍ता है ही नहीं। आमजन का वास्‍ता है उन समस्‍याओं से जिनका समाधान करने के लिए इन्‍हें संसद के अंदर बैठने का अधिकार उसने दिया था, किंतु आज वही आमजन के लिए समस्‍या बन बैठे हैं।
अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता, असहिष्‍णुता, धर्मनिरपेक्षता तथा सर्वधर्म समानता जैसे भारी-भरकम शब्‍दों से आमजन का क्‍या लेना-देना। उसके लिए यह सारे शब्‍द बेमानी हैं। बेमानी इसलिए हैं कि उसका तो सारा समय निजी समस्‍याओं का समाधान करने में बीत जाता है। वो निजी समस्‍याएं जिन्‍हें जन साधारण की भाषा में नून, तेल लकड़ी का बंदोबस्‍त करना कहते हैं। जो अपने घर में ही बीबी-बच्‍चों के सामने भी खुद की भावनाएं अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाते, वह क्‍या जानें अभिव्‍यक्‍ति की भी कोई स्‍वतंत्रता होती है। वह क्‍या समझें कि देश के संविधान ने उन्‍हें अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता जैसा कोई अधिकार भी दे रखा है।
असहिष्‍णुता से तो ऐसे लोग ताजिंदगी परिचित ही नहीं होते क्‍योंकि कम खाना और गम खाना उन्‍हें तभी से घुट्टी में पिला दिया जाता है जब वो होश संभालने लायक होते हैं। सहिष्‍णुता ही उनके जीवन का मंत्र बन जाता है। बाकी जो कुछ उनके जीवन में असहिष्‍णु घटता है, वह कानून-व्‍यवस्‍था की समस्‍या होती है न कि सामाजिक समस्‍या।
जैसे-तैसे जीवन जीने की जद्दोजहद में धर्मनिरपेक्षता उनके खून के अंदर इस कदर घुल जाती है कि वह कभी उसके परे जाकर सोचने लायक नहीं रहते। सर्वधर्म समानता ऐसे लोगों की दिनचर्या का हिस्‍सा होती है। उनकी जुबान राम-राम के जवाब में राम-राम और अस्सलामालेकुम के जवाब में वालेकुम सलाम खुद-ब-खुद कह बैठती है।
हां, आम लोगों से इतर इन शब्‍दों के परिपेक्ष्‍य में यदि बात करें खास लोगों की तो उनके लिए ऐसे शब्‍द विशेष अहमियत रखते हैं। विशेष इसलिए कि इनमें से एक-एक शब्‍द संसद ठप्‍प कराने, दंगा भड़काने, आमजन को जाति व धर्म के नाम पर बांटने तथा देश को कई दशकों पीछे ले जाने की ताकत रखता है। और इन सबसे ऊपर भरपूर राजनीति करने का अवसर प्रदान करता है।
यही कारण है कि इन दिनों ऐसे शब्‍दों को उछालकर देश को खूब छला जा रहा है अन्‍यथा कौन नहीं जानता कि इन शब्‍दों की आड़ में खेला जा रहा घिनौना खेल किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा सकता।
जिस अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता को हथियार बनाकर आज कई राजनीतिक दल संसद को ठप्‍प किए हुए हैं, क्‍या वह नहीं जानते कि कोई भी स्‍वतंत्रता किसी दूसरे को आहत करने का अधिकार नहीं देती। अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर किसी एक को दूसरों के लिए गालियां देने का अधिकार नहीं मिल जाता। ऐसी स्‍वतंत्रता फिर कानून-व्‍यवस्‍था का विषय बन जाती है।
माना कि देश के हर नागरिक को अपनी इच्‍छानुसार जीवन जीने तथा खाने-पीने तथा रहने का भी अधिकार संविधान ने दिया है किंतु यदि कोई सड़क पर इसलिए निर्वस्‍त्र घूमना चाहे कि उसे संविधान में जैसे-चाहे रहने का अधिकार प्राप्‍त है तो क्‍या उसकी इस दलील से सहमत हुआ जा सकता है। यही बात खान-पान पर भी लागू होती है। हर व्‍यक्‍ति अपने अधिकारों का इस्‍तेमाल करने के लिए स्‍वतंत्र है लेकिन अपने दायरे में रहकर। तब तक, जब तक कि कोई अन्‍य उससे आहत नहीं होता। दूसरों को आहत करने के लिए प्रयोग किया जाने वाला कोई भी अधिकार, अधिकारों के अतिक्रमण की श्रेणी में आता है। ऐसे में यह कहना कि अभिव्‍यक्‍ति की आजादी के संविधान प्रदत्‍त अधिकार की आड़ लेकर कोई देश को टुकड़े-टुकड़े करने का नारा देने को भी स्‍वतंत्र है…खालिस घटिया, ओछी व बेशर्म राजनीति के अलावा कुछ नहीं है।
संसद पर हमले के सर्वोच्‍च न्‍यायालय से दोष सिद्ध अपराधी की सजा को लेकर उंगली उठाना और देश की कानून-व्‍यवस्‍था को चुनौती देना यदि अभिव्‍यक्‍ति की आजादी है तो ऐसी आजादी हर हाल में छीन लेना ही देश व समाज दोनों के लिए बेहतर है।
घोर आश्‍चर्य की बात है कि कश्‍मीर की आजादी तक जंग जारी रखने का नारा देने वालों का समर्थन वो लोग करते हैं जो कभी लुटियन जोन में अलॉट हुए एक सरकारी बंगले पर हमेशा-हमेशा के लिए अनाधिकृत कब्‍जा बनाए रखना चाहते हैं।
ऐसे लोग अब राष्‍ट्रद्रोह को अपने तरीके से परिभाषित करने में लगे हैं। देश के टुकड़े-टुकड़े करने का नारा देना राष्‍ट्रद्रोह है या नहीं, इसका निर्णय अब कोर्ट को क्‍यों नहीं करने देते। पुलिस को जो उचित लगा, वो उसने किया। यदि पुलिस ने गलत किया है तो कोर्ट उसे भी सबक जरूर सिखायेगी किंतु कोर्ट का निर्णय आने से पहले ही अपने तरीके से राष्‍ट्रद्रोह को परिभाषित करना क्‍या समूची व्‍यवस्‍था पर ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगाना नहीं है।
इसी प्रकार असहिष्‍णुता को मुद्दा बनाकर संसद का पूरा एक सत्र बर्बाद कर दिया गया। प्रचारित किया गया कि मोदी राज में देश बहुत असहिष्‍णु हो गया है। दिमाग के दिवालियेपन या उसके शातिर दुरुपयोग का इससे निकृष्‍ट कोई उदाहरण शायद ही दूसरा हो।
पूरे का पूरा कोई देश असहिष्‍णु कैसे हो सकता है। व्‍यक्‍ति विशेष भी किसी खास मामले में असहिष्‍णु हो जाता है तो कई मामलों में वही व्‍यक्‍ति पूरी सहिष्‍णुता का परिचय देता है। एक कोई बात किसी व्‍यक्‍ति को बुरी लगती है लेकिन वही बात दूसरे व्‍यक्‍ति को उतनी बुरी नहीं लगती या बुरी ही नहीं लगती। सहिष्‍णुता और असहिष्‍णुता प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के अपने विचारों पर निर्भर करती है। ज्‍यादा से ज्‍यादा चंद लोगों का समूह किसी बात के प्रति सहिष्‍णु या असहिष्‍णु हो सकता है किंतु पूरा देश कभी किसी मुद्दे पर एकराय नहीं हो सकता।
जिस देश में ओसामा बिन लादेन जैसे कुख्‍यात अंतर्राष्‍ट्रीय आतंकवादी को सम्‍मान पूर्वक संबोधित करने की छूट हो, जिस देश में बटला हाउस के आतंकवादियों को निर्दोष बताने की सुविधा हो, जिस देश में संसद हमले के दोषी अफजल गुरू को मौत की सजा के कई साल बाद भी क्‍लीनचिट देने का अधिकार प्राप्‍त हो, और जिस देश में इतना सब-कुछ करने वाले तत्‍व पूर्ण सम्‍मान के साथ जी रहे हों, उस देश को असहिष्‍णु कहना सहिष्‍णुता को कलंकित करने की असफल कोशिश के अतिरिक्‍त कुछ नहीं माना जा सकता।
जहां किसी एक धर्म से जुड़े व्‍यक्‍ति की हत्‍या पर नजरिया कुछ और हो और दूसरे धर्म के व्‍यक्‍ति की हत्‍या पर नजरिया ही बदल जाए, जहां अपराध व अपराधियों को भी जाति-धर्म व संप्रदाय के अलग-अलग चश्‍मों से देखा जाए और आपराधिक घटनाओं पर पूरी निर्लज्‍जता के साथ राजनीति करने का अवसर हो, वहां धर्मनिरपेक्षता की बातें करना क्‍या किसी षड्यंत्र का हिस्‍सा नहीं। क्‍या ऐसी कोशिश भी राष्‍ट्रद्रोह की श्रेणी में नहीं आनी चाहिए।
बेशक हमारे देश का कानून बहुत पुराना है और कई कानून आउटडेटेड हो चुके हैं लिहाजा वो अपना मकसद पूरा करने लायक नहीं रहे। तो क्‍या इसका मतलब यह है कि हर व्‍यक्‍ति उन्‍हें अपने तरीके से परिभाषित करने लगे और उन्‍हें लेकर न्‍यायपालिका पर भी उंगली उठा सके।
यदि ऐसा है तो निश्‍चित ही उन कानूनों की परिभाषा न सिर्फ स्‍पष्‍ट की जाए और जरूरी हो तो बदली भी जाए ताकि फिर कोई उमर खालिद, कोई कन्‍हैया कुमार या उसके साथी खुलेआम देश के टुकड़े-टुकड़े होने तक जंग जारी रखने का ऐलान न कर सकें। खुलेआम देश की कानून-व्‍यवस्‍था को चुनौती न दे सकें।
ताकि फिर कोई नेता राजनीति का सहारा लेकर या कोई राजनीतिक दल पक्ष-विपक्ष के अधिकारों से अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का हवाला देकर देश के गद्दारों का समर्थन न कर सके। किसी को इतना अधिकार न हो कि जिस कश्‍मीर के लिए अनगिनित बलिदान दिए जा चुके हैं, जिसकी खातिर देश के सैनिक विकट से विकट परिस्‍थितयों में ड्यूटी को अंजाम दे रहे हों, जहां आए दिन आतंकवादी निर्दोष लोगों का खून बहा रहे हों, उस कश्‍मीर की आजादी के सपने देखने वालों के साथ खड़े नजर आ सकें।
अब समय आ गया है कि ऐसे हर कानून की नए सिरे से व्‍याख्‍या हो अन्‍यथा आज देश की संसद ठप्‍प है, कल देश ही पूरी तरह ठप्‍प हो जायेगा।
अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता, तथाकथित असहिष्‍णुता, धर्म निरपेक्षता और सर्वधर्म समानता की इतनी बड़ी कीमत नहीं चुकाई जा सकती। पूरे के पूरे राष्‍ट्र को राष्‍ट्रद्रोहियों के हवाले इसलिए नहीं किया जा सकता कि राष्‍ट्रद्रोह को लेकर उनका नजरिया भिन्‍न है और वो खुद को सरकार, कानून-व्‍यवस्‍था और न्‍यायपालिका से भी ऊपर समझते हैं।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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