इस चित्र में बसपा सुप्रीमो मायावती को जो हाथी ”गिफ्ट” किया जा रहा है, वह
सोने का है या चांदी का अथवा किसी अन्य धातु का…इसका तो पता नहीं लेकिन
चित्र देखने से लगता है कि उक्त हाथी निश्चित ही बहिनजी की पसंद वाला और
उनकी गरिमा के अनुकूल रहा होगा क्योंकि न तो मायावती को ऐरा-गैरा हाथी
देने की हिमाकत कोई कर सकता है और न मायावती किसी ऐरे-गैरे के हाथों से
हाथी की भेंट ले सकती हैं। आखिर वो हाथी ही तो है जिसने मायावती को चार-चार
बार सूबे की सवारी करवा दी और बड़ों-बडों को धूल फांकने पर मजबूर कर दिया।
यह हाथी अष्टधातु का भी हो सकता है क्योंकि इसे देने वाले की भी हैसियत कम नहीं है।
बहिनजी को हाथी भेंट करने वाले सज्जन से मथुरा जनपद भली-भांति परिचित है क्योंकि यह बहिन मायवती के अति करीबियों में शुमार वृंदावन नगर पालिका की पूर्व अध्यक्ष पुष्पा शर्मा के पुत्र योगेश द्विवेदी हैं। वही योगेश द्विवेदी जो बसपा की ही टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव मथुरा से लड़े थे किंतु जीत नहीं पाए।
इस बार वह मथुरा-वृंदावन विधानसभा क्षेत्र से अब तक बसपा की उम्मीदवारी का दावा कर रहे हैं। बसपा ने भी अब तक कुछ ऐसे ही संकेत दे रखे हैं कि योगेश द्विवेदी मथुरा-वृंदावन से उनके उम्मीदवार होंगे। हालांकि बसपा के संकेत कितने भरोसेमंद होते हैं, इसे डॉ. अशोक अग्रवाल अच्छे से जानते हैं। वही डॉ. अशोक अगवाल जो योगेश द्विवेदी की ही तरह आज सपा के मथुरा-वृंदावन सीट से उम्मीदवार हैं किंतु कभी बसपा के निष्ठावान सिपाही माने जाते थे। बसपा ने उन्हें भी योगेश द्विवेदी की ही तरह अंत तक अपना संभावित प्रत्याशी बनाए रखा। यहां तक कि डॉ. अशोक अग्रवाल ने नामांकन भरने की पूरी तैयारी के साथ विश्रामघाट जाकर अपने लाव-लश्कर के साथ यमुना पूजन भी कर डाला।
यमुना पूजन के बाद अचानक लखनऊ से आकाशवाणी हुई कि मथुरा-वृंदावन से बसपा के टिकट पर चुनाव डॉ. अशोक अग्रवाल की जगह देवेन्द्र गौतम उर्फ गुड्डू भइया चुनाव लड़ेंगे। डॉ. अशोक अग्रवाल ने इस आकाशवाणी के खिलाफ यथासंभव प्रयास किया लेकिन उनकी पतंग लखनऊ से काटकर गुड्डू भइया के हाथ में थमा दी गई थी लिहाजा डॉ. साहब के सारे प्रयास बेकार साबित हुए। डॉ. साहब, गुड्डू भइया की चरखी पकड़कर उनकी पतंग के पैंच देखते रह गए।
कहा जाता है कि पार्टी से चुनाव लड़ने की हरी झंडी पाने के लिए डॉ. अशोक अग्रवाल ने भी बहिनजी को इसी तरह कई हाथी भेंट किए थे जिस तरह योगेश द्विवेदी कर रहे हैं लेकिन कोई हाथी फिर काम नहीं आया। पार्टी के लोगों का कहना है कि बहिनजी ने सारे हाथियों का डॉ. अशोक अग्रवाल को किश्तों में ”रिटर्न गिफ्ट” दे दिया।
तब से डॉ. अशोक अग्रवाल समाजवादी हो गए, और समाजवादी पार्टी की ओर से पिछला विधानसभा चुनाव भी लड़ लिए। ये बात अलग है कि मुलायम के कुनबे की इस पार्टी के लिए कृष्ण की भूमि अब तक ऊसर साबित हुई है लिहाजा डॉ. अशोक बहुत कम मतों से तीसरे नंबर पर रहे। इस बार वह फिर पूरी तैयारी में हैं।
यह सर्वविदित है कि बहिनजी के दरबार में इस पुरानी कहावत पर पूरी तरह अमल होता है कि समझदार लोग राजा, गुरू और तीर्थस्थान से मुलाकात करने कभी खाली हाथ नहीं जाते। अपनी हैसियत के अनुसार पत्र-पुष्प की भेंट लेकर ही मिलते हैं। ऐसे में योगश द्विवेदी बहिनजी से खाली हाथ मिलते भी कैसे। हाथी चूंकि पार्टी का चुनाव चिन्ह भी है और बहिनजी को अति प्रिय भी है इसलिए हाथी से अच्छी भेंट कोई हो नहीं सकती थी।
योगेश द्विवेदी ने बहिनजी को जो हाथी भेंट किया, पता नहीं उसका नंबर कौन सा था लेकिन फोटो देखकर इतना अवश्य पता लग रहा है कि इस हाथी की भेंट तब चढ़ाई गई थी जब मथुरा के कद्दावर जाट नेता चौधरी लक्ष्मीनारायण भी हाथी की पूंछ पकड़कर अपनी राजनीतिक वैतरणी पार करने में लगे थे।
इन दिनों चौधरी लक्ष्मीनारायण कमल का फूल लेकर चल रहे हैं और उसी के बल पर उनकी धर्मपत्नी ममता चौधरी मथुरा जिला पंचायत की अध्यक्ष बनी बैठी हैं।
राजनीति की बिसात पर खेले जाने वाले शतरंज के खेल में प्यादों की अहमियत तो बहुत होती है किंतु उनके ”सिर” हमेशा खेल खेलने वालों के हाथ रहते हैं।
यही कारण है कि कभी बसपा के निष्ठावान कार्यकर्ता डॉ. अशोक अग्रवाल आज समाजवादी पार्टी के निष्ठावान सिपाही हैं और थोड़े दिनों पहले तक हाथी के झंडे वाली हूटर लगी गाड़ी पर लालबत्ती लगाए मंत्री पद को सुशोभित करने वाले चौधरी लक्ष्मीनाराण के कंधों पर भाजपा का कमल खिलाने की जिम्मदारी है।
खैर, योगेश द्विवेदी का हाथी यूपी के विधानसभा चुनावों तक किस करवट बैठता है, यह तो बता पाना फिलहाल संभव नहीं है लेकिन उनका बहिन जी को हाथी भेंट करता हुआ चित्र यह जरूर बताता है कि उम्मीदवारी की घोषणा चाहे जिस समय भी होती हो लेकिन उम्मीदवारी की प्रत्याशा में पता नहीं कितने हाथी और कब-कब भेंट करने पड़ते हैं।
ऊंट तो किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह है नहीं इसलिए ”ऊंट के मुंह में जीरा” वाली कहावत यहां बेमानी है परंतु नई कहावत यह जरूर बनती है कि हाथी की सवारी के लिए हाथी को केले या गन्ना खिलाने का मतलब टिकट पाने की गारंटी कतई नहीं है।
हाथी का पेट बहुत बड़ा होता है, हाथी की भूख भी बहुत बड़ी होती है। ऐसे में जो उसके पेट की भूख समय पर पूरी तरह शांत कर सके, उसकी क्षुधा मिटा सके, हाथी उसका होता है। बाकी तो अंतिम सत्य वही है कि ”जाकौ हाथी, वाकौ नाम…चाहे घूम-फिर आवै गांव-गांव।
-लीजेंड न्यूज़
यह हाथी अष्टधातु का भी हो सकता है क्योंकि इसे देने वाले की भी हैसियत कम नहीं है।
बहिनजी को हाथी भेंट करने वाले सज्जन से मथुरा जनपद भली-भांति परिचित है क्योंकि यह बहिन मायवती के अति करीबियों में शुमार वृंदावन नगर पालिका की पूर्व अध्यक्ष पुष्पा शर्मा के पुत्र योगेश द्विवेदी हैं। वही योगेश द्विवेदी जो बसपा की ही टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव मथुरा से लड़े थे किंतु जीत नहीं पाए।
इस बार वह मथुरा-वृंदावन विधानसभा क्षेत्र से अब तक बसपा की उम्मीदवारी का दावा कर रहे हैं। बसपा ने भी अब तक कुछ ऐसे ही संकेत दे रखे हैं कि योगेश द्विवेदी मथुरा-वृंदावन से उनके उम्मीदवार होंगे। हालांकि बसपा के संकेत कितने भरोसेमंद होते हैं, इसे डॉ. अशोक अग्रवाल अच्छे से जानते हैं। वही डॉ. अशोक अगवाल जो योगेश द्विवेदी की ही तरह आज सपा के मथुरा-वृंदावन सीट से उम्मीदवार हैं किंतु कभी बसपा के निष्ठावान सिपाही माने जाते थे। बसपा ने उन्हें भी योगेश द्विवेदी की ही तरह अंत तक अपना संभावित प्रत्याशी बनाए रखा। यहां तक कि डॉ. अशोक अग्रवाल ने नामांकन भरने की पूरी तैयारी के साथ विश्रामघाट जाकर अपने लाव-लश्कर के साथ यमुना पूजन भी कर डाला।
यमुना पूजन के बाद अचानक लखनऊ से आकाशवाणी हुई कि मथुरा-वृंदावन से बसपा के टिकट पर चुनाव डॉ. अशोक अग्रवाल की जगह देवेन्द्र गौतम उर्फ गुड्डू भइया चुनाव लड़ेंगे। डॉ. अशोक अग्रवाल ने इस आकाशवाणी के खिलाफ यथासंभव प्रयास किया लेकिन उनकी पतंग लखनऊ से काटकर गुड्डू भइया के हाथ में थमा दी गई थी लिहाजा डॉ. साहब के सारे प्रयास बेकार साबित हुए। डॉ. साहब, गुड्डू भइया की चरखी पकड़कर उनकी पतंग के पैंच देखते रह गए।
कहा जाता है कि पार्टी से चुनाव लड़ने की हरी झंडी पाने के लिए डॉ. अशोक अग्रवाल ने भी बहिनजी को इसी तरह कई हाथी भेंट किए थे जिस तरह योगेश द्विवेदी कर रहे हैं लेकिन कोई हाथी फिर काम नहीं आया। पार्टी के लोगों का कहना है कि बहिनजी ने सारे हाथियों का डॉ. अशोक अग्रवाल को किश्तों में ”रिटर्न गिफ्ट” दे दिया।
तब से डॉ. अशोक अग्रवाल समाजवादी हो गए, और समाजवादी पार्टी की ओर से पिछला विधानसभा चुनाव भी लड़ लिए। ये बात अलग है कि मुलायम के कुनबे की इस पार्टी के लिए कृष्ण की भूमि अब तक ऊसर साबित हुई है लिहाजा डॉ. अशोक बहुत कम मतों से तीसरे नंबर पर रहे। इस बार वह फिर पूरी तैयारी में हैं।
यह सर्वविदित है कि बहिनजी के दरबार में इस पुरानी कहावत पर पूरी तरह अमल होता है कि समझदार लोग राजा, गुरू और तीर्थस्थान से मुलाकात करने कभी खाली हाथ नहीं जाते। अपनी हैसियत के अनुसार पत्र-पुष्प की भेंट लेकर ही मिलते हैं। ऐसे में योगश द्विवेदी बहिनजी से खाली हाथ मिलते भी कैसे। हाथी चूंकि पार्टी का चुनाव चिन्ह भी है और बहिनजी को अति प्रिय भी है इसलिए हाथी से अच्छी भेंट कोई हो नहीं सकती थी।
योगेश द्विवेदी ने बहिनजी को जो हाथी भेंट किया, पता नहीं उसका नंबर कौन सा था लेकिन फोटो देखकर इतना अवश्य पता लग रहा है कि इस हाथी की भेंट तब चढ़ाई गई थी जब मथुरा के कद्दावर जाट नेता चौधरी लक्ष्मीनारायण भी हाथी की पूंछ पकड़कर अपनी राजनीतिक वैतरणी पार करने में लगे थे।
इन दिनों चौधरी लक्ष्मीनारायण कमल का फूल लेकर चल रहे हैं और उसी के बल पर उनकी धर्मपत्नी ममता चौधरी मथुरा जिला पंचायत की अध्यक्ष बनी बैठी हैं।
राजनीति की बिसात पर खेले जाने वाले शतरंज के खेल में प्यादों की अहमियत तो बहुत होती है किंतु उनके ”सिर” हमेशा खेल खेलने वालों के हाथ रहते हैं।
यही कारण है कि कभी बसपा के निष्ठावान कार्यकर्ता डॉ. अशोक अग्रवाल आज समाजवादी पार्टी के निष्ठावान सिपाही हैं और थोड़े दिनों पहले तक हाथी के झंडे वाली हूटर लगी गाड़ी पर लालबत्ती लगाए मंत्री पद को सुशोभित करने वाले चौधरी लक्ष्मीनाराण के कंधों पर भाजपा का कमल खिलाने की जिम्मदारी है।
खैर, योगेश द्विवेदी का हाथी यूपी के विधानसभा चुनावों तक किस करवट बैठता है, यह तो बता पाना फिलहाल संभव नहीं है लेकिन उनका बहिन जी को हाथी भेंट करता हुआ चित्र यह जरूर बताता है कि उम्मीदवारी की घोषणा चाहे जिस समय भी होती हो लेकिन उम्मीदवारी की प्रत्याशा में पता नहीं कितने हाथी और कब-कब भेंट करने पड़ते हैं।
ऊंट तो किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह है नहीं इसलिए ”ऊंट के मुंह में जीरा” वाली कहावत यहां बेमानी है परंतु नई कहावत यह जरूर बनती है कि हाथी की सवारी के लिए हाथी को केले या गन्ना खिलाने का मतलब टिकट पाने की गारंटी कतई नहीं है।
हाथी का पेट बहुत बड़ा होता है, हाथी की भूख भी बहुत बड़ी होती है। ऐसे में जो उसके पेट की भूख समय पर पूरी तरह शांत कर सके, उसकी क्षुधा मिटा सके, हाथी उसका होता है। बाकी तो अंतिम सत्य वही है कि ”जाकौ हाथी, वाकौ नाम…चाहे घूम-फिर आवै गांव-गांव।
-लीजेंड न्यूज़
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