अंतत: आज सुबह साढ़े पांच बजे ‘निर्भया’ के चारों दोषियों को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया, बावजूद इसके यक्ष प्रश्न अब भी बना हुआ है। हो सकता है कि इस प्रश्न का उत्तर फिलहाल मिले भी नहीं किंतु मिलना है बहुत जरूरी। जरूरी इसलिए है क्योंकि इससे एक पेशे की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई और उसे दांव पर लगाने वालों को कोई अफसोस तक नहीं हुआ। दोषियों को उनकी सजा बेशक मिल गई किंतु उन अपराधियों का क्या, जिन्होंने एक घिनौने अपराध को अंजाम देने वालों के लिए कानून का मजाक बनाकर रख दिया। अब वह प्रश्न भी जान लें जो दोषियों की फांसी के बाद भी अनुत्तरित है।
प्रश्न यह है कि एक अत्यंत जघन्य अपराध को अंजाम देने वाले इन दोषियों के वकीलों को उनकी फीस कौन दे रहा था?
सब जानते हैं कि अत्यंत मामूली पारवारिक पृष्ठभूमि से आने वाले इन दोषियों की आर्थिक स्थिति किसी एक सामान्य वकील को भी फीस देने की नहीं है, फिर ‘बाल की खाल’ निकालने वाले वकीलों की फौज इन्हें कैसे उपलब्ध होती रही, और कौन यह फौज मुहैया कराता रहा ?
सत्र न्यायालय से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालय तक जिस तरह वकील इन चारों दोषियों के लिए कानूनी लड़ाई लड़े, वो बहुत कुछ कहती है।
ये लड़ाई एक ओर जहां बताती है कि न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बांधने का आशय क्या रहा होगा, वहीं इतना भी स्पष्ट करती है कि जो दिखाई देता है वही अंतिम सत्य नहीं होता।
बहरहाल, यक्ष प्रश्न एकबार फिर वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि निर्भया के दोषियों को फांसी के फंदे से लौटाने की जिद पर अड़े वकीलों को “हायर” किया किसने ?
जिस देश की अधिकांश जेलें भीड़ से सिर्फ इसलिए भरी पड़ी हैं क्योंकि तमाम लोगों के पास अपने लिए वकील करने की सामर्थ्य नहीं है, उस देश में एक वीभत्स अपराध के दोषियों की पैरवी करने के लिए कुछ वकील दिन-रात एक किए रहे तो कैसे ?
यदि कोई ये कहे कि वकील इतना सब-कुछ केवल मानवता के नाम पर, या फिर बिना फीस लिए करते रहे तो ऐसी बात शायद ही किसी के भी गले उतरे।
जाहिर है कि कोई तो है जो एक असहाय लड़की के बलात्कारी हत्यारों को बचाने की मुहिम चला रहा था, और इस मुहिम का मकसद मात्र इन्हें बचाने का प्रयास करना नहीं बल्कि कानून-व्यवस्था पर हमेशा हमेशा के लिए गहरा सवालिया निशान लगवाना था।
संभवत: इसी मकसद की पूर्ति के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस यानी ICJ तक गुहार लगाई गई।
ऐसे में इस प्रश्न का उत्तर जरूर मिलना चाहिए कि वकालत के जिस पेशे में निजी संबंधों का भी तरजीह बहुत “रेअर” दी जाती है, उस पेशे से जुड़े एक से एक काबिल लोग एक घृणित अपराध को अंजाम देने वालों के साथ इतनी सिद्दत के साथ कैसे खड़े रहे ? कौन इनके लिए फंडिंग कर रहा था, और क्यों?
इन प्रश्नों के जवाब मिलना इसलिए भी जरूरी हैं कि यदि इनके सही-सही जवाब मिल जाते हैं, तो देश की बहुत सी समस्याओं के जवाब खुद-ब-खुद सामने आ जाएंगे।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
प्रश्न यह है कि एक अत्यंत जघन्य अपराध को अंजाम देने वाले इन दोषियों के वकीलों को उनकी फीस कौन दे रहा था?
सब जानते हैं कि अत्यंत मामूली पारवारिक पृष्ठभूमि से आने वाले इन दोषियों की आर्थिक स्थिति किसी एक सामान्य वकील को भी फीस देने की नहीं है, फिर ‘बाल की खाल’ निकालने वाले वकीलों की फौज इन्हें कैसे उपलब्ध होती रही, और कौन यह फौज मुहैया कराता रहा ?
सत्र न्यायालय से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालय तक जिस तरह वकील इन चारों दोषियों के लिए कानूनी लड़ाई लड़े, वो बहुत कुछ कहती है।
ये लड़ाई एक ओर जहां बताती है कि न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बांधने का आशय क्या रहा होगा, वहीं इतना भी स्पष्ट करती है कि जो दिखाई देता है वही अंतिम सत्य नहीं होता।
बहरहाल, यक्ष प्रश्न एकबार फिर वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि निर्भया के दोषियों को फांसी के फंदे से लौटाने की जिद पर अड़े वकीलों को “हायर” किया किसने ?
जिस देश की अधिकांश जेलें भीड़ से सिर्फ इसलिए भरी पड़ी हैं क्योंकि तमाम लोगों के पास अपने लिए वकील करने की सामर्थ्य नहीं है, उस देश में एक वीभत्स अपराध के दोषियों की पैरवी करने के लिए कुछ वकील दिन-रात एक किए रहे तो कैसे ?
यदि कोई ये कहे कि वकील इतना सब-कुछ केवल मानवता के नाम पर, या फिर बिना फीस लिए करते रहे तो ऐसी बात शायद ही किसी के भी गले उतरे।
जाहिर है कि कोई तो है जो एक असहाय लड़की के बलात्कारी हत्यारों को बचाने की मुहिम चला रहा था, और इस मुहिम का मकसद मात्र इन्हें बचाने का प्रयास करना नहीं बल्कि कानून-व्यवस्था पर हमेशा हमेशा के लिए गहरा सवालिया निशान लगवाना था।
संभवत: इसी मकसद की पूर्ति के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस यानी ICJ तक गुहार लगाई गई।
ऐसे में इस प्रश्न का उत्तर जरूर मिलना चाहिए कि वकालत के जिस पेशे में निजी संबंधों का भी तरजीह बहुत “रेअर” दी जाती है, उस पेशे से जुड़े एक से एक काबिल लोग एक घृणित अपराध को अंजाम देने वालों के साथ इतनी सिद्दत के साथ कैसे खड़े रहे ? कौन इनके लिए फंडिंग कर रहा था, और क्यों?
इन प्रश्नों के जवाब मिलना इसलिए भी जरूरी हैं कि यदि इनके सही-सही जवाब मिल जाते हैं, तो देश की बहुत सी समस्याओं के जवाब खुद-ब-खुद सामने आ जाएंगे।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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