विजय दशमी…असत्य पर सत्य और अत्याचार पर सदाचार की विजय का प्रतीक पर्व… आज के दौर की पत्रकारिता तथा पत्रकारों को विशेष संदेश देता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम का संदेश बहुत स्पष्ट है कि मर्यादा में रहकर भी असत्य और अत्याचार पर विजय हासिल की जा सकती है किंतु शक्ति की उपासना के साथ।शक्ति और सामर्थ्य का अहसास कराए बिना विजय हासिल कर पाना संभव नहीं है।
“प्रेस” से “मीडिया” और “मीडिया” से “मीडिएटर” में तब्दील हो चुके इस एक “शब्द” का निहितार्थ समझना और समय की मांग को देखते हुए अपने ‘शब्दों’ की ताकत को पुनर्स्थापित करना जरूरी हो गया है अन्यथा भावी अनर्थ को रोक पाना असंभव हो जाएगा।
चाटुकारिता कभी पत्रकारिता का पर्याय नहीं होती और मर्यादा कभी शक्तिहीन व श्रीहीन नहीं बनाती। यदि ऐसा होता तमाम आसुरी शक्तियों का वध करने वाले श्रीराम… ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ नहीं कहलाते।
वो मर्यादा पुरुषोत्तम इसीलिए हैं क्योंकि उन्होंने शक्ति और सामर्थ्य का इस्तेमाल वहां किया, जहां करना जरूरी था। न खुद उसे किसी पर जाया किया न अपने सहयोगियों को जाया करने दिया।
और जब लंका विजय में बाधा बनकर खड़े समुद्र ने अनेक अनुनय-विनय को अनसुना किया तो लक्ष्मण को ये बताने से भी नहीं चूके कि-
विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीति।।
माना कि आज की पत्रकारिता कोई मिशन ने रहकर व्यवसाय बन चुकी है, बावजूद इसके उसका धर्म नहीं बदला।
व्यावसायिकता के इस दौर में भी यह समझना होगा कि कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए और अधिकारों का अतिक्रमण किए बिना किस प्रकार इस धर्म का पालन किया जा सकता है।
“दुम हिलाने वालों के सामने टुकड़ा तो उछाला जाता है किंतु उन्हें सम्मान नहीं दिया जाता। सम्मान के साथ हक हासिल करने के लिए धर्म और कर्म को समझना समय की सबसे बड़ी मांग है।”
कर्तव्य के पथ पर भी वहीं निरंतर अग्रसर हो सकता है जो धर्म और कर्म के मर्म को समझे, अन्यथा पत्रकारिता की जो गति आज बन चुकी है उसकी दुर्गति कहीं अधिक भयावह हो सकती है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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