वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ और तीन लोक से न्यारी नगरी की उपमा प्राप्त मथुरा को उन सप्तपुरियों में भी शुमार किया जाता है जिन्हें मोक्षदायिनी माना गया है।
एक ओर हरियाणा तथा दूसरी ओर राजस्थान की सीमा से सटे इस विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल की एक विशेषता यहां से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का अत्यधिक नजदीक होना भी है।
कभी लखनऊ के लिए किसी सीधे रास्ते को तरसने वाले इस जनपद से आज प्रदेश की राजधानी तक मात्र पांच घंटों के अंदर पहुंचा जा सकता है।
अधिकारियों के लिए सर्वाधिक मुफीद क्यों?
इन सब सुविधाओं के बावजूद मथुरा में ऐसा कुछ अतिरिक्त भी है जो पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को इतना अधिक प्रिय है कि वो न सिर्फ यहां लंबी से लंबी पोस्टिंग चाहते हैं बल्कि बार-बार यहीं पोस्टिंग कराना चाहते हैं।
क्या है ऐसा?
इस सवाल पर थोड़ी गंभीरता से गौर किया जाए तो स्थिति आसानी से स्पष्ट हो जाती है।
उदाहरण के लिए मथुरा का आम नागरिक शांतिप्रिय है और चैन से जिंदगी गुजारने में यकीन रखता है। टकराव का रास्ता चुनना उसे पसंद नहीं है और उसकी यह आदतें अधिकारियों का काम काफी आसान बना देती हैं।
आम मथुरावासी की इन आदतों के कारण ‘सुविधा शुल्क’ सर्वसुलभ है क्योंकि अमन पसंद स्थानीय नागरिक अधिकारियों को दाम देकर काम कराने में अधिक रुचि लेता है अपेक्षाकृत अन्य तरीकों के।
अधिकारियों के काम में दखल ‘ना’ के बराबर
शासन में मथुरा का प्रतिनिधित्व हमेशा बने रहने तथा सत्ता के गलियारों से बराबर आमदरफ्त होते हुए भी यह एक ऐसा जिला है जिसके बाबत यह कहा जा सकता है कि यहां कोई नेता ही नहीं है। नेताओं के नाम पर कुछ है तो चापलूसों की फौज, दलालों का जमघट और बिना रीढ़ वाले वो जंतु जिन्हें साष्टांग करने में महारत हासिल है।
सरकार चाहे सपा की रही हो या बसपा की, गठबंधन से चल रही हो अथवा पूर्ण बहुमत से लेकिन मथुरा को हमेशा तरजीह दी गई।
मथुरा के लोगों ने वो दौर भी देखा है जब यहां के कुल जमा पांच में से चार विधायक मंत्री हुआ करते थे किंतु तब भी इस जिले में तूती बोलती थी तो सिर्फ अधिकारियों की। मंत्री रहते हुए अधिकारियों के सामने मिमियाने वाले नेता यहां हर दौर में पाये जाते रहे हैं।
इसका ज्वलंत उदाहरण है हाल ही में घटी वो घटना जब प्रदेश के कद्दावर मंत्री, सरकार के प्रवक्ता और मथुरा-वृंदावन सीट से विधायक श्रीकांत शर्मा को स्थानीय अधिकारियों के खिलाफ सीधे मुख्यमंत्री के नाम इसलिए पत्र लिखना पड़ा क्योंकि प्रस्तावित कुंभ मेले के इंतजामों को वो उनके कहने से तरजीह नहीं दे रहे थे।
हुआ भी वही, मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुंचने के बाद ही कुंभ मेले से जुड़े अधिकारियों ने सक्रियता दिखाई अन्यथा न तो उनके ऊपर ऊर्जा मंत्री का भारी भरकम पद कोई प्रभाव डाल पा रहा था और न संत-महंतों की नाराजगी कोई असर छोड़ रही थी।
हर जिले में अधिकारियों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराने वाला दूसरा सर्वाधिक प्रभावशाली तबका होता है ‘पत्रकारों’ का, किंतु बात करें कृष्ण नगरी की तो यहां ‘पत्रकारों’ की संख्या भले ही सैकड़ों में हो परंतु ‘पत्रकारिता’ करने वाले ढूंढे नहीं मिलते।
नेता नगरी से कदम-ताल मिलाते हुए अधिकांश पत्रकार अधिकारियों की जी-हजूरी में अपना समय जाया करना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि किसी एक अधिकारी की कृपा भी उनके लिए पर्याप्त होती है।
अधिकारी के कृपा पात्र बनते ही उनकी आर्थिक एवं सामाजिक दरिद्रता तो दूर होने ही लगती है, साथ ही घर-परिवार व नाते रिश्तेदारों में रुतबा भी बढ़ जाता है।
सुबह से शाम तक कलेक्ट्रेट के इर्द-गिर्द घूमने वाले तथाकथित पत्रकारों की एक जमात को तो इसलिए भी अधिकारियों का वरदहस्त जरूरी होता है क्योंकि उसके बिना उनके गोरखधंधे बंद हो जाएंगे और वो कानून के शिकंजे में इस कदर फंसेंगे कि लंबे समय तक उससे बाहर आना संभव नहीं होगा।
पत्रकारों का ये वर्ग अधिकारियों की जी-हजूरी में इतना मुस्तैद रहता है कि उनके निजी शौक और ऐब भी पूरे कराने में परहेज नहीं करता।
लोकतंत्र के चौथे खंभे को इस स्थिति में देख किसी को भी पत्रकारों और पत्रकारिता से भी घृणा हो सकती है लेकिन इन कथित पत्रकारों को खुद से कभी घृणा नहीं होती इसलिए वो पूरी शिद्दत के साथ हमेशा अधिकारियों के सामने दुम हिलाते देखे जा सकते हैं।
पत्रकारों की यही वो श्रेणी है जिनके बल पर पत्रकारों को कई-कई गुटों में बांटकर अधिकारी अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। अधिकारियों द्वारा डाले हुए टुकड़ों पर जीविका और जिजीविषा पाने वाले ये तत्व उनके साथ एक अदद फोटो खिंचवाने तक को लालायित रहते हैं और ‘पत्रकारिता दिवस’ पर भी आयोजन-प्रायोजनों के जरिए उन्हें सम्मानित करने का मौका नहीं चूकते।
घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि इतना सब करने के बाद भी बमुश्किल वह मात्र उतना ही हासिल कर पाते हैं जितना कि कोई नेता अपने चमचों को सुबह-शाम बख़्शीश में दिलवा देता है।
नेता और पत्रकारों के अलावा हर जिले में एक तीसरा वर्ग भी होता है जो अधिकारियों की कार्यप्रणाली को ऑब्जर्व करता है। सामाजिक संगठनों के रूप में सक्रिय यह वर्ग चूंकि सुविधा संपन्न पाया जाता है इसलिए इसकी समाज में महत्ता बड़ी होती है।
महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की पावन जन्मस्थली में भी ऐसे संगठन तो बहुत पाए जाते हैं लेकिन वो भी नेता और पत्रकारों की तरह चापलूसी के माध्यम से अपनी दुकान चलाने में माहिर हैं।
इस तबके के लोगों का भी कार्य नेता और पत्रकारों की भांति किसी न किसी तरह अधिकारियों का सानिध्य पाना और इसके लिए हद से भी गुजर जाना है।
इस वर्ग के लोगों से जुड़ा यह कड़वा सच जानकर कोई भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता कि ये वर्ग अधिकारियों को खुश करने के लिए थ्री डब्ल्यू यानी वाइन, वेल्थ और यहां तक कि वुमैन का इंतजाम करने से भी पीछे नहीं हटता।
यही कारण है कि विश्व प्रसिद्ध इस धार्मिक जनपद में एकबार पोस्टिंग पा जाने वाला अधिकारी एक ओर जहां बार-बार यहां पोस्टिंग पाने की कोशिश में लगा रहता है वहीं दूसरी ओर यहां से चले जाने अथवा नौकरी से अवकाश प्राप्ति के बाद भी किसी ने किसी रूप में यहीं मंडराता रहता है। वर्तमान में भी कई अधिकारी इसकी जीती जागती नजीर हैं लेकिन क्या मजाल कि कोई उनके ऊपर उंगली भी उठा सके।
भांग, भोजन तथा भजन के लिए विश्व के पटल पर विशिष्ट पहचान रखने वाली मथुरा नगरी ने ऐसे कई अधिकारी देखे हैं जिन्होंने यहां की एक अदद पोस्टिंग से अपनी तीन-तीन पीढ़ियों का मुकम्मल इंतजाम कर लिया लेकिन उनका बाल तक बांका नहीं हो सका।
ऐसे-ऐसे नेता उसके सामने हैं जो कुछ वर्षों पहले तक लंबे-लंबे कुर्ते पहनकर कचहरी पर दिन-रात छोटे-मोटे कामों के लिए चक्कर लगाते थे लेकिन आज करोड़ों नहीं अरबों की संपत्ति के मालिक हैं। शहर के तमाम व्यवसायी उनके द्वारा किए गए पैसे के निवेश से अपनी शानो-शौकत बनाए हुए हैं।
जिनकी औकात एक दुपहिया खरीदने की नहीं हुआ करती थी और कचहरी तक जाने के लिए भी किसी से लिफ्ट पाने का मौका तलाशले थे आज उनके गुर्गे कई-कई लग्जरी गाड़ियों के मालिक हैं।
अधिकारियों और नेताओं के इस वर्ग की अंधी कमाई से बहुत से मशहूर शिक्षण संस्थान संचालित हो रहे हैं और भूमाफिया बेनामी संपत्ति एकत्र कर रहे हैं।
पत्रकारों का एक खास वर्ग भी अपनी औकात से अधिक धन अर्जित करके इनके संरक्षण में ही अपनी सुरक्षा देखता है इसलिए उन्हें उपकृत करने का कोई अवसर हाथ से निकलने नहीं देता।
‘अंधे पीसें कुत्ते खाएं’ की कहावत को चरितार्थ करने के कारण ही मथुरा आज तक अधिकारियों के लिए दुधारू गाय साबित होता रहा है और उस गरिमामय मुकाम को हासिल करने के लिए तरस रहा है जिसका वह सही मायनों में हकदार है।
बात चाहे कालिंदी के कलुष की हो या निरंकुश अधिकारियों की, भ्रष्टाचार की हो या बदहाली की। कृष्ण की नगरी हर मामले में अपनी कलंक कथा खुद कहती है, लेकिन सुनने और देखने वाला कोई नहीं। सुनेगा और देखेगा भी कैसे, जब जिम्मेदार वर्ग ही आंख, कान व मुंह बंद करके बैठा होगा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
एक ओर हरियाणा तथा दूसरी ओर राजस्थान की सीमा से सटे इस विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल की एक विशेषता यहां से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का अत्यधिक नजदीक होना भी है।
कभी लखनऊ के लिए किसी सीधे रास्ते को तरसने वाले इस जनपद से आज प्रदेश की राजधानी तक मात्र पांच घंटों के अंदर पहुंचा जा सकता है।
अधिकारियों के लिए सर्वाधिक मुफीद क्यों?
इन सब सुविधाओं के बावजूद मथुरा में ऐसा कुछ अतिरिक्त भी है जो पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को इतना अधिक प्रिय है कि वो न सिर्फ यहां लंबी से लंबी पोस्टिंग चाहते हैं बल्कि बार-बार यहीं पोस्टिंग कराना चाहते हैं।
क्या है ऐसा?
इस सवाल पर थोड़ी गंभीरता से गौर किया जाए तो स्थिति आसानी से स्पष्ट हो जाती है।
उदाहरण के लिए मथुरा का आम नागरिक शांतिप्रिय है और चैन से जिंदगी गुजारने में यकीन रखता है। टकराव का रास्ता चुनना उसे पसंद नहीं है और उसकी यह आदतें अधिकारियों का काम काफी आसान बना देती हैं।
आम मथुरावासी की इन आदतों के कारण ‘सुविधा शुल्क’ सर्वसुलभ है क्योंकि अमन पसंद स्थानीय नागरिक अधिकारियों को दाम देकर काम कराने में अधिक रुचि लेता है अपेक्षाकृत अन्य तरीकों के।
अधिकारियों के काम में दखल ‘ना’ के बराबर
शासन में मथुरा का प्रतिनिधित्व हमेशा बने रहने तथा सत्ता के गलियारों से बराबर आमदरफ्त होते हुए भी यह एक ऐसा जिला है जिसके बाबत यह कहा जा सकता है कि यहां कोई नेता ही नहीं है। नेताओं के नाम पर कुछ है तो चापलूसों की फौज, दलालों का जमघट और बिना रीढ़ वाले वो जंतु जिन्हें साष्टांग करने में महारत हासिल है।
सरकार चाहे सपा की रही हो या बसपा की, गठबंधन से चल रही हो अथवा पूर्ण बहुमत से लेकिन मथुरा को हमेशा तरजीह दी गई।
मथुरा के लोगों ने वो दौर भी देखा है जब यहां के कुल जमा पांच में से चार विधायक मंत्री हुआ करते थे किंतु तब भी इस जिले में तूती बोलती थी तो सिर्फ अधिकारियों की। मंत्री रहते हुए अधिकारियों के सामने मिमियाने वाले नेता यहां हर दौर में पाये जाते रहे हैं।
इसका ज्वलंत उदाहरण है हाल ही में घटी वो घटना जब प्रदेश के कद्दावर मंत्री, सरकार के प्रवक्ता और मथुरा-वृंदावन सीट से विधायक श्रीकांत शर्मा को स्थानीय अधिकारियों के खिलाफ सीधे मुख्यमंत्री के नाम इसलिए पत्र लिखना पड़ा क्योंकि प्रस्तावित कुंभ मेले के इंतजामों को वो उनके कहने से तरजीह नहीं दे रहे थे।
हुआ भी वही, मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुंचने के बाद ही कुंभ मेले से जुड़े अधिकारियों ने सक्रियता दिखाई अन्यथा न तो उनके ऊपर ऊर्जा मंत्री का भारी भरकम पद कोई प्रभाव डाल पा रहा था और न संत-महंतों की नाराजगी कोई असर छोड़ रही थी।
हर जिले में अधिकारियों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराने वाला दूसरा सर्वाधिक प्रभावशाली तबका होता है ‘पत्रकारों’ का, किंतु बात करें कृष्ण नगरी की तो यहां ‘पत्रकारों’ की संख्या भले ही सैकड़ों में हो परंतु ‘पत्रकारिता’ करने वाले ढूंढे नहीं मिलते।
नेता नगरी से कदम-ताल मिलाते हुए अधिकांश पत्रकार अधिकारियों की जी-हजूरी में अपना समय जाया करना अधिक उपयुक्त समझते हैं क्योंकि किसी एक अधिकारी की कृपा भी उनके लिए पर्याप्त होती है।
अधिकारी के कृपा पात्र बनते ही उनकी आर्थिक एवं सामाजिक दरिद्रता तो दूर होने ही लगती है, साथ ही घर-परिवार व नाते रिश्तेदारों में रुतबा भी बढ़ जाता है।
सुबह से शाम तक कलेक्ट्रेट के इर्द-गिर्द घूमने वाले तथाकथित पत्रकारों की एक जमात को तो इसलिए भी अधिकारियों का वरदहस्त जरूरी होता है क्योंकि उसके बिना उनके गोरखधंधे बंद हो जाएंगे और वो कानून के शिकंजे में इस कदर फंसेंगे कि लंबे समय तक उससे बाहर आना संभव नहीं होगा।
पत्रकारों का ये वर्ग अधिकारियों की जी-हजूरी में इतना मुस्तैद रहता है कि उनके निजी शौक और ऐब भी पूरे कराने में परहेज नहीं करता।
लोकतंत्र के चौथे खंभे को इस स्थिति में देख किसी को भी पत्रकारों और पत्रकारिता से भी घृणा हो सकती है लेकिन इन कथित पत्रकारों को खुद से कभी घृणा नहीं होती इसलिए वो पूरी शिद्दत के साथ हमेशा अधिकारियों के सामने दुम हिलाते देखे जा सकते हैं।
पत्रकारों की यही वो श्रेणी है जिनके बल पर पत्रकारों को कई-कई गुटों में बांटकर अधिकारी अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। अधिकारियों द्वारा डाले हुए टुकड़ों पर जीविका और जिजीविषा पाने वाले ये तत्व उनके साथ एक अदद फोटो खिंचवाने तक को लालायित रहते हैं और ‘पत्रकारिता दिवस’ पर भी आयोजन-प्रायोजनों के जरिए उन्हें सम्मानित करने का मौका नहीं चूकते।
घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि इतना सब करने के बाद भी बमुश्किल वह मात्र उतना ही हासिल कर पाते हैं जितना कि कोई नेता अपने चमचों को सुबह-शाम बख़्शीश में दिलवा देता है।
नेता और पत्रकारों के अलावा हर जिले में एक तीसरा वर्ग भी होता है जो अधिकारियों की कार्यप्रणाली को ऑब्जर्व करता है। सामाजिक संगठनों के रूप में सक्रिय यह वर्ग चूंकि सुविधा संपन्न पाया जाता है इसलिए इसकी समाज में महत्ता बड़ी होती है।
महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की पावन जन्मस्थली में भी ऐसे संगठन तो बहुत पाए जाते हैं लेकिन वो भी नेता और पत्रकारों की तरह चापलूसी के माध्यम से अपनी दुकान चलाने में माहिर हैं।
इस तबके के लोगों का भी कार्य नेता और पत्रकारों की भांति किसी न किसी तरह अधिकारियों का सानिध्य पाना और इसके लिए हद से भी गुजर जाना है।
इस वर्ग के लोगों से जुड़ा यह कड़वा सच जानकर कोई भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता कि ये वर्ग अधिकारियों को खुश करने के लिए थ्री डब्ल्यू यानी वाइन, वेल्थ और यहां तक कि वुमैन का इंतजाम करने से भी पीछे नहीं हटता।
यही कारण है कि विश्व प्रसिद्ध इस धार्मिक जनपद में एकबार पोस्टिंग पा जाने वाला अधिकारी एक ओर जहां बार-बार यहां पोस्टिंग पाने की कोशिश में लगा रहता है वहीं दूसरी ओर यहां से चले जाने अथवा नौकरी से अवकाश प्राप्ति के बाद भी किसी ने किसी रूप में यहीं मंडराता रहता है। वर्तमान में भी कई अधिकारी इसकी जीती जागती नजीर हैं लेकिन क्या मजाल कि कोई उनके ऊपर उंगली भी उठा सके।
भांग, भोजन तथा भजन के लिए विश्व के पटल पर विशिष्ट पहचान रखने वाली मथुरा नगरी ने ऐसे कई अधिकारी देखे हैं जिन्होंने यहां की एक अदद पोस्टिंग से अपनी तीन-तीन पीढ़ियों का मुकम्मल इंतजाम कर लिया लेकिन उनका बाल तक बांका नहीं हो सका।
ऐसे-ऐसे नेता उसके सामने हैं जो कुछ वर्षों पहले तक लंबे-लंबे कुर्ते पहनकर कचहरी पर दिन-रात छोटे-मोटे कामों के लिए चक्कर लगाते थे लेकिन आज करोड़ों नहीं अरबों की संपत्ति के मालिक हैं। शहर के तमाम व्यवसायी उनके द्वारा किए गए पैसे के निवेश से अपनी शानो-शौकत बनाए हुए हैं।
जिनकी औकात एक दुपहिया खरीदने की नहीं हुआ करती थी और कचहरी तक जाने के लिए भी किसी से लिफ्ट पाने का मौका तलाशले थे आज उनके गुर्गे कई-कई लग्जरी गाड़ियों के मालिक हैं।
अधिकारियों और नेताओं के इस वर्ग की अंधी कमाई से बहुत से मशहूर शिक्षण संस्थान संचालित हो रहे हैं और भूमाफिया बेनामी संपत्ति एकत्र कर रहे हैं।
पत्रकारों का एक खास वर्ग भी अपनी औकात से अधिक धन अर्जित करके इनके संरक्षण में ही अपनी सुरक्षा देखता है इसलिए उन्हें उपकृत करने का कोई अवसर हाथ से निकलने नहीं देता।
‘अंधे पीसें कुत्ते खाएं’ की कहावत को चरितार्थ करने के कारण ही मथुरा आज तक अधिकारियों के लिए दुधारू गाय साबित होता रहा है और उस गरिमामय मुकाम को हासिल करने के लिए तरस रहा है जिसका वह सही मायनों में हकदार है।
बात चाहे कालिंदी के कलुष की हो या निरंकुश अधिकारियों की, भ्रष्टाचार की हो या बदहाली की। कृष्ण की नगरी हर मामले में अपनी कलंक कथा खुद कहती है, लेकिन सुनने और देखने वाला कोई नहीं। सुनेगा और देखेगा भी कैसे, जब जिम्मेदार वर्ग ही आंख, कान व मुंह बंद करके बैठा होगा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी