अब तक तो यही सुना था कि पब्लिक की मेमोरी बहुत वीक होती है। विशेष तौर पर चुनावी राजनीति के मामले में। वह बहुत जल्दी नेताओं के सारे ‘कु-कर्म’ भूलकर लोकतंत्र के महापर्व में ‘ढोलकी’ बन जाती है।फिर नेता जैसे चाहें, वैसे उसे बजाने लगते हैं। किंतु ये पहली बार पता लग रहा कि नेताओं की मेमोरी तो जनता से भी कमजोर है।
कभी कहते हैं कि अपराधी व आतंकवादी की न कोई जाति होती है और न धर्म। फिर जब कोई ऐसा ‘विशेष श्रेणी का अपराधी’ मारा जाता है जो राजनीति के लिए मुफीद हो तो उसकी जाति-धर्म सब ढूंढ लाते हैं।
पिछले साल 2 जुलाई की रात कानपुर के बिकरू गांव में एक दुर्दांत अपराधी ने हमला करके 8 पुलिसकर्मियों को मार डाला था। एकसाथ 8 पुलिसकर्मियों की शहादत पर चूंकि हल्ला मचना ही था, इसलिए मचा। नतीजतन बाबा की पुलिस ने इस अपराधी और उसके गुर्गों को चुन-चुन कर ठिकाने लगाना शुरू कर दिया।
राजनेताओं के सौभाग्य और ब्राह्मणों के दुर्भाग्य से बिकरू कांड को अंजाम देने वाले गैंग के सरगना का नाम विकास ‘दुबे’ निकला। यानी जाति से वह ब्राह्मण था, कर्म भले ही उसके कितने ही निकृष्ट क्यों न रहे हों। उसके गुर्गों में भी अधिकांश संख्या ऐसे तथाकथित ब्राह्मणों की ही थी लिहाजा नेताओं ने तत्काल प्रभाव से एक ‘माइंडसेट’ किया कि बाबा की पुलिस ब्राह्मणों को निशाना बना रही है और कुख्यात बदमाश नहीं, ‘ब्राह्मण’ मारे जा रहे हैं।
इस ‘कथानक’ का खूब प्रचार-प्रसार किया गया, बिना यह विचार किए कि विकास दुबे के हाथों मारे गए पुलिसकर्मियों में से भी कई ब्राह्मण थे। पूर्व में भी किसी को ठिकाने लगाने से पहले विकास दुबे ने उसकी जाति नहीं देखी।
बहरहाल, देखते-देखते एक वर्ष बीत गया और लोग समय के साथ विकास दुबे को भूलने लगे। लेकिन अब जबकि विधानसभा चुनावों की दुंदुभि बजने लगी तो मुद्दा विहीन विपक्ष को लगा कि गड़े मुर्दे उखाड़ने का इससे उपयुक्त समय फिर कब मिलेगा इसलिए उसने ब्राह्मणों को पत्ते फेंटना शुरू कर दिया।
इसकी पहल की उस पार्टी ने जो कभी ‘तिलक, तराजू और तलवार’ धारण करने वालों को जूते मारने की हिमायती थी। वह घड़े में पड़े अपने ब्राह्मण नेता को निकाल कर लाई और उन्हें मोहरा बनाकर ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ आयोजित करने का बीड़ा उठाया।
इसी क्रम में बिकरू कांड की एक आरोपी के लिए कानूनी मदद मुहैया कराने का ऐलान भी कर दिया। शोर-शराबा हुआ तो ब्राह्मण सम्मेलनों का नाम बदलकर प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन रख दिया और उसकी शुरूआत की रामजन्मभूमि अयोध्या से।
बुआ को बाजी मारते देख बबुआ के पेट में मरोड़ उठना स्वाभाविक था इसलिए मरोड़ उठी, और ऐसी उठी कि उसने भी न सिर्फ ‘चुनावी’ ब्राह्मण सम्मेलन करने का बीड़ा उठाया बल्कि सरकार बनने पर यूपी के हर जिले में एक मंदिर नर्माण कराने की भी घोषणा कर डाली।
अब ये मंदिर किसी देवी-देवता के होंगे या समाजवादी नेताओं के, ये तो ”नौ मन तेल होने पर राधा के नाचने” वाली कहावत तय करेगी किंतु इतना तय हो चुका है कि ‘समाजवाद’ की कुंडली के केंद्र में अचानक ‘ब्राह्मण’ आ बैठा है। अन्यथा आतंकियों की पैरोकार पार्टी इस तरह ब्राह्मणों की रट कैसे लगाने लगती।
जाहिर है कि इन हालातों में कांग्रेस कहां पीछे रहने वाली थी। उसके ऐंचकताने प्रदेश अध्यक्ष की छठी इंद्री जागृत हुई और वो वाया गांधी-वाड्रा बाईपास बोले कि ब्राह्मण-ब्राह्मण खेलने वाली पार्टियां शायद भूल रही हैं कि हमारी तो नेता ही ब्राह्मण हैं। उन्हें ब्राह्मणों को रिझाने की क्या जरूरत। ब्राह्मण उन पर और उनकी पार्टी पर सत्तर सालों से रीझे हुए हैं। बस एक इशारे की जरूरत है, ब्राह्मण तो उनकी ओर खिंचे चले आएंगे। ब्राह्मण और दलित के जिस ‘कॉकटेल’ से उन्होंने कई दशकों तक राज्य किया है, उसकी पुनरावृत्ति होगी और बुआ, बबुआ सहित योगी बाबा भी चारों खाने चित्त पड़े दिखाई देंगे।
दो दिन पहले ही जिनकी पुण्यतिथि थी, वो भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि हर व्यक्ति को स्वप्नदृष्टा होना चाहिए। स्वप्नदृष्टा ही अपने लक्ष्य और मुकाम को हासिल कर सकते हैं। जो स्वप्न नहीं देखते, वो लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते।
बात भी सही है, लेकिन कलाम साहब ने मुंगेरी लाल अथवा शेखचिल्ली वाले वो हसीन सपने देखने की बात कभी नहीं की जिनके जरिए आदमी खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार बैठता है और हाथ रह जाता है सिर्फ पछतावा।
कांग्रेस की मूल समस्या फिलहाल यही है कि उसके -आदर्श’ पात्र हैं मुंगेरी लाल और शेखचिल्ली। ऐसे में उसके सपने पूरे होने की संभावना तो ना के बराबर है, अलबत्ता सपने देखने से उसे भी कोई कैसे रोक सकता है।
शेष रह जाते हैं योगी बाबा। कहते हैं… जाति ने पूछो साधु की, लेकिन साधु अगर राजनेता हो तो करेला और नीम चढ़ा। पार्टी को एक किनारे कर दो तब भी कपड़ों का गेरूआ रंग ही उकसाने के लिए काफी है। ऊपर से तेवर ऐसे कि भाई लोग कहने लगे कि बाबा तो ठाकुर हैं, इसलिए ब्राह्मणों से बैर रखते हैं।
राजनीति में ऐसी ओछी बातें अब ‘आम’ हो गई हैं इसलिए उन्हें ‘खासियत’ नहीं मिलती। लेकिन जो भी हो, ब्राह्मण तो ब्राह्मण हैं। बुद्धि के धनी। आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य से लेकर आज तक जब-जब जरूरत महसूस हुई है, ब्राह्मणों ने साबित किया है कि बुद्धि ही उनका सर्वश्रेष्ठ धन है।
उन्होंने एक ओर जहां बुद्धि के प्रयोग से बड़े-बड़े राज-पाठों का सफल संचालन किया है वहीं दूसरी ओर तमाम सत्ताधीशों को इतिहास बनाकर रख छोड़ा है।
बसपा हो या सपा… अथवा भाजपा ही क्यों न हो, बेहतर होगा कि वह ब्राह्मणों से खेलना बंद कर दें। उन्हें औरों की तरह वोट बैंक समझने की भूल की तो उनका भी वही हश्र होगा जो आज कांग्रेस का हो चुका है। देश के करोड़ों मतदाताओं की तरह ब्राह्मण ‘मतदाता’ जरूर है परंतु वह किसी के हाथ की ‘कठपुतली’ नहीं है।
किसी भी नाम अथवा टाइटिल से ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करके ब्राह्मणों के मान-सम्मान का खेल खेलना महंगा सौदा साबित हो सकता है। उचित होगा कि सभी पार्टियां ब्राह्मणों को दिल से उचित सम्मान दें और उनके मत व मताधिकार का इस्तेमाल जनहित एवं राष्ट्रहित में करें जिससे न केवल संपूर्ण समाज का कल्याण हो बल्कि खुद को समाज से परे समझने वाले राजनेताओं की भी बुद्धि परिमार्जित हो सके।
ब्राह्मण कभी सत्ता का भूखा नहीं रहा, हां… उसने त्याग के बल से अनेक सत्ताधीशों को अपने इशानों पर नाचने को मजबूर अवश्य किया है। नए दौर के राजनेताओं और उनके हाई कमानों से भी यही अपेक्षा है कि वह ब्राह्मणों की मूल प्रवृत्ति को विस्मृत करने की कोशिश न करें क्योंकि यह सोच उनके राजनीतिक ताबूत की आखिरी कील भी साबित हो सकती है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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