मथुरा (उत्तर प्रदेश) के गांव मलिकपुर में 15 नवम्बर 1953 को जन्मे ग़ज़लकार अशोक रावत ने कभी एक शेर लिखा था-
कॉपी-पुस्तक छोड़ गए हैं, सोच रहा हूं क्या होगा।
आज सुबह बच्चे बस्तों में पत्थर लेकर निकले हैं।।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इंजिनियरिंग करने के बाद सरकारी सेवा में रहे अशोक रावत ने ये शेर कब और किस संदर्भ में लिखा था, इतना तो नहीं मालूम अलबत्ता यह तय है कि पत्थरबाजी को लेकर कुछ लोगों का इतिहास है बहुत पुराना।
धारा 370 हटा लेने के बाद हालांकि कश्मीर में हालात काफी बदले हैं, या कहें कि नियंत्रित हुए हैं परंतु देश के विभिन्न हिस्सों की ताजा हिंसक घटनाएं बताती हैं कि पत्थरबाजों का मिज़ाज नहीं बदला।
आश्चर्य के साथ-साथ ये शोध का भी विषय है कि आखिर इन सभी घटनाओं में समानता क्यों है? यानी कि अपनी उपद्रवी सोच के साथ सुरक्षाबलों को भी टारगेट करना।
सुरक्षाबलों से पत्थरबाजों के बैर का ताल्लुक कहीं सांप्रदायिक तो नहीं, अन्यथा कौन नहीं जानता कि सुरक्षाबल तो सबकी हिफ़ाज़त के लिए हैं।
यदि ऐसा है तो यह प्रवृत्ति न सिर्फ बेहद खतरनाक है बल्कि इस बात का संकेत भी है कि सुरक्षाबलों पर ये तत्व भरोसा नहीं करते।
बेशक आज सुरक्षाबल एक बड़े राजनीतिक टूल की तरह इस्तेमाल किए जाने लगे हैं किंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सांप्रदायिकता से उनका कोई ताल्लुक है।
फिर कौन है जो सांप्रदायिक सोच के साथ उपद्रवियों को सुरक्षाबलों के खिलाफ खड़ा कर रहा है और यह बताना चाहता है कि जो भी उनके सामने आएगा, वह उनके निशाने पर होगा। फिर चाहे वह कानून-व्यवस्था के रखवाले ही क्यों न हों।
गौर करेंगे तो पता चलेगा कि सुरक्षाबलों पर हमलावर होने का मुद्दा, सांप्रदायिकता की आड़ में बड़ी चालाकी से छिपाया जा रहा है जबकि पिछले दिनों हुईं सभी हिंसक घटनाओं का शिकार लोगों से कहीं अधिक सुरक्षाबल हुए हैं। विशेष रूप से राज्य पुलिस, क्योंकि वही सबसे पहले सामने आकर खड़ी होती है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि किन्हीं तत्वों द्वारा देश में पत्थरबाजी की भी ट्रेनिंग उसी प्रकार दी जा रही हो जिस प्रकार सीमा पार आतंकवाद की ट्रेनिंग बाकायदा कैंप लगाकर दी जाती है।
यदि ऐसा नहीं है तो कश्मीर से लेकर करौली तथा खरगोन, और जहांगीरपुरी से लेकर जोधपुर तक की घटनाओं में इतनी समानता कैसे है।
हो सकता है कि वोट की राजनीति तथा तुष्टिकरण की नीति के चलते फिलहाल यह सवाल पीछे छूट जाए किंतु तय जानिए कि इस एक सवाल का जवाब ही देश की शांति का मार्ग प्रशस्त करने वाला साबित होगा, वर्ना ये सिलसिला यहीं रुकने वाला नहीं।
सब जानते हैं कि कश्मीर में पत्थरबाजी बाकायदा एक कारोबार का रूप ले चुकी थी। उसके लिए कौन फंडिंग करता था और कहां से फंड आता था, ये भी अब किसी से छिपा नहीं।
देश के विभिन्न हिस्सों में हुईं ताजा हिंसक घटनाओं में एक और बात समान रूप से सामने आई है कि उपद्रवियों के साथ बाहरी तत्व शामिल थे। ये वो लोग थे जिन्हें क्षेत्रीय लोग न तो जानते थे और न पहले कभी इलाके में देखा गया था। ऐसे में यह समझना बहुत मुश्किल नहीं कि जो कुछ हुआ, वह किसी बड़ी साजिश का हिस्सा था।
ये साजिश कहां से और किसके द्वारा रची जा रही है, जिस दिन इसका खुलासा हो जाएगा उस दिन सारी पर्तें उघड़ती चली जाएंगी अन्यथा अभी तो शुरूआत है। आगे-आगे देखिए… होता है क्या।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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