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रविवार, 5 अक्टूबर 2025
वो सरकारी विभाग, जहां दम तोड़ देती है योगी बाबा की भ्रष्टाचार को लेकर बनी जीरो टॉलरेंस नीति
दैनिक जागरण के आगरा एडिशन की संपादकीय में 2 अक्टूबर गांधी जयंती को 'यह कैसी कार्यशैली' शीर्षक से एक महिला का दर्द लिखा है। दरअसल, इस महिला ने लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) से नीलामी में सवा करोड़ रुपए मूल्य का एक भूखंड खरीदकर वहां अपना घर बनवाया। प्राधिकरण से ही नीलाम भूखंड पर बने इस घर को हाल ही में लखनऊ विकास प्राधिकरण ने ध्वस्त कर दिया। शिकायत के बाद जांच होने पर एलडीए ने माना कि लेआउट परिवर्तन के दौरान गलती से यह भूखंड 'मिसिंग' में दर्ज हो गया, जिसके कारण मकान के ध्वस्तीकरण की कार्रवाई हुई। नीलामी में सवा करोड़ का प्लॉट खरीदने के बाद महिला ने उस पर मकान कितनी मुश्किलों से और और कैसे-कैसे पैसे का इंतजाम करके बनवाया होगा, इसका अंदाज कोई भी लगा सकता है। लेकिन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सरकारी संरक्षण प्राप्त विकास प्राधिकरण के अधिकारी अब उस महिला को 'फ्लैट' ऑफर कर रहे हैं। जरा सोचिए कि यह हाल तो प्रदेश की राजधानी के उस विकास प्राधिकरण का है जहां स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने पूरे मंत्रिमंडल और सभी बड़े अफसरों के साथ बैठते हैं।
यह भी सोचिए कि जब लखनऊ विकास प्राधिकरण का यह आलम है तो प्रदेश के उन शहरों की डेवलपमेंट अथॉर्टीज का क्या हाल होगा, जहां से लखनऊ तक आवाज पहुंचाना भी आसान काम नहीं है।
सीएम योगी अपने पहले कार्यकाल से यह कहते चले आ रहे हैं कि भ्रष्टाचार पर उनकी सरकार कोई कंप्रोमाइज नहीं करेगी और इसे लेकर उनकी नीति हमेशा जीरो टॉलरेंस की रहेगी।
ऐसे में इस तरह के सवाल उठना स्वाभाविक है कि योगी सरकार की इतनी सख्ती और स्वयं योगी आदित्यनाथ की बेदाग छवि के बावजूद विकास प्राधिकरण के भ्रष्ट अधिकारियों एवं कर्मचारियों की पूंछ सीधी क्यों नहीं होती?
क्यों प्रदेशभर के विकास प्राधिकरण भ्रष्टाचार का पर्याय बने हुए हैं और क्यों उनके मन में योगी सरकार अथवा योगी आदित्यनाथ का कोई खौफ नहीं है?
इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि योगी सरकार ने जिस तरह का अभियान कानून-व्यवस्था पर फोकस करके सामाजिक अपराधियों के खिलाफ चलाया, वैसा कोई अभियान भ्रष्टाचारियों के खिलाफ आज तक कभी नहीं चलाया गया। कभी-कभार किसी अधिकारी पर कोई कार्रवाई हुई भी है तो वह भ्रष्टाचारियों के मन में भय व्याप्त करने के लिए अपर्याप्त रही। और अगर बात करें विशेष तौर पर प्रदेश के सर्वाधिक भ्रष्ट विभाग विकास प्राधिकरण की तो उसका कोई अधिकारी शायद ही कभी कार्रवाई के भी दायरे में आया हो। यही कारण है कि विकास प्राधिकरण के आगे शहरों के नाम भले ही बदल जाते हैं परंतु उसकी भ्रष्ट कार्यशैली कहीं नहीं बदलती। वह हर जगह एक जैसी पायी जाती है।
मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण, अंधेर नगरी-चौपट राजा
देश ही नहीं, दुनिया में अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान रखने वाली योगीराज भगवान श्रीकृष्ण की पावन जन्मस्थली और क्रीड़ास्थली मथुरा-वृंदावन के विकास प्राधिकरण का हाल जानकर तो ऐसा लगता है जैसे यहां अंधेर नगरी-चौपट राजा की कहावत चरितार्थ हो रही हो।
मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण को यदि भ्रष्ट अधिकारियों का पसंदीदा स्थान कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
वृंदावन का डालमिया बाग घोटाला है सबसे बड़ा उदाहरण
पिछले साल इन्हीं दिनों वृंदावन स्थित डालमिया बाग पर गुरुकृपा तपोवन के नाम से एक कॉलानी डेवलप करने के लिए मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण में नक्शा मूव किया गया, लेकिन अप्रूवल से पहले ही भूमाफिया ने जमकर उसका फर्जी प्रचार किया और प्लॉट बुक करने शुरू कर दिए। माफिया ने इस नक्शे के आवेदन की आड़ में अनुमानत: एक हजार करोड़ रुपया एकत्र कर लिया परंतु विकास प्राधिकरण तमाशा देखता रहा।
चूंकि भूमाफिया ने कॉलोनी डेवलेव करने की जल्दी में डालमिया बाग के साढ़े चार सौ से अधिक हरे वृक्ष रातों-रात काट डाले इसलिए यह मामला पहले एनजीटी और फिर सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा।
मामला देश की सर्वोच्च अदालत की चौखट पर पहुंचा तो सरकार के कानों पर भी जूं रेंगनी प्रारंभ हुई, नतीजतन तत्कालीन कमिश्नर आगरा मंडल ऋतु माहेश्वरी ने भी मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण (एमवीडीए) की भूमिका का पता लगाने के लिए एक कमेटी का गठन कर जांच रिपोर्ट पेश करने को कहा।
बहरहाल, चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत फिर सच साबित हुई और मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के किसी अधिकारी का कुछ नहीं बिगड़ा। ये बात अलग है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त फैसले ने एक ओर जहां भूमाफिया की पूरी प्लानिंग चौपट कर दी वहीं विकास प्राधिकरण (एमवीडीए) के अधिकारियों की हसरतों पर पानी फेर दिया क्योंकि इस प्रोजेक्ट के डेवलपर, एमवीडीए के अधिकारियों की दुधारू गाय साबित हो रहे थे। यदि सब-कुछ वैसे ही चलता रहता जैसे एमवीडीए के अधिकारी और भूमाफिया चाह रहे थे तो भूमाफिया जहां अरबों कमाते वहीं कई अधिकारी करोड़ों कमा ले गए होते।
जो भी हो, मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के लिए न तो गुरुकृपा तपोवन कोई पहला प्रोजेक्ट था और न अंतिम। दुनिया के आकर्षण का केंद्र मथुरा नगरी में जाने कितने डेवलपर हर रोज विकास प्राधिकरण के चक्कर काटने को मजबूर हैं। कोई अवैध निर्माण के लिए चक्कर काट रहा है तो कोई वैध काम कराने के लिए क्योंकि काम कैसा भी हो, विकास प्राधिकरण की चौखट चूमे बिना कुछ भी संभव नहीं हो सकता।
बड़े-बड़े करोड़पति और अरबपति दो के चार और सात के सोलह इनकी कृपा के बिना नहीं कर सकते। इनकी नजर बनी रहे तो शहर के बीचों-बीच अवैध बहुमंजिला इमारत खड़ी की जा सकती है और ये यदि नजर फेर लें तो वैध इमारत को भी मिट्टी में मिला सकते हैं।
लखनऊ की उस महिला का वैध मकान इसका सबसे बड़ा सबूत है। जमीन चाहे प्राधिकरण से ही क्यों न खरीदी हो, प्राधिकरण के अधिकारियों को चढ़ावा चढ़ाए बिना लेआउट आसानी से परिवर्तन हो सकता है और भूखंड ''मिसिंग'' शो करके मकान पर बुलडोजर भी चल सकता है।
रही बात योगी बाबा के जीरो टॉलरेंस की तो उसकी जद में अब तक विकास प्राधिकरण आता दिखाई नहीं देता। क्या प्रदेश की राजधानी लखनऊ और क्या कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा, सबका हाल समान है। नक्कारखाने में तूती की आवाज वैसे भी सुनाई कहां देती है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
शुक्रवार, 19 सितंबर 2025
...तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल में दिया गया लोकतंत्र के सबसे कलंकित कारनामे को अंजाम!
भारत को 1990 के दशक से ठीक पहले से लेकर इस साल 22 अप्रैल को पहलगाम हमले तक आतंकवाद ने जितने जख्म दिए हैं, उसके घाव भले ही कम हो जाएं, निशान कभी नहीं मिट पाएंगे। फिर, जब कोई ये कह दे कि इस दौरान कोई ऐसी भी सरकार आई, जिसने इन सब के लिए जिम्मेदार आतंकवादी सरगनाओं को न सिर्फ 'अहिंसा का महात्मा' माना, बल्कि दुश्मन पाकिस्तान से बातचीत के लिए 'शांतिदूत' भी बना डाला तो फिर इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ग्रहण लग सकता है। दरअसल, हम अपनी ओर से यह सब नहीं कह रहे हैं। यह दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल एक आतंकवादी सरगना के हलफनामे का हिस्सा है, जो न सिर्फ अनगिनत आतंकी वारदातों का आरोपी है, बल्कि आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए उम्रकैद की सजा भी काट रहा है।
लोकतंत्र का सबसे कलंकित कारनामा
हम देश की राजनीति के अब तक के सबसे स्याह दौर में से एक जिस समय की बात कर रहे हैं, वह है पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार का कार्यकाल। पूर्व पीएम और आतंकवादी यासीन मलिक के हाथ मिलाने वाली तस्वीर वर्षों से सोशल मीडिया को कलंकित करती रही है लेकिन 25 अगस्त 2025 को उसने दिल्ली हाई कोर्ट में जो हलफनामा दिया है, वह देश की राजनीति का अब तक का सबसे कलंकित कारनामा बन गया है। इसमें सजायाफ्ता आतंकी यासीन मलिक ने दावा किया है कि वह न सिर्फ तत्कालीन यूपीए सरकार के कहने पर पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा (LeT) के सरगना हाफिज सईद से मिला, बल्कि वापस आकर प्रधानमंत्री आवास में जाकर इसके बारे में तत्कालीन पीएम को बताया भी और पूर्व पीएम ने इसके लिए उसकी शान में कसीदे पढ़ना शुरू कर दिया।
सजायाफ्ता आतंकी है यासीन मलिक
यासीन मलिक टेरर फंडिंग केस में तिहाड़ जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। उस पर जनवरी 1990 में श्रीनगर में भारतीय वायुसेना के चार अफसरों की हत्या का भी आरोप है। 1989 के अंत और 1990 की शुरुआत में जम्मू और कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को जबरन भगाने की साजिश का भी उसे बहुत बड़ा गुनहगार माना जाता है। यही नहीं, पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण में भी उसके शामिल होने का आरोप है, जिसके बदले रिहा किए गए खूंखार आतंकियों ने भारत विरोधी कई आतंकवादी संगठन बना चुके हैं।
आतंकवाद के आका को बनाया शांतिदूत
एफिडेविट में यासीन मलिक ने दावा किया है कि मनमोहन सरकार ने उसे इसी बहाने 2006 में पाकिस्तान भेजा था ताकि वह आतंकवादी सरगनाओं की मदद से पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया की पहल करवा सके। इन आतंकवादियों में सबसे प्रमुख हाफिज सईद था जिससे मनमोहन सरकार को उम्मीद थी कि वह पाकिस्तान की सरकार को बातचीत की प्रक्रिया में ला सकता है। हलफनामे में मलिक ने कहा है, जब मैं पाकिस्तान से नई दिल्ली लौटा, स्पेशल डायरेक्टर आईबी वीके जोशी मुझसे होटल में मिले और मुझसे अनुरोध किया कि मैं तुरंत प्रधानमंत्री को इसके बारे में बता दूं। उसने आगे कहा- मैं उसी शाम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिला, जहां नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर एनके नारायण भी मौजूद थे। मैंने उन्हें मुलाकात के बारे में जानकारी दी और संभावनाओं के बारे में बताया। वहीं पर मुझे उन्होंने (मनमोहन ने) मेरी कोशिशों, वक्त, घैर्य और समर्पण के लिए मेरा आभार जताया।
पीएम की नजर में आतंकी अहिंसा का जनक!
आतंकवादी मलिक ने यहां तक कहा है कि 'जब मैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिला तो उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहचट के कहा, मैं आपको कश्मीर के अहिंसक आंदोलन का जनक मानता हूं। यासीन मलिक को तो उसकी गुनाहों की सजा भारत में मिल रही है और बाकी मामलों में भी न्यायपालिका जरूर अनगिनत बेगुनाहों को न्याय जरूर देगी लेकिन हाफिज सईद जैसे आतंकियों का क्या होगा, जिसे एक सरकार ने शांतिदूत बनाना चाहा तो उसने 26/11 के मुंबई हमले और 22 अप्रैल के पहलगाम हमले जैसा कभी न खत्म होने वाला दर्द दे दिया। न जाने आज भी वह भारत के खिलाफ कौन सी नई साजिश रच रहा होगा?
शुक्रवार, 15 अगस्त 2025
सबूत सहित जानिए: क्या वाकई यूपी के बिजली विभाग ने ऊर्जा मंत्री और योगी सरकार की सुपारी ले रखी है?
क्या वाकई यूपी के बिजली विभाग ने ऊर्जा मंत्री और योगी सरकार की सुपारी ले रखी है? ये सवाल इसलिए क्योंकि बीती 23 जुलाई को ऊर्जा मंत्री अरविंद कुमार शर्मा ने लखनऊ के शक्ति भवन में हुई समीक्षा बैठक के दौरान अधिकारियों को जमकर फटकारा था। इस समीक्षा बैठक में विभाग के चेयरमैन से लेकर अधिशासी अभियंता स्तर तक के अधिकारी शामिल थे।
ऊर्जा मंत्री ने अधिकारियों से कहा कि आप लोग आंख-कान बंद किए बैठे हैं जबकि जनता बिजली न आने से परेशान है। उन्होंने यहां तक बोला कि हमारी सरकार कोई दुकान नहीं चला रही कि जिसमें हमें सिर्फ वसूली की चिंता हो, हमारे लिए यह एक जनसेवा है और हमें उसी के अनुरूप काम करना होगा। ऊर्जा मंत्री ने अधिकारियों को फील्ड में जाने के निर्देश भी दिए। मंत्री महोदय ने कहा कि आपके गलत आचरण का खामियाजा पूरा प्रदेश भुगत रहा है।
इस समीक्षा बैठक के चार-पांच दिन बाद मंत्री महोदय के एक्स हैंडिल से लिखा गया कि विभाग के कुछ अधिकारी एवं कर्मचारियों ने ऊर्जा मंत्री की ''सुपारी'' ले रखी है। यही नहीं, सोशल साइट पर यह भी लिखा गया कि कुछ अधिकारी और कर्मचारी अराजक तत्वों के साथ मिलकर बिजली विभाग को बदनाम करने में लगे हैं।
गौरतलब है कि यूपी के ऊर्जा मंत्री खुद गुजरात कैडर के एक नौकरशाह रहे हैं और इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काफी करीबी तथा भरोसेमंद माने जाते हैं। अब जरा अंदाज लगाइए कि पीएम का नजदीकी कोई पूर्व नौकरशाह जब अपने विभागीय अधिकारियों पर इतने संगीन आरोप लगा रहा हो तो उसके मायने कितने गंभीर हो सकते हैं। गंभीर इसलिए भी कि जो व्यक्ति स्वयं नौकरशाह रहा हो, वह नौकरशाहों की सभी कारगुजारियों से भली-भांति परिचित तो होगा ही।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी बोले
ऊर्जा मंत्री की समीक्षा बैठक और एक्स हैंडिल पर लिखी गई उनकी पोस्ट के बीच गत 25 जुलाई को सीएम योगी आदित्यनाथ ने ऊर्जा विभाग की उच्चस्तरीय समीक्षा बैठक के दौरान स्पष्ट शब्दों में कहा कि प्रदेश में बिजली व्यवस्था अब केवल तकनीकी या प्रशासनिक विषय नहीं, बल्कि जनता के भरोसे और शासन की संवेदनशीलता का पैमाना बन चुकी है।
सीएम योगी ने अफसरों को दो टूक शब्दों में कहा कि ट्रिपिंग, ओवरबिलिंग और अनावश्यक कटौती अब किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं की जाएगी, सुधार करना ही होगा। इसके साथ ही सीएम ने कहा कि लापरवाही अब बर्दाश्त नहीं की जाएगी। मुख्यमंत्री ने ट्रिपिंग की लगातार आ रही शिकायतों पर गहरी नाराजगी जताई और निर्देश दिया कि प्रत्येक फीडर की तकनीकी जांच हो, कमजोर स्थानों की पहचान कर तुरंत सुधार कराया जाए।
मुख्यमंत्री ने ऊर्जा विभाग के अधिकारियों से कहा कि संसाधनों की कोई कमी नहीं है। सरकार ने बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण को मजबूत करने के लिए रिकॉर्ड बजट उपलब्ध कराया है। ऐसे में किसी भी स्तर पर लापरवाही अब बर्दाश्त नहीं की जाएगी। सभी डिस्कॉम के प्रबंध निदेशकों से उनके क्षेत्रों की आपूर्ति की स्थिति जानने के बाद मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया कि हर स्तर पर जवाबदेही तय की जाए।
अचानक नाराज नहीं हुए ऊर्जा मंत्री और मुख्यमंत्री
ऊर्जा मंत्री और मुख्यमंत्री की बिजली विभाग के अधिकारियों को लेकर यह नाराजगी किसी एक दिन की कुव्यवस्था का परिणाम नहीं है। यह लंबे समय से चली आ रही अधिकारियों की लापरवाह कार्यप्रणाली से उपजा आक्रोश है। लेकिन घोर आश्चर्य की बात है कि विभागीय मंत्री तथा मुख्मंत्री की इतनी कठोर टिप्पणियों के बावजूद अधिकारी हैं कि सुधरने का नाम नहीं ले रहे।
कृष्ण की नगरी मथुरा इसका बड़ा उदाहरण
उदाहरण के तौर पर यूपी के अत्यंत महत्वपूर्ण जनपदों में शुमार मथुरा के बिजली अधिकारियों की कार्यशैली देखी जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि मथुरा न केवल भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से एक अहम जिला है बल्कि धार्मिक नजरिए से भी विश्व पटल पर विशिष्ट स्थान रखता है। यहां प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु विभिन्न स्थानों का भ्रमण करने तथा अपने आराध्य के दर्शन करने आते हैं।
योगी सरकार के सबसे पहले कार्यकाल में मथुरा-वृंदावन क्षेत्र के विधायक पंडित श्रीकांत शर्मा को ही प्रदेश के ऊर्जा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया था, और तब उन्होंने पूरे पांच साल बहुत अच्छे तरीके से बिजली की व्यवस्था को संभालने का काम किया था। प्रदेश की जनता आज उनके कार्यकाल को याद करती है। लेकिन अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि उसी व्यवस्था पर ऊर्जा मंत्री अरविंद शर्मा से लेकर मुख्यमंत्री योगी तक नाराजगी जता रहे हैं।
कहने के लिए तो मथुरा में बिजली विभाग के सुपरिटेंडिंग इंजीनियर से लेकर चीफ इंजीनियर तक तैनात हैं किंतु उनके पास जनता तो छोड़िए, पत्रकारों तथा विधायकों की भी बात न तो सुनने का समय है और न उनके किसी मैसेज का जवाब देने का। सबूत के साथ बानगी देखिए-
ये वो मैसेज हैं जो Legend News की ओर से चीफ इंजीनियर (CE) तथा सुपरिंटेंडेट इंजीनियर (SE) को समय-समय पर भेजे गए। इन वाट्सऐप मैसेज में समय का काफी अंतर होने के बाद भी अधिकारियों की कार्यप्रणाली में कोई अंतर नजर नहीं आता।
मैसेज डिलीवर होने पर भी किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया न देना इस बात को साबित करता है कि इन अधिकारियों को किसी का कोई खौफ नहीं है। इन्हें योगी सरकार के उन आदेश-निर्देशों की भी परवाह नहीं है जिसके तहत बार-बार कहा जाता है कि हर फोन तथा मैसेज का जवाब देना जरूरी है और तत्काल जवाब न दे पाने की स्थिति में समय मिलने पर संपर्क साधना आवश्यक है।
जाहिर है कि ये और इन जैसे प्रदेश के तमाम अधिकारी आश्वस्त हैं कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यहां तक कि मंत्री और मुख्यमंत्री भी। यदि ऐसा नहीं होता तो नौकरशाहों की इतनी हिमाकत नहीं होती, और न ये इतने बेलगाम होते कि मंत्री तथा मुख्यमंत्री की नाराजगी से भी इनके कानों पर जूं नहीं रेंगती।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि मथुरा में तैनात इन अधिकारियों सहित प्रदेशभर के बहुत से अधिकारियों का ऐसा दुस्साहस तभी संभव है जब वो जानते हों कि मंत्री और मुख्यमंत्री कहीं न कहीं इतने मजबूर हैं कि वो घुड़की तो दे सकते हैं, एक्शन नहीं ले सकते। वर्ना यदि एक-दो ऐसे अफसरों पर भी समुचित एक्शन हुआ होता तो ऐसी नौबत नहीं आती।
एक्शन हुआ होता तो न ऊर्जा मंत्री इतने असहाय दिखाई देते और न मुख्यमंत्री को नाराजगी जाहिर करनी पड़ती। 2027 के विधानसभा चुनाव बहुत दूर नहीं हैं। समय रहते यदि योगी सरकार नहीं चेती, तो इसका भाजपा को बड़ा नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
शुक्रवार, 8 अगस्त 2025
मथुरा-वृंदावन नगर निगम का RDF घोटाला: करोड़ों के खेल में आखिर कितने हिस्सेदार?
नगर निगम मथुरा-वृंदावन में हुए RDF घोटाले की शिकायत यूं तो विभागीय मंत्री अरविंद कुमार शर्मा तथा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक पहुंच चुकी है, किंतु यहां बड़ा सवाल यह है कि करोड़ों के इस घोटाले में शामिल लोगों को आखिर कौन और क्यों बचा रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं घोटाले में कुछ ऐसे विभागीय अधिकारी एवं कर्मचारी भी हिस्सेदार हों, जिनके ऊपर घोटाले को सामने लाने की जिम्मेदारी बनती है।
ये गंभीर सवाल इसलिए उठ खड़े हुए हैं क्योंकि नगर निगम ने इस पूरे कांड की प्रमुख किरदार कंपनी के साथ "नोटिस-नोटिस" का खेल तो खूब खेला लेकिन उसे बैक डोर से न सिर्फ भुगतान किया जाता रहा बल्कि शेष भुगतान को भी दिलाए जाने की व्यवस्था की जा रही है।
गौरतलब है कि दयाचरण एंड कंपनी को वर्ष 2023 में नगर निगम मथुरा-वृंदावन ने कूड़े के निस्तारण का ठेका दिया लेकिन ठेका हासिल करने वाली यह कंपनी शुरू से ही अपने काम में बेहद लापरवाह रही नतीजा जहां-तहां काफी कूड़ा एकत्र होता रहा। \
जैसे-तैसे जब कंपनी पर काम पूरा करने का दबाव बनाया तो उसने उसे निर्धारित डंपिंग यार्ड में न डलवाकर सार्वजनिक स्थानों और यहां तक कि तालाब एवं जलाशयों में फिंकवा दिया जिससे कई बीमारियों के फैलने का खतरा है।
आश्चर्य की बात यह है इस पूरे प्रकरण में मथुरा-वृंदावन नगर निगम का कोई जिम्मेदार अधिकारी मुंह खोलने को तैयार नहीं है, अलबत्ता दबी जुबान ने कुछ कर्मचारी यह जरूर कहते हैं कि यदि किसी अधिकारी ने जुबान खोल दी तो कई पूर्व अधिकारी भी इस घोटाले की जांच के दायरे में होंगे इसलिए चुप्पी साधे बैठे हैं।
ऐसे ही कुछ कर्मचारियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वह 2019-20 में डूडा के माध्यम से नगर निगम में लगे थे लेकिन तब से लेकर आज तक न तो उनकी सुरक्षा के लिए तय उपकरण उपलब्ध कराए गए हैं और न उनका स्वास्थ्य परीक्षण कराया गया। यही नहीं, पिछले करीब दो साल से कूड़ा निस्तारण के लिए जरूरी मशीनें खराब पड़ी हुई हैं जिस कारण कूड़े के पहाड़ खड़े हो चुके हैं।
कर्मचारियों का दावा है कि दयाचरण एंड कंपनी को ठेका दिए जाने से लेकर अब तक मात्र 25 प्रतिशत कूड़े का निस्तारण किया गया है जबकि टेंडर के मुताबिक कंपनी को कूड़े के निस्तारण की प्रक्रिया पूरी करके उसे जूते बनाने वाली तथा कागज बनाने वाली कंपनियों को भेजना था जिससे नगर निगम की आय होनी थी।
दयाचरण एंड कंपनी की लापरवाही एवं अधिकारियों पर उसकी मेहरबानी के आलम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कूड़ा निस्तारण की प्रक्रिया के लिए जरूरी बिजली का कनेक्शन तक उसने नहीं लगवाया और जो कुछ आंशिक काम किया उसके लिए नगर निगम की बिजली का इस्तेमाल किया गया।
हालांकि पिछले दिनों जब प्रदेश के नगर निकाय मंत्री अरविंद कुमार शर्मा मथुरा आए तो उनके संज्ञान में इस पूरे घोटाले और इसे संरक्षण दिए जाने की बात लाई गई किंतु उन्होंने शिकायत लिखित में पहुंचाने को कहकर लगभग अपना पल्ला झाड़ लिया। लेकिन बताया जाता है कि अब कुछ लोगों ने लिखित शिकायत भी मंत्री तथा मुख्यमंत्री तक पहुंचा दी है ताकि ठेकेदार का शेष भुगतान भी चोरी-छिपे कराकर करोड़ों के इस घोटाले का पूरी तरह पटाक्षेप न कर दिया जाए।
विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार नगर निगम के कुछ जिम्मेदार अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा यह सारा खेल इसलिए खेला जा रहा है क्योंकि दयाचरण एंड कंपनी ने कहीं अन्यत्र कोई बड़ा टेंडर हासिल कर लिया है। ऐसे में यदि उसके खिलाफ मथुरा-वृंदावन नगर निगम से कोई कार्रवाई की जाती है तो उसका यह टेंडर भी खटाई में पड़ सकता है।
उसके खिलाफ मथुरा-वृंदावन नगर निगम से कोई ठोस कार्रवाई न हो और सबकुछ सामान्य तरीके से निपट जाए इसके लिए अधिकारियों को ऑब्लाइज भी किया जा रहा है क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो अब तक दयाचरण एंड कंपनी को ब्लैक लिस्ट किया जा चुका होता।
जाहिर है कि कोई तो है जो इस पूरे घोटाले को पहले दिन से प्राश्रय दे रहा है और तमाम अनियमितताओं के बावजूद कंपनी के खिलाफ ठोस कार्रवाई करने की बजाय उसे लगातार बच निकलने के रास्ते उपलब्ध करा रहा है।
योगी सरकार की भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति तथा भगवान श्रीकृष्ण की नगरी के निवासियों की खुशहाली के लिए जरूरी है कि इस घोटाले की उच्च स्तरीय जांच कराकर इसमें संलिप्त सभी लोगों के चेहरे सामने लाए जाएं और उससे होने वाले बड़े नुकसान को रोका जाए।
-Legend News
रविवार, 27 जुलाई 2025
सावधान! डालमिया बाग पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बावजूद साजिश रच रहे हैं भूमाफिया
वृंदावन के डालिमया बाग का सिर्फ एमओयू साइन करके हजारों करोड़ रुपए हड़प चुके भूमाफिया अब एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश में लगे हैं। इसके लिए वह नित नई साजिशें रच रहे हैं, और इन साजिशों के तहत इस तरह की अफवाहें फैला रहे हैं जिससे एक ओर इनके जाल में फंसे बैठे लोगों की उम्मीद न टूटे और दूसरी ओर नए निवेशकों को टोपी पहनाई जा सके। गौरतलब है कि योगीराज श्रीकृष्ण की क्रीड़ास्थली के बेशकीमती इलाके छटीकरा रोड पर स्थित डालमिया बाग से भूमाफिया द्वारा रातों-रात 454 हरे दरख्त काटे जाने का मामला जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के बाद सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने इस पर बेहद सख्त रुख अपनाते हुए आरोपियों पर न केवल भारी जुर्माना लगाया बल्कि किसी भी किस्म के निर्माण पर रोक के साथ-साथ पर्यावरण की भरपाई के लिए हजारों नए पेड़ लगाने का भी आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में 9 बिंदुओं के जरिए यह स्पष्ट किया...
1. 454 पेड़ों की प्रतिपूर्ति उसी भूमि पर वृक्षारोपण करके की जाएगी।
2. 9080 वृक्षों का रोपण आसपास के उपयुक्त स्थलों पर किया जाएगा, जिनमें 4540 पौधे मूल वृक्षों के स्थान पर प्रतिपूरक वृक्षारोपण के रूप में तथा 4540 पौधे दंड स्वरूप लगाए जाएंगे।
3. प्रत्येक वृक्ष हेतु ₹1,00,000/- के हिसाब से ₹4,54,00,000/- (4 करोड़ 54 लाख रुपये मात्र) का न्यूनतम दंड भूमि स्वामी पर अधिरोपित किया गया है, जिसे वन विभाग के माध्यम से वृक्षारोपण में व्यय किया जाएगा।
4. उ. प्र. वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 तथा भारतीय वन अधिनियम 1927 के प्रावधानों के तहत अवैध वृक्ष कटान हेतु दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी।
5. संरक्षित वन क्षेत्र में बिना पूर्व अनुमति मार्ग निर्माण हेतु वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अंतर्गत अभियोजन चलेगा।
6. वन विभाग द्वारा समस्त अवैध लकड़ी की जब्ती एवं निस्तारण का कार्य किया जाएगा।
7. TTZ प्राधिकरण द्वारा न्यायालय के समस्त आदेशों के अनुपालन की त्रैमासिक रिपोर्ट पेश की जाएगी।
8. निर्माण पर प्रतिबंध रहेगा
9. अवमानना के लिए पृथक दंड पर भी विचार किया जाएगा।
NGT ने अपने आदेश में स्वयं सुप्रीम कोर्ट के आदेश (रिपोर्ट संख्या 35/2024 के अनुच्छेद 14) को शब्दशः उद्धृत करते हुए कहा कि हम रिपोर्ट संख्या 35/2024 के अनुच्छेद 14 में दी गई सिफारिशों को स्वीकार करते हैं।
सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट से सख्त निर्णय आने के बाद अब जबकि डालिमया बाग पर हाउसिंग प्रोजेक्ट खड़ा करने का सपना कभी पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा और उसके नाम पर हड़पी गई हजारों करोड़ रुपए की रकम भी खुर्द-बुर्द होती नजर आ रही है तो निवेशकों को गुमराह करने के लिए माफिया तरह-तरह के हथकंडे अपना रहा है।
दरअसल, इससे माफिया दोतरफा लाभ हासिल करने के प्रयास में है। प्रथम तो जिनका पैसा उसने हड़प रखा है वो पैसे के वापसी के लिए दबाव न बनाएं, और दूसरे नए निवेशकों को टोपी पहनाने में सफल होने पर बाजार में अपनी बर्बाद हो चुकी साख बचाने का काम हो जाए।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025
रेलवे ने तो कब्जा मुक्त करा ली अपनी भूमि, लेकिन अमरनाथ विद्या आश्रम वाजपेयी बंधुओं के कब्जे से कब होगा मुक्त?
शहर ही नहीं, प्रदेश की नामचीन आवासीय शिक्षण संस्था 'अमरनाथ विद्या आश्रम' के एक हिस्से से कल रेलवे ने तो अवैध निर्माण ध्वस्त कर अपनी जमीन उनके कब्जे से मुक्त करा ली किंतु बड़ा सवाल यह है कि ये शिक्षण संस्थान वाजपेयी बंधुओं के कब्जे से कब तक मुक्त हो सकेगा, और हो सकेगा भी या नहीं। दरअसल, भूतेश्वर रेलवे स्टेशन से मथुरा जंक्शन तक इन दिनों रेलवे अपनी चौथी लाइन बिछाने का कार्य कर रहा है लेकिन इस कार्य में कैलाश नगर तथा अमरनाथ विद्या आश्रम द्वारा किया गया अतिक्रमण बाधा बन रहा था।
रेलवे अधिकारियों ने इस अतिक्रमण को हटाने के लिए कई बार नोटिस जारी किए, और अमरनाथ विद्या आश्रम को तो अंतिम नोटिस इसी महीने की 17 तारीख को दिया गया किंतु अमरनाथ विद्या आश्रम के प्रबंधतंत्र ने रेलवे के नोटिस का जवाब तक देना जरूरी नहीं समझा। रेलवे ने अपनी जमीन पर अवैध रूप से बनी अमरनाथ विद्या आश्रम की चारदीवारी तथा गेट को ध्वस्त करने के लिए पहले उनका चिन्हांकन भी किया लेकिन अमरनाथ विद्या आश्रम का प्रबंधतंत्र न कुछ देखने को तैयार था और न सुनने को। आखिर रेलवे ने कल सुरक्षाबलों के सहयोग से अमरनाथ विद्या आश्रम का अवैध निर्माण ध्वस्त कर दिया, जिस पर प्रबंधतंत्र ने जमकर हंगामा किया।
क्या कहता है अमरनाथ विद्या आश्रम का प्रबंधतंत्र
रेल प्रशासन ने बाउंड्रीवाल को ध्वस्त करने की कोई भी सूचना नहीं दी। यही नहीं, अचानक शिक्षण संस्थान की विद्युत आपूर्ति बाधित कर दी गयी जिससे परीक्षा दे रहीं छात्राओं के कक्ष में अंधेरा छा गया। विद्यालय प्रबंधन ने रेल अधिकारियों से कहा कि रेलवे पथ के निर्माण में वो रेल प्रशासन के साथ हैं। बच्चों की परीक्षाएं सम्पन्न हो जाने दीजिए, लेकिन इसके बावजूद रेलवे प्रशासन ने बाउंड्रीवाल को ध्वस्त करने के साथ-साथ तमाम लगे वृक्षों को उजाड़ दिया गया। नगर निगम की स्ट्रीट लाइटें भी तोड़ दी गयीं। मना करने पर रेलवे निर्माण विभाग के सहायक अधिशासी अभियंता राघवेन्द्र गुप्ता और उनके साथ आए अधिकारी कर्मचारियों ने हाथापाई और मारपीट कर दी।
अमरनाथ विद्या आश्रम ने दावा किया कि इससे पूर्व विद्यालय प्रबंधन ने जिलाधिकारी चन्द्र प्रकाश सिंह के समक्ष पूरा प्रकरण रखते हुए कहा था कि रेल प्रशासन के कार्य में विद्यालय की बाउंड्री से कोई भी अवरोध उत्पन्न नहीं हो रहा है, लेकिन रेलवे के अधिकारी रेल लाइन का काम न करके जबरन बाउंड्रीवाल को तोड़ने पर आमादा थे। सिटी मजिस्ट्रेट राकेश कुमार ने भी रेल अधिकारियों से बाउंड्रीवाल को फिलहाल छोड़कर अपना काम करने के लिए फोन किया, लेकिन रेलवे के अधिकारियों ने उनकी भी नहीं सुनीं। बाउंड्रीवाल तोड़ दिए जाने से बाहरी तत्वों का विद्यालय में प्रवेश प्रारंभ हो गया है। विद्यालय प्रशासन व बच्चों के साथ कभी भी कोई बड़ी घटना घट सकती है। विद्यालय में अत्यंत दहशत का वातावरण है।
प्रधानाचार्य अरुण वाजपेयी को जब रेलवे के नोटिस की प्रति भेजकर उसके संदर्भ में जानकारी मांगी गई तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया जबकि अमरनाथ विद्या आश्रम कह रहा है कि उन्हें कोई नोटिस दिए बिना रेलवे ने ध्वस्तीकरण की कार्रवाई शुरू कर दी।
मथुरा-वृंदावन रेलवे लाइन पर भी बना रखा है गेट
ट्रस्ट के साथ भी 3 दशक से चल रहा है अमरनाथ विद्या आश्रम का विवाद
सच तो यह है कि अमरनाथ विद्या आश्रम का सिर्फ रेलवे से ही नहीं संस्थान के मूल ट्रस्टियों से भी विवाद चल रहा है जो आज तक एसडीएम (सदर) की कोर्ट में लंबित है।
हालांकि इसकी शुरूआत तीन दशक पहले तब हुई थी जब इस विद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य आनंद मोहन वाजपेयी ने एक नए ट्रस्ट का गठन कर विद्यालय पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। संस्थान के मूल ट्रस्टियों में से एक धीरेन्द्रनाथ भार्गव का कहना है कि वाजपेयी परिवार ने विद्यालय पर अपना कब्जा दिखाने के उद्देश्य से एक ओर जहां तमाम दानदाताओं की ओर से कराए गए निर्माण कार्य के सबूत मिटा दिए वहीं दूसरी ओर विद्यालय में गेट के ठीक सामने पार्क में लगी उन स्वर्गीय 'द्वारिकानाथ भार्गव' की मूर्ति भी नष्ट कर दी जिन्होंने विद्यालय की स्थापना की थी।
ट्रस्टी धीरेन्द्रनाथ भार्गव द्वारा दी गई लिखित जानकारी के अनुसार अमरनाथ विद्या आश्रम को लेकर एक लम्बे समय से वाजपेयी बंधुओं द्वारा भ्रामक और गलत जानकारियाँ देकर जनता को गुमराह किया जा रहा है जबकि सच्चाई यह है कि अमरनाथ विद्या आश्रम की स्थापना सन् 1961 में स्वतंत्रता सेनानी और अधिवक्ता श्री द्वारिका नाथ भार्गव ने स्वर्गीय अमरनाथ भार्गव की स्मृति में एक ट्रस्ट के जरिए की थी।
आनन्द मोहन वाजपेयी को तब इस शिक्षण संस्था में बतौर प्रधानाध्यापक नियुक्त किया गया था। सन् 1990 तक आनन्द मोहन वाजपेयी इस शिक्षण संस्था के प्रधानाध्यापक रहे। उसके बाद ट्रस्ट ने उन्हें स्कूल का निदेशक घोषित कर दिया लेकिन उन्होंने संस्था के ट्रस्टियों का भरोसा तोड़कर एक नया फर्जी ट्रस्ट रजिस्टर्ड करवा लिया और पूरी संस्था पर अपने भाई-भतीजों सहित काबिज हो गए।
आनन्द मोहन वाजपेयी ने खुद को अमरनाथ विद्या आश्रम का आजीवन ट्रस्टी दर्शाते हुए सन् 1995 में ट्रस्ट का नवीनीकरण करा लिया। जब इस बात की जानकारी मूल ट्रस्टियों को हुई तो उन्होंने उपनिबंधक फर्म, सोसायटी एवं चिट्स आगरा के यहाँ उनके इस कृत्य को चुनौती दी। जिसके उपरांत उपनिबंधक ने माना कि आनन्द मोहन वाजपेयी न तो ट्रस्ट के लिए गठित कार्यकारिणी के चुनाव सम्बन्धी कोई रजिस्टर प्रस्तुत कर सके और न ही ट्रस्ट की वैधता साबित कर सके।
उपनिबंधक आगरा द्वारा 2 जून 1995 को दिए गए अपने आदेश में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि आनन्द मोहन वाजपेयी की ओर से प्रस्तुत 30 अक्टूबर 1993 को दर्शाये गए कार्यकारिणी के चुनावों की वैधता संदिग्ध है और 1988 में हुआ चुनाव ही अंतिम चुनाव था। धीरेन्द्रनाथ भार्गव के अनुसार अमरनाथ विद्या आश्रम पर मूल रूप से श्री द्वारिका नाथ भार्गव द्वारा गठित ट्रस्ट का ही अधिकार है और वही इसके संचालन का हकदार है।
ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि रेलवे ने तो अमरनाथ विद्या आश्रम का अवैध निर्माण ध्वस्त कर अपनी जमीन उसके कब्जे से मुक्त करा ली किंतु क्या स्वतंत्रता सेनानी और अधिवक्ता द्वारिका नाथ भार्गव द्वारा स्थापित यह शिक्षण संस्थान कभी वाजपेयी बंधुओं के कब्जे से मुक्त हो पाएगा क्योंकि संस्थान पर काबिज वाजपेयी बंधु एक ओर जहां पुलिस-प्रशासन में ऊंची पहुंच होने का दम भरते आए हैं वहीं दूसरी ओर सत्ता के गलियारों में भी गहरी पैठ होने का दावा करते हैं।
उनके इस दावे में दम इसलिए नजर आता है कि रेलवे जैसे विभाग को उनसे अपनी जमीन कब्जा मुक्त कराने में वर्षों एड़ियां रगड़नी पड़ गईं, और यदि अब भी रेलवे की चौथी लाइन नहीं पड़ रही होती तो ये काम संभव नहीं होता।
रहा सवाल शिक्षण संस्थान के मूल ट्रस्टियों का तो वो आज तक वाजपेयी बंधुओं के बिछाए कानूनी जाल में फंसे हुए हैं और कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पर मजबूर हैं।
-Legend News
शुक्रवार, 28 मार्च 2025
अब कभी पूरा नहीं होगा डालमिया बाग में हाउसिंग प्रोजेक्ट खड़ा करने का ख्वाब, लेकिन भ्रम फैलाकर फिर फ्रॉड करने की तैयारी कर रही है शंकर सेठ एंड कंपनी
वृंदावन के छटीकरा रोड पर स्थित डालमिया बाग में हाउसिंग प्रोजेक्ट खड़ा करने का ख्वाब अब कभी पूरा नहीं हो सकता, लेकिन शंकर सेठ एंड कंपनी सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर भ्रम फैला रही है। ऐसा करने के पीछे भूमाफिया की टोली का एक मकसद तो यह है कि हाउसिंग प्रोजेक्ट 'गुरू कृपा तपोवन' के नाम पर पूर्व में हड़पे गए हजारों करोड़ रुपए को जायज ठहराया जा सके, और दूसरा इसकी आड़ में फिर फ्रॉड करने का रास्ता साफ हो जाए। सच तो यह है कि डालमिया बाग से 454 हरे दरख्त काटने के बाद जब शंकर सेठ पर कानूनी शिकंजा कसा गया तो उसने नित-नई कहानियां गढ़नी शुरू कर दीं। पहले कहा कि मेरा तो इस प्रोजेक्ट से कोई लेना-देना ही नहीं है। फिर वह और उसकी टोली कहने लगी कि जिला प्रशासन से सारी 'सेटिंग' हो गई है और मामला इसी स्तर पर समाप्त हो जाएगा। लेकिन जब बात एनजीटी, इलाहाबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंची और एनजीटी ने बाकायदा एक जांच कमेटी गठित कर दी तो इन्होंने जांच कमेटी से सब रफा-दफा करा लेने का 'शिगूफा' छोड़ दिया।
अब जबकि उसी जांच कमेटी की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ओर जहां प्रति पेड़ एक लाख रुपए का जुर्माना ठोक दिया और नौ हजार से अधिक नए पेड़ लगाने का आदेश दे दिया तो अब शंकर सेठ एंड कंपनी नया भ्रम फैलाने में जुट गई है।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश कहता है कि ये नौ हजार से अधिक पेड़ डालमिया बाग के निकट एक किलोमीटर के दायरे में नई जमीन खरीद कर लगाने होंगे। यही नहीं, आदेश का अनुपालन होने तक हाउसिंग प्रोजेक्ट पर रोक रहेगी। यदि नक्शा पास करा भी लिया गया तो उसे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत करना होगा।
यहां यह समझना जरूरी है कि अब तक किसी के नाम डालमिया बाग की कोई रजिस्ट्री ही नहीं हुई है। जो हुआ है, वो मात्र एमओयू था जिसके आधार पर न तो नक्शा पास कराया जा सकता है और न निर्माण संबंधी कोई गतिविधि शुरू की जा सकती है।
जहां तक सवाल नौ हजार से अधिक नए पेड़ लगाने के आदेश का है तो उसका अनुपालन करने के लिए शंकर सेठ एंड कंपनी को 20 एकड़ से अधिक जमीन खरीदनी होगी।
वन विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार ताज ट्रैपेजियम जोन यानी TTZ क्षेत्र में एक हेक्टेयर जमीन पर एक हजार पेड़ लगाने का नियम है। एक हेक्टेयर जमीन में 2.47 एकड़ जमीन होती है। इस हिसाब से करीब 9 हेक्टेयर जमीन की दरकार होगी। डालमिया बाग से एक किलोमीटर के दायरे में ये जमीन किस मूल्य पर मिलेगी, इसके बारे में सोचकर ही शंकर सेठ एंड कंपनी को पसीना आ गया होगा।
गौरतलब है कि एनजीटी की जांच कमेटी ने डालमिया बाग को ग्रीन बेल्ट घोषित करने की भी सिफारिश की है, जिस पर निर्णय आना अभी बाकी है। संभावना यही है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने जांच कमेटी की सभी सिफारिशें पूरी तरह मान ली हैं तो आगे ग्रीन बेल्ट घोषित करने की मांग भी मान ली जाएगी।
इसके अलावा बाग में 'गुरूकृपा तपोवन' नामक हाउसिंग प्रोजेक्ट बनाने की आड़ में कच्ची पर्चियों पर हड़पे गए हजारों करोड़ रुपए को लेकर भी एक वो याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, जिसमें शंकर सेठ आदि के खिलाफ सीबीआई और ईडी से जांच कराने की मांग की गई है।
अब क्या भ्रम फैला रही है शंकर सेठ एंड कंपनी?
यूं तो शंकर सेठ एंड कंपनी सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सच्चाई और उसके अनुपालन में आने वाली कठिनाइयों से भली-भांति परिचित होगी। और अगर उसे समझने में कोई दिक्कत पेश आ रही होगी तो पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी जैसे विद्वान समझा ही देंगे जिन्हें इन्होंने मोटी फीस देकर अपने पक्ष में दलीलें पेश करने को खड़ा किया था, बावजूद इसके यह टोली भरपूर भ्रम फैला रही है।
माफिया की टोली और इसके गुर्गे निवेशकों से कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट से फैसला हमारे मन मुताबिक आया है। कोर्ट ने नक्शा पास कराने पर कोई रोक नहीं लगाई है। जल्द ही हम नक्शा पास कराकर काम शुरू कर देंगे जबकि सच्चाई यह है कि जिस जमीन की रजिस्ट्री ही नहीं हुई, उसका नक्शा पास कैसे हो सकता है।
भ्रम फैलाने के पीछे माफिया की टोली का मकसद क्या है?
सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर भ्रम फैलाने के पीछे माफिया की टोली का बड़ा मकसद यह है कि जिन लोगों की आंखों में धूल झोंक कर ये हजारों करोड़ रुपया ठग चुकी है, उन्हें गुमराह किया जा सके। साथ ही जिन लोगों की पूरी रकम नहीं आई है, उनसे बाकी रकम वसूली जा सके।
चूंकि शंकर सेठ और डालिमया बाग कांड में संलिप्त अन्य लोगों से निवेशकों का भरोसा इस दौरान पूरी तरह उठ चुका है, इसलिए भ्रम फैलाने के पीछे एक मकसद यह भी है कि फिर से यह भरोसा पैदा हो जाए जिससे इनके दूसरे रियल एस्टेट प्रोजेक्ट पर अब उसका दुष्प्रभाव बाकी न रहे।
ऐसा न होता तो जो शंकर सेठ शुरू में यह कह रहा था कि उसका डालमिया बाग कांड में कोई हाथ नहीं है, उसने फिर अचानक पेड़ काटने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर कैसे ले ली। ये जानते व समझते हुए कि सुप्रीम कोर्ट में अपराध स्वीकार कर लेने के बाद वन विभाग के लिए उसे अब स्थानीय अदालत में दोषी साबित करना बहुत आसान होगा। यानी जो सजा उस अपराध के लिए मुकर्रर है, वह तो होगी ही।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है शंकर सेठ एंड कंपनी अपनी फितरत से बाज नहीं आ रही। अब इसे उसकी मजबूरी कहें या आदतन अपराध की प्रवृत्ति, लेकिन इतना तय है कि डालमिया बाग पर गुरू कृपा तपोवन बनाने का सपना अब कभी पूरा नहीं होगा।
देखना बस यह है कि निवेशकों से किया गया इनका वायदा कब और किस सूरत में पूरा होता है, अथवा पूरा होता है भी या नहीं। उनसे हड़पी गई रकम उन्हें वापस मिलती है या इसी प्रकार भ्रम फैलाकर और गुमराह करके लगातार मूर्ख बनाया जाता है।
देखना यह भी है अब तक शंकर सेठ एंड कंपनी पर आंख बंद करके भरोसा करने वाले क्या इनके नए हथकंडे पर भरोसा करेंगे, और करेंगे तो कब तक? और जूतों में दाल बंटने की जो नौबत अभी अंदर ही अंदर पनप रही है, वह कब और कैसे सामने आएगी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
सोमवार, 24 मार्च 2025
कौन कहता है कानून सबके लिए समान है, क्या हाई कोर्ट जज के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव है?
दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा पर आरोप लगे हैं कि नई दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास से भारी मात्रा में कैश मिला है. 14 मार्च को उनके आवास के एक स्टोर रूम में आग लगी थी, जहाँ पर कथित तौर पर उनके घर से बड़ी मात्रा में कैश मिला था.अभी यशवंत वर्मा के खिलाफ 'इन-हाउस' जांच प्रक्रिया जारी है. इसके लिए चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने तीन जजों की कमेटी बनाई है.
इस बारे में 22 मार्च की रात सुप्रीम कोर्ट ने एक रिपोर्ट सार्वजनिक की थी. उसमें दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय की इस घटना पर रिपोर्ट और यशवंत वर्मा का बचाव है.
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने ये फैसला लिया है कि जस्टिस यशवंत वर्मा को कुछ समय तक कोई न्यायिक जिम्मेदारी न सौंपी जाए.
इन सब के बीच जानते हैं कि हाई कोर्ट के जज के खिलाफ क्या और कैसे कार्रवाई हो सकती है और ऐसे मामलों में पहले अब तक क्या हुआ है?
क्या हाई कोर्ट जजों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई संभव है
हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को हटाने के लिए संसद में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की जा सकती है लेकिन महाभियोग की यह प्रक्रिया लंबी होती है. अगर लोक सभा के सौ सांसद या राज्य सभा के पचास सांसद जज को हटाने का प्रस्ताव दें तो फिर सदन के अध्यक्ष या सभापति उसको स्वीकार कर सकते हैं.
इस प्रस्ताव के स्वीकार होने के बाद तीन सदस्यों की समिति इस मामले की तहकीकात करती है और एक रिपोर्ट सदन को सौंपती है.
अगर समिति ये पाती है कि जज के खिलाफ आरोप बेबुनियाद हैं तो मामला वहीं खत्म हो जाता. अगर समिति जज को दोषी पाती है तो फिर इसकी चर्चा दोनों सदनों में होती है और इस पर वोटिंग होती है.
अगर संसद के दोनों सदन में विशेष बहुमत से जज को हटाने के प्रस्ताव को स्वीकार किया जाए तो ये प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास जाता है, जो जज को हटाने का आदेश देते हैं.
आज तक भारत में किसी भी जज को इस प्रकार से हटाया नहीं गया है, हालांकि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कम से कम छह जजों को इंपीच करने की कोशिश की गई है.
इंपीचमेंट के अलावा उच्च न्यायालय के जज के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही भी हो सकती है. हालांकि, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों का पालन करना होगा. आज तक किसी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को भ्रष्टाचार के लिए दोषी नहीं पाया गया है.
क्या जजों पर कार्रवाई हो सकती है
उच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ 'प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट' के तहत कार्रवाई हो सकती है. पर, पुलिस खुद से किसी जज के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती.
राष्ट्रपति को भारत के चीफ़ जस्टिस की सलाह लेनी होगी और उसके बाद तय करना होगा कि एफआईआर दर्ज हो सकती है या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा अपने साल 1991 के फैसले में कहा था, जब मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस के वीरास्वामी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की शिकायत दर्ज हुई थी.
फिर साल 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने एक 'इन-हाउस' प्रक्रिया का गठन किया, जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्यवाही हो सके. इसमें कहा गया है कि अगर किसी जज के खिलाफ शिकायत आती है तो पहले हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस या भारत के चीफ जस्टिस शिकायत की जांच करे.
अगर वो पाते है कि शिकायत बेबुनियाद है तो मामला वहीं खत्म हो जाता है. अगर ऐसा नहीं होता है तो जिस जज के खिलाफ शिकायत आई है उससे जवाब मांगा जाता है. अगर जवाब से चीफ जस्टिस को लगे कि आगे किसी कार्रवाई की ज़रूरत नहीं है तो मामला खत्म हो जाता है.
अगर ये लगे कि मामले की और गहरी जाँच होनी चाहिए तो भारत के चीफ जस्टिस एक कमेटी का गठन कर सकते हैं. इस कमेटी में 3 जज होते हैं.
अपनी कार्रवाई के बाद कमेटी या तो जज को बेकसूर पा सकती है या जज को इस्तीफा देने के लिए कह सकती है. इस्तीफा देने से अगर जज ने मना कर दिया तो समिति उनके इंपीचमेंट के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सूचना दे सकती है.
ऐसे भी कुछ मामले हुए हैं जिसमें इन हाउस कमेटी के फैसले के बाद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को हाई कोर्ट जज के खिलाफ कार्यवाही करने को कहा है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज एसएन शुक्ला के खिलाफ 2018 में इन-हाउस कमिटी की प्रक्रिया चली थी. उसके बाद उन्होंने इस्तीफ़ा देने से मना कर दिया. साल 2021 में सीबीआई ने उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों पर एक चार्जशीट दर्ज की.
पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट की पूर्व जज निर्मल यादव के खिलाफ भी सीबीआई ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं. उनके खिलाफ मुक़दमा अभी लंबित है.
मार्च 2003 में दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज शमित मुखर्जी को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.
हाई कोर्ट के जज को क्या सुविधाएं देती है सरकार?
भारत में हाई कोर्ट जज एक संवैधानिक पद है. इनकी नियुक्ति की भी लंबी प्रक्रिया होती है. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जज और सरकार की सहमति के बाद इन्हें नियुक्त किया जाता है.
सातवें वेतन आयोग के तहत उनकी मासिक सैलरी 2.25 लाख रुपए होती है, और ऑफिस के काम-काज के लिए 27 हज़ार रुपए मासिक भत्ता भी मिलता है. ऐसे जजों को रहने के लिए एक सरकारी आवास दिया जाता है. और अगर वे सरकारी घर ना लें, तो किराए के लिए अलग से पैसे मिलते हैं.
इस घर के रखरखाव के पैसे सरकार देती है. इन घरों को एक सीमा तक बिजली और पानी मुफ्त मिलता है. और फर्नीचर के लिए 6 लाख तक की रकम मिलती है.
साथ ही उन्हें एक गाड़ी दी जाती है और हर महीने दो सौ लीटर पेट्रोल लेने की अनुमति होती है. इसके अलावा चिकित्सा की सुविधा, ड्राइवर और नौकरों के लिए भत्ते का भी प्रावधान है.
भ्रष्टाचार से बचने और न्यायालय की स्वतंत्रता के लिए ये ज़रूरी है कि जजों का वेतन पर्याप्त हो.
जज अपना काम निडरता से कर सके इसलिए संविधान में उन्हें कुछ सुरक्षाएँ दी गई है. उच्च न्यायपालिका यानी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सिर्फ़ महाभियोग (इंपीचमेंट) की प्रक्रिया के ज़रिए ही हटाया जा सकता है.
-Legend News