मंगलवार, 4 जनवरी 2011

नपुंसकों का जिला !













प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने कहा है कि जो लोग अपने साथ होने वाली नाइंसाफी के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाते, अपने शासकों से सवाल नहीं पूछते, अपने शासकों को जवाबदेही के लिए कठघरे में खड़ा नहीं करते, उन्‍हें शिकायत करने का भी कोई हक नहीं होता।
5237 साल पहले मथुरा में मनुष्‍य के एक आश्‍चर्यजनक रूप ने जन्‍म लिया था। इस आश्‍चर्यजनक रूप का नाम था श्रीकृष्‍ण। महाभारत नायक श्रीकृष्‍ण, योगीराज श्रीकृष्‍ण, सोलह कला अवतार श्रीकृष्‍ण, पूर्ण पुरुष श्रीकृष्‍ण। श्रीकृष्‍ण जिन्‍होंने शांति स्‍थापित करने के लिए महाभारत जैसे महासंग्राम का शंखनाद किया, श्रीकृष्‍ण जिन्‍होंने युद्ध क्षेत्र के बीच खड़े होकर गीता जैसे महान ग्रंथ का उच्‍चारण किया। श्रीकृष्‍ण जिन्‍होंने पुरुषार्थ के साथ-साथ कर्म व धर्म का वो संदेश दिया, जो हर युग में प्रासांगिक था और हर युग में प्रासांगिक रहेगा। लेकिन अफसोस कि उसकी अपनी जन्‍मभूमि, उसकी अपनी क्रीड़ाभूमि के वाशिंदे गीता और श्रीकृष्‍ण दोनों से दूर हो चुके हैं। वह कृष्‍ण की जन्‍मभूमि के गौरव को पूरी तरह नष्‍ट और भ्रष्‍ट करने पर आमादा हैं। पूर्ण पुरुष की जन्‍मभूमि के लोग इतने कायर साबित हो रहे हैं कि उनकी कायरता के कारण कृष्‍ण की पटरानी कालिंदी तथा गोपाल की प्रिय गायों का अस्‍तित्‍व तक खतरे में पड़ चुका है।
कभी तमाम वन और उपवनों से आच्‍छादित मथुरा न केवल बड़ी तेजी के साथ कंक्रीट के जंगल में तब्‍दील हो रही है बल्‍िक उसका मौलिक स्‍वरूप बर्बाद हो रहा है। मथुरा का यह विकृत रूप भयभीत करता है।
वृंदावन हो या गोकुल, गोवर्धन हो या बरसाना, नंदगांव हो या महावन और कोकिला वन, सब केवल नाम के रह गये हैं। इनका वर्तमान स्‍वरूप दूर-दूर तक इनके गौरवशाली अतीत से मेल नहीं खाता।
कभी श्रीकृष्‍ण की लीलाओं के मूक गवाह रहे पेड़-पोधों और पवित्र अरावली पर्वत की श्रृंखला को कथित विकास के नाम पर बड़ी बेरहमी से समाप्‍त किया जा रहा है। विकास की आड़ में खेले जा रहे विनाश के इस खेल का किसी स्‍तर पर कहीं से कोई विरोध होता दिखाई नहीं देता। जो थोड़ी-बहुत आवाजें इसके खिलाफ उठती सुनाई पड़ती हैं वह या तो इतनी कमजोर हैं कि आकण्‍ठ भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त व्‍यवस्‍था के कानों तक नहीं पहुंचतीं या फिर इन आवाजों के भी अपने कोई ऐसे स्‍वार्थ हैं जो उन्‍हें दांत दबाकर मिमियाने तक सीमित रखते हैं।
कारण जो भी हों, लेकिन एक बात तय है कि कृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली आज एक ऐसी भयावहता ओढ़े हुए है जिसके हर कोने से इसके कृष्‍ण नगरी होने का नहीं, कंस नगरी होने का अहसास होता है।
पूरे जनपद पर जैसे अपराध और अपराधियों का आधिपत्‍य है। कानून-व्‍यवस्‍था नाम की कोई चीज नहीं रह गयी। अपराधी जब चाहें और जहां चाहें, अपनी गतिविधियों को संचालित करने के लिए स्‍वतंत्र हैं। लोगों के बीच खुद को सबसे बड़ा अपराधी, सबसे बड़ा माफिया साबित करने की एक अघोषित प्रतिस्‍पर्धा चल रही है। माफिया ही जनपद और यहां तक कि कानून-व्‍यवस्‍था पर काबिज हैं।
एक ओर मथुरा रिफाइनरी है जहां से संचालित तेल के खेल से करोड़ों रुपये रोज का चूना सरकार को लगाया जा रहा है तो दूसरी ओर जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्‍यूअल मिशन ''नर्म'' के नाम पर अठारह सौ करोड़ रुपयों से अधिक की उस धनराशि का बंदरबांट हो रहा है, जो किश्‍तों में मिल रही है।
सन् 1998 में एक जनहित याचिका के बाद अस्‍तित्‍व में आया यमुना एक्‍शन प्‍लान, सफेदपोश माफियाओं की तिजोरियां भरने के काम आ रहा है जबकि यमुना एक गंदा नाला बनकर रह गई है।
यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिये गये तमाम दिशा-निर्देश सरकारी फाइलों के साथ धूल फांक रहे हैं। इनका अनुपालन कराने की जिम्‍मेदारी जिन अधिकारियों को सौंपी गई है, उन्‍हें जब अपने अधिकारों का ही इल्‍म नहीं है तो कर्तव्‍यों का होगा भी कैसे। कुछ अधिकारी इसके लिए मिलने वाले धन के बंटवारे में हिस्‍सेदार बन जाते हैं और कुछ अपनी गर्दन में ईमानदारी का ढोल लटकाकर उसी तरह तमाशबीन बने रहते हैं जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने दूरसंचार मंत्री ए. राजा के सामने बने रहे।
जहां तक सवाल इस जनपद के नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और खबर नवीसों का है, तो उनका होना या ना होना बराबर है। यह भी कहा जा सकता है कि वो हैं तो केवल इसलिए कि अपना-अपना हिस्‍सा बंटा सकें, वरना हैं ही नहीं। उन्‍हें भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था के ऐसे पहरुए कह सकते हैं जो सरकारी व गैर सरकारी कु-व्‍यवस्‍था पर मात्र इसलिए नजरें गढ़ाये रहते हैं जिससे अपना पेट भर सकें। इन्‍हें आप लोकतंत्र के पायों की जगह नपुंसकों की फौज के स्‍वयंभू कमाण्‍डर भी कह सकते हैं। वह फौज जो इनके पदचिन्‍हों पर चलकर निजी लाभ तो उठाना चाहती है लेकिन अपने जिले, अपने शहर और अपने कस्‍बे व गांव की दुर्दशा के लिए किसी को कठघरे में खड़ा नहीं कर सकती।
आम जनता अथवा आम मतदाता कहलाने वाली यह फौज इनके तथा सरकारी अफसरों के तलवे तो चाटती है, उन्‍हें मौके-बेमौके सम्‍मानित करती है, पुरस्‍कृत करती है, फूल-मालाओं से लादती है और वो कहें तो इनके लिए महंगी शराब व कीमती शबाव का भी बंदोबस्‍त खुशी-खुशी कर सकती है परन्‍तु इनकी करतूतों के खिलाफ कभी खड़े होना नहीं जानती। तब भी नहीं, जब पूरे जनपद पर अव्‍यवस्‍थाएं बुरी तरह हावी हैं।
जिलेभर की सड़कें बदहाल हैं। हर मौसम में जलभराव के कारण रास्‍ते अवरुद्ध रहते हैं, अतिक्रमणकारियों के हौसले बुलंद हैं, यातायात व्‍यवस्‍था इस कदर चरमराई हुई है कि सुबह से लेकर देर शाम तक जगह-जगह जाम लगे रहते हैं। बिजली विभाग के अफसरों का ध्‍यान बिजली की आपूर्ति पर न होकर उपभोक्‍ताओं को डरा-धमकाकर लूटने पर लगा है। इन अफसरों को इसी जिले में एक ही पद पर रहते वर्षों बीत गये लेकिन कोई यह पूछने वाला नहीं कि इनकी कोई समयबद्धता है भी या नहीं। इनके द्वारा इस जनपद में रहते कितनी चल व अचल सम्‍पत्‍ति अर्जित की गई, इसका हिसाब मांगने वाला कोई नहीं। लगभग यही हाल विकास प्राधिकरण का है और यही दूसरे अन्‍य सरकारी विभागों का।
पुलिस में केवल आला अधिकारी बदले जाते हैं। वो लोग नहीं, जिनके कारण जनपद पर माफियाओं का कब्‍जा है। जो माफियाओं के साइलेंट पार्टनर हैं और जिनके रहते यहां हर किस्‍म के अपराध ने बुलंदियों को छुआ है।
ऐसा लगता है कि माफिया और पुलिस-प्रशासन के इन सरपरस्‍तों का ही समूचे जनपद पर राज कायम है और इनकी समानांतर सत्‍ता जिले में जो चाहती है, वह करती है।
अगर कभी कोई पुलिस या प्रशासन का आला अधिकारी इनके काले कारनामों पर नजर डालने की जुर्रत करता है तो इनका कॉकस साम, दाम, दण्‍ड या भेद से उसे यहां से बाहर भिजवाने में देर नहीं करता।
बहुत थोड़े समय में कुछ अफसरों, विशेषकर पुलिस कप्‍तानों का हुआ तबादला इसकी पुष्‍टि करता है। इस कॉकस ने किसी को इसलिए हटवाया क्‍योंकि वह विभिन्‍न माध्‍यमों से होने वाली अवैध कमाई का बड़ा हिस्‍सा अकेले हजम करने लगा था तो किसी को इसलिए क्‍योंकि उस पर ईमानदारी का भूत सवार था और उसने इनके गिरेबां में झांकना शुरू कर दिया था।
नपुंसकों की फौज के ये स्‍वयंभू कमाण्‍डर कभी अपने जिले की बदहाली के लिए आगे नहीं आये, कभी इन्‍होंने उस धन की बर्बादी व उसके दुरुपयोग पर उंगली नहीं उठायी जो आ तो रहा है विकास के लिए लेकिन जिससे ऐसे स्‍थाई विनाश की नींव डाली जा रही है, जिससे निजात पाने का कोई उपाय नहीं होगा।
पता नहीं विदेशी दार्शनिक सुकरात ने किस परिपेक्ष्‍य में कहा था कि जो लोग अपने साथ होने वाली नाइंसाफी के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाते, अपने शासकों से सवाल नहीं पूछते, अपने शासकों को जवाबदेही के लिए कठघरे में खड़ा नहीं करते, उन्‍हें शिकायत करने का भी कोई हक नहीं होता लेकिन आज उनका यह कथन मथुरा वासियों पर पूरी तरह सटीक बैठता है।
थोड़ा ही सही किंतु शायद अब भी इतना समय बाकी है कि मथुरा के गौरवशाली अतीत को कुछ हद तक सहेजा जा सके परन्‍तु लगता नहीं कि आज के नपुंसक शिखण्‍डी बनने की सामर्थ्‍य रखते हों।
ये बात अलग है कि नपुंसकों में भी कहीं न कहीं शिखण्‍डी बनने की सामर्थ्‍य छिपी जरूर रहती है बशर्ते वह उस सामर्थ्‍य का समय पर उपयोग कर सकें। जो अपनी इस सामर्थ्‍य का समय पर उपयोग कर जाते हैं, वह इतिहास में नाम दर्ज करा लेते हैं और जो समय पर भी मुंह ताकते रहते हैं, वो नपुंसक और हिजड़ा ही कहलाने को अभिशप्‍त होते हैं।
कृष्‍ण की इस जन्‍मस्‍थली से अब कोई शिखण्‍डी उठ खड़ा होगा या नहीं, यह बता पाना तो मुश्‍िकल है अलबत्‍ता इतना सब जान रहे हैं कि नपुंसकों की फौज और उनके स्‍वयंभू कमाण्‍डर ही इस विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद की बर्बादी का प्रमुख कारण हैं। इन्‍हीं के कारण यह जिला कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली नहीं, उसके अत्‍याचारी मामा कंस की कर्मस्‍थली प्रतीत होता है।

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