रविवार, 2 जनवरी 2011

हे भारत! सच न हों कार्ल मार्क्‍स


जो लोग अपना इतिहास भूल जाते हैं, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्‍त होते हैं। कार्ल मार्क्‍स का यह कथन फिलहाल इसलिए प्रासांगिक हो जाता है क्‍योंकि सन् 2010 इतिहास के पन्‍नों में सिमटने जा रहा है।
नि:संदेह हर नया साल कुछ नई उम्‍मीदें लेकर आता है और कहते हैं कि उम्‍मीदों पर ही दुनिया कायम है लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि अतीत ही भविष्‍य का निर्धारण करता है। वर्तमान की राह पकड़कर अतीत ही भविष्‍य का मार्ग बनाता है।
कार्ल मार्क्‍स ने संभवत: यही समझाने की कोशिश की है कि इतिहास को भूलना नहीं चाहिए, उससे सबक लेना चाहिए।
दुर्भाग्‍य से इस देश के शासक सैंकड़ों साल की गुलामी के अपने इतिहास को भुला बैठे हैं इसलिए डर है कि यहां इतिहास अपने आपको कहीं दोहरा न दे। जरूरी नहीं कि इस बार भी उसका स्‍वरूप वही हो क्‍योंकि हर कालखण्‍ड अपने रूप का निर्धारण खुद करता है। वह इतिहास से कहीं अधिक वीभत्‍स भी हो सकता है, चाहे उसका वीभत्‍स रूप किसी आकर्षक पैक में ही क्‍यों न लिपटा हो।
यूं तो खुद को स्‍वतंत्र भारत का भाग्‍य विधाता कहने वालों के पास अपनी उपलब्‍िधयों का लम्‍बा-चौड़ा ब्‍यौरा है लेकिन आम आदमी आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले वह फिरंगियों का गुलाम था और आज उनकी कार्बन कॉपियों का। उसके लिए रोजी-रोटी पाने से लेकर न्‍याय पाना तक जितना मुश्‍िकल पहले था, उससे कम कठिन आज भी नहीं है। फिरंगियों की कार्बन कॉपियों का खजाना जहां बेशुमार दौलत से भरा पड़ा है, वहां ग्राम देवता मामूली सा कर्ज न चुका पाने के कारण आत्‍महत्‍या करने पर मजबूर है। जनसामान्‍य को तो यह तक नहीं पता कि अपनी तिजोरियां भरकर देश को कर्ज में डुबो देने वाले नेताओं ने उसे भी कर्जदार बना रखा है।
देश को लूटकर खा जाने वाले पकड़े नहीं जाते लेकिन बिजली का बिल चुकाने में असमर्थ गरीबों को तहसील की हवालातों में रोज ठूंसा जा रहा है। गरीबों के हमदर्द विनायक सेन को तो अंधा कानून उम्र कैद की सजा सुना रहा है पर कानून की आड़ में बेकसूर लोगों की बेरहमी से हत्‍या करने वालों को पदोन्‍नति दी जा रही है।
महान चिंतक व विचारक किंतु विवादास्‍पद धर्मगुरू आचार्य रजनीश ने अपनी एक किताब ''अनहद बाजे बांसुरी'' के माध्‍यम से कहा है- '' यह देश छोटे-बड़े चोरों से भरा पड़ा है। अंतर मात्र इतना है कि कोई जेल में बंद है, कोई दिल्‍ली में केन्‍द्र की या फिर किसी राज्‍य की सत्‍ता पर काबिज है। कोई पद पाकर किसी को हथकड़ी लगवा रहा है, कोई न्‍यायाधीश बनकर सजा सुना रहा है। हैं सब चोरों की ही अलग-अगल शक्‍लें क्‍योंकि मनुष्‍य के अंदर दो ही प्रवृत्‍ति हैं। एक संत की और दूसरी चोर की।
तीसरी कोई प्रवृत्‍ति है ही नहीं।
यह बात दीगर है कि विभिन्‍न शक्‍लों में और अलग-अलग कार्यों में संलग्‍न इन छोटे-बड़े चोरों की कार्यप्रणाली भी अलग-अलग हैं। कोई व्‍यवस्‍था का अंग बनकर कानून की आड़ में चोरी कर रहा है और कोई व्‍यवस्‍था के प्रतिकूल कानून तोड़कर चोरी करता है। जो होशियार चोर हैं, वो कानून को ढाल बनाकर चोरी करते हैं और जो मूर्ख हैं, वह कानून तोड़कर। चोर दोनों हैं, मानसिकता में कहीं कोई फर्क नहीं है।
सन् 2010 ने जाते-जाते बेशक कुछ बड़े चोरों को बेनकाब किया है और एक से एक बड़े घोटालेबाजों के नाम उजागर किये हैं परन्‍तु भरोसा नहीं होता कि इनका कुछ बिगड़ पायेगा। बिगड़ेगा भी कैसे, आखिर हैं तो वह उसी व्‍यवस्‍था के अंग जो उनके जैसे अनगिनत चोरों से भरी पड़ी है।
आप चाहें तो इसे रहस्‍य मान सकते हैं कि भलाइयों में जितना द्वेषभाव होता है, बुराइयों में उतना ही प्रेम रहता है। विद्वान किसी दूसरे विद्वान को देखकर, साधु किसी साधु को देखकर और कवि किसी कवि को देखकर ईर्ष्‍या के भाव से भर जाता है लेकिन जुआरी किसी जुआरी को और चोर किसी चोर को देखकर सहानुभूति प्रकट करता है, उसकी हरसंभव सहायता करता है। फिर यह संभव भी कैसे होगा कि कोई बड़ा घोटालेबाज या कोई बड़ा भ्रष्‍टाचारी सजा पा सके।
मैं नाउम्‍मीद नहीं हूं लेकिन ऐसी भी कोई उम्‍मीद नजर नहीं आ रही जिससे महसूस होता हो कि आने वाला साल कोई स्‍वर्णिम इतिहास लिख पायेगा।
मुझ सहित तमाम देशवासियों के लिए तो यही बड़ी बात होगी कि 2 जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाला ही देश का आखिरी सबसे बड़ा घोटाला साबित हो। राष्‍ट्रमण्‍डल के बाद किसी खेल के आयोजन में भ्रष्‍टाचार न हो, शहीद फौजियों के लिए बनाई जाने वाली किसी सोसायटी को भ्रष्‍टाचारियों का कॉकस न निगले और कोई नेता, कोई ब्‍यूरोक्रेट, कोई न्‍यायाधीश, कोई जर्नलिस्‍ट या इनकी लॉबी देश को बेच खाने का नापाक षड्यंत्र न बनाए।
अगर ऐसा होता है, जिसकी कि संभावना काफी क्षीण है तब तो नया साल वाकई कुछ नया होगा अन्‍यथा 2011 भी देखते-देखते इसी प्रकार इतिहास के काले पन्‍नों में दफन हो जायेगा, जिस प्रकार गुजरा साल हो रहा है।
ऐसा हुआ तो तय जानिये कि कार्ल मार्क्‍स का यह कथन भी सच साबित होकर रहेगा कि ''जो लोग अपना इतिहास भूल जाते हैं, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्‍त होते हैं''।

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