जाट आंदोलन स्थगित हो गया है, या कहें कि सिमट गया है। लेकिन आंदोलन को लेकर पैदा हुए सवाल आज भी जस के तस हैं। सवाल वही कि क्या जाट आंदोलन किसी अधिकारी विशेष द्वारा किसी खास मकसद से प्रायोजित किया गया था ?
क्या जाट आंदोलन को सुनियोजित तरीके से प्रायोजित करने के पीछे किसी राजनीतिक दल का हित सधवाना और वोट बैंक की राजनीति में जाटों को इस्तेमाल करना है ?
इन प्रश्नों के उत्तर हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इस मामले में दिये गये कठोर फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के आचरण से मिल जाते हैं परन्तु किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि कोई साफ-साफ कुछ कह सके। हिम्मत ना होने की वजह भी स्पष्ट है। वजह यह है कि अपने-अपने स्तर से सभी राजनीतिक पार्टियां जाटों को अपने पक्ष में करने की कवायद कर रही हैं और इसीलिए आरक्षण को लेकर जाटों द्वारा आंदोलन शुरू करने के पश्चात् उनके बीच आंदोलन को जायज ठहराने तथा जाटों को समर्थन देने की एक तरह से जैसे होड़ शुरू हो गई थी।
ऐसा भी नहीं है कि राजनीति के लिए किसी जाति या धर्म विशेष की जायज-नाजायज मांगों को समर्थन देने का काम केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित हो। हरियाणा व राजस्थान सहित देश के तमाम राज्यों में राजनीतिक दल ऐसा ही खेल खेलते हैं, चाहे इस कारण देश व देशवासियों को कितना ही नुकसान तथा कितनी ही तकलीफ क्यों न उठानी पड़े। केन्द्र में शासन कर रही कांग्रेस तक इस मामले में अलग नहीं है और इस कारण कांग्रेस व दूसरी पार्टियों के बीच ऐसी समस्याओं पर गेंद एक-दूसरे के पाले में डालने का प्रयास किया जाता है, न कि समस्या के समाधान का।
जहां तक सवाल उत्तर प्रदेश में जाटों के आंदोलन का है तो उस पर राज्य के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर के बयान काबिले गौर हैं। जाटों द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर यूपी में रेलवे ट्रैक जाम कर देने पर शशांक शेखर ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेस करके कहा कि जाटों के आंदोलन से यूपी की कानून-व्यवस्था पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ रहा।
शशांक शेखर का यह बयान बहुत कुछ कहता है। प्रदेश के एक इतने बड़े अधिकारी को जाटों के आंदोलन से कोई आपत्ति इसलिए नहीं थी क्योंकि नुकसान रेलवे का हो रहा था जो केन्द्र का विभाग है। उन्होंने यह नहीं सोचा कि रेलवे ट्रैक जाम होने से रेलवे को तो आर्थिक नुकसान ही हो रहा है लेकिन जनता को कितनी तकलीफ उठानी पड़ रही है। वो जनता जिसका दूर-दूर तक ना तो जाटों के आंदोलन से कोई वास्ता है और ना ही वोटों की राजनीति से। उन्हें तो इस बात से भी मतलब नहीं कि राज्य की सत्ता पर कौन काबिज है और केन्द्र की सत्ता किसके हाथों में है।
बहरहाल, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए जाटों से रेलवे ट्रैक अविलम्ब खाली कराने का आदेश उत्तर प्रदेश की सरकार को दिया तो फिर राज्य के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने मीडिया से कहा कि माननीय न्यायालय ने हमारा काम आसान कर दिया। हम यही तो करना चाहते थे।
24 घण्टे भी नहीं बीते कि अफसरों का जमावड़ा आंदोलन स्थल पर होने लगा और आश्चर्यजनक रूप से बिना किसी विरोध के जाटों ने रेलवे ट्रैक खाली कर दिया जब कि कोर्ट ने कड़े शब्दों में कहा था कि जरूरत पडे तो सेना की भी मदद ली जाए जिसका सीधा-सीधा अर्थ यह निकलता है कि कोर्ट को इतनी आसानी से रेलवे ट्रैक खाली हो जाने का भरोसा नहीं रहा होगा।
कितना चकित करती है यह बात कि जो आंदोलनकारी जाट केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम् से मुलाकात करने तथा उनके द्वारा मात्र 3 दिन का समय मांगे जाने के बाद भी रेलवे ट्रैक खाली करने को सहमत नहीं हुए उन्होंने मात्र उत्तर प्रदेश के कैबिनेट सचिव एवं एक कैबिनेट मंत्री के कहने पर ट्रैक खाली कर दिया। क्या इससे स्पष्ट प्रतीत नहीं होता कि जाट आंदोलन को किसी न किसी स्तर से प्रायोजित किया जा रहा था। बेशक इस मामले में सर्वाधिक रुचि ले रहे यूपी के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर एवं उनके साथ रेलवे ट्रैक खाली कराने पहुंचे कैबिनेट मंत्री चौधरी लक्ष्मीनारायण का जाट होना एक इत्तेफाक हो सकता है लेकिन यह इत्तेफाक सवाल तो खड़े करता ही है।
जाट आंदोलन को प्रायोजित चाहे किसी ने किया हो लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उसे हवा देने में एक भी राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहता। यही कारण रहा कि मुठ्ठीभर लोगों ने एक ओर जहां रेलवे को करोड़ों रुपये की हानि करवा दी वहीं दूसरी ओर जनता को मारी-मारी फिरने पर मजबूर कर दिया।
नि:संदेह इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इस मामले पर संज्ञान लेने की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है लेकिन यदि वोट की राजनीति तथा नेताओं द्वारा उसके लिए खेले जाने वाले घृणित खेल पर अंकुश लगाना है तो कोर्ट को कुछ और कड़े कदम उठाने चाहिए। कोर्ट अगर ऐसे किसी आंदोलन से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई के भी उन राज्य सरकारों एवं राजनीतक दलों से करवाने के आदेश दे जो इसके लिए प्रत्यक्ष जिम्मेदार हैं तो संभवत: फिर न तो कोई अधिकारी इस तरह किसी खास आंदोलन के पक्ष में बोलने की हिमाकत करेगा और ना कोई राजनीतिक दल खुलेआम उसे समर्थन देने का ऐलान कर पायेगा।
यह सख्ती जनहित में इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि आंदोलन सिर्फ स्थगित हुआ है, समाप्त नहीं। हरियाणा में तो स्थगित भी नहीं हुआ।
और अब इसकी शुरूआत पूरे जोर-शोर से करने का ऐलान आंदोलनकारियों ने कर दिया है। इस बार उनके निशाने पर दिल्ली की पेयजल सल्प्लाई, राष्ट्रीय राजमार्ग तथा मथुरा रिफाइनरी भी होगी।
अगर ऐसा कुछ होता है तो स्थिति की भयावहता का अंदाज अभी से लगा पाना कोई मुश्िकल काम नहीं है।
राज्य सरकार और राजनीतिक दलों की मंशा पहले से स्पष्ट है इसलिए बेहतर होगा कि समय रहते उनका इंतजाम कर दिया जाए अन्यथा चारों ओर अराजकता तो फैलेगी ही, साथ ही वोट की राजनीति का घृणित खेल पूरी शिद्दत से खेला जाने लगेगा।
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