मंगलवार, 1 नवंबर 2011

....फिर तो नेहरूजी पर भी दर्ज हो मुकद्दमा

"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
यह लाइनें भारत के संविधान की प्रस्‍तावना हैं और जिनसे स्‍पष्‍ट होता है कि देश के प्रत्‍येक नागरिक को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय, विचार, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा अधिकार प्राप्‍त है।
गत दिनों टीम अन्‍ना के प्रमुख सदस्‍य और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता प्रशांत भूषण पर सर्वोच्‍च न्‍यायालय के उनके चैंबर में घुसकर 3 युवकों ने हमला कर दिया। हमलावरों के मुताबिक वह प्रशांत भूषण द्वारा कश्‍मीर को लेकर दिये गये उनके बयान से खफा थे इसलिए उन्‍होंने उन्‍हें सबक सिखाया। युवकों का कहना था कि वह ऐसे बयान देने वालों को आगे भी सबक सिखायेंगे।
आखिर प्रशांत भूषण ने कश्‍मीर को लेकर ऐसा क्‍या कह दिया जिसके कारण 3 युवक उन्‍हें पीटने उनके चैंबर तक जा पहुंचे और पूरा देश उनके बयानों को गलत बताने लगा ?  यहां तक कि टीम अन्‍ना के प्रमुख सदस्‍य व पूर्व न्‍यायाधीश एवं लोकायुक्‍त संतोष हेगड़े और स्‍वयं अन्‍ना हजारे ने भी प्रशांत भूषण के बयान की आलोचना करने में देर नहीं लगाई। ऐसे में सरकारी आंखों की किरकिरी बन चुके प्रशांत भूषण पर कांग्रेसियों का जुबानी हमले किया जाना स्‍वाभाविक है।  
इस प्रश्‍न के साथ एक प्रतिप्रश्‍न स्‍वत: खड़ा हो जाता है कि क्‍या ऐसा कोई बयान देश में किसी और ने कभी नहीं दिया ?
इस प्रतिप्रश्‍न का उत्‍तर यह है कि कुछ दिनों पूर्व प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय ने इससे कहीं अधिक तीखा बयान कश्‍मीर को लेकर दिया था जिसके बाद उनके खिलाफ एक मामला अदालत के आदेश से दर्ज किया गया।
इस मामले में अरुंधति राय ने न्‍यायालय के समक्ष्‍ा अपना पक्ष रखते हुए जो तर्क पेश किये हैं, उन पर गौर करना बहुत जरूरी है क्‍योंकि उनसे सारी स्‍थिति स्‍पष्‍ट हो जाती है।
अरुंधति राय ने पिछले साल 28 नवंबर के दिन एक लेख की शक्‍ल में अदालत को जवाब दिया। इस लेख का शीर्षक है- 'वे जवाहरलाल नेहरू पर भी मृत्योपरांत मामला चला सकते हैं'।
इसके बाद अपने पक्ष में अरुंधति ने कोर्ट को लिखा है कि दिल्ली पुलिस को मेरे खिलाफ़ राज्य के विरुद्ध युद्ध चलाने के लिए FIR दर्ज करने का न्‍यायालय द्वारा जो निर्देश दिया गया है, उस पर मेरी प्रतिक्रिया यह है: ''न्‍यायालय को जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ़ भी मृत्योपरांत मामला दर्ज कराना चाहिए क्‍योंकि कश्मीर के बारे में वह लगातार ऐसा ही सब-कुछ कहते रहे'' जिसका ब्‍यौरा सिलसिलेवार प्रस्‍तुत किया जा रहा है।
अरुंधति द्वारा पेश किये गये इस ब्‍यौरे के अनुसार 27 अक्तूबर 1947 को पाकिस्‍तानी प्रधानमंत्री के नाम भेजे गये एक तार 402, Primin-2227 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा, "मैं यह बात साफ़ कर देना चाहता हूँ कि इस आपातकाल में कश्मीर की मदद करने का सवाल किसी भी तरह से उसके भारत में विलय को प्रभावित करने से नहीं जुड़ा है. हमारा मत, जिसे हम बार-बार सार्वजनिक करते रहे हैं, यह है कि किसी भी विवादग्रस्त इलाके या राज्य के विलय का सवाल वहाँ के लोगों की इच्छाओं के अनुसार ही होना चाहिए और हम इस विचार पर कायम हैं."
31 अक्तूबर 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्‍तानी प्रधानमंत्री को फिर एक तार संख्‍या 255 भेजा जिसमें लिखा था कि "कश्मीर के भारत में विलय को हमने महाराजा की सरकार के और राज्य की सर्वाधिक जनसमर्थन वाली संस्था, जो कि मुख्यत: मुस्लिम है, के अनुरोध पर ही माना था. तब भी इसे इस शर्त पर स्वीकृत किया गया था कि जैसे ही कानून-व्यवस्था बहाल हो जाएगी, कश्मीर की जनता विलय के सवाल का निर्णय करेगी. ये निर्णय उन्हें लेना है कि वे किस देश में विलय को स्वीकार करें."
2 नवंबर, 1947 को आकाशवाणी पर राष्ट्र के नाम प्रसारित अपने संदेश में पंडित नेहरू ने कहा, "संकट के इस समय में हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि कश्मीर के लोगों को अपनी बात कहने का पूरा मौका दिए बिना कोई भी फैसला न लिया जाए. अंततः निर्णय उन्हें ही लेना है... और मैं यह साफ़ कर देना चाहूंगा कि हमारी नीति यही रही है कि जहाँ भी किसी राज्य के दोनों में से एक देश में विलय के बारे में विवाद हो, विलय पर निर्णय उस राज्य के लोगों को ही लेना चाहिए. इसी नीति के तहत हमने कश्मीर के विलय के समझौते में यह शर्त शामिल की थी."
3 नवंबर 1947 को राष्ट्र के नाम एक अन्य प्रसारण में पंडित नेहरू ने कहा, "हमने यह घोषणा की है कि कश्मीर के भाग्य का निर्णय अंततः वहाँ की जनता के द्वारा ही किया जाएगा. यह वचन हमने केवल कश्मीर के लोगों को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को दिया है. हम इससे पीछे नहीं हटेंगे और हट भी नहीं सकते."
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को लिखे अपने एक अन्‍य पत्र ''सं. 368 Primin, दिनांक 21 नवंबर 1947'' में पंडित नेहरू ने लिखा, "मैंने बार-बार यह वक्तव्य दिया है कि जैसे शांति तथा व्यवस्था स्थापित हो जाएगी, कश्मीर को किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था, जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में जनमत (प्लेबीसाइट या रेफ़रेंडम) के द्वारा विलय का फ़ैसला करना चाहिए."
भारतीय संविधान सभा में 25 नवंबर 1947 को अपने वक्तव्य के तहत पंडित नेहरू ने कहा, "हमारे सद्भाव को प्रमाणित करने के लिए हमने यह प्रस्ताव रखा है कि जब जनता को अपने भविष्य का फ़ैसला करने का अवसर दिया जाए तो ऐसा किसी निष्पक्ष ट्राइब्यूनल के तत्वावधान में होना चाहिए, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र संघ. कश्मीर में मुद्दा यह है कि भविष्य का फ़ैसला ताकत से होना चाहिए या फिर जनता की इच्छा से."
लंदन में 16 जनवरी 1951 को अपनी प्रेस कॉफ्रेंस के दौरान (जैसा कि दैनिक 'स्टेट्समैन' ने 18 जनवरी 1951 को अपनी रिपोर्ट में बताया है) पंडित नेहरू ने कहा, "भारत ने बार-बार संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ काम करने का प्रस्ताव रखा है ताकि कश्मीर की जनता अपनी राय प्रकट कर सके और हम उसके लिए हमेशा तैयार हैं.
हमने एकदम शुरू से ही इस बात को माना है कि कश्मीर के लोगों को अपने भाग्य का फ़ैसला करने का हक है, चाहे रेफ़रेंडम के द्वारा या प्लेबीसाइट द्वारा. सच तो यह है कि हमारा ऐसा प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ के बनने के बहुत पहले से है. अंततः मुद्दे का फ़ैसला तो होना ही है, जिसे आना चाहिए, सबसे पहले तो कश्मीरी जनता की तरफ़ से, और फिर पाकिस्तान एवं भारत के बीच सीधे तौर पर। यह भी याद रखा जाना ही चाहिए कि हम (भारत और पाकिस्तान) बहुत से मुद्दों को लेकर अनेक समझौतों पर पहले ही पहुँच चुके हैं. मेरे कहने का अर्थ है कि कई मूलभूत बातें निपटाई जा चुकी हैं. हम सब इस बात से सहमत हैं कि कश्मीर की जनता को ही अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेना होगा, चाहे भीतर या बाहर। यह जाहिर बात है कि हमारे समझौते के बिना भी कोई देश कश्मीर पर कश्मीरियों की इच्छा के विरुद्ध अपनी पकड़ बना कर नहीं रखने वाला.
6 जुलाई 1951 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को प्रेषित अपनी रिपोर्ट में पंडित नेहरू ने लिखा, "कश्मीर को गलत तौर पर भारत और पाकिस्तान के बीच एक ईनाम के रूप में देखा गया है. लोग शायद भूल जाते हैं कि कश्मीर कोई बिकाऊ माल या अदला-बदली की चीज़ नहीं है. उसका अपना अलग अस्तित्व है और वहाँ के लोग ही अपने भाग्य के अंतिम निर्णायक हो सकते हैं.
1 सितंबर 1951 के दिन संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधि को भेजे अपने पत्र में पंडित नेहरू ने लिखा, "भारत सरकार न केवल इस बात को दृढ़तापूर्वक दोहराती है कि उसने इस सिद्धांत को माना है कि जम्मू तथा कश्मीर के विलय के जारी रहने के सवाल का हल जनतांत्रिक तरीके से संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जनमत-संग्रह के द्वारा हो, बल्कि वो इस बात के लिए भी चिंतित है कि इस जनमत-संग्रह के लिए ज़रूरी हालात जितनी जल्दी हो सके तैयार किए जाएँ."
2 जनवरी, 1952 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय विधानमंडल में डॉ. मुकर्जी के इस प्रश्न के जवाब में कि कांग्रेस सरकार उस एक तिहाई इलाके के बारे में क्या करने जा रही है जिस पर अब भी पाकिस्तान का कब्ज़ा है, पंडित नेहरू ने कहा, "यह भारत या पाकिस्तान की संपत्ति नहीं है. इस पर कश्मीरी लोगों का हक है. जब कश्मीर का भारत में विलय हुआ था, तब हमने कश्मीरी लोगों के सामने यह स्पष्ट कर दिया था कि अंततः हम उनके जनमत-संग्रह के फैसले का सम्मान करेंगे. अगर वो हमें बाहर निकल जाने के लिए कहते हैं, तो मुझे बाहर आने में कोई हिचक नहीं होगी. हम मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र तक ले गए और हमने शांतिपूर्ण हल के प्रति अपना वचन दिया है. एक महान राष्ट्र होने के नाते उससे पलट नहीं सकते. हमने अंतिम हल का सवाल कश्मीर के लोगों पर छोड़ दिया है और हम उनके फ़ैसले पर अमल करने के लिए प्रतिबद्ध हैं."
भारतीय संसद के अंदर 7 अगस्त 1952 को अपने वक्तव्य में पंडित नेहरू ने कहा, "मैं यह बात एकदम स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि हम इस मूलभूत प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं कि कश्मीर का भविष्य अंततः वहाँ के लोगों की सद्भावना और इच्छा से निर्धारित किया जाएगा. इस मामले में इस संसद की सद्भावना और इच्छा का कोई महत्व नहीं है. इसलिए नहीं कि संसद के पास कश्मीर प्रश्न को हल करने कि शक्ति नहीं है बल्कि इसलिए कि किसी भी तरह की ज़बर्दस्ती उन सिद्धांतों के खिलाफ़ होगी जिन्हें यह संसद मानती है. कश्मीर के लिए हमारे दिलों और दिमागों में बहुत जगह है और अगर वो किसी निर्णय या प्रतिकूल परिस्थिति के कारण भारत का अंग नहीं रहता तो यह हमारे लिए बहुत कष्ट और संताप की बात होगी. फिर भी अगर कश्मीर की जनता हमारे साथ नहीं रहना चाहती तो उन्हें अपनी राह जाने का पूरा हक है. हम उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध रोक कर नहीं रखेंगे, चाहे हमारे लिए यह कितनी ही कष्टदाई क्यों न हो. मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि सिर्फ़ कश्मीर के लोग ही कश्मीर के भाग्य का निर्णय कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि हमने संयुक्त राष्ट्र संघ से और कश्मीर की जनता से सिर्फ़ ऐसा कहा है, हमारा यह दृढ़ विश्वास है और यह उस नीति पर आधारित है जिसका हम पालन करते रहे हैं, सिर्फ़ कश्मीर में ही नहीं बल्कि सब जगह। हालांकि इन पाँच सालों में हमारे सब कुछ करने के बाद भी बहुत परेशानी और खर्चा हुआ है, हम स्वेच्छा से छोड़ने के लिए तैयार हैं यदि हमारे सामने यह स्पष्ट हो जाए कि कश्मीर के लोग चाहते हैं कि हम चले जाएं. हम चाहे कितना भी उदास अनुभव करें, हम लोगों की इच्छा के विरूद्ध रुकने वाले नहीं हैं. हम खुद को संगीन की नोंक पर उनके ऊपर काबिज नहीं करना चाहते."
लोकसभा के अंदर 31 मार्च 1955 को अपने बयान में पंडित नेहरू ने कहा, "भारत और पाकिस्तान के बीच सभी समस्याओं में शायद सबसे कठिन समस्या कश्मीर है. हमें यह याद रखना चाहिए कि कश्मीर कोई वस्तु नहीं है जिसे भारत और पाकिस्तान के बीच ठेला जाए बल्कि उसकी अपनी एक आत्मा है और अपना एक व्यक्तित्व है. बिना कश्मीर के लोगों की इच्छा और सद्भावना के कुछ भी नहीं किया जा सकता."
यही नहीं, सुरक्षा समिति की कश्मीर के बारे में आयोजित 765वीं बैठक के दौरान भारतीय प्रतिनिधि कृष्णा मेनन ने कहा, "जहाँ तक हमारा सवाल है, मैंने इस समिति को अब तक जितने बयान दिए हैं उनमें से किसी में एक शब्द ऐसा नहीं है जिसका अर्थ यह लगाया जा सके कि हम अपने अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का सम्मान नहीं करेंगे. मैं दस्तावेज़ों में दर्ज करने के उद्देश्य से यह कहना चाहता हूँ कि भारत सरकार की ओर से ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है जिससे ज़रा सा भी अंदेशा हो कि भारत सरकार या भारतीय संघ उन अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों की अवमानना करेगा, जिनका पालन करने का उसने वचन दिया था."
अरुंधति राय द्वारा अपने पक्ष में पेश किये गये इन सबूतों को अदालत किस तरह लेती है, यह तो अभी कहना कठिन है लेकिन इनसे एक बात जरूर तय होती है कि न तो अरुंधति राय ने कोई नई बात कही और ना ही प्रशांत भूषण ने। सच तो यह है कि इन्‍होंने कांग्रेस के मसीहा और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्‍दों को दोहरायाभर है।
हां, इस सब के बीच फर्क है तो सिर्फ समय और परिस्‍थितियों का, जिसका लाभ उठाने की कोशिश कांग्रेस के अनियंत्रित नेताओं ने तुरंत शुरू कर दी।
इस सब को देखकर टीम अन्‍ना के एक और प्रमुख सदस्‍य अरविंद केजरीवाल का यह शक पुख्‍ता होता नजर आता है कि टीम के खिलाफ एक बड़े स्‍तर से गहरी साजिश की जा रही है।
यहां में अपने फेसबुक एकांउट पर भेजे गये एक फोटो का जिक्र भी करना चाहूंगा जिसमें प्रशांत भूषण के हमलावरों में से एक तेजेन्‍दर सिंह केन्‍द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्‍बरम के ठीक पीछे खड़ा है। इससे पहले इस तरह की खबरें आईं थीं कि तेजेन्‍दर कभी बीजेपी के युवा मोर्चा से जुड़ा रहा है। राजनीति में निष्‍ठाएं बदलते देर नहीं लगती, यह सब जानते हैं।
गौरतलब यह भी है कि प्रशांत भूषण पर हमले के लिए हिसार में मतदान से ठीक पहले का दिन चुना गया।
जो भी हो लेकिन एक बात जो स्‍वत: सिद्ध है, वह यह कि प्रशांत भूषण पर हमले की वजह उनका बयान न होकर टीम अन्‍ना के साथ मजबूती से खड़े रहना है। इसे इत्‍तिफाक नहीं माना जा सकता कि उसके बाद टीम अन्‍ना के दूसरे कद्दावर सदस्‍य अरविंद केजरीवाल को लगातार धमकियां मिल रही हैं। उन्‍होंने खुद इस आशय की आशंका जाहिर की है कि उनके घर या दफ्तर पर कभी भी हमला हो सकता है।
हिसार से कांग्रेस के प्रत्‍याशी ने तो बाकायदा यह कहा है कि अरविंद केजरीवाल का हश्र भी प्रशांत भूषण जैसा होगा।
आगे क्‍या होगा, इस बारे में भले ही कुछ नहीं कहा जा सकता हो परंतु इतना जरूर कहा जा सकता है कि जो भी ताकतें टीम अन्‍ना को डैमेज करना चाहती हैं, वह अपने पहले प्रयास में काफी हद तक सफल हुई हैं।
वह अपने मकसद में संभवत: इसलिए भी सफल हो पाईं कि टीम अन्‍ना के सदस्‍यों को अगस्‍त में उनके द्वारा भ्रष्‍टाचार के खिलाफ किये गये आंदोलन से मिली भारी शौहरत का इल्‍म नहीं है।
उन्‍हें शायद नहीं पता कि आज वह जिस ऊंचाई पर जा पहुंचे हैं, वहां के अपने खतरे भी बहुत हैं। वहां पहुंचकर की गई छोटी सी गलती भी अक्षम्‍य हो जाती है और हवा का एक तेज झोंका नीचे गिराने को पर्याप्‍त होता है।
प्रशांत भूषण पहले भी कश्‍मीर के संदर्भ में इस तरह के विचार व्‍यक्‍त करते रहे हैं लेकिन तब वह उस मुकाम पर नहीं थे, जहां आज हैं। इसलिए उन्‍हें और अरविंद केजरीवाल सहित टीम अन्‍ना के बाकी सदस्‍यों को भी अपनी इस गरिमामय ऊंचाई का खयाल हमेशा रखना होगा अन्‍यथा राजनीति की दलदल उन्‍हें फंसाने से जरा भी नहीं चूकेगी।
यदि ऐसा होता है तो न सिर्फ टीम अन्‍ना के लिए बल्‍िक दलगत राजनीति की शिकार देश की तमाम जनता के लिए भी यह बहुत दुर्भाग्‍यपूर्ण होगा क्‍योंकि पहले से हताश व निराश जनता फिर जल्‍दी किसी के साथ उठ पाने की हिम्‍मत नहीं कर पायेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया बताते चलें कि ये पोस्‍ट कैसी लगी ?

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...