बुधवार, 4 अप्रैल 2012

सवा अरब लोगों का कमजोर राष्‍ट्र !

क्‍या हम एक कमजोर राष्‍ट्र हैं ?  क्‍या हम आज भी गुलाम हैं ? क्‍या हमारे नेता अब तक अपने निर्णय लेने को स्‍वतंत्र नहीं हैं ? क्‍या वास्‍तव में हम एक लोकतांत्रिक देश हैं ? क्‍या हम भ्रष्‍ट थे, भ्रष्‍ट हैं और भ्रष्‍ट ही रहेंगे ?
ये कुछ ऐसे प्रश्‍न हैं जो हर उस व्‍यक्‍ित के जेहन में उठ रहे हैं जिसे अपने मुल्‍क से प्‍यार है। उसकी चिंता है।
शुरूआत करते हैं उस खबर से जिसके अनुसार अमेरिकी दबाव में भारत सरकार ईरान से अपने प्रगाढ़ रिश्‍तों पर पर्दा डालने में जुट गया है।
अंतर्राष्‍ट्रीय राजनीति के मंच पर भले ही हमारी सरकार अमेरिका को आंखें दिखाती प्रतीत होती हो लेकिन असलियत यह है कि नई दिल्‍ली ने तेहरान से अपने रिश्‍तों की चादर समेटनी शुरू कर दी है।
नये वित्‍त वर्ष में भारत न सिर्फ ईरान से तेल के आयात में भारी कमी करने जा रहा है बल्‍िक निर्यात को भी कम करने की तैयारी कर चुका है।
सरकार ने वहां 4000 मेगावाट क्षमता वाला गैस आधारित बिजली प्‍लाण्‍ट लगाने की परियोजना को सुस्‍त कर दिया है। 2010 में इस मुतल्‍लिक भारत व ईरान के बीच समझौता हुआ था और इसके लिए ईरान ने भारत को बेहद सस्‍ती दरों पर गैस उपलब्‍ध कराने की सहमति दी थी।
अब आते हैं एक पूर्व अमेरिकी राजनयिक विलियम एच एवरी द्वारा लिखी गई उस किताब पर जिसमें साफ-साफ लिखा है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्‍या के बाद भारत को लिट्टे के चीफ प्रभाकरन और उसके संगठन से जुड़े दूसरे बड़े नेताओं को पकड़ने या मार डालने के लिए श्रीलंका में अपनी फौज भेजनी चाहिए थी।
''चाइनाज नाइट मेयर, अमेरिकाज ड्रीम: इंडिया एज ए नेक्‍स्‍ट ग्‍लोबल पॉवर'' नामक इस किताब के माध्‍यम से अमरीकी राजनयिक ने कहा है कि राजीव गांधी की हत्‍या एक क्षेत्रीय शक्‍ित के रूप में भारत की प्रतिष्‍ठा पर सीधा हमला था। ऐसे में मुकद्दमे के लिए प्रभाकरन को पकड़कर भारत लाने से दुनिया के देशों पर एक स्‍पष्‍ट संदेश जाता कि भारत अपने राजनेताओं और प्रभुत्‍व की हिफाजत को लेकर गंभीर है लेकिन भयभीत भारत ने सक्रिय वैश्‍विक शक्‍ित बनने की बजाय निष्‍िक्रय क्षेत्रीय शक्‍ित बनने का रास्‍ता चुना।
इसके बाद जिक्र करते हैं पंजाब के पूर्व मुख्‍यमंत्री बेअंत सिंह के हत्‍यारे बलवंत सिंह राजोआना की फांसी पर सरकार द्वारा लिये गये फैसले और संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी पर की जा रही उस घटिया सियासत का जिसने देश में कानून का राज होने जैसी धारणा पर गहरा प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह लगा दिया है।
यही नहीं, जिसने समूची न्‍यायिक प्रक्रिया को एक किस्‍म का मजाक बना डाला है और अल्‍पसंख्‍यक अपराधियों की सजा को वोट बैंक।
जहां तक सवाल दया याचिकाओं के लम्‍बित रहने और उनके निपटारे में होने वाली देरी का है तो उसका ताल्‍लुक केन्‍द्र सरकार से है न कि राष्‍ट्रपति से। सब जानते हैं कि दया याचिकाओं पर निर्णय केन्‍द्रीय सरकार की इच्‍छा से लिये जाते हैं, उनमें राष्‍ट्रपति की भूमिका मात्र रबर स्‍टांप सरीखी होती है।
यह बात और है कि केन्‍द्रीय सत्‍ता व उस पर काबिज नेता कानून की आड़ लेकर अपना मकसद पूरा करते हैं और ऐसे कमजोर कानून की हिमायत भी करते हैं ताकि वह मकसद पूरा होता रहे।
कौन नहीं जानता कि हमारे देश का कानून उन फिरंगियों से मिली विरासत है जिन्‍होंने सैंकड़ों साल हमें गुलाम बनाये रखा और वही कानून बनाया जो उनके अपने हित में था।
कौन नहीं जानता कि गोरे शासकों से विरासत में मिले इस कानून का ही लाभ आज सत्‍ता पर काबिज उनकी कार्बन कापियां कर रही हैं और जब कोई उनसे गुलामी के प्रतीक उस कानून में वक्‍त व परिस्‍िथतियों के अनुरूप फेर-बदल की मांग करता है तो उसे देश द्रोही, राष्‍ट्र द्रोही तथा तानाशाह करार दिया जाता है।
थल सेनाध्‍यक्ष अगर रक्षा मंत्रालय के जरिये प्रधानमंत्री को चिठ्ठी लिखकर यह बताता है कि देश अपनी रक्षा करने तक में सक्षम नहीं है, उसके पास न गोला-बारूद है और न जरूरी उपकरण तो उसके खिलाफ सरकार आग उगलने लगती है। उसे बर्खास्‍त करने या जबरन छुट्टी पर भेजने के षड्यंत्र रचे जाते हैं।
एक तिहाई से भी अधिक सांसदों पर गंभीर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज होने की बात बताये जाने वाले को विशेषाधिकार हनन के आरोप में लपेटा जाता है और शांति पूर्वक अनशन करने वालों को आधी रात में लठियाकर भगा दिया जाता है लेकिन संसद एवं विधानसभाओं को अपनी करतूतों से आयेदिन कलंकित करने वालों को जांच के बहाने क्‍लीनचिट दे दी जाती है। विधानसभा में पोर्न फिल्‍म देखते माननीयों  को अपने कैमरे में कैद करने वाले पत्रकार तो घेरे जाते हैं पर उन माननीयों का कुछ नहीं बिगड़ता।
ईमानदारी का ढोल अपने गले में लटकाकर आठ सालों से देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज मनमोहन सिंह और उनके अधीनस्‍थों की जमात पर महंगाई से कराह रही जनता के लिए कोई जवाब नहीं है, कालेधन और भ्रष्‍टाचार का कोई इलाज नहीं है परन्‍तु ए. राजा व सुरेश कलमाड़ी जैसों को अंत तक बेदाग साबित करने की कोशिश करने वाली बेशर्मी जरूर है।
जिन्‍हें अपनी सरकार चलाने के लिए ममता बनर्जी के सामने साष्‍टांग दण्‍डवत करने में शर्म नहीं आती, उन्‍हें बराक ओबामा के सामने लेटने में क्‍या झिझक हो सकती है।
जो मुंबई पर हमले के आरोपी आमिर अजमल कसाब की मेहमाननवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ रहे वह उसके पाकिस्‍तानी व तथाकथित हिंदुस्‍तानी आकाओं की खुशहाली में कोई कसर कैसे छोड़ सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि इन हालातों के लिए देश की वर्तमान सरकार अकेले दोषी हो, इसके लिए वो सब सरकारें दोषी हैं जो स्‍वतंत्रता के बाद से अब तक काबिज रही हैं और जिन्‍होंने देश की संप्रभुता पर परोक्ष अथवा अपरोक्ष हमले का जवाब देने में नपुंसकता का ही परिचय दिया है।
पाकिस्‍तान द्वारा करगिल पर किये गये दुस्‍साहसिक हमले में सन् 1971 के युद्ध से भी अधिक क्षति उठाने के बाद अपनी ही जमीन को मुक्‍त कराकर वाजपेयी सरकार ने कुछ इस तरह अपनी पीठ खुद ठोकी थी जैसे कोई बहुत बड़ा तीर मार लिया हो। यात्रियों से भरे विमान को नाक के नीचे से जब आतंकवादी कांधार ले गये थे और उसे मुक्‍त करने के एवज में अजहर मसूद जैसे खतरनाक आतंकी को छोड़ा गया था तब भी वाजपेयी के नेतृत्‍व वाली राजग सरकार ही दिल्‍ली पर काबिज थी।
रहा सवाल भ्रष्‍टाचार का तो स्‍वतंत्र भारत की कोई सरकार कभी भ्रष्‍टाचार से लड़ती दिखाई तक नहीं दी। जिस कारण भ्रष्‍टाचार न सिर्फ जनसंख्‍या की तरह बढ़ता गया बल्‍िक लाइलाज भी होता गया।
हर सरकार ने किया तो केवल यह कि गरीबी मिटाने के नाम पर गरीब  मिटाये और भ्रष्‍टाचार मिटाने के नाम पर उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को मिट्टी में मिला दिया। जाहिर है कि वर्तमान सरकार अलग कुछ नहीं कर रही।
इन हालातों में ऊपर उठाये गये प्रश्‍न बेमानी कैसे हो सकते हैं और कैसे कोई इस बात का दावा कर सकता है कि हम एक ताकतवर मुल्‍क हैं। हम विश्‍व की शक्‍ित बनने के करीब हैं। हम पूर्णरूपेण स्‍वतंत्र और विश्‍व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक मुल्‍क हैं। हम भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और हमारे नेताओं में देश को वैश्‍िवक शक्‍ित बनाने का माद्दा तो दूर, उसके लिए इच्‍छाशक्‍ित भी है।
देश के हालात तो कुछ ऐसा बयां कर रहे हैं कि हमारा खोखलापन दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है और हमारे कर्णधार स्‍वतंत्रता मिलने के 64 सालों बाद तक रीढ़ विहीन, आत्‍मबलहीन, तेजहीन व शक्‍ितहीन हैं। वह अपने देश की जनता का हित सोचने वालों को तो जेल भेजने व सजा देने में तत्‍पर दिखाई देते हैं लेकिन देश की संप्रभुता को खुली चुनौती देने वालों और उस पर हमला करने वालों को सजा दिलाने में कोई रुचि नहीं रखते।
यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब सवा अरब की आबादी वाला यह देश प्रत्‍यक्ष तौर पर फिर गुलामी की जंजीरों में उसी तरह जकड़ा नजर आयेगा जिस तरह पाकिस्‍तान जकड़ा हुआ है और लाख कोशिशों के बाद भी उसे निजात नहीं मिल पा रही।
वह कहने को तो अपना अलग अस्‍तित्‍व रखता है पर हकीकत में उसका अपना कोई वजूद है नहीं। उसके नेता सोचते-करते और उठते-बैठते तक अमरीकी इच्‍छा से हैं। वह नाममात्र का स्‍वतंत्र देश है लेकिन परतंत्रता उसकी तल्‍ख हकीकत है।
वहां सत्‍ताओं का फेरबदल भी अमरीका की इच्‍छा पर निर्भर है और इससे सारा विश्‍व वाकिफ है।
भारत में आयेदिन सामने आ रहे हजारों व लाखों करोड़ के घोटाले तथा उन पर पर्दा डालने की कोशिश के नतीजे हमें कहां ले जायेंगे, यह बताने की जरूरत शायद अब नहीं रह गई और ना यह बताने की कि हमारी तरक्‍की कितनी खोखली है। हमारी ताकत कितनी भोंथरी है और हमारा आत्‍मबल कितना कमजोर है।

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