निर्मल बाबा
की तथाकथित ''तीसरी आंख'' ने एक ओर जहां ''धर्म के धंधे'' पर किसी ठोस
कानून की जरूरत को रेखांकित किया है वहीं दूसरी ओर ''मीडिया'' की भूमिका पर
भी तमाम सवाल खड़े किये हैं।
आज के दौर में जब मीडिया के विभिन्न रूप सामने आ चुके हैं तो कायदे से उसकी जिम्मेदारी बढ़ जानी चाहिए लेकिन हो ये रहा है कि टीआरपी के खेल व व्यावसायिक हितों की पूर्ति के चक्कर में वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है और गरिमा से खिलवाड़ कर रहा है।
पहले बात करते हैं निर्मल बाबा की। निर्मलजीत सिंह नरुला उर्फ निर्मल बाबा इस देश का अकेला ऐसा शख्स नहीं है जो चमत्कारों के नाम पर धर्म की दुकान चला रहा हो। देशभर में धर्म के ऐसे तमाम धंधेबाज भरे पड़े हैं जिनकी दुकान जमाने में मीडिया और विशेषत: इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। निर्मल बाबा भी उन्हीं में से एक है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि जो मीडिया आज निर्मल बाबा की जड़ खोदने में एड़ी से चोटी तक का जोर लगा रहा है और उसके खिलाफ एक किस्म की अघोषित प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बना हुआ है, उसने विज्ञापन हासिल करते वक्त बाबा से क्यों नहीं पूछा कि उसके चमत्कारों में कितनी सच्चाई है।
जो टीवी चैनल आज उसके इंटरव्यू को भी पहला इंटरव्यू प्रचारित कर अपनी टीआरपी बढ़ाने का माध्यम बना रहे हैं, वह अब तक उससे विज्ञापन लेकर इसी हेराफेरी की कमाई के हिस्सेदार क्यों बने हुए थे।
उल्लेखनीय है कि निर्मल बाबा के खिलाफ अभियान में शामिल टीवी चैनल अब अपने बचाव में इस आशय का ''डिस्क्लेमर'' दिखा रहे हैं कि ''थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा'' नामक जो कार्यक्रम हमारे यहां दिखाया जाता है, वह एक विज्ञापन है और चैनल पर चलने वाले दूसरे विज्ञापनों की तरह इसमें दिखाई जाने वाली विषय-वस्तु से चैनल का कोई लेना-देना नहीं है।
दर्शक अपने स्तर पर इस कार्यक्रम में कही जा रही बातों को परख लें।
इन बातों के लिए निर्मल बाबा और उनकी संस्था निर्मल दरबार जिम्मेदार है।
यहां सबसे महत्वपूर्ण और स्वाभाविक प्रश्न यह पैदा होता है कि मीडिया की समाज के प्रति जिम्मेदारी और भूमिका क्या है। क्या मात्र ऐसा डिस्क्लेमर दिखा देने से उसकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है।
मीडिया अगर इस डिस्क्लेमर को निर्मल बाबा के विज्ञापन से पहले हर बार दिखा रहा था तो जाहिर है कि उसे इस बात का इल्म था कि निर्मल बाबा के चमत्कार धोखाधड़ी के अतिरिक्त कुछ नहीं। और अगर वह केवल अब डिस्क्लेमर दिखा रहा है तो अब इसकी जरूरत उसे क्यों पड़ी।
यदि मीडिया इसे अपनी विज्ञापन नीति का अंग मानता है तो क्या वह छ: हफ्तों में गोरा बना देने वाली क्रीम के विज्ञापन से लेकर हार्ट के लिए मुफीद बेसन, कीटाणुओं से बचाये रखने वाले साबुन, टूथपेस्ट, खास कोल्ड ड्रिंक पीकर अजेय बन जाने और खास डियो के इस्तेमाल से लड़कियों के आकर्षित होने जैसे सभी विज्ञापनों से पूर्व ऐसा कोई डिस्क्लेमर देते हैं।
इसके अलावा एक सवाल यह और खड़ा होता है कि क्या मीडिया मात्र डिस्क्लेमर देकर किसी भी ऐसे विज्ञापन को दिखाने के लिए स्वतंत्र है जो न केवल लोगों को ठगने में सहायता करता हो बल्िक धर्म का विक्रत रूप प्रस्तुत करता हो और किसी चमत्कार की आड़ में धोखाधड़ी करने का कारण बन रहा हो।
आश्चर्य की बात यह है कि निर्मल बाबा को सवालों के कठघरे में खड़ा करने वाले चैनल अब भी यह लिख रहे हैं कि 12 मई के बाद उनके समागम या दरबार सम्बन्धी विज्ञापनों का प्रसारण हमारे यहां नहीं किया जायेगा। इस समय वह चल रहे हैं। उनके प्रसारण का समय भी वह बाकायदा बता रहे हैं।
12 मई तक क्यों यह चैनल निर्मल बाबा के उन विज्ञापनों को दिखाना चाहते हैं जो अब खुद उनके अनुसार लोगों की ठगाई का जरिया बने। क्या इसलिए कि 12 मई तक के लिए जो पैकेज उन्हें निर्मल बाबा से मिल चुका है, उसे लौटाकर अपना नुकसान नहीं करना चाहते वरना अब जबकि निर्मल बाबा की असलियत सामने आ चुकी है तो वो उसका शेष पैसा लौटाकर तुरंत उसके विज्ञापन बंद क्यों नहीं कर देते।
मीडिया का मतलब ही माध्यम है। क्या कोई माध्यम ऐसे किसी कृत्य से खुद को निर्दोष समझ लेने का हकदार है जिसके कारण निर्मलजीत सिंह नरुला जैसे अनेक लोग अपनी तिजोरियां भर रहे हैं।
कोई दान की आड़ में आर्थिक अपराधियों के कालेधन को सफेद करने का काम कर रहा है तो कोई उन्हें प्राश्रय देकर कानून का मजाक उड़ा रहा है।
गत माह वृंदावन में जिस आलीशान निजी मंदिर का लोकार्पण किया गया उसकी लागत स्वयं निर्माण कराने वाली धार्मिक संस्था के अनुसार 200 करोड़ रुपया बताई गई। इस संस्था के सर्वेसर्वा कृपालुजी महाराज पर देश ही नहीं विदेशों तक में बलात्कार जैसे घृणित कृत्य के आरोप लगते रहे हैं। उनके कारनामों से देश को बदनामी मिली है पर उनके भी कार्यक्रम विभिन्न टीवी चैनलों पर देखे जा सकते हैं। उनके शिष्य प्रकाशानंद पर भी विदेश में बलात्कार के आरोप का मामला चल रहा है। प्रकाशानंद कुछ समय से गायब हैं अन्यथा उनके कार्यक्रम भी अनेक टीवी चैनलों पर दिखाये जाते रहे हैं।
धर्म के व्यावसायीकरण का एक और घटिया उदाहरण भागवताचार्यों के रूप में टीवी चैनलों पर हर वक्त देखा जा सकता है। किस्म-किस्म के भागवताचार्यों से टीवी भरा पड़ा है।
मृत्यु के भय से मुक्ित और भक्ित व वैराग्य के लिए प्रेरित करने वाला भागवत जैसा ग्रंथ आज प्रचार व प्रसार के माध्यमों से बेशुमार कमाई वाला धंधा बन चुका है।
आज जो टीवी चैनल निर्मल बाबा के मामले में डिस्क्लेमर दे रहे हैं, क्या वह यह शपथ भी ले सकते हैं कि बात चाहे धर्म के धंधे की हो या रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाले ऐसे सामान बनाने वाली कंपनियों की जो झूठ का सहारा लेकर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं और लोगों की जिंदगी से व उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, उनका विज्ञापन हम नहीं लेंगे।
अगर कोई टीवी चैनल इस दिशा में ठोस कदम उठाता है तो उसे निर्मल बाबा जैसों पर उंगली उठाने का पूरा हक है अन्यथा वह भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितना कि निर्मल बाबा या उसके जैसे तमाम दूसरे धर्म के कारोबारी।
अपने ही चैनल पर अपने बचाव में कुछ भी कह देने या लिख देने से उनकी जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती। जिम्मेदारी निभानी है तो कथनी और करनी का भेद मीडिया को भी मिटाना होगा।
जनता सब जानती है। वह मीडिया के वर्तमान गोरखधंधे से भी अनभिज्ञ नहीं है। यकीन न हो तो उन्हीं सोशल साइट्स पर आ रहे कमेंट्स पढ़ लीजिये जिनके कारण मीडिया निर्मल बाबा के खिलाफ अभियान चलाने पर मजबूर हुआ। वो भी तब जबकि अब तक निर्मल बाबा द्वारा मारी जा रही मलाई का विज्ञापनों के नाम पर हिस्सेदार बना हुआ था।
आज के दौर में जब मीडिया के विभिन्न रूप सामने आ चुके हैं तो कायदे से उसकी जिम्मेदारी बढ़ जानी चाहिए लेकिन हो ये रहा है कि टीआरपी के खेल व व्यावसायिक हितों की पूर्ति के चक्कर में वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है और गरिमा से खिलवाड़ कर रहा है।
पहले बात करते हैं निर्मल बाबा की। निर्मलजीत सिंह नरुला उर्फ निर्मल बाबा इस देश का अकेला ऐसा शख्स नहीं है जो चमत्कारों के नाम पर धर्म की दुकान चला रहा हो। देशभर में धर्म के ऐसे तमाम धंधेबाज भरे पड़े हैं जिनकी दुकान जमाने में मीडिया और विशेषत: इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। निर्मल बाबा भी उन्हीं में से एक है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि जो मीडिया आज निर्मल बाबा की जड़ खोदने में एड़ी से चोटी तक का जोर लगा रहा है और उसके खिलाफ एक किस्म की अघोषित प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बना हुआ है, उसने विज्ञापन हासिल करते वक्त बाबा से क्यों नहीं पूछा कि उसके चमत्कारों में कितनी सच्चाई है।
जो टीवी चैनल आज उसके इंटरव्यू को भी पहला इंटरव्यू प्रचारित कर अपनी टीआरपी बढ़ाने का माध्यम बना रहे हैं, वह अब तक उससे विज्ञापन लेकर इसी हेराफेरी की कमाई के हिस्सेदार क्यों बने हुए थे।
उल्लेखनीय है कि निर्मल बाबा के खिलाफ अभियान में शामिल टीवी चैनल अब अपने बचाव में इस आशय का ''डिस्क्लेमर'' दिखा रहे हैं कि ''थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा'' नामक जो कार्यक्रम हमारे यहां दिखाया जाता है, वह एक विज्ञापन है और चैनल पर चलने वाले दूसरे विज्ञापनों की तरह इसमें दिखाई जाने वाली विषय-वस्तु से चैनल का कोई लेना-देना नहीं है।
दर्शक अपने स्तर पर इस कार्यक्रम में कही जा रही बातों को परख लें।
इन बातों के लिए निर्मल बाबा और उनकी संस्था निर्मल दरबार जिम्मेदार है।
यहां सबसे महत्वपूर्ण और स्वाभाविक प्रश्न यह पैदा होता है कि मीडिया की समाज के प्रति जिम्मेदारी और भूमिका क्या है। क्या मात्र ऐसा डिस्क्लेमर दिखा देने से उसकी जिम्मेदारी पूरी हो जाती है।
मीडिया अगर इस डिस्क्लेमर को निर्मल बाबा के विज्ञापन से पहले हर बार दिखा रहा था तो जाहिर है कि उसे इस बात का इल्म था कि निर्मल बाबा के चमत्कार धोखाधड़ी के अतिरिक्त कुछ नहीं। और अगर वह केवल अब डिस्क्लेमर दिखा रहा है तो अब इसकी जरूरत उसे क्यों पड़ी।
यदि मीडिया इसे अपनी विज्ञापन नीति का अंग मानता है तो क्या वह छ: हफ्तों में गोरा बना देने वाली क्रीम के विज्ञापन से लेकर हार्ट के लिए मुफीद बेसन, कीटाणुओं से बचाये रखने वाले साबुन, टूथपेस्ट, खास कोल्ड ड्रिंक पीकर अजेय बन जाने और खास डियो के इस्तेमाल से लड़कियों के आकर्षित होने जैसे सभी विज्ञापनों से पूर्व ऐसा कोई डिस्क्लेमर देते हैं।
इसके अलावा एक सवाल यह और खड़ा होता है कि क्या मीडिया मात्र डिस्क्लेमर देकर किसी भी ऐसे विज्ञापन को दिखाने के लिए स्वतंत्र है जो न केवल लोगों को ठगने में सहायता करता हो बल्िक धर्म का विक्रत रूप प्रस्तुत करता हो और किसी चमत्कार की आड़ में धोखाधड़ी करने का कारण बन रहा हो।
आश्चर्य की बात यह है कि निर्मल बाबा को सवालों के कठघरे में खड़ा करने वाले चैनल अब भी यह लिख रहे हैं कि 12 मई के बाद उनके समागम या दरबार सम्बन्धी विज्ञापनों का प्रसारण हमारे यहां नहीं किया जायेगा। इस समय वह चल रहे हैं। उनके प्रसारण का समय भी वह बाकायदा बता रहे हैं।
12 मई तक क्यों यह चैनल निर्मल बाबा के उन विज्ञापनों को दिखाना चाहते हैं जो अब खुद उनके अनुसार लोगों की ठगाई का जरिया बने। क्या इसलिए कि 12 मई तक के लिए जो पैकेज उन्हें निर्मल बाबा से मिल चुका है, उसे लौटाकर अपना नुकसान नहीं करना चाहते वरना अब जबकि निर्मल बाबा की असलियत सामने आ चुकी है तो वो उसका शेष पैसा लौटाकर तुरंत उसके विज्ञापन बंद क्यों नहीं कर देते।
मीडिया का मतलब ही माध्यम है। क्या कोई माध्यम ऐसे किसी कृत्य से खुद को निर्दोष समझ लेने का हकदार है जिसके कारण निर्मलजीत सिंह नरुला जैसे अनेक लोग अपनी तिजोरियां भर रहे हैं।
कोई दान की आड़ में आर्थिक अपराधियों के कालेधन को सफेद करने का काम कर रहा है तो कोई उन्हें प्राश्रय देकर कानून का मजाक उड़ा रहा है।
गत माह वृंदावन में जिस आलीशान निजी मंदिर का लोकार्पण किया गया उसकी लागत स्वयं निर्माण कराने वाली धार्मिक संस्था के अनुसार 200 करोड़ रुपया बताई गई। इस संस्था के सर्वेसर्वा कृपालुजी महाराज पर देश ही नहीं विदेशों तक में बलात्कार जैसे घृणित कृत्य के आरोप लगते रहे हैं। उनके कारनामों से देश को बदनामी मिली है पर उनके भी कार्यक्रम विभिन्न टीवी चैनलों पर देखे जा सकते हैं। उनके शिष्य प्रकाशानंद पर भी विदेश में बलात्कार के आरोप का मामला चल रहा है। प्रकाशानंद कुछ समय से गायब हैं अन्यथा उनके कार्यक्रम भी अनेक टीवी चैनलों पर दिखाये जाते रहे हैं।
धर्म के व्यावसायीकरण का एक और घटिया उदाहरण भागवताचार्यों के रूप में टीवी चैनलों पर हर वक्त देखा जा सकता है। किस्म-किस्म के भागवताचार्यों से टीवी भरा पड़ा है।
मृत्यु के भय से मुक्ित और भक्ित व वैराग्य के लिए प्रेरित करने वाला भागवत जैसा ग्रंथ आज प्रचार व प्रसार के माध्यमों से बेशुमार कमाई वाला धंधा बन चुका है।
आज जो टीवी चैनल निर्मल बाबा के मामले में डिस्क्लेमर दे रहे हैं, क्या वह यह शपथ भी ले सकते हैं कि बात चाहे धर्म के धंधे की हो या रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाले ऐसे सामान बनाने वाली कंपनियों की जो झूठ का सहारा लेकर अपनी तिजोरियां भर रहे हैं और लोगों की जिंदगी से व उनकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं, उनका विज्ञापन हम नहीं लेंगे।
अगर कोई टीवी चैनल इस दिशा में ठोस कदम उठाता है तो उसे निर्मल बाबा जैसों पर उंगली उठाने का पूरा हक है अन्यथा वह भी उतने ही जिम्मेदार हैं जितना कि निर्मल बाबा या उसके जैसे तमाम दूसरे धर्म के कारोबारी।
अपने ही चैनल पर अपने बचाव में कुछ भी कह देने या लिख देने से उनकी जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती। जिम्मेदारी निभानी है तो कथनी और करनी का भेद मीडिया को भी मिटाना होगा।
जनता सब जानती है। वह मीडिया के वर्तमान गोरखधंधे से भी अनभिज्ञ नहीं है। यकीन न हो तो उन्हीं सोशल साइट्स पर आ रहे कमेंट्स पढ़ लीजिये जिनके कारण मीडिया निर्मल बाबा के खिलाफ अभियान चलाने पर मजबूर हुआ। वो भी तब जबकि अब तक निर्मल बाबा द्वारा मारी जा रही मलाई का विज्ञापनों के नाम पर हिस्सेदार बना हुआ था।
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