शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

क्या ब्लैकमेल हो रहे हैं मुलायम सिंह ?

स्पष्ट बहुमत पा जाने के बावजूद समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव क्या अपनी ही पार्टी के कुछ नेताओं से ब्लैकमेल हो रहे हैं ?
क्या मुलायम सिंह का मुस्लिम प्रेम अब खुद उन पर भारी पड़ने लगा है?
ऐसी स्थि‍ति में क्या मुलायम सिंह और उनके आसपास अब तक साये की तरह मंडराने वाले तथाकथित पार्टी हितैषी नेता अखिलेश यादव की उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की मंशा पर पानी नहीं फेर देंगे ? 
उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत पाने से उत्साहित मुलायम सिंह का अब 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रदेश की सभी सीटें जीतने का सपना क्या सपना बनकर ही रह जायेगा ? 
ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो उत्तर प्रदेश के मात्र एक महीने के शासनकाल में ही सपा और उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव को लेकर उठ खड़े हुए हैं।
सर्वविदित है कि उम्मीद से परे जब यूपी में समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के स्पष्ट‍ संकेत आने लगे तो सबसे पहले मुख्यमंत्री पद को लेकर कयासों का दौर बाहर की जगह पार्टी के अंदर से लगाया जाने लगा।
पार्टी का एक धड़ा जिसका नेतृत्व आजम खां कर रहे थे, अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाये जाने के पक्ष में नहीं था जबकि मुलायम सिंह की प्रबल इच्छा थी कि वह अखिलेश की मेहनत का ईनाम उन्हें  मुख्यंमंत्री का ताज पहनाकर दें।
अखिलेश भी पार्टी के अंदर चल रही इस रस्साकशी से भलीभांति परिचित थे और इसीलिए वह अंत तक यह कहते रहे कि सीएम प्रोजेक्ट करने का अधिकार नेताजी को है और वही इस पर फैसला लेंगे।
इसके बाद जब मुख्यमंत्री पद को लेकर पार्टी की मीटिंग हुई तो साफ हो गया था कि आजम खां और उनके समर्थन में खड़े मुलायम सिंह के ही कुछ परिवारीजन कतई नहीं चाहते थे कि अखिलेश को मुख्यिमंत्री की गद्दी सौंपी जाए पर पार्टी की युवा ब्रिगेड तथा खुद मुलायम चाहते थे कि मुख्यमंत्री अखिलेश ही बनें।
मुलायम सिंह के सामने खड़े हुए इस धर्मसंकट को सुलझाने की जो कवायद शुरू हुई, उसी ने मुलायम को वो सब करने पर बाध्य कर दिया जिसे ब्लैकमेलिंग भी कहा जा सकता है और जिसके कारण जावेद उस्मानी जैसे कट्टरवादी सोच वाले आईएएस अफसर को चीफ सेक्रेटी का पद नवाजा गया।    
पार्टी के ही सूत्रों का कहना है कि जिस समय मुख्यनमंत्री के पद को लेकर मुलायम सिंह और आजम खां में एकराय नहीं बन पा रही थी तब आजम खां ने बड़ी चतुराई के साथ जावेद उस्मानी का नाम चीफ सेक्रेटी के लिए सामने रखा जिस पर मोहर लगाना मुलायम सिंह की मजबूरी बन चुका था।
दरअसल आजम खां जानते थे कि अंतत: अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने पर उन्हें सहमति तो देनी पड़ेगी लिहाजा उन्होंने जावेद उस्मानी को चीफ सेक्रेटी बनवाकर तुरुप का इक्का अपने हाथ में कर लिया। उल्लेखनीय है कि जावेद उस्मानी उत्तर प्रदेश के पहले मुस्लिम चीफ सेक्रेटी हैं और उनकी गिनती कट्टरपंथी मुस्लिम अधिकारियों में की जाती है। अपनी धार्मिक भावनाओं को लेकर वह तब भी विवादित रहे थे जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत थे।
बताया जाता है कि कचहरी ब्लालस्ट के जिन आरोपियों को बचाने की कोशिशें अखिलेश यादव सरकार ने शुरू की हैं, उनके पीछे आजम खां का दबाव व जावेद उस्मानी का दिमाग काम कर रहा है। कहने को मुलायम सिंह इसे पार्टी के घोषणापत्र में किये गये वायदों को पूरा करने के संदर्भ से जोड़ रहे हैं लेकिन हकीकत यह नहीं है।
मुलायम सिंह की समस्या यह है कि जिन मुस्लिम नेताओं के कंधों पर सवार होकर उन्होंने उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग को फतह करने का सपना संजोया था, वही अब उनके गले की हड्डी बनते जा रहे हैं।
गौरतलब है कि सपा के कद्दावर नेता आजम खां और दिल्ली  की शाही मस्जियद के पेश इमाम मौलाना अहमद बुखारी एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं देख सकते। आजम खां को तब भी मुलायम सिंह का वह कदम काफी अखरा था जब उन्होंने एक सौदेबाजी के तहत इमाम से सपा के पक्ष में मतदान करने की अपील करवाई थी। इस सौदेबाजी के कारण सपा से रशीद मसूद जैसे एक अन्य कद्दावर नेता ने भी किनारा कर लिया।
यही कारण है कि मुलायम सिंह अब आजम खां को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकते और उनकी लगभग हर बात मानने को बाध्य हैं।
आजम खां की प्रतिष्ठा का प्रश्न ही है कि लाख प्रयासों के बावजूद सपा से शाही इमाम के दामाद उमर खां को राज्य्सभा का टिकट न देकर विधान परिषद् का ऑफर दिया गया। राज्यसभा का टिकट आजम खां की सिफारिश पर मध्य प्रदेश के मुनव्वगर सलीम को दे दिया गया।
जाहिर है यह बात मौलाना अहमद बुखारी को अखरनी ही थी लिहाजा उन्होंने अपनी नाराजगी का जिक्र करते हुए मुलायम सिंह को लम्बा‍ सा खत लिखा है। हालांकि मौलाना ने अपने खत में आधी आबादी को पर्याप्त हिस्से‍दारी ना दिये जाने की बात कही है लेकिन अपनी मूल भावनाओं को भी नहीं छिपाया है।
अखिलेश यादव की ताजपोशी हुए अभी एक महीना हुआ नहीं है पर उससे पहले समाजवादी पार्टी और उसके मुस्लिम नेता उसके लिए परेशानी का कारण बनने लगे हैं।
मुलायम सिंह की दिक्कत यह है कि उनके लिए एक ओर कुंआ तो दूसरी ओर खाई वाली कहावत चरितार्थ होती प्रतीत हो रही है।
कांग्रेस के लिए उसका मुस्लिम प्रेम जहां उसके अरमानों पर पानी फेरने वाला साबित हुआ वहीं समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया मुलायम सिंह सहित सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए एक महीने से ही कम समय में गले की फांस बन चुका है।
इन हालातों में कैसे तो अखिलेश यादव जनआंकाक्षाओं को पूरा कर पायेंगे और कैसे उत्तर प्रदेश को तरक्की के उस रास्ते पर लेकर आगे बढ़ सकेंगे जिसका सब्ज़बाग उन्होंने जनता को दिखाया है।
उत्त़र प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की राह में अगर मुस्लिम प्रेम से उपजी कमजोरी आड़े आती है तो सपा के लिए उत्तर प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों पर काबिज होना तो दूर, उत्तर प्रदेश की सत्‍ता पर भी काबिज रह पाना कठिन होगा।
मुलायम सिंह और विशेष रूप से अखिलेश यादव ने यदि समय रहते अपनी कमजोरियों को दूर नहीं किया और मुस्लिमों के तथाकथित हितैषियों से ब्लैकमेल होते रहे तो पांच साल बीतते देर नहीं लगेगी। और तब सपा का हश्र वही होगा जो आज दलितों की मसीहा बनकर सत्ता पर स्थाई कब्जा करने का मुगालता पाल बैठी मायावती का हुआ है ।
याद रहे कि पांच साल पहले जब मायावती ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया था तब उन्होंने भी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने के सपने देखना शुरू कर दिया था लेकिन जिस सोशल इंजीनियरिंग के बल पर बहुमत पाया था उसे दरकिनार कर दलितों की मसीहा बनी रहीं। दलित आज भी उनके साथ हैं पर सर्वजन के किनारा करते ही वह खुद किनारे लग गईं।
आज वैसी ही परीक्षा की घड़ी मुलायम व अखिलेश के सामने है। उन्हें समझना होगा कि मुस्लिमों से प्रेम या उनके हितों को साधने का मतलब किसी एक आजम खां अथवा मौलाना इमाम अहमद बुखारी के हित साधना नहीं है।
मुस्लि मों की तरक्की के रास्ते इस बात से नहीं खुलेंगे कि आतंकवादी वारदात के आरोपियों को गलत तरीके इस्तेमाल कर बेदाग घोषित करा दिया जाए।
मुस्लि मों की तरक्की अगर होगी तो उन्हें अच्छी तालीम दिलवाकर, उनके लिए रोजी-रोजगार के समुचित अवसर उपलब्ध करवाकर ही होगी।
आतंकी वारदात के आरोपी अगर वाकई निर्दोष हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि पर्याप्त सबूतों के अभाव में न्यायपालिका से भी उन्हें न्याय जरूर मिलेगा। फिर इसके लिए दूसरे रास्ते अख्तियार करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है ? 
इस तरह के रास्ते अख्तियार करके चंद मुस्लि्म नेताओं की तुष्टि भले ही कर दी जाए लेकिन मुस्लिम समुदाय का हित नहीं किया जा सकता।
मुस्लिम समुदाय और आम जनता भी अब जानती है कि सलमान खुर्शीद, आजम खां, इमाम अहमद बुखारी, रशीद मसूद, मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन या इनके जैसे दूसरे नेता मुस्लिम कम्युनिटी का मुखौटा बेशक बना दिये जाएं परंतु मुस्लिमों के हित से इनका कोई वास्ता नहीं है। यदि ऐसा होता तो सलमान खुर्शीद की मुस्लिमों को बरगलाने की कोशिश कामयाब हो गई होती और कांग्रेस की यूपी में इतनी दुर्गति न हुई होती। लुई खुर्शीद भी शायद तब चुनाव जीत जातीं।
बेहतर होगा कि सपा मुखिया मुलायम सिंह व सूबे के मुखिया अखिलेश इस तल्ख सच्चाई को समझ लें वरना मुस्लिम समुदाय भी जानता है कि ब्लैकमेल होने और ब्लैकमेल करने वाले दोनों ही उसके कभी हितैषी नहीं हो सकते।
वह किसी एक जावेद उस्मानी को तो ऊंचे ओहदे पर निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैठवा सकते हैं लेकिन आधी आबादी की बदहाली दूर नहीं करा सकते।

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