''नेहरू एक
जीवनी'' में एक जगह लिखा है कि ''जब जनता की सहनशक्ित जवाब दे जाती है तब
उसके क्रोध से ज्यादा पवित्र, न्यायसंगत और भयंकर कुछ नहीं होता''।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार लगता है कि अपने ही आदर्श पुरुष और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनकी इस सोच को भुला चुकी है।
वैसे तो स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस देश के शासक कभी जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे लेकिन आज जितने बदतर हालात भी कभी नहीं रहे। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अब तक शायद लोगों की उम्मीद कायम थी। उन्हें लगता था कि आज नहीं तो कल स्थितियां जरूर बदलेंगी और एक नया सवेरा होगा। सही मायनों में स्वतंत्रता के अहसास का सवेरा। लेकिन आज यह उम्मीद धुंधली होने लगी है।
स्वतंत्रता मिले 65 साल होने को आये किंतु ऐसा लगता है कि हम जहां से चले थे, आज तक वहीं खड़े हैं।
एक प्रश्न बड़ी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या वाकई भारत ने तरक्की की है, क्या हम तरक्की कर रहे हैं ?
या फिर किसी षड्यंत्र के तहत तरक्की का मात्र ढोल पीटा जा रहा है ?
कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए ''फूट डालो और राज करो'' की नीति पर अमल किया।
अंग्रेज तो चले गये लेकिन उनकी नीति पर अमल जारी है। सच तो यह है कि उनसे एक कदम और आगे जाकर हमारे शासकों ने जनता को ''आर्थिक स्टेटस'' के ऐसे जाल में उलझा दिया है कि किसी को देश में व्याप्त समस्याओं पर गौर करने की फुर्सत ही नहीं है। देश की बात तो दूर अपने जिले, शहर और यहां तक कि पड़ोसी की समस्या से कोई लेना-देना नहीं रहा। ''उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों'' की तर्ज पर हर आदमी केवल इसमें लगा है कि मेरे पास वह सब क्यों नहीं जो दूसरों के पास है। पूरा देश न सिर्फ जाति, धर्म, संप्रदाय, ऊंच-नीच व भाई-भतीजावाद में बंटा है बल्िक एक अंधी दौड़ में शामिल है।
महंगाई आसमान छू रही है। अपराध और अपराधियों की परिभाषा बदल चुकी है। किसी के लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल है और कोई सुबह से शाम तक पैसा फूंकने का बहाना तलाशता रहता है।
तमाम विसंगतियों के चलते किसी के लिए न्याय तक मयस्सर नहीं है तो किसी के लिए सब-कुछ उसकी चौखट पर उपलब्ध है।
माननीयों का यात्रा खर्च सैंकड़ों करोड़ बैठता है और गरीबी को 26 रुपये रोज से कम की कमाई पर परिभाषित किया जाता है।
एक बड़ा तबका अनाज को तरस रहा है लेकिन जगह के अभाव व बोरियों की कमी के कारण वही अनाज खुले में सड़ रहा है। किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य दलालों, बिचौलियों और मुनाफाखोरों के कारण मिलता नहीं है पर सरकारी तंत्र मौज कर रहा है।
चीनी के निर्यात पर लगा प्रतिबंध कृषि मंत्री के दबाव में इसलिए हटा लिया जाता है क्योंकि उनकी अपनी कई चीनी मिलें हैं नतीजतन चीनी एकसाथ महंगी हो जाती है। पेट्रोलियम उत्पाद दुनियाभर के मुल्कों की तुलना में यहां सर्वाधिक महंगे होने के बावजूद कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने की आड़ लेकर उन्हें और महंगे किये जाने की तैयारी कर ली जाती है किंतु विपक्ष हाथ पर हाथ रखे बैठा है।
वह सांसदों के बावत की गई टिप्पणी को संसद का अपमान घोषित करने की बेशर्म दलील से सत्तापक्ष के साथ सहमति जताता है पर जनभावनाओं से सहमत नहीं होता।
नित-नये आयाम छूने वाले भ्रष्टाचार ने विश्वभर में देश की छवि को प्रभावित किया है लेकिन हमारे शासक तमाशबीन बने ताली पीट रहे हैं।
सेना से लेकर खजाना तक खोखली तरक्की की कहानी कह रहा है पर हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाये बैठे हैं।
नक्सलियों के आगे आये दिन घुटने टेकने वाली हमारी सरकारों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि ऐसे हालात पैदा क्यों हुए।
हज सब्सिडी जैसे जिन मामलों को सरकारी स्तर पर हल कर लेना चाहिए था, उन पर देश की सर्वोच्च अदालत को फैसला सुनाना पड़ रहा है।
जिस ओर देखो उस ओर अव्यवस्था का आलम है। राज्य सरकारें केन्द्र की योजनाओं से सहमत नहीं हैं और केन्द्र राज्यों के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है।
ऐसा लगता है जैसे पूरा तंत्र अलग-अलग खेमों में बंटा हुआ है और इसलिए अमेरिकी विदेश मंत्री को जिन मुद्दों पर केन्द्र सरकार से बात करनी चाहिए, वह सीधे राज्य सरकारों से रूबरू हो रही हैं। देश के नेताओं को अपने-अपने अहम् में यह तक भान नहीं रहा कि इस तरह के विदेशी क्रिया-कलाप देश की संप्रभुता के लिए चुनौती हैं।
नेताओं के बीच केवल एक प्रतिस्पर्धा दिखाई देती है और वह यह कि इस देश को जितना ज्यादा लूटा जा सके, लूट लो। कालेधन और भ्रष्टाचार पर बोलने वालों से नेताओं की जमात क्यों इतना चिढ़ जाती है, इसे कौन नहीं जानता। कौन नहीं समझ रहा कि वर्तमान सरकार का रवैया तानाशाही का प्रतीक है। बात चाहे महंगाई की हो या भ्रष्टाचार की, वह केवल अपना बचाव करती ही दिखाई देती है। सत्ता मद में चूर नेता जनभावनाओं की जमकर उपेक्षा कर रहे हैं।
कई बार यह लगता है कि देश केवल भ्रष्टाचार के अलावा किसी दूसरे क्षेत्र में तरक्की नहीं कर रहा और इस तरक्की का लाभ केवल सरकार व सरकारी तंत्र उठा रहा है। बाकी सारा देश तो बस इस स्िथति का खामियाजा भुगत रहा है।
जो भी हो, पर सत्ता को रिमोट से संचालित करने वाले नेहरू व फिरोज गांधी के वंशजों सहित विपक्ष की तथाकथित भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दलों को एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ''नेहरू एक जीवनी'' में उद्धृत शब्द किसी भी समय हकीकत का रूप ले सकते हैं और तब उनका भी वैसा हाल हो सकता है जिसका उदाहरण जनता ने अपने निरंकुश शासकों एवं नपुंसक विपक्षियों के सामने समय-समय पर प्रस्तुत किया है।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार लगता है कि अपने ही आदर्श पुरुष और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनकी इस सोच को भुला चुकी है।
वैसे तो स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस देश के शासक कभी जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे लेकिन आज जितने बदतर हालात भी कभी नहीं रहे। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अब तक शायद लोगों की उम्मीद कायम थी। उन्हें लगता था कि आज नहीं तो कल स्थितियां जरूर बदलेंगी और एक नया सवेरा होगा। सही मायनों में स्वतंत्रता के अहसास का सवेरा। लेकिन आज यह उम्मीद धुंधली होने लगी है।
स्वतंत्रता मिले 65 साल होने को आये किंतु ऐसा लगता है कि हम जहां से चले थे, आज तक वहीं खड़े हैं।
एक प्रश्न बड़ी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या वाकई भारत ने तरक्की की है, क्या हम तरक्की कर रहे हैं ?
या फिर किसी षड्यंत्र के तहत तरक्की का मात्र ढोल पीटा जा रहा है ?
कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए ''फूट डालो और राज करो'' की नीति पर अमल किया।
अंग्रेज तो चले गये लेकिन उनकी नीति पर अमल जारी है। सच तो यह है कि उनसे एक कदम और आगे जाकर हमारे शासकों ने जनता को ''आर्थिक स्टेटस'' के ऐसे जाल में उलझा दिया है कि किसी को देश में व्याप्त समस्याओं पर गौर करने की फुर्सत ही नहीं है। देश की बात तो दूर अपने जिले, शहर और यहां तक कि पड़ोसी की समस्या से कोई लेना-देना नहीं रहा। ''उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों'' की तर्ज पर हर आदमी केवल इसमें लगा है कि मेरे पास वह सब क्यों नहीं जो दूसरों के पास है। पूरा देश न सिर्फ जाति, धर्म, संप्रदाय, ऊंच-नीच व भाई-भतीजावाद में बंटा है बल्िक एक अंधी दौड़ में शामिल है।
महंगाई आसमान छू रही है। अपराध और अपराधियों की परिभाषा बदल चुकी है। किसी के लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल है और कोई सुबह से शाम तक पैसा फूंकने का बहाना तलाशता रहता है।
तमाम विसंगतियों के चलते किसी के लिए न्याय तक मयस्सर नहीं है तो किसी के लिए सब-कुछ उसकी चौखट पर उपलब्ध है।
माननीयों का यात्रा खर्च सैंकड़ों करोड़ बैठता है और गरीबी को 26 रुपये रोज से कम की कमाई पर परिभाषित किया जाता है।
एक बड़ा तबका अनाज को तरस रहा है लेकिन जगह के अभाव व बोरियों की कमी के कारण वही अनाज खुले में सड़ रहा है। किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य दलालों, बिचौलियों और मुनाफाखोरों के कारण मिलता नहीं है पर सरकारी तंत्र मौज कर रहा है।
चीनी के निर्यात पर लगा प्रतिबंध कृषि मंत्री के दबाव में इसलिए हटा लिया जाता है क्योंकि उनकी अपनी कई चीनी मिलें हैं नतीजतन चीनी एकसाथ महंगी हो जाती है। पेट्रोलियम उत्पाद दुनियाभर के मुल्कों की तुलना में यहां सर्वाधिक महंगे होने के बावजूद कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने की आड़ लेकर उन्हें और महंगे किये जाने की तैयारी कर ली जाती है किंतु विपक्ष हाथ पर हाथ रखे बैठा है।
वह सांसदों के बावत की गई टिप्पणी को संसद का अपमान घोषित करने की बेशर्म दलील से सत्तापक्ष के साथ सहमति जताता है पर जनभावनाओं से सहमत नहीं होता।
नित-नये आयाम छूने वाले भ्रष्टाचार ने विश्वभर में देश की छवि को प्रभावित किया है लेकिन हमारे शासक तमाशबीन बने ताली पीट रहे हैं।
सेना से लेकर खजाना तक खोखली तरक्की की कहानी कह रहा है पर हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाये बैठे हैं।
नक्सलियों के आगे आये दिन घुटने टेकने वाली हमारी सरकारों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि ऐसे हालात पैदा क्यों हुए।
हज सब्सिडी जैसे जिन मामलों को सरकारी स्तर पर हल कर लेना चाहिए था, उन पर देश की सर्वोच्च अदालत को फैसला सुनाना पड़ रहा है।
जिस ओर देखो उस ओर अव्यवस्था का आलम है। राज्य सरकारें केन्द्र की योजनाओं से सहमत नहीं हैं और केन्द्र राज्यों के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है।
ऐसा लगता है जैसे पूरा तंत्र अलग-अलग खेमों में बंटा हुआ है और इसलिए अमेरिकी विदेश मंत्री को जिन मुद्दों पर केन्द्र सरकार से बात करनी चाहिए, वह सीधे राज्य सरकारों से रूबरू हो रही हैं। देश के नेताओं को अपने-अपने अहम् में यह तक भान नहीं रहा कि इस तरह के विदेशी क्रिया-कलाप देश की संप्रभुता के लिए चुनौती हैं।
नेताओं के बीच केवल एक प्रतिस्पर्धा दिखाई देती है और वह यह कि इस देश को जितना ज्यादा लूटा जा सके, लूट लो। कालेधन और भ्रष्टाचार पर बोलने वालों से नेताओं की जमात क्यों इतना चिढ़ जाती है, इसे कौन नहीं जानता। कौन नहीं समझ रहा कि वर्तमान सरकार का रवैया तानाशाही का प्रतीक है। बात चाहे महंगाई की हो या भ्रष्टाचार की, वह केवल अपना बचाव करती ही दिखाई देती है। सत्ता मद में चूर नेता जनभावनाओं की जमकर उपेक्षा कर रहे हैं।
कई बार यह लगता है कि देश केवल भ्रष्टाचार के अलावा किसी दूसरे क्षेत्र में तरक्की नहीं कर रहा और इस तरक्की का लाभ केवल सरकार व सरकारी तंत्र उठा रहा है। बाकी सारा देश तो बस इस स्िथति का खामियाजा भुगत रहा है।
जो भी हो, पर सत्ता को रिमोट से संचालित करने वाले नेहरू व फिरोज गांधी के वंशजों सहित विपक्ष की तथाकथित भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दलों को एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ''नेहरू एक जीवनी'' में उद्धृत शब्द किसी भी समय हकीकत का रूप ले सकते हैं और तब उनका भी वैसा हाल हो सकता है जिसका उदाहरण जनता ने अपने निरंकुश शासकों एवं नपुंसक विपक्षियों के सामने समय-समय पर प्रस्तुत किया है।
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