सोमवार, 21 मई 2012

सद्दाम और गद्दाफी के देसी संस्‍करण

क्‍या आप बता सकते हैं कि अब इतिहास के काले अध्‍याय में तब्‍दील इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन, लीबिया के शासक कर्नल गद्दाफी और यूपी की पूर्व सीएम व बसपा सुप्रीमो मायावती में कौन सी समानताएं हैं?
थोड़ा अपने दिमाग पर जोर डालिये तो लगेगा कि जवाब बहुत आसान है।
जनसूचना अधिकार कानून के जरिये हाल ही में हुए खुलासे से पता लगा है कि मायावती ने अपने आलीशान बंगलों की साज-सज्‍जा पर करीब 216 करोड़ रुपये फूंक दिये। ये रकम भी वो है, जो सरकारी आंकड़े बता रहे हैं। वास्‍तव में यह रकम इससे कहीं बहुत ज्‍यादा बताई जा रही है।
इसी प्रकार मायावती ने अपने शासन काल में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करके यूपी के नोएडा तथा राजधानी लखनऊ में जो पार्क बनवाये, उनमें अपनी और अपने मान्‍यवर कांशीराम की आदमकद मूर्तियां स्‍थापित कराईं।
इस सबके अलावा मायावती का नाम आज देश की उन राजनीतिक हस्‍तियों में शुमार होता है जिनके पास अकूत पैसा जमा है। वो भी तब जबकि वह दलित की बेटी हैं और बेहद तंगहाली में जीने वाले तबके से आती हैं। मायावती के फर्श से अर्श तक पहुंचने की कहानी के साथ-साथ, उनकी सम्‍पत्‍ति भी आज चर्चा का विषय बनी हुई है और आय से अधिक सम्‍पत्‍ति का मामला कोर्ट में विचाराधीन है।
अब इसे इत्‍तिफाक कहिए या एक जैसी सोच कि आज जो शौक मायावती को हैं, कभी वैसे ही सारे शौक सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी को भी हुआ करते थे।
इन दोनों तानाशाहों ने अपने-अपने मुल्‍कों को लूटकर न केवल बेहिसाब पैसा जमा किया बल्‍िक अनगिनित मूर्तियां भी लगवायीं। बाद में उनकी मूर्तियों का भी वही हश्र हुआ, जो खुद उनका किया गया। दोनों ही आवाम के क्रोध का शिकार बने। एक को जनता ने अमेरिका के सुपुर्द कर दिया और दूसरे को अपने हाथों से सजा दे दी। अमेरिका ने भी सद्दाम पर मुकद्दमा चलाने की औपचारिकता भर निभाई अन्‍यथा नतीजा तो पहले से तय था।
मायावती के ऐसे आचरण पर जब कभी कोई कुछ कहता है तो वो स्‍वयं और उनके हिमायती कहते हैं कि दलित विरोधी मानसिकता के लोग तथा मनुवादी तबका उनसे ईर्ष्‍या रखता है इसलिए ऐसा कहता है। दलितों की तरक्‍की उन्‍हें रास नहीं आती...आदि-आदि।
मैं यहां उदाहरण प्रस्‍तुत करूंगा भारत की पहली संसद के चंद जीवित सदस्यों में से एक रेशमलाल जांगड़े का। जांगड़े भी दलित समाज से ताल्‍लुक रखते हैं।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए बनाये गये जनता क्वार्टर में रहने वाले 88 साल के रेशमलाल जांगड़े पहली बार 1950 में सांसद मनोनीत हुए थे.
इसके बाद 1952 में उन्होंने बिलासपुर से चुनाव जीता और देश की पहली लोकसभा के सदस्य बने. 1957 और 1989 में भी वे सांसद चुने गए. इस दौरान वे दो बार मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी बने.
वे लगभग 55 साल से भी अधिक समय तक राजनीति में सक्रिय रहे।
अब लोकसभा के 60 साल पूरे होने पर 13 मई को संसद के सेंट्रल हॉल में उनका सम्मान किया जाएगा.
वह इस सम्‍मान के पूरी तरह हकदार हैं। क्‍यों, जरा गौर करें और फिर खुद तय कर लें।
अपनी पूरी जिंदगी किसी फकीर की तरह गुजार देने और सांसद एवं विधायक रहते हुए भी किराए के मकान में ही रहने वाले रेशमलाल जांगड़े से जब यह पूछा गया कि आपने इतने लम्‍बे समय तक राजनीति में रहते हुए पैसे नहीं कमाए?
इस पर 88 साल के रेशमलाल जांगड़े का जवाब था- ''मैं पैसे किस काम के लिए कमाता. किसके लिए पैसे बटोरता? मैं राजनीति में लोगों की भावनाओं को उजागर करने के लिए आया. लोगों पर जो अत्याचार होता है, उसे प्रकाश में लाने के लिए आया. मैं भ्रष्टाचार क्यों करता ?”
रेशमलाल जांगड़े कहते हैं कि मुझे किसी बात का कोई अफसोस नहीं है. मैं निश्चिंत और खुश रहता हूं.
“ईमानदारी से जीये हैं और ईमानदारी से मरेंगे. ऐसा तो नहीं कह सकता कि हमने चदरिया जतन से ओढ़ी लेकिन चादर से जितना ढकते बना, सबको ढकने की कोशिश की.”
लोग उनके पास अब भी समस्याओं को लेकर आते हैं और वे उनकी समस्याओं को यथासंभव सुलझाने की कोशिश करते हैं.
वे कहते हैं, “मैं थकना नहीं जानता.”
वैसे मायावती इस देश की अकेली ऐसी नेता नहीं हैं जिनके शौक और पैसे के प्रति उनकी हवस ने लोगों का ध्‍यान अपनी ओर खींचा हो। किसी जमाने में इंदिरा गांधी ने भी खुद को भारत मां के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश की थी। शेर पर सवार उनकी प्रतिमा बनाकर उन्‍हें देवी घोषित करने का प्रयास भी किया गया था।
कुछ इसी तरह कभी गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेन्‍द्र मोदी को तो कभी कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी को चित्रों के माध्‍यम से देवी व देवता ही नहीं, भगवान का दर्जा देने की कोशिश की जाती है और इनके द्वारा इसका विरोध नहीं किया जाता जो इस बात की पुष्‍टि करता है कि कहीं न कहीं इस कृत्‍य को लेकर उनकी सहमति होती है।
देश आज जिन भयावह हालातों से गुजर रहा है, जिस तरह का वातावरण चारों ओर व्‍याप्‍त है, उसे देखकर आमजन का निराश होना स्‍वाभाविक है।
देश का कोई हिस्‍सा ऐसा नहीं है जो समस्‍याग्रस्‍त न हो। जहां के नेताओं से वहां की जनता संतुष्‍ट हो।
सवा अरब की आबादी वाले देश में नेता के नाम पर एक चेहरा ऐसा नजर नहीं आता जिसमें जनता को आशा की किरण दिखाई देती हो।
नेता ही क्‍यों, लोकतंत्र का दूसरा महत्‍वपूर्ण अंग ब्‍यूरोक्रेसी भी लूट-खसोट में पीछे नहीं है। मध्‍य प्रदेश में मामूली से सरकारी कर्मचारियों के पास करोड़ों की सम्‍पत्‍ति का बरामद होना इसका सबूत है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि एकमात्र न्‍यायपालिका ही देश को यथासंभव चलवा रही है वर्ना कुछ शेष नहीं रहा। हालांकि न्‍यायपालिका की सक्रियता भी उन्‍हीं मामलों में सामने आती है जो किसी कारण चर्चा का विषय बन जाते हैं। आमजन के लिए न्‍याय पाना उतना ही कठिन है जितना नेताओं की सम्‍पत्‍ति का आंकलन करना।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे मायावती, सद्दाम व कर्नल गद्दाफी के बीच समानता की, लिहाजा इसे खत्‍म भी इसी पर करते हैं।
सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी मूर्तियां भी शेष नहीं हैं। मायावती और उनकी मूर्तियां पूरी भव्‍यता के साथ विद्यमान हैं। यह तो तय है कि एक दिन उन्‍हें भी इतिहास का हिस्‍सा बनना होगा। उसका रूप चाहे जो हो।
मायावती ही क्‍यों, उन तमाम नेताओं को भी एक न एक दिन इतिहास के पन्‍नों में समा जाना है, जो आज अपनी तिजोरियां भरने में लगे हैं। जिन्‍हें न तो आत्‍महत्‍या करते हुए किसान दिखाई दे रहे और ना उनके द्वारा पैदा किया हुआ वो अन्‍न जो सड़ तो रहा है पर गरीब का निवाला नहीं बन रहा।

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