बुधवार, 6 जून 2012

12 हजार करोड़ की संपत्ति और 10 जून

गरीब तबके के लोगों को ''टाट'' पहनाकर ''कलियुग'' में ''सतयुग'' आने का सब्‍ज़बाग दिखाने वाले बाबा जयगुरुदेव उर्फ तुलसीदास ने इस दुनिया से कूच क्‍या किया, उनके द्वारा अर्जित की गई करीब बारह हजार करोड़ रुपये की सम्‍पत्‍ति अब बड़े विवाद और कलह का कारण बन गई है।
सम्‍पत्‍ति पर दावा करने वालों में एक ओर पंकज यादव नामक वह युवक है जिसकी पहचान कल तक मात्र उनके ड्राइवर बतौर थी जबकि दूसरी ओर उमाकांत तिवारी नामक शख्‍स है जिसके समर्थकों का कहना है कि तिवारी को ही बाबा ने अपना उत्‍तराधिकारी और नामदान का अधिकारी घोषित किया था।
सफेद रंग से बेइंतहा लगाव रखने वाले बाबा जयगुरुदेव ने अपने भक्‍तों को बेशक टाट पहनवाया पर खुद हमेशा मुलायम मलमल धारण किया। सफेद रंग से उनके लगाव का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि लगभग 250 गाड़ियों के उनके बेड़े की कोई गाड़ी रंगीन नहीं है। इन गाड़ियों में लिमोजीन से लेकर मर्सडीज तक शामिल हैं। बाबा के पास निजी हैलीकॉप्‍टर भी है जिसका उपयोग बाबा के अलावा विभिन्‍न राजनेता भी समय-समय पर करते रहे हैं।
यही नहीं, बाबा द्वारा नेशनल हाईवे-2 पर मथुरा में नाम योग साधना मंदिर के नाम से सर्वधर्म समभाव को प्रदर्शित करने वाली जो इमारत खड़ी की गई, उसका निर्माण भी धवल मकराना पत्‍थर से कराया गया है।
यहां यह बता देना जरूरी है कि पारदर्शिता और सफेद रंग के हिमायती बाबा जयगुरुदेव का अपना जीवन न केवल रहस्‍यमयी रहा बल्‍िक उन पर जमीन कब्‍जाने तथा उद्योगपतियों को भयभीत कर उन्‍हें बर्बाद करने जैसे आरोपों की कालिख हमेशा लगती रही। बाबा पर लगे आरोपों का विवाद आज भी न्‍यायालयों में लंबित है। शायद यही वजह थी कि बाबा जयगुरुदेव को कृष्‍ण की इस भूमि में वह सम्‍मान कभी हासिल नहीं हुआ जो देशभर में फैले उनके अनुयायियों के बीच था जबकि बाबा ने अपनी सारी संपदा और समस्‍त वैभव का केन्‍द्र मथुरा को ही बनाया।
मूल रूप से इटावा जनपद के बकेवर थाना क्षेत्र अंतर्गत गांव खितौरा निवासी बाबा जयगुरुदेव के पिता का नाम रामसिंह था। बाबा पर उनके गृह जनपद ही नहीं,  लखनऊ में भी आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हुए और उनमें सजा हुई। मुकद्दमा अपराध संख्‍या 226 धारा 379 थाना कोतवाली इटावा के तहत बाबा को 13 अक्‍टूबर सन् 1939 में छ: माह के कारावास की सजा हुई। इसके बाद लखनऊ के थाना वजीरगंज में अपराध संख्‍या 318 धारा 381 के तहत 25 नवम्‍बर सन् 1939 को डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। 
इसके अलावा एक सभा के दौरान बाबा द्वारा एक बार खुद को नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस के रूप में प्रस्‍तुत करने पर भारी अपमान का सामना करना पड़ा और आपातकाल में जेल की हवा भी खानी पड़ी। हालांकि वोट बैंक की राजनीति के चलते बाद में इंदिरा गांधी तक बाबा के दर पर आने को मजबूर हुईं।
दरअसल जैसे-जैसे बाबा का जनाधार बढ़ता गया वैसे-वैसे उनकी महत्‍ता बढ़ती गई। मथुरा में विभिन्‍न अवसरों पर बाबा के यहां लगने वाले मेलों के दौरान भक्‍तों या अनुयायियों का संख्‍याबल इतना ज्‍यादा हो गया कि बाकी सारे बल उसके सामने कमजोर पड़ गये। फिर चाहे बात कानून की हो या कानून के रखवालों की। बाबा के भक्‍तों की दबंगई उनके हर आयोजन में दिखाई देती थी। नेशनल हाईवे को अवरुद्ध करके किये जाने वाले इन मेलों में समूची यातायात व्‍यवस्‍था बाबा के भक्‍त खुद संभालते थे और जिला प्रशासन मूकदर्शक बना रहता था। बाबा के भक्‍तों के लिए दुकानों से लेकर तंबू तक और पार्किंग से लेकर रैन बसेरा तक सब-कुछ नेशनल हाईवे पर होता था। लेकिन क्‍या मजाल कि कोई विरोध कर सके। जाहिर है कि ऐसे में आमजन तो सिर्फ रियाया बनकर रह जाता है और उसकी आवाज नक्‍कारखाने में तूती से अधिक साबित नहीं होती।
अपनी ही जमीन में पैदा की गई मूली और गन्‍ने को प्रसाद के रूप में वितरित करने वाले जयगुरुदेव अपने हर मेले में दहेज रहित सामूहिक विवाहों का भी आयोजन कराते थे। यह बात दीगर है कि उनका यह आयोजन भी निर्विवाद नहीं रहा। उस पर जबरन शादी कराने तथा शादी के बाद विवाद उत्‍पन्‍न होने जैसे आरोप भी लगते रहे। पता नहीं यह कैसा धर्म था और कैसे धार्मिक आयोजन जिनसे हर वो व्‍यक्‍ित खौफ़ज़दा रहता था जिसका वास्‍ता इससे पड़ता था। बाबा के भक्‍तों की मानें तो वह मात्र खेरीज कहलाने वाले सिक्‍के ही झोली फैलाकर लेते थे और उनके शिष्‍यों में गरीब तबका अधिक था। उनके कहने का आशय यह है कि बाबा ने दूसरे नामचीन संत-महात्‍माओं या मठाधीशों की तरह कभी कोई बड़ी धनराशि दान में नहीं ली और जो कुछ अर्जित किया वह धर्म के रास्‍ते पर चलकर ही किया।
अब यहां एक महत्‍वपूर्ण सवाल यह पैदा होता है कि यदि बाबा द्वारा अर्जित बारह हजार करोड़ की अनुमानित धनराशि पूर्णत: पवित्र है तो फिर उसके लिए आज उनके ही तथाकथित उत्‍तराधिकारी एक-दूसरे की जान के दुश्‍मन क्‍यों बन बैठे हैं और क्‍यों उस पर काबिज होने के लिए परस्‍पर खून के प्‍यासे बने हुए हैं।
बाबा के आश्रम में व्‍याप्‍त भयावह सन्‍नाटे के सुर और किसी बड़े अनिष्‍ट से डरे-सहमे उनके शिष्‍यों की मानें तो बाबा की सम्‍पत्‍ति पर आधिपत्‍य की लड़ाई बेशक सार्वजनिक उनके दिवंगत होने के बाद हुई हो लेकिन शुरू तभी हो गई थी जब बाबा के शरीर ने उनका साथ देना कम कर दिया था। बाबा पर उम्र और बीमारी जब हावी होने लगीं तो उनके इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोगों ने उन्‍हें एक तरह से बंधक बना लिया था। आश्रम के ही अंदरूनी और भरोसेमंद सूत्र बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से तो बाबा पूरी तरह असहाय हो गये थे। उन्‍हें अपनी इच्‍छा से कुछ नहीं करने दिया जाता था।
यहां तक कि मेलों के दौरान भी उन्‍हें अच्‍छी-खासी ऊंचाई पर बैठाकर किसी सजावटी वस्‍तु की तरह इस्‍तेमाल किया जाता था।
बाबा के आश्रम से छन-छन कर आ रही बातों की सच्‍चाई जो भी हो लेकिन धर्म के नाम पर एकत्र की गई अकूत सम्‍पत्‍ति का विवाद यह तो साबित करता है कि धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के जीवन का सच वैसा नहीं होता जैसा प्रचारित किया जाता है।
बाबा जयगुरुदेव इस मामले में न तो अकेले हैं और न अपवाद कहे जा सकते हैं। योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली का गौरव प्राप्‍त ब्रजभूमि ऐसे तमाम तथाकथित संत-महंतों से भरी पड़ी है जिनके द्वारा अर्जित सम्‍पत्‍ति उनकी मृत्‍यु के बाद विवाद का कारण बनी। पागल बाबा से लेकर देवराह बाबा तक इसके अनेक उदाहरण हैं।
अब देखना यह है कि 10 जून को जब बाबा के उत्‍तराधिकार को लेकर उमाकांत तिवारी मथुरा में बाबा की गद्दी पर काबिज पंकज यादव को चुनौती देने आयेंगे तब स्‍थितियां कौन सी करवट लेंगी। फिलहाल तो सभी को 10 जून का इंतजार है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया बताते चलें कि ये पोस्‍ट कैसी लगी ?

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...